ईंधन की कोठरी
दीपक शर्मा
उस अनुभव के बाद ही मैंने जाना, आँख की अपेक्षा हमारे कान ज़्यादा तेज़ी दिखाते हैं।
आँख से पहले कान जान लेते हैं, घटना ने अपना विस्तार किस पल अर्जित किया।
किसी भी घटना को वे तात्क्षणिक नहीं समझते।
एकल कुछ ऐसा है जो पहले घटता है और कान के पास जा खटकता है और कान उस घटना की समय-बद्ध अवधि की अधःसीमा आँख से पहले पकड़ते हैं।
यह अनुभव सन सैंतालीस के अगस्त माह का है।
इस का सम्बन्ध अमृतसर की रहीम बख़्श रोड की तिमंज़िली उस बरकत बिल्डिंग से है जिस का एक हिस्सा हम ने अपनी रिहाइश के लिए किराए पर लिया था।
उस बिल्डिंग की दूसरी मंज़िल पर बनी उस ईंधन की कोठरी से है जिस की दिशा से एक चौपाया आकृति रात के सन्नाटे में अपनी मटरगश्ती शुरू करती और झूलती-डोलती उस की आहट गलियारे में जा लोप हो जाती।
उस फुसफुसाहट से है जो मुझे गहरी नींद से उठा कर बिठा देती: “अड़ेया, तू मैं नूं आपणे नाल खड़़ण आएंयां की? (अबे, तू मुझे अपने साथ लिवाने आया है क्या?).
पश्चिम से पूर्व पंजाब हमारा परिवार चार अलग-अलग टोलियों में, अलग-अलग ज़रिए से, अलग-अलग जगह पर, अलग-अलग रास्ते से पहुँचा था:
पैदल—नारीवाल से डेरा बाबा नानक . . .
घोड़ों पर—क़ुसूर से फ़िरोज़पुर . . .
लारियों में—मोंटगुमरी से फ़ाज़िलका और
रेलगाड़ी पर— लाहौर से अमृतसर . . .
रेलगाड़ी से आने वाले हमारे समूह में छह जन थे: मेरे पिता, मैं, मेरे छोटे मामा, मेरे मँझले मामा, उन की ईसाई पत्नी और उन का एक-वर्षीय बेटा, काका।
दिन था: 14 अगस्त, 1947
स्टेशन से निकलते ही हमें सामने ग्रीन होटल की इमारत दिखाई दे गई थी और हम वहीं रुक गए थे। फिर वहाँ के ऊँचे भाड़े व महँगे खाने को देखते हुए तीसरे ही दिन रहीम बख़्श रोड पर मेरे दोनों मामा हमें तिमंज़िली इस ‘बरकत बिल्डिंग’ में खिसका लाए थे।
“भरपूर कौर उस ईंधन वाली कोठरी में आती-जाती मुझे दिखाई दे रही है,. पहली ही रात के किसी पहर मेरे पिता ने उज्जवल मामा को आन जगाया।
“बीजी दिखाई दी हैं?. माँ का नाम सुनते ही मैं बग़ल वाली चारपाई पर उछल पड़ा।
“दिखाई तो देगी ही,. उज्जवल मामा ने करवट बदली, “उसे बताए बग़ैर आप इधर जो भाग आए?.
“उसे अकेली छोड़ कर आया हूँ क्या?. मेरे पिता झुँझलाहट, “बेबे भी मेरी उस के साथ है।.
