दो मुँह हँसी
दीपक शर्मा
“ऊँ ऊँ,” सुनयन जगा है।
बिजली की फ़ुर्ती से मैं उसके पास जा पहुँचता हूँ। रात में उसे कई बार सू-सू करने की ज़रूरत महसूस होती है।
जन्म ही से उसकी बुद्धि दुर्बल है और इधर एक साल से तो उसका जीवन-प्रवाह भी बहुत दुर्बल हो गया है। उसके सभी कामकाज अब उसके बिस्तर पर ही मुझे निपटाने पड़ते हैं। उसके इस इक्कीसवें साल में।
यहीं मैं उसे खाना खिलाता हूँ, स्नान कराता हूँ। पोशाक पहनाता हूँ। यहाँ तक कि उसके शौच तक का सुभीता भी मुझे यहीं उसके बिस्तर पर जुटाना पड़ता है।
“आँ . . . आँ, ” पेशाब कर लेने के बाद वह मुझे ताकने लगता है . . .
क्या वह मुझसे गुणी का पता लेना चाहता है?
गुणी के लिए वह ‘आँ’ बोलता है, ममा नहीं और मेरे लिए ऊँ, ‘पपा’ नहीं।
उसे मैं ईश्वर के कृपाडंबर का कटाक्ष मानता हूँ जबकि गुणी उसे अपने व्यभिचार का ईश्वर-दंड मानती थी। गर्भ धारण करते समय गुणी मेरी नहीं, चंद्रकिशोर की पत्नी रही थी और जैसे ही उसने अपनी पत्नी के गर्भ का सच जाना था, उसने उसे अविलंब तलाक़ देकर हमारे विवाह का रास्ता सुसाध्य बना दिया था।
“आँ . . . आँ . . . आँ . . .,” सुनयन दरवाज़ा ताक रहा है . . .
परसों जब गुणी अस्पताल गई थी तो इस दरवाज़े पर पहले रुक गई थी। लगभग डोलती-सी। चुन्नी का सहारा लिए-लिए।
चुन्नी उसकी छोटी बहन है जिसे यहाँ ज़रूरत के दिनों में गुणी अपने पास बुला लिया करती थी। पिछले साल हुई अपनी माँ की मृत्यु के बाद अपनी एकलौती बहन के गुणी और समीप आ गई थी।
“आँ . . . आँ . . .,” सुनयन माँ के लिए मचल उठा था।
अपनी हाँफ के साथ गुणी तत्काल सुनयन के बिस्तर पर आ पहुँची थी।
“आँ,” सुनयन ने माँ की उपस्थिति का स्वागत किया था।
उत्तर में गुणी ने उसका गाल सहला दिया था। थपथपाया था।
“चलें?” चुन्नी ने पूछा था।
गुणी ने सुनयन का दूसरा गाल छुआ था और चुन्नी उसे तत्काल कमरे से बाहर ले गई थी।
“आँ . . . आँ,” सुनयन ने उसे पुकारा था।
लेकिन गुणी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा था।
फिर कल चुन्नी अकेली आई थी। दबे पाँव। मृत गुणी के दूसरे कपड़े उठाने। सुबह-सबेरे दाह-कर्म के लिए गुणी को उधर अस्पताल से तैयार करने के लिए ताकि सुनयन को अजनबी चेहरों और आवाज़ों से दूर रखा जा सके। रात वहीं चुन्नी ने गुणी के साथ गुज़ारी थी। और आज सुबह आठ बजे तक मुझे यहीं सुनयन के साथ बने रहना पड़ा था। अपने एक परिचित की प्रतीक्षा में, जिसे सुनयन के पास बिठाकर मैं दाह-गृह पहुँच सका था।
”तुम्हें ‘आँ’ चाहिए?” मैं सुनयन से पूछता हूँ।
“आँ . . . आँ . . .,” वह हुहुआता है।
“आँ चाहिए तो सो जाओ। वह तुम्हारी नींद में आएगी। जानते हो वह तुम्हारी फोटो, तुम्हारी फ़िक्र अपने साथ ले गई है?”
मेरी आवाज़ ढुलक रही है। चुन्नी की आवाज़ की तरह, जब उसने मुझे बताया था अपने अंतिम पलों में गुणी ने सुनयन की फोटो माँगी थी। अपने सीने से चिपकाने के लिए। जभी गुणी का मृत चेहरा इतना तरल था? अपने स्थायी भावशून्यता की बजाय अपना पुराना भावातिरेक लिए।
सुनयन अपनी आँखें भींच रहा है . . .
“तुम सो जाओ . . .”
