बाल हठ

दीपक शर्मा (अंक: 233, जुलाई द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

उन दिनों मेरे पिता एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ट्रक ड्राइवर थे और उस दिन मालिक का सोफ़ा-सेट उसके मकान में पहुँचाने के लिए उनके ट्रक पर लादा गया था। मकान में उसे पहुँचाते समय उन्होंने अहाते से मुझे अपने साथ ले लिया। अहाता भी इसी मालिक का था जहाँ उसके मातहत रहा करते। 

”मुकुन्द?” मालिक के फाटक पर तैनात रामदीन काका ने मुझे देखकर संदेह प्रकट किया। 

हम अहाते वालों को मकान में दाख़िल होने की आज्ञा नहीं थी। 

”बालक है। बाल-मन में मालिक का मकान अंदर से देखने की इच्छा उठी है,” आठवें वर्ष की मेरी उस आयु में मेरे पिता मेरा कोई भी कहाँ बेकहा नहीं जाने देते। और उन दिनों मुझ पर इस मकान का भूत सवार था। 

”ठीक है,” रामदीन काका ने फाटक से सटे अपने कक्ष के टेलिफोन का चोंगा उठा लिया, ”मैं अंदर ख़बर कर देता हूँ मगर ध्यान रखना, मुकुन्द बराबर तुम्हारे साथ ही बना रहे। इधर-उधर अकेले घूमता हुआ कहीं न पाया जाए . . .।”

”बिल्कुल मेरे साथ ही रहेगा . . . ”

सोफ़ा-सेट मकान के परःसंगी प्रकोष्ठ में पहुँचाया जाना था और ट्रक उसके द्वार मण्डप (पोर्च) का रास्ता न पकड़कर उसकी बायीं वीथी की तरफ़ मुड़ लिया। 

ट्रक रुका तो दो टहलवे तत्काल हमारी ओर बढ़ आए। 

”फरनीचर के साथ यह कौन लाए हो?” वे उत्सुक हो लिए। 

”मेरा बेटा है . . .”

”इकलौता है? जो उसे ऐसा छैला-बांका बनाकर रखे हो?” एक टहलवा हँसा। 

”हाँ,” मेरे पिता भी हँस पड़े, ”इसकी माँ इसकी कंघी-पट्टी और कपड़ों की प्रेस-धुुलाई का ख़ूब ध्यान रखा करती है . . . ”

”कौन सी जमात में पढ़ते हो?” दूसरा टहलवा भी उत्साहित हो लिया। 

”चौथी में,” मेरे पिता ने मेरी पढ़ाई मेरे तीसरे ही साल में शुरू करवा दी थी। उस पर पढ़ाई में तेज़ होने के कारण मैं एक ’डबल प्रमोशन’ भी पा चुका था। 

”हमारे साथ अंदर जाना, अकेले नहीं,” मुझे चेताते हुए मेरे पिता ट्रक की पिछली साँकलें खोलने के लिए दूसरी दिशा में निकल लिए। साँकलें खुलते ही वे दोनों टहलुवे ट्रक की पिछली चौकी पर जा चढ़े। मेरे पिता के संग। इधर वे तीनों सोफ़ा-सेट के संग हाथ-पौर मारने में व्यस्त हुए। उधर मेरी जिज्ञासा मुझे मुख्य द्वार की ओर झाँक रही गैलरी में ले उड़ी। गैलरी उस लाॅबी में मुझे पहुँचा गयी जिसके सामने वाली दीवार में एक टीवी चल रहा था। दो उपकरण से संलग्न। बिना आवाज़ किए। 
मैं खड़े होकर टीवी देखने लगा। उस में एक साथ विभिन्न स्थलों के चित्र पर्दे पर चल-फिर रहे थे। कुछ पहचाने से और कुछ निपट अनजाने। उस समय मैं नहीं जानता था वह टीवी कोई साधारण टीवी नहीं था। सीसीटीवी था। क्लोज्ड सर्किट टेलिविजन। जो अपने से संबद्ध कम्प्यूटर के माध्यम से मालिक के मकान के प्रवेश-स्थलों पर फ़िट किए गए कैमरों द्वारा उनकी चलायमान छवियाँ बटोरने तथा उन्हें सजीव प्रदर्शित करने के प्रयोजन से वहाँ रखा गया था। 
”तू यहाँ कैसे आया?” एक हल्लन के साथ मालिक के बेटे ने मुझे आन चौंकाया। हम सभी अहाते वाले उसे ख़ूब पहचानते थे। उसकी उम्र तेरह और चैदह वर्ष के बीच की रही होगी मगर उसकी क़द-काठी ख़ूब लम्बी-तगड़ी थी। अपने छज्जे अथवा छत से हमारी ओर कंकर फेंकने का उसे अच्छा अभ्यास था। 

”आप लोग का फ़रनीचर ले कर आया हूँ,” मैं ने आधी सच्चाई बतायी। 

”फ़रनीचर वालों का बेटा है?”

”नहीं। ट्रक-ड्राइवर का . . .।”
“इस लद्दू का?” एक ठहाके के साथ उसने टीवी के एक कोने पर अपना हाथ फेरा। 

उस कोने में मेरे पिता ही थे: सजीव-सप्राण। 

मालिक के सोफ़ा-सेट की बड़ी सीट को अपने कंधों की टेक देते हुए . . . ट्रक की शैस-इ की पार्श्विक भुजा के खुले सिरे पर . . . बाहर वाले उन दो टहलुवों के संग उसे नीचे उतारने की सरगरमी के बीच . . . पिता की श्रमशीलता का व्यावहारिक एवं मूर्त रूप मैं पहली बार देख रहा था . . . उसके प्रत्यक्ष एवं ठोस यथार्थ को पूर्णरूप से पहली बार देख रहा था . . . 