“जिसे ख़ुद ही की ख़बर नहीं रहती,. उज्जवल मामा बड़बड़ाए और अपनी नींद में लौट लिए।
मेरी दादी को लेकर मेरे ननिहाल में एकमत कभी न रहा था। एक ओर जहाँ मेरे ये दोनों मामा उन्हें ग़ैर-ज़िम्मेदार अफ़ीमची समझते थे, वहीं मेरे बड़े मामा और नाना-नानी उन्हें होशियार, छक्के-पंजे वाली चंडी मानते थे। सन् 1918 में पंजाब में फैले फ़्लू ने जिन एक लाख पंजाबियों को मौत की नींद सुला दिया था, मेरे दादा भी उन में से एक रहे थे। ऐसे में अपने इकलौते दस-वर्षीय मेरे पिता का ब्याह मेरी दादी ने बग़ल वाले सबसे बड़े ज़मीदार, मेरे नाना की पंद्रह वर्षीया बेटी के साथ उस वक़्त ठहराया था जब उन्हें विधवा हुए अभी एक महीना भी पूरा न बीता था: केवल अपने बेटे के हिस्से आने वाली सैंकड़ों एकड़ ज़मीन उस की ससुराल के बूते अपनी ससुराल से हथियाने हेतु। उन का अपना मायका कमज़ोर रहा था और ससुराल ज़ोरवार।
“तू चलता है मेरे साथ?. मेरे पिता मेरी ओर मुड़ लिए।
“चलिए,. मैं तत्काल उन के साथ हो लिया।
माँ को देखने की सम्भावना ने एक पुलक मेरे अंदर प्रदोलित कर दी। पूरी दुनिया में एक वही थीं जिन से अपने मन की बात मैं निस्संकोच कह लेता और वह सहज ही विश्वास भी कर लेतीं।
गलियारा पार कर हम उस दालान में पहुँच लिए जिस के सिरे पर ईंधन की कोठरी थी। हैंडपंप की बग़ल में।
मैं अपने पिता की चारपाई पर लेट लिया।
“अड़ेया, तू मैंने आपणे नाल खड़ण आइआं की? (अबे, तू मुझे अपने साथ लिवाने आया है क्या?. मैं ज़रूर गहरी नींद में था, जब वह आवाज़ मेरे कान में खड़खड़ायी।
मेरी नींद टूटी तो मेरे कानों ने एक आहट पकड़ी। दूर जा रही। मगर वह आहट दो पैरों की न रही, चार पैरों की रही।
मैं चारपाई पर बैठ लिया। एक चौपाया आकृति ईंधन की कोठरी की ओर बढ़ रही थी।
“भाइया जी, मैंने अपने पिता को पुकारा—मेरे तीनों मामा उन्हें इसी संबोधन से पुकारा करते थे, पंजाबी में बहनोई को ‘भाइया’ ही कहा जाता है—“देखो, बीजी कैसे चल रही हैं . . .
“जा, उसे पकड़ कर इधर ला,” मेरे पिता भी चारपाई पर बैठ लिए।
“मैं?” मुझे यक़ीन न हुआ, वह मेरी सलामती के प्रति इतनी बेध्यानी बरत सकते थे। चौपाया वह आकृति किसी की भी हो सकती थी। माँ की नहीं भी।
“चल, उठ,” उन्होंने फिर ज़ोर दिया।
जब तक मैं उठा, वह आकृति लोप हो ली।
“क्या हो रहा है?” हैंडपंप वाले हिस्से में मुझे खड़े देख कर उज्जवल मामा इधर चले आए।
“इधर कोई घूम रहा था,” मैंने कहा।
“भरपूर कौर,” मेरे पिता बोले।
“भाइआ जी तो अपनी अफ़ीम की मौज में हैं,” उज्जवल मामा ने मेरा हाथ आन पकड़ा, “तुम क्यों बेहाल हुए जा रहे हो? चलो, अपनी चारपाई पर वापस आओ। मेरे पास।”
मँझले मामा अपने परिवार के साथ नीचे सो रहे थे।
“मकान सारा चुक लगए, (मकान सारा उठा ले गए हैं),” वही आवाज़ थोड़ी देर बाद फिर मेरे निकट चली आयी और फुसफुसाई, “नाल खड़ण नूं कख नहीं बचिया (साथ ले जाने को कुछ नहीं बचा)।”
“बालन बच्चिया ए, (ईंधन बचा है),” मैंने कहा।
पिछली शाम इस मकान का कब्ज़ा देते समय मकान मालिक के आदमी ने इस कोठरी के दरवाज़े की साँकल बंद की बंद ही रहने दी थी, जब कि दूसरे सभी कमरे हमें खोल कर दिखाए थे: ख़ाली और साफ़।
“इस में ईंधन भरा है” उस ने कहा था)
“बालन? (ईंधन)?” वह फुसफुसाई थी, “गोबर दी बट्टी? चुलए दीआं लकड़ां? अंगीठी दे कोले? काग़दां दी टेरियां? (गोबर के उपले? चूल्हे की लकड़ियाँ? अंगीठी के कोयले? काग़ज़ों के अंबार?)”
