दूसरा पता

01-04-2025

दूसरा पता

दीपक शर्मा (अंक: 274, अप्रैल प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“हरीश त्रिपाठी का मकान क्या यही है?” दुमंज़िले उस मकान के मुख्य द्वार पर वही पता लिखा था जो कस्बापुर के हमारे सरकारी कॉलेज के दफ़्तर में हरीश के दूसरे पते के रूप में दर्ज रहा था। और मैंने ठीक वहाँ पहुँच कर कौल-बेल बजा दी थी। 

“जी हाँ, बताएँ,” दरवाज़ा खोलने वाली महिला का स्वर रूखा रहा, “आप को उन से क्या काम है?” 

“उन्होंने मुझे यहाँ बुलाया था,” मैंने गप हाँकी। 

नहीं कहा, मैं इसलिए आयी हूँ क्योंकि मैं उनसे प्रेम करती हूँ और बिना छुट्टी लिए उनका कस्बापुर के कॉलेज से पूरे एक सप्ताह तक अनुपस्थित रहना मेरे लिए गहरी चिंता का विषय रहा था। 

“कहाँ से बुलाया था? कब बुलाया था?” महिला ने हैरानी जतलाई, “वह तो इतवार से अस्पताल में पड़े हैं।” 

“क्या हुआ उन्हें?” मैं लगभग चीख पड़ी। 

“सीढ़ियों से नीचे उतरते समय वह अकस्मात्‌ फिसल गए और चोट खा गए . . .” 

“चोट बहुत संगीन है क्या?” 

“हाँ, पीठ की हड्डी चरक गयी है और वह उठने-बैठने से लाचार हैं।” 

“क्या आप मुझे अस्पताल का पता दे सकेंगी?” मैंने विनय की। 

“कौन है, सरला?” एक वृद्धा हमारे पास चली आयीं। उन की आँखों पर लगा क़ीमती काला चश्मा उनकी साधारण वेशभूषा के साथ मेल नहीं खा रहा था। 

“मैं इरा तिवारी हूँ, माँ जी,” मैंने आत्मीयता प्रदर्शित की, “कस्बापुर से हरीश जी का पता लेने आयी हूँ। मैं उन के साथ पढ़ाती हूँ, माँ जी।” 

“सरला अभी दस-पंद्रह मिनट तक स्वयं अस्पताल जाएगी,” वृद्धा ने गर्मजोशी दिखलाई, “जब तक तुम अंदर बैठ क्यों नहीं लेती?” 

“जी, माँ जी,” मैंने कृतज्ञता प्रकट की, “धन्यवाद।” 

सीढ़ियों के उस तंग अहाते से वृद्धा और सरला मुझे एक लंबे गलियारे में ले आयीं। 

गलियारा पूर्णतः रिक्त था और एक प्रांगण में जा खुला। 

प्रांगण में उस निचली मंज़िल के चारों दरवाज़े मुँह-बाए खड़े थे। 

किसी भी दरवाज़े पर न तो कोई चिक पड़ी मिली और न ही कोई कपड़े का पर्दा। 

मैंने उन्हें बताया नहीं, कि हरीश के कस्बापुर के सरकारी मकान में कमरे तो क्या, मैं तो बरामदों तक में दबीज़ पर्दे लगाने का इरादा रखती हूँ। 

“तुम यहाँ बैठ लो,” वृद्धा मुझे एक कमरे में ले गयी। बैठक-नुमा उस कमरे में केवल एक तख़्तपोश और चार आराम कुर्सियाँ थीं। 

“जी,” मैंने अपने बैठने के लिए एक कुर्सी चुनी। 

“मैं अस्पताल ले जाने के लिए खाना लेकर अभी आयी,” सरला ने वृद्धा की दिशा में अपनी आँखें तिरेरीं और रसोई-नुमा कमरे की ओर चल दी। 

“मैं तुम्हें देख नहीं सकती, लेकिन तुम्हारी आवाज़ से लगता है तुम स्नेही हो,” सरला के जाते ही वृद्धा मेरे सामने पड़ रहे तख़्तपोश पर आन बैठी। 

“आप की आँखों में कोई तकलीफ़ है क्या?” मैंने कान खड़े कर लिए। 

“तकलीफ़ ही समझो,” वृद्धा रोंआसी हो आयी। 

“कब से देख नहीं सकतीं?” 