उसके बग़ल वाले बिस्तर पर मैं लेट जाता हूँ।
फिर उसके नींद में जाते ही उठ बैठता हूँ। मुझे अपने मोबाइल की आवश्यकता आन पड़ी है।
मैं चंद्रकिशोर को फोन लगा रहा हूँ।
हमारे बीच दो समुद्रों का फ़ासला है।
“हलो,” शायद उसी ने फोन उठाया है?
“मैं गजराज बोल रहा हूँ। मुझे चंद्रकिशोर से बात करनी है।”
“बोलिए,” उसकी आवाज़ मैं कोई ठोस बर्फ़ आ घुसी है।
“गुणी कल चल बसी . . .”
गुणी उसकी पूर्व पत्नी थी। पूरे दो साल चार महीने तक।
“किसी बीमारी से? या यों ही अकस्मात्?” बर्फ़ कुड़कुड़ा रही है। पिघल रही है।
“इधर वह बहुत सिगरेट पीने लगी थी। जिस वजह से उसे फेफड़े का कैंसर हो गया था। अपने आख़िरी महीनों में उसने बहुत कष्ट भोगा, बहुत कष्ट दिया।”
“यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है,” वह सहृदयता छलकता है।
“हाँ। हाओ शैल आए एक्सक्लूड द ब्लैक डॉग फ़्रॉम अ हैबिटेशन लाईक दिस?” (उस काले कुत्ते को कैसे इस घर से अलग करूँ?) व्हेन आई राईज़ मॉय ब्रेकफ़ास्ट इज़ सोलिट्री,” (जब मैं सुबह जगता हूँ तो अपने नाश्ते पर अकेला होता हूँ)
चंद्रकिशोर भी मेरी तरह अंग्रेज़ी कविता और साहित्य में रुचि रखता है। मेरी उद्धृत पंक्तियों को न केवल वह पहचान लेता है बल्कि उनके पहले या बाद में आ रहे शब्दों को अक्षरशः दोहरा रहा है: ”द ब्लैक डॉग वेट्स टू शेयर इट।” (वह काला कुत्ता मेरे साथ हो लेता है?)
“फ्रॉम ब्रेकफ़ास्ट टू डिनर ही कंटीन्यूज हिज़ बार्किंग,” (नाश्ते से लेकर मेरे रात के भोजन तक लगातार भौंकता रहता है) मैं रो पड़ता हूँ। चंद्रकिशोर का जानसन का वह कथन मेरे साथ दोहराना मेरे सामने वे पुराने दिन लौटा लाया है जब अपने सखाभाव के तहत वह मेरी संगति में कई अंग्रेज़ी कविताओं और सूक्तियों का आदान-प्रदान किया करता था।
“आप अपने को सँभालिए . . .” चंद्रकिशोर के मन में मेरे लिए ज़रूर चिंता उत्पन्न हो रही है। मेरे घर से भी जब गुणी गई थी तो मेरा भी पूरा घरबार लीक से बेलीक हो गया था . . .
“तुम भाग्यशाली हो चंद्रकिशोर,” मैं बिलखता हूँ, ”गुणी ने तुम्हें समय रहते छोड़ दिया . . . लेकिन मुझे तो उसने ऐसे समय छोड़ा है जब मैं आगे कुछ और सोच ही नहीं सकता . . .”
“आप ग़लत कह रहे हैं,” वह मुझे ढाढ़स बँधाता है, “आप अब शादी कर सकते हैं . . .”
“मत कहो ऐसा,” एक तीखी टीस मेरे दिल से आ टकराती है। “याद है? हमारी पहली भेंट?”
जब गुणी ने मेरी शादी की बात लगभग इन्हीं शब्दों में छेड़ी थी . . .
♦ ♦ ♦
हमारी पहली भेंट सचमुच ज़ोरदार रही थी। बाईस साल पहले।
कस्बापुर के कप्तान के पदधारण की औपचारिकता समाप्त करते ही मैं चंद्रकिशोर के सरकारी बँगले के लिए निकल पड़ा था।
वहाँ पहुँचने पर मेरे लिए बैठक खोली गई थी और पहले गुणी ही प्रकट हुई थी। खिले वसंत की पलक लिए।
“मैं आपकी नई सौत हूँ,” मैंने उसके संग चुहल की थी, ”आपके ज़िले का नया एस.पी. . . .”
