विजित पोत
दीपक शर्मा
यह संयोग ही था कि अस्थिर उन दिनों अंतरराष्ट्रीय एक सेमिनार में भागीदारी के निमंत्रण पर स्वराज्या देश के बाहर, जिनेवा गयी हुई थीं जब स्वतंत्रता को कस्बापुर सरकारी अस्पताल में अपने उच्च रक्तचाप के कारण दाख़िल होना पड़ा था।
इधर दो वर्षों से उसका रक्तचाप लगातार घटता-बढ़ता रहता था और उसे नियंत्रण में लाने हेतु उसे अस्पताल के आई.सी.यू. में अक्सर रहना पड़ता, किन्तु हर बार स्वराज्या अनिवार्य रूप से उसके साथ बनी रहती थी और इस बार उसके पास न रहने पर स्वतंत्रता के मन में डर बैठ गया था, वह अब बचेगी नहीं।
पिता ज्ञानचन्द ने बेटियों के नाम उस स्वप्न के आधार पर रखे थे जो चालीस के दशक में अधिकांश भारतीय अपनी आँखों में पाले थे—स्वतंत्रता और स्वराज्या। स्वतंत्रता का जन्म सन् १९४५ में हुआ था और स्वराज्या का सन् १९४७ में।
दोनों ही को ज्ञानचन्द ने उच्च शिक्षा दिलायी थी, जिसके फलस्वरूप दोनों ऊँची नौकरियाँ पाए थीं। स्वतंत्रता स्थानीय एक डिग्री कॉलेज के हिंदी विभाग में और स्वराज्या एक वैज्ञानिक संस्थान की प्रयोगशाला में।
धर्म और जाति के मामले में पूर्वाग्रह रखने वाले ज्ञानचन्द को अपने समुदाय में जब बेटियों के लिए उपयुक्त वर नहीं मिले थे तो उन्होंने दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में सफलता के उच्चतम सोपान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं किया था बल्कि विवाह के लिए हतोत्साहित भी।
परिणाम दोनों अविवाहित भी रहीं और उच्च पद भी पायीं। सन् १९८८ के आते-आते स्वतंत्रता अपने डिग्री कॉलेज की प्रधानाचार्या का पद तथा स्वराज्या अपने विभाग की अध्यक्षा का।
सेवानिवृत्त वे एक ही वर्ष में हुईं। अध्यापक-वर्ग की सदस्या होने के कारण स्वतंत्रता बासठ वर्ष की आयु में और स्वराज्या साठ की। सन् २००७ में जब तक ज्ञानचन्द की मृत्यु हुए लगभग आठ वर्ष बीत चुके थे और उनकी पत्नी की मृत्यु को छह वर्ष। फलस्वरूप अब बहनों के पास “अपना’ कहने को एक दूसरे के सिवा कोई और न था। हाँ, रुलदू, ज़रूर था। जिसे उसके अनाथ हो जाने पर ज्ञानचन्द अपने गाँव से इधर लिवा लाए थे, घर के कामकाज के लिए। ग्यारह वर्ष पहले। जब वह कुल जमा तेरह वर्ष का रहा था।
रुलदू से दोनों बहनें शुरू ही से बहुत प्रसन्न रही थीं। ज्ञानचन्द की लम्बी बीमारी के और गठिए के कारण लाचार हो चुकी उनकी माँ के अंतिम वर्ष उसी के सहारे आगे बढ़े थे। इस बीच घर की रसोईदारी और मोटर गाड़ियों की झाड़-पोंछ करते-करते वह गाड़ी चलाना भी सीख गया था और चलाने भी लगा था। बहनों ने उसे ड्राइविंग लाइसेंस भी दिला रखा था ताकि वह समय-समय पर उन्हें उनके गंतव्य स्थान पर लिवा-ले जा सके।