“अब तो बहुत साल हो गए। अठारह हो गए। या शायद उन्नीस ही। एक आँख चोट खा गयी थी और दूसरी बहनापे में चली गई।” 

मैंने सुन रखा था यदि दसेक दिन के अंदर चोट खायी आँख पर ऑपरेशन होने से रह जाए तो दूसरी आँख भी ‘सिम्पैथैटिक औपथैलमाइटिस’ के कारण अपनी ज्योति खो बैठती है। मगर ऐसा प्रत्यक्ष देखने का अवसर मुझे पहली बार मिला था। 

“यह तो बहुत बुरा हुआ . . .” मैं सोच में पड़ गयी। उन के अंधेपन का मुझ से उल्लेख हरीश ने क्यों न कभी किया था? 

“बुरा हुआ सरला के साथ,” वृद्धा की रुलाई छूट चली, “जो मेरा दुख काट रही है। वह लड़की नहीं, भगवान का कृपादान है। अपने प्रकोप को बराबर करने के लिए भगवान ने उसे मेरे पास भेज दिया।” 

“और घर के बाक़ी जन?” मैंने उन्हें टोहा, “क्या वे आप के लिए कुछ नहीं करते?” 

“बाक़ी लोग हैं ही कौन? एक हरीश है और दूसरे उस के बाबूजी है। और वे दोनों ठहरे आदमी लोग। अपनी-अपनी पकड़ में गिरफ़्त। हरीश को अपने पढ़ने-पढ़ाने से फ़ुरसत नहीं मिलती और उस के बाबूजी को काम की आदत नहीं। ऊँचे ज़मींदार परिवार से हैं . . .” 

“आप अपनी सेवा के लिए अब बहू ले आइए,” मेरी साँस में साँस आयी मगर ऊपरी तौर पर मैंने उन्हें प्रलोभन दिया, “सरला जीजी की भी अब शादी हो जानी चाहिए। आप कहें तो मैं अपने ही कॉलेज में किसी के साथ बात चला कर देखूँ?” 

“उस बेचारी की शादी की उम्र अब निकल गयी। अब तो पिछले पंद्रह साल से उसकी एक ही दिनचर्या रहा करती है—स्कूल में पढ़ाने के बाद सीधी घर पलटती है और हमारे खाने-पीने में जुट जाती है। आज भी स्कूल से अभी ही लौटी है . . .” 

“कैसी चुहिया की बुद्धि पायी है?” जभी बाहर से एक तेज़ मर्दाना आवाज़ बैठक में पहुँची, “रोका नहीं उसे? वह तो अपनी हवस की मारी है। बाहर से कोई आया नहीं कि वह फुदक कर उस की बग़ल में जा बैठती है . . . ” 

“मैं अभी आती हूँ,” वृद्धा रोवनहार स्वर में बुदबुदाईं और तत्काल बैठक से बाहर चली गईं। 

♦    ♦    ♦

तेज़ आवाज़ कुछ पलों तक अपना आवेग किसी दूर के कमरे में उँडेल लेने के बाद जब मेरे निकट आई तो मधुर हो ली, “आप कहाँ से आयी हैं?” 