और मेरे देखते-देखते उस फुसफुसाहट के साथ ईंधन की कोठरी की साँकल चढ़ा दी गई।
“तू फिर वहाँ पहुँच गया?” उज्जवल मामा की आवाज़ मुझ तक तैर आयी।
“बीजी इधर आईं थीं,” मैं रोने लगा।
“चल, सो। इधर मेरे पास,” उज्जवल मामा ने मेरी पीठ घेर ली।
“बीजी आईं थीं इधर,” मेरी रुलाई तेज़ हो ली।
“तू भी अपनी दादी और भाइया जी की बोली बोलने लगा?” उज्जवल मामा हँसे।
♦ ♦ ♦
अपने बचपन ही से मैं सुनता आया था, एक ही समय पर माँ दो जगहों पर मौजूद रहने की बेजोड़ ताक़त रखती थीं। दादी कहतीं, एक ही समय पर अंदर के कमरे से उन्हें दही मथने की बुलक-बुलक सुनाई दिया करती और तंदूर की लाट के पास आटे के पेड़ों की थपक-थपक। या फिर पानी की छप-छ्प के साथ-साथ चक्की की चिर्र-चिर्र। मेरे पिता कहते, जब भी माँ शीशे के सामने खड़ी होतीं, शीशे में उन्हें हमेशा दो-दो आकृतियाँ नज़र आया करतीं।
और जितनी भी बार अपने अविश्वासी मामा लोग के सामने उन के बोल मैं दोहराता, मेरे दोनों कान उमेठ दिए जाते: ‘हमारा वह भाइआ और उस की वह बेबे, दोनों ही, बिल्कुल बेजा और अनर्थ बोलते हैं। बे-कहे, अकेली हाथ, बिना अंहकार और आराम किए सारे काम निपटाती हुई हमारी मासूम बहन में दूसरा कोई खोट जब अफ़ीमखोर ये माँ-बेटे खोज नहीं पाते तो अपनी बेरहमी और बेक़द्री को आड़ देने की ख़ातिर ऐसी अनगर्ल क़िस्से गढ़ने लगते हैं . . . ’ दोनों को यक़ीन था, हो न हो, मेरे पिता को अफ़ीम की लत मेरी दादी ही ने दी थी।
क्या मैं नींद में चलता रहा था?
या वह मेरी मनोलीला का स्वाँग था? मात्र विभ्रम?
ऊसर मैदानों में कड़ी धूप पड़ने के समय दिखाई देने वाला मिथ्या मृग-जल?
“तू फ़िक्र न कर,” उज्जवल मामा ने मेरा माथा सहलाया, “हमारे बापूजी कोई तरकीब ज़रूर निकाल लेंगे। समझ ले, कल सवेरे या फिर परसों दोपहर तक तू हमारी बहन के कंधों पर झूल रहा होगा . . .”
अपने इन दो मामा लोग पर मैं बहुत भरोसा रखता था। मेरे पिता और मेरी दादी, दोनों ही, या आत्मलीन रहा करते या फिर किसी न किसी ‘आफ़त’ के शिकार। ऐसे में मेरी पढ़ाई का ज़िम्मा शुरू ही से माँ ने मेरे इन दो मामा लोग को दे रखा था। दोनों लाहौर की माल रोड पर बनी ख़रीद की एक कोठी में रहते थे। छोटे मामा वहाँ के एफ़.सी. कॉलेज में इतिहास पढ़ाते थे और मँझले मामा टेलिफ़ोन दफ़्तर में इंजीनियर थे।
अभी पाँच दिन पहले तक . . . . . .
“लाहौर अपने पास नहीं आया,” तेरह अगस्त को मँझले मामा अपने दफ़्तर से जल्दी लौट आए थे, “रैडक्लिफ़ का नक़्शा माँउटबैटन को कल सौंपा जा चुका है। उसे सार्वजनिक अभी सोलह या सत्तरह को किया जाएगा ताकि दोनों देश अपनी-अपनी आज़ादी के जश्न पूरी गर्मजोशी से मना सकें . . .”
“और शेखूपुरा?” मेरे पिता ने पूछा था जो उस दिन माँ के हाथ का बना कुछ सामान हमारे पास लेकर आए हुए थे। मेरे पिता व मेरे ननिहाल, दोनों, के गाँव शेखूपुरा में पड़ते थे।
“वह भी नहीं,” मँझले मामा ने कहा था।
“ख़बर पक्की है?” एडना मामी रोने लगी थीं। उन के पिता सेंट्रल मौडल स्कूल में पढ़ाते थे, जहाँ मैं पिछले तीन वर्षों से पढ़ रहा था। मँझले मामा की एडना मामी से भेंट भी वहीं हुई थी। मेरी बदौलत।
“मेरे डी.ई. (डिवीजनल इंजीनियर) ने मुझे बुला कर पूछा भी, बदली में मैं कहाँ जाना चाहूँगा,” मँझले मामा ने कहा, “और मेरे हैरान रह जाने पर अमृतसर नाम उन्हींने सुझाया। बल्कि यह भी कहा वह कल सुबह दफ़्तर की गाड़ी से हमें रेलवे स्टेशन तक पहुँचवा भी देंगे . . .”