प्रशासनिक सर्कल की कहावतों में एक यह भी प्रचलित है, ज़िले के कलेक्टर की दो पत्नियाँ होती हैं। एक, उसकी धर्मपत्नी और दूसरी ज़िले का पुलिस अधीक्षक।
“मुझी का बाँटना, अपने को नहीं, ” अपने प्रवेश के साथ चंद्रकिशोर ने पत्नी की दिशा में लहर छोड़ी थी।
‘नई पौध,’ मैं मन ही मन मुस्कराया था। अपने से सीनियर बैच को हवा में उठाने को किसी का भी हवाला दे दे। कुछ भी खड़खड़ा दे। उसका बैच मुझसे पाँच साल जूनियर रहा।
“आपका परिवार साथ नहीं आया?” गुणी ने पूछा था।
“मैं अभी भी अविवाहित हूँ,” मैंने कहा था। उस समय उन्हें नहीं बताया था मेरे विधुर पिता ने अपनी एक विधवा बहन के बच्चों का जो बीड़ा शुरू से उठा रखा था, सो उनकी सेवानिवृत्ति के बाद मुझी को आगे बढ़ाना पड़ रहा था। परिणाम, वे सभी मेरी सरकारी आवासों के निवासी रहा करते।
“अभी भी क्यों कहते हैं?” गुणी ने चुटकी ली थी, ”अभी कहिए।”
“फ़ोर इयर्ज़ एंड थर्टी, टोल्ड दिस वेरी वीक आई बीन नाऊ अ सौजौर्नर ऑन अर्थ” (चौंतीस वर्ष, इसी सप्ताह मुझे पता चला कि इस पृथ्वी पर अभी तक मेरा प्रवास रहा) जवाब में मैंने वर्ड्सवर्थ के ‘द प्रिल्यूड’ की पंक्तियाँ कह सुनाई थीं।
“एंड यट द मार्निंग ग्लैडनेस इज़ नाट गॉन, विच देन वाज़ इन मॉय माइंड।” (सुबह का आह्लाद किन्तु अभी गया नहीं, जो उस समय मेरे मन में डेरा डाले रहा)
चंद्रकिशोर ने उसी पद की अगली दो पंक्तियाँ बोल दी थीं।
“इसी ख़ुशी में आज रात का खाना आप हमारे साथ खाएँगे,” गुणी ने चंद्रकिशोर से पूछे बिना ही मुझे निमंत्रण दे डाला था।
“ख़ुशी से . . . सौभाग्य से . . .” एक नई गुनगुनाहट एक अपरिचित ललक मेरे भीतर आन घुसी थी।
तान भरकर।
♦ ♦ ♦
“पहली भेंट से याद आया, आपके परिवार में सब कैसे हैं? अंकल? बुआ जी? उनके बेटे-बेटियाँ?”
चंद्रकिशोर मेरे परिवार के सभी सदस्यों से ख़ूब मिलता-जुलता रहा था।
“तुम्हें वे सब याद हैं?” मेरे दिल की सतह में बैठा मेरा अपराध-भाव अपना सिर उठा रहा है।
“सब याद है।”
“क्या बताऊँ? कैसे बताऊँ?” मेरे अपराध-भाव की तहें खुल रही हैं। “समझो, लाख का घर ख़ाक हो चुका है। गुणी ने आते ही मेरे पूरे परिवार को मुझसे बेगाना बना दिया। उन्हें मेरे देख-रेख से बेदख़ल कर दिया। उसे मुझ पर, घर पर समूचा अधिकार चाहिए था, पूरा शासन। उसी दुःख में पहले बुआ जी गईं, फिर बाबूजी। और उनकी मृत्यु के बाद उनके लाड़ले भानजे-भानजियाँ भी अपने को जल्दी ही बाहर निकाल ले गए। और अब हालत यह है किसी को भी मेरी ख़बर लेने की न कोई चाह है, न फ़ुरसत। सोचो, गुणी के जाने की ख़बर मैंने उन्हें देने की ज़रूरत ही नहीं समझी।”
“आपकी नौकरी तो अभी चार साल और बची होगी? आजकल कहाँ है?”
हमारे विवाह के बाद चंद्रकिशोर हम लोगों से कभी नहीं मिला। मगर हमारे सुनने में ज़रूर आया था। 1993 में आईएएस से त्यागपत्र देकर वह अमरीका बस गया। अध्यापिकी पकड़कर। उसका यह फोन नंबर भी मैंने गुणी के अस्पताल के एक डॉक्टर से अभी पिछले सप्ताह जाना है, जिसका भाई उधर उसी यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग में पढ़ता है, जहाँ चंद्रकिशोर और उसकी पत्नी एक साथ पढ़ाते हैं।
“मैं भी त्यागपत्र दे चुका हूँ। सन् 1995 में। आई.पी.एस. के बीस साल पूरे होते ही। इस सर्विस में मुझे बाबूजी ने धकेला था। और उन्हें सन् चौरानवे में मैं खो ही चुका था . . . ”
“और अब?”