आवाज़ एक वृद्ध की थी। उन का दिखाव-बनाव बहुत चटकीला था। नीली जींस के साथ उन्होंने चटख लाल रंग की टी-शर्ट पहन रखी थी। 

“मैं इरा तिवारी हूँ। कस्बापुर में हरीश वाले कॉलेज में पढ़ाती हूँ।” 

“मुझे यक़ीन है, कस्बापुर के कॉलेज में हरीश ही नहीं, सभी तुम्हें बहुत चाहते होंगे,” वृद्ध ने मेरे संग चुहल की। 

क्या वह मदोन्मत्त रहे? 

“यदि यह मेरी प्रशंसा है, तो मैं धन्यवाद देती हूँ,” न चाहते हुए भी, उन्हें अपने पक्ष में रखने की ख़ातिर, उन के संग मैं उन की चुहल में सम्मिलित हो ली। 

हम दोनों ने एक दूसरे की हँसी का पीछा किया। 

“हैरत है, तुम जैसी लड़की अभी तक अविवाहित कैसे रह गयी?” उन्होंने दूसरी चुटकी ली

मैंने नहीं बताया, मुझे विवाह की उतावली तभी से है, जब से कस्बापुर में मेरी पक्की नौकरी लगी थी। 

नहीं बताया मुझे नौकरी करते हुए छह वर्ष हो चले हैं और मेरी उतावली अब हड़बड़ी का रूप धारण कर रही है। 

नहीं बताया अपनी उस हड़बड़ी में मैं नितांत अकेली हूँ। 

नहीं बताया, संभवतः मेरे पिता भी मेरे विवाह को लेकर कभी-कभार चिंतित हो उठते हों, किन्तु मैं जानती हूँ, हर बार मेरी सौतेली माँ आगे बढ़ कर मेरे पाँच सौतेले भाई-बहनों के स्कूलों और कॉलेजों के ख़र्चे विस्तार से बखानने लगती हैं और मेरे विवाह की बात फिर स्थगित हो जाती है। 

“आश्चर्य मुझे भी है,” अपनी मुस्कुराहट लिए-लिए मैं बैठक से बाहर प्रांगण में चली आई। 

प्रांगण में सरला एक कमरे में ताला लगाती मिलीं। 

“आप का खाना रसोई में परोसा रखा है, बाबूजी,” बैठक की दिशा से पिता को प्रांगण में आते हुए देख कर सरला उन से बोली, “मैं अब अस्पताल जा रही हूँ।” 

“फिर मिलेंगें,” मैंने भी वृद्ध से विदा ली। 

“क्यों नहीं? क्यों नहीं?” वृद्ध लड़खड़ाए। 

“माँ जी से भी विदा ले लूँ?” मैंने सरला से पूछा। 

“वह सो रही हैं,” सरला ने प्रत्यक्ष झूठ बोल दिया। 

“वह सो नहीं रहीं,” वृद्ध ने दाँत निकाले, “ताले के पीछे दुबक गई है।”
 
♦    ♦    ♦

“क्या आपने माँ जी के कमरे में ताला लगाया?” सरला के साथ रिक्शे पर सवार होते ही मैंने एक अंतरंग वार्तालाप की भूमिका बाँधने का प्रयास किया। 

“हाँ,” सरला अनिच्छा से बोली, “इस समय वह सोती हैं।” 

“उन की देखभाल के लिए आप घर पर कोई नौकरानी क्यों नहीं रख लेतीं?” 

“हम मज़े में हैं। हम अपने एकांत को बहुत महत्त्व देते हैं।” 

“क्या इसीलिए आप दोनों बहन-भाई ने शादी नहीं की?” मैं आक्रामक हो चली। 

सरला ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और एक संपर्क-वर्जित चुप्पी में चली गयीं। जिस का वहन उन्होंने हरीश के अस्पताल के कमरे तक किया। 

♦    ♦    ♦

“खाना परोसूँगी?” हरीश के निकट पहुँचते ही सरला ने उस से प्रमाणित पुष्टि लेनी चाही। 