”यही लद्दू तेरा बाप है?”

उसने एक और ठहाका छोड़ा। 

मेरे मुँह से ”हाँ” की जगह एक सिसकी निकल भागी। अजानी घिर आयी उस किंकर्तव्यविमूढ़ता के वशीभूत। 

”बाप लद्दू और बेटा उठल्लू?” उसके वज़नी स्पोर्टस शूज़ वाले पैर बारी-बारी से मुझे लतियाए। 

”नहीं,” मैं सहम गया। यदि उसने मुझ पर चोरी कानों पर अपने हाथ ला जमाए। 

”कुछ नहीं . . . ”

”तेरे कान नहीं मरोड़ूँ?” उसने मेरे दोनों कान ज़ोर से उमेठ दिए। 

”नहीं . . . ”

उसके साथ मेरे कानों से अलग होकर नीचे मेरे कंधों पर आन खिसके। 

”मैं बाहर जाऊँगा . . .।”

“कैसे जाएगा?” मेरे कंधे छोड़कर उसने मेरी गरदन पकड़ ली। नितांत अनिश्चित वैसी आग्रही निष्ठुरता मैंने अभी तक केवल छद्मधारणा ही में देखी-सुनी थी: अपने अहाते एवं स्कूल के अन्य जन-जीव के संग या फिर फ़िल्म एवं टीवी पर। व्यक्तिगत रूप में कभी झेली नहीं थी। बल्कि शारीरिक स्पर्श भी जब जब मुझे दूसरों से मिला था तो लाड़-प्यार ही के वेश में मिला था, हृदयग्राही एवं मनोहर। स्कूल में अध्यापकों की थपथपाहट के रूप में तो घर में माँ एवं पिता के चुम्बन अथवा आंलिगन के बझाव में। ऐसे कभी नहीं। 

”सौरी” बोलकर जा सकता हूँ? स्कूल में अध्यापक द्वारा दिए जा रहे दंड से बचने हेतु अपने सहपाठियों की युक्ति में परीक्षण में ले आया। 

”अँगरेज़ी जानता है?” उसके हाथ मेरी गरदन मोड़कर नीचे की ओर ले आए, ”फिर अपने जूते के ये अँगरेज़ी अक्षर पढ़कर बता तो . . . ”

”ए बी आई बी ए एस . . . ” घुट रहे अपने दम के साथ मैंने वे अक्षर पढ़ दिए। 

”अब मेरे जूते के अक्षर पढ़ . . . ” मेरी गरदन उसके हाथ उसके जूतों की ओर मोड़ दिए। 

”ए डी आई डी ए एस . . . ”

”बी और डी का अंतर जानता है?” उधमी उसके साथ मेरी गरदन छोड़कर मेरे बालों की माँग उलटने-पलटने लगे . . .। मेरी टी-शर्ट की आस्तीन खींचने-मरोड़ने लगे . . . मेरी निक्कर तानने-झटकने लगे . . . 

”मैं बाहर जाऊँगा,” मैंने दोहराया। 

”तू अभी नहीं जा सकता,” उसने मेरा सिर अपनी छाती से चिपका लिया, ”अभी एडीडैस और एबीबैस का अंतर तुझे समझाना बाक़ी है . . . ”

घबराकर मैंने अपनी निगाह सामने वाली टीवी पर जा जमायी। 
मालिक की बड़ी सोफ़ा-सीट गैलरी में पहुँच चुकी थी। 

”बप्पा,” मैं चिल्ला दिया। 

”मुकुन्द?” मेरे पिता तत्क्षण लौबी के दरवाज़े पर आन प्रकट हुए। 

”बप्पा,” मैं सुबकने लगा। 

मुझे उस दशा में देखकर वे आपे से बाहर हो गए। और उस पर टूट पड़े। मालिक के सत्ता-तत्व से स्वतंत्र प्रथा-प्रचलित अपने दब्बूपन के विपरीत . . . 

क़द-काठी और लम्बाई-चौड़ाई में मेरे पिता मालिक के बेटे से दुगुने तो रहे ही; मुझे उसके पंजों से छुड़ाना उनके लिए कौन मुश्किल था? 

और अगले ही पल वह ज़मीन पर ढह लिया था। 

औंधे मुँह। 

बिना अगला पल गँवाए वे मेरी ओर बढ़े और मुझे अपनी बाँहों में बटोर कर गैलरी में घुस पड़े। 

वेगपूर्वक। 

उसी गैलरी में जहाँ वह सोफ़ा-सीट इधर लाते-लिवाते बीच रास्ते रख दी गयी। उन दो टहलुवों की संगति में। जो अपने को वहीं रोक लिए थे। बुत बनकर। उनका वेग हमें जल्दी ही फाटक तक ले आया जहाँ रामदीन काका खड़े थे। 

”कहा था मैंने मुकुन्द को अकेले अंदर मत जाने देना। दुर्गति होगी,” रामदीन काका की उतावली ने मेरे पिता की हड़बड़ी को घेरने की चेष्टा की। 

”इसे अहाते पहुँचाकर अभी लौटता हूँ; बालक का बाल-हठ था, बीत गया,” मेरे पिता ने हवा में अपना वाक्य छोड़ा और आगे बढ़ आए। 

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