“अपने जाने की ख़बर कैसे दें?” एडना मामी घबरा उठी थीं, “इधर कर्फ़्यू लगा है और टेलिफ़ोन काम नहीं कर रहा . . .”
“ख़बर तो अपने बापूजी को भी देनी चाहिए,” उज्जवल मामा भी अधीर हो उठे थे।
“तो क्या हमें अपना सब कुछ अब गँवा देना होगा?” मेरे पिता काँपने लगे थे।
“अब समय यह सब सोचने का नहीं,” मँझले मामा ने कहा था, “असल बात जो सोचने की है, वह यह है कि इधर रेलगाड़ियों में हो रही मार-काट के बीच हम अमृतसर पहुँचेगे कैसे?”
संयोगवश लाहौर के कैंट रेलवे स्टेशन पर तैनात मिलिट्री का एक फ़ौजी उज्जवल मामा का विद्यार्थी रह चुका था। ख़बर मिलते ही उस ने अगले दिन हमें फ्रंटियर मेल के मिलिट्री कंपार्टमेंट में यात्रा कर रहे एक ऐंगलो-इंडियन परिवार की सीटों के नीचे छिपने में हमारी सहायता कर दी थी और हम अमृतसर पहुँच लिए थे।
♦ ♦ ♦
सुबह जब मेरी नींद टूटी तो मैंने अपने दोनों मामा को सलाह करते पाया, “ईंधन वाली कोठरी हमें मकान मालिक के आदमी के सामने ख़ाली करवानी चाहिए।”
“देखिए जी,” मकान मालिक के पास मैं भी अपने मामा लोग के साथ गया, “आप लोगों के साथ मेरी हमदर्दी है। लेकिन इधर मेरे पास आदमियों की बहुत कमी है। बस, एक दिन और ग़म खा जाइए। कल सुबह होते ही अपने दो आदमी मैं साथ लेता आऊँगा और उसे खुलवा लिया जाएगा।”
“अड़ेया, तू मैंनू नाल खड़़ण आइयां की? (रे, तू मुझे अपने साथ लिवाने आया है क्या?)” उस रात वह आवाज़ फिर मेरे पास चली आयी।
“दस्सो, तुसीं कित्थे जाना एं? (बताइए, आप कहाँ जायेगी?),” मैंने जबरन अपने को अर्द्धचेतनावस्था में बनाए रखा, “कीदे कोल जाणा? (किस के पास जाना है?)”
“अपणे दुश्मनां कोल जाणा। (अपने दुश्मनों के पास जाना है) मैं नू एत्थे डक्क के आप टुर गए हण। (मुझे यहाँ धकेल कर आप चले गए हैं) . . .”
“तुहाणु क्यों डक्क गए? (आप को क्यों इधर धकेल गए?)”
“छड्डी होयी जो सां। (छोड़ी हुई जो रही)।”
“क्यों छड्डे होए सी? (क्यों छोड़ी हुई थीं?)”
“फ़ैक्ट्री पिच्छे” (फ़ैक्ट्री के कारण)। ऐत्थे सुट्टी गई। (यहाँ फेंकी गई) गूँ दे टिक्कों (गोबर के उपलों) चूल्ले दीयां लकड़ां (चूल्हे की लकड़ियों), अंगीठी दे कोलियां, (अंगीठी के कोयलों) व कागद दीया ढेरियों हेठ (काग़ज़ों के अंबारों के नीचे) . . .”
“तुसीं चार पैरीं क्यों टुरदे हो?” (आप चार पैर क्यों चलते हो?)
“ओहथे कोठरी विच्च थोड़ी थां होण कर के हुण मैंथो दो पैरी खड़िया नईं जांदा। हत्थां विच्च कुझ फड़िया नईं जांदा। गोडे-गिट्टे-पोटे-वीणी मेरे सब विंगें ईं विंगे . . .। (उधर कोठरी में बहुत थोड़ी जगह में सिकुड़ कर बैठे रहने के कारण मुझ से अब दो पैर खड़े नहीं हुआ जाता। हाथ से कुछ पकड़ा नहीं जाता। घुटने-टखने, उँगलियाँ-कलाइयां मेरी सब टेढ़ी ही टेढ़ी हैं) . . .”