“कुछ दिन एक एन.जी.ओ. के साथ रहा। फिर एक असफल उपन्यास लिखा और आजकल सुनयन की देखभाल ही में पूरा दिन निकल जाता है, बल्कि कई बार तो रात भी . . .”
“सुनयन?”
“हमारा बेटा है . . .”
“अच्छा नाम है। नाद है इसमें। क्या कर रहा है, कैसा है?”
“हाल बेहाल। मोटर न्यूरॉन्ज डिज़ीज़ ने उसकी सभी मांसपेशियाँ ठप्प कर रखी हैं और उसे चौबीसों घंटे अपने बिस्तर पर पड़े रहना पड़ता है . . .”
“यह तो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है,” वह द्रवित हो उठा।
“इल बिगिनिंग, इल एंड। सच पूछो तो दुर्भाग्य के साथ मेरा खाता उसी दिन खुल गया था जब गुणी मेरे घर में आई थी।”
“और गुणी ज़रूर इसके विपरीत सोचती रही होगी। उस दुर्भाग्य के लिए आपको उत्तरदायी ठहराती रही होगी . . .”
“तुम कैसे जानते हो? तुमसे बात की थी उसने?” मैं शंकित हो उठा। उस डॉक्टर से गुणी ने चंद्रकिशोर का फोन नंबर मुझसे पहले ही ले लिया था क्या?
“नहीं-नहीं, मेरी कभी बात नहीं हुई, लेकिन मैं जानता हूँ। जो दो वर्ष उसने मेरे साथ बिताए उनमें शायद एक दिन भी ऐसा न बीता होगा जब उसने झगड़ा न किया हो। दूसरे को दोष देने की उसे बुरी आदत थी।”
“और झगड़ा करने के बाद वह तब भी सिगरेट पीने लगती थी?”
“नहीं, तब वह अपनी वीणा पर बैठ जाया करती थी। उसे देर तक बजाया करती। आपको याद होगा उसके सामान के साथ मैंने उसकी वह वीणा भी भेजी थी . . .”
“हाँ, याद है। लेकिन सब कुछ बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा था।”
चंन्द्रकिशोर को मैं नहीं बताना चाहता गुणी का वीणा बजाना मेरे लिए असहनीय था और मैंने उसे बाज़ार में बेच डाला था। अपने सरकारी आवास से अपने निजी घर में खिसकते समय। दूसरे ग़ैरज़रूरी सामान के साथ। थोक के भाव।
“हाँ, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण। लेकिन आप अपने को सँभाले रहिएगा . . .”
“उसे अकेले सँभालना बहुत मुश्किल होगा, चंद्रकिशोर। गुणी ही हम लोगों का खाना बनाया करती थी। जिन दिनों अपनी थैरेपी के लिए दो-चार दिन के लिए अस्पताल जाती भी थी, सुनयन मुझे बहुत परेशान रखता था। डबलरोटी और अंडों से उसे सख़्त चिढ़ है . . .”
“मैं समझ सकता हूँ . . .”
“हमारे कपड़ों की देखभाल भी गुणी ही करती थी। अपनी विकट खाँसी के साथ भी उन पर इस्तरी लगा दिया करती . . .”
“घरदारी में वह परिपूर्ण थी।”
“तुम्हारी दूसरी पत्नी कैसी है?”
“अनुराग में अव्वल, लेकिन घरदारी में शून्य। घर के काम-धंधे में मेरी पूरी भागीदारी चाहती है। अभी भी मुझे दो बार बुला गई है। रसोई के बरतन धोने की बारी आज मेरी है . . .”
चंद्रकिशोर मुझसे शायद विदा चाह रहा है।
“तुम भाग्यशाली हो, चंद्रकिशोर,” मैं भी समापक मुद्रा में आ रहा हूँ, ”जिंदगी में अनुराग सबसे ज़्यादा अहम है . . . आगे जीने की जिजीविषा के लिए . . .”
“इसलिए तो आपसे कह रहा हूँ, आप शादी ज़रूर कर लीजिएगा। अपनी ख़ातिर न सही, तो सुनयन ही की ख़ातिर . . .”
“देखता हूँ। सोचता हूँ . . .”
“मेरी पत्नी धैर्य खो रही है। तीसरे बार मुझे देखने आई है आपका फोन नंबर मेरे पास दर्ज हो गया है। बरतन धो लेने के बाद आपको फोन करता हूँ . . .”
“तुमसे बात करके अच्छा लगा, चंद्रकिशोर, तुम अब फोन नहीं भी करोगे, तो भी चलेगा . . .”
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