हरीश ने चेहरे से अपनी किताब हटायी। 

किताब में कविताएँ संगृहीत थीं। 

“नहीं,” हरीश ने उसे जाने का संकेत दिया, “अभी खाने की इच्छा नहीं।” 

“मैं डॉक्टर से मिलकर आती हूँ,” सरला कमरे से निकल लीं। 

“कविता पढ़ने का अच्छा अवसर ढूँढ़ा है,” मैंने अपने चुलबुले स्वर का प्रयोग किया। 

हरीश की कृत्रिम स्वागत मुस्कुराहट का मैंने बुरा न मनाया था। 

“क्या घर के अंदर गयीं थीं?” हरीश गंभीर बने रहे। 

“हाँ। माँजी से मिली। उन्होंने बहुत स्नेह दिखाया।” 

 “मेरे पिता से मिलीं?” 

“हाँ। वह भी बहुत स्नेही लगे, मगर आपकी जीजी ने मुझे घास नहीं डाली। पानी तक नहीं पूछा।” 

“उन्होंने ज़रूर पी रखी होगी।” 

“शायद, हाँ,” मुझे उत्तर देने में समय लगा। 

हरीश अपने पिता के संदर्भ पर क्यों अटक रहे थे? 

“वह ऐसा ही करते हैं। दोपहर में जो शुरू करते हैं तो फिर उसका टपका देर रात तक चलाते हैं।” 

“आप उन्हें रोकते नहीं?” 

“नहीं। उन पर मेरा कोई ज़ोर नहीं। वह अपने एकतंत्र में रहते हैं। निरंकुश और निर्बाध।” 

“क्या माँजी भी कुछ नहीं कहतीं?” मैंने उन्हें उकसाया। 

नहीं बताया कि मैंने वृद्धा के विरुद्ध वृद्ध की तेज़ आवाज़ सुन रखी है। 

नहीं बताया कि मैं जानती हूँ, वृद्धा को वृद्ध के कोप से बचाने के लिए मैं सरला को उन्हें ताले में बंद करते हुए देख चुकी हूँ। 

“शुरू में माँ बहुत झल्लाती थीं। एक दिन झल्लाहट में कह बैठीं, मुझ से यह सब देखा नहीं जाता। मेरे पिता उस समय मदिरा की झोंक में तो रहे ही। बस ताव में आ गए। और माँ की आँख फोड़ डाली।” 

“आँख फोड़ डाली?” 

“माँ की उस आँख में अपने हाथ की सुलग रही सिगरेट कुछ ऐसे क्रम में चुभोयी कि आँख का कोया क्या, पपोटा क्या, बिरौनी क्या, भृकुटी क्या, पूरे का पूरा नेत्रकोटक ही चुचक गया।” 

“मगर उस चश्मे की वजह से कोई जान नहीं पाता कि उन की आँख कैसी लगती है,” मैंने सांत्वना प्रस्तुत की। 

“वह धसकन और वह बिगाड़ आज भी उस मकान की हर फुसफुस में दम लेता है। वह संताप और वह दहल वहाँ की हर ईंट में मौजूद है।” 

“यह सब बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है, किन्तु,” यही वह अवसर है, यही वह अवसर है, मेरी छठी इंद्रिय सक्रिय हो उठी, “आप को अपनी पीड़ा का एकांत समाप्त कर देना चाहिए। आपके संग एक संधित जीवन बिता कर मैं धन्य हो जाऊँगी।” 

अस्पताल के कमरे में सरला के लौटने से पहले ही मैं हरीश से आश्वासन लेने में सफल हो गयी कि अपने स्वास्थ्य लाभ के तुरंत बाद वह मेरे पिता के सम्मुख अपना विवाह प्रस्ताव अवश्य रखेंगे। 

मैं जानती हूँ मेरे पिता भी मेरी भाँति हरीश के इस दूसरे पते को तूल नहीं देंगे तथा अपना समर्थन सहर्ष प्रस्तुत कर देंगे। 

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