“वखाओ (दिखाइए),” अपनी चारपाई से उठ कर पहली बार मैंने उस आकृति के हाड़-माँस को स्पर्श किया।
उस के हाथ की उँगलियाँ खोलने की कोशिश की। लेकिन वे आपस में जुड़ी हुईं थी। जुड़ी ही रहीं।
जभी एक आशंका मुझ पर हावी हो ली। कहीं माँ के हाथ-पैर भी इस आकृति की भाँति जुड़ तो न जाएँगे? माँ भी तो हरदम कमर झुकाए एक काम के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा और फिर चौथा काम निपटाने में लगी रहने से कहाँ कभी सीधी खड़ी हुई दिखाई दी थीं! अब तक के अपने चेेतन उन तेरह वर्षों के दौरान मैंने उन्हें लेटी हुई भी कभी नहीं देखा था।
अगर यहाँ अपना यह वृत्तांत रोक कर आप से यह कहूँ— बीस साल बाद अपनी माँ के हाथ-पैर हू-ब-हू उसी दशा में जुड़े हुए मैंने देखे, सन सड़सठ में, तो आप आगे पढ़ना बंद कर देंगे क्या? मुझे मोह-भ्रम का शिकार मान कर? या मृग-मरीचिका में, प्रेत-दर्शन में आपका यक़ीन दुगना पक्का हो जाएगा? मेरी बेचैनी ने मुझे डस लिया था क्या? अथवा किसी आदिमज़ोर के तहत समय से पहले मैंने उन मानसिक बिंबों को अपने अधिकार में ले लिया था?
“हाए,” आकृति मेरी बग़ल में लेट ली। उस के हाथ उसके पेट की दिशा में मुड़ लिए और टखने की दिशा में उस के पैर।
“तुसीं साडे नाल रौह (आप हमारे साथ रहिए)।”
“न,” वह फुसफुसाई, “तुसीं मेरी कबर मेरे तों खोह लैणी ए (आप लोग मुझ से मेरी कबर छीन लोगे)। तू मैंनू दूजी मुल्के लै चल्ल (तू मुझे दूसरे देश पहुँचा दे)।”
“ओदर ते हुण मैं नहीं जा सकदा (उधर तो मैं नहीं जा सकता),” मैं रो पड़ा।
“तू फिर रो रहा है, उज्जवल मामा जग गए।
“हमारे मुल्क हमसे छूट गए हैं,” मेरी सुबकियाँ और तेज़ हो गईं।
“क्या करें?” उज्जवल मामा भी रोने लगे। गला फाड़ कर। ज़िन्दगी में मैंने उन्हें इस तरह रोते हुए पहली बार देखा। उस के बाद दूसरी बार कभी नहीं।
उस आकृति और उसकी फुसफुसाहट की बात मैंने अंदर ही अंदर दबा ली।
अपनी-अपनी रुलाई में गुम हो जाने के कारण हम ने दूरी धारण कर रही आहट की तरफ़ ध्यान नहीं दिया।
♦ ♦ ♦
ईंधन की कोठरी अगली सुबह खोली गई।
मेरे पिता उस समय नीचे वाले कमरे में रहे और काका अपनी नींद में, जब मंंझले मामा, एडना मामी, उज्जवल मामा व मेरे सामने मकान मालिक ने अपने दो आदमियों से उस के दरवाज़े की साँकल अलग करवाई।
दरवाज़ा खुलते ही एक तीखी बू हवा में तैर ली।
“दूसरा दरवाज़ा जा खोल,” मकान मालिक ने अपने एक आदमी से कहा।
अपना सिर और कंधे झुकाए-झुकाए उस आदमी ने आधी माप का कोठरी वाला वह खुला दरवाज़ा अभी आधा भी न लाँघा था कि वह चिल्लाया, “बड़ी बेगम . . .”
“क्यायायाया . . .” मकान मालिक ने अंदर झाँका और उस का मुँह खुले का खुला रह गया।
“कौन?” अंदर झाँकने का अपना लोभ मैं अब और देर संवरण न कर पाया।
चीथड़े पहने, फुसफुसाहट वाली वही आकृति उपलों, लकड़ियों, कोयलों और काग़ज़ों के छोटे-बड़े टुकड़ों पर बिछी थी: मुड़े हुए अपने हाथ पेट की दिशा में मोड़े और तिरछे हुए अपने पैर टखनों की दिशा में।
“और दूसरे उस दरवाज़े की सिटकिनी भी अंदर से खुली है,” वह आदमी दूसरी बार चिल्लाया।
“इस की सिटकिनी खुली है? मतलब?” मकान मालिक सकते में आ गया।
“बड़ी बेगम यहाँ से अंदर-बाहर आती जाती रही हैं . . .” उस आदमी ने कहा और कोठरी का वह दूसरा दरवाज़ा पूरे का पूरा जा खोला। उस हैंडपंप को अनावृत करते हुए, जिस की बग़ल वाले दालान में मेरे पिता की चारपाई रहा करती।
“इन के परिवार वाले कब गए?” उज्जवल मामा ने पूछा।
“यही कोई चार दिन पहले। उन लोगों ने मुझसे बोला, हमें भरोसे वाला एक ट्रक मँगवा दीजिए। हम ने ट्रक मँगवा दिया। कौन क़यास लगा सकता था, पुराने अख़बारों और लकड़ी-कोयलों के बीच कोई अपनी ही बेगम फेंक जाएगा?” मकान मालिक ने कहा।
“यह इधर घूमा करती थीं,” मैंने कहा।
“चुप रह!” उज्जवल मामा ने मुझे घुड़क दिया।
“आप को एक डॉक्टर अभी बुलवा लेना चाहिए,” मँझले मामा ने मकान मालिक की ओर देखा, “एक एम्बुलेंस के साथ।”
“देखता हूँ, देखता हूँ,” चिंतित मुद्रा में मकान मालिक निचली मंज़िल की सीढ़ियों की ओर बढ़ लिया।
“हमें यहाँ से हट जाना चाहिए,” उज्जवल मामा हमें ले कर दूसरे उस दालान में आ निकले जहाँ उन के साथ हम दोनों की चारपाइयाँ लगाई जाती थीं।
“पहले रहने वालों की बड़ी बेगम थीं?” एडना मामी ने मकान मालिक के एक आदमी को अपने साथ कर लिया।
“जी। बड़ी बेगम . . . इस पूरी बरकत बिल्डिंग की मालिकिन। यह जो रहीम बख़्श रोड जिन रहीम बख़्श साहब के नाम पर है, यह बेगम उन्हीं की इकलौती बिटिया रहीं। यह पूरा इमारतदार इलाक़ा इन्हीं के नाम पर तैयार करवाया गया था। उन्नीस सौ एक में। लेकिन रहीम बख़्श साहब एक सड़क हादसे में जल्दी ही कूच कर गए। उन के बड़े भाई फिर इधर आन बसे और अपने इकलौते बेटे को इन बरकत बेगम साहिबा से ब्याह दिए। मगर कुछेक साल ही में बेटे ने एक फ़ैक्ट्री की मालिकिन से शादी कर ली जिसने उनके सामने अपनी एक कड़ी शर्त रखी थी: बरकत बेगम हमें दिखाई नहीं देनी चाहिए।”
“इन के बच्चे नहीं थे क्या?” उज्जवल मामा ने पूछा।
“नहीं। नहीं थे। समझिए रहीम बख़्श साहब के बाद वह बिल्कुल अकेली पड़ गईं थीं। और सुनने में आता था, जहाँ कहीं यह बरकत साहिबा अपने पति को भी नज़र आतीं थीं, वह इन को सज़ा के तौर पर ईंधन की इस कोठरी में बंद कर दिया करते थे . . .”
“क्रुयल! क्रुयल! क्रुयल! (निर्मम! निर्मम! निर्मम!,) ” एडना मामी बोल उठीं।
डॉक्टर ने आते ही उन बरकत साहिबा को मृत घोषित कर दिया।
“अब क्या करना होगा?” मकान मालिक ने डॉक्टर से पूछा।
“म्युनिसिपैैलिटी की लौरी मँगवाइए। लावारिस लाश फिर कहाँ पहुँचाएँगे?”
“इन्हें इनकी क़ब्र चाहिए,” में रो दिया, “इन्हें इनकी क़ब्र ज़रूर दिलवाइए।”
“हाँ, लड़का सही कहता है,” एडना मामी ने कहा, “जो भी इन की बॉडी ले कर जाए, उसे बताना बहुत ज़रूरी है, इन्हें दफ़नाया जाएगा, जलाया नहीं . . .”
“देखिए जी,” मकान मालिक जाने को हुआ, “मैं लौट कर बताता हूँ क्या इंतज़ाम किया जा सकता है . . .”
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