ऐसे में रुलदू का उनके लिए अपरिहार्य बन जाना स्वाभाविक ही था। साथ ही मन-चीता भी। स्थिर एवं सहज इस वातावरण को आन बिगाड़ा उनकी नयी वेतनभोगी तिष्णा ने। जिसे उन्होंने पुरानी महरिन के बीमार एवं लाचार हो जाने पर उसके स्थान पर रखा था। उन्हें यह सूझा ही नहीं कि तेईस-वर्षीय रुलदू के संग अठारह वर्षीया तिष्णा का आमोद-प्रमोद किसी प्रेम-लीला का स्वरूप ले सकता था और जब तक वे इसे समझतीं तिष्णा गर्भधारण कर चुकी थी और उसी का हवाला देकर तिष्णा के माता-पिता ने उन बहनों को रुलदू का उसके संग विवाह करवाने पर बाध्य किया था।
घर के अन्दर तिष्णा की स्थायी टिकान दुर्भाग्यपूर्ण चुनौती रही थी।
विशेषकर स्वतंत्रता के लिए जिसका रक्तचाप अब कम ही सामान्य रह पाता।
अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद स्वराज्या ने तो अपने रसायन शास्त्र के क्षेत्र में अपना उलझाव जारी रखा था। अपने शोध-निबन्ध वह अब भी नियमित रूप से लिखा करती, शोध में उसका मार्गदर्शन पाने के लिये अब भी रसायन-शास्त्र के कई विद्यार्थी उसी का नाम अपने “गाइड’ के रूप में दिया करते और फिर वैज्ञानिक गोष्ठियों में भी उसके अपनी आवाजाही बराबर बनाए रखी थी; किन्तु स्वतंत्रता अपना अधिकांश समय अब गृह-संचालन को देने लगी थी। उसी के अंतर्गत वह तिष्णा को भी देखने-चुभने लगी।
अपनी गर्भावस्था का तिष्णा ने भरपूर लाभ उठाया ही उठाया था—घर के काम में रुलदू का हाथ बँटाना तो दूर उसके हाथ में अपने ही कई काम वह उसे पकड़ाती रही थी, जिनमें हलवाई और दवा घर के चक्कर मुख्य रूप से सम्मिलित रहते रहे थे—बेटे के जन्म के बाद उसका नखरा-तिल्ला ख़त्म होने की बजाय दुगुना बढ़ लिया था। साथ ही उसकी चोरी-चकारी। ऐसे में स्वतंत्रता गहरे असमंजस में रहने लगी। उसके लिये रुलदू से कुछ कहना भी उतना ही कठिन था जितना तिष्णा को सहना।
कारण, निजी प्रयोजन से की गयी तिष्णा की चोरी तो रुलदू के सामने उघाड़ी जा सकती थी और उघाड़ी जाती भी रही थी किन्तु बेटे के प्रयोग के लिए ग़ायब की गयी वस्तुओं का रुलदू से उल्लेख असम्भव था।
रुलदू को शुरू से ही घर का सदस्य बताने वाली स्वतंत्रता किस मुँह से उसे कहती, तुम्हारे बेटे के शरीर से मेरे जैतून के तेल की सुगन्ध आ रही है या फिर उसके मुँह से हमारे फ़्रिज के फ़्रूट जूस की।
स्वराज्या उसे लाख समझाती उसे अपना दिल उदार रखना चाहिए और दिमाग़ दमदार किन्तु स्वतंत्रता से ऐसा बन नहीं पाता। तिस पर इधर उसका रक्तचाप गड़बड़ाता तो उधर तिशना इसे अपनी सफलता मानकर त्रुटिपूर्ण अपने दुश्चक्र की गति त्वरित कर देती।
“मैं अब कैसी हूँ?” स्वतंत्रता को अपने रक्तचाप का दाब जब मन्द पड़ता प्रतीत हुआ तो उसने आई.सी.यू. के अपने एक परिचित डॉक्टर से पूछा, “इस समय तो हमने फिर सम्भाल लिया है मगर हम आपसे एक बात ज़रूर पूछेंगे आपको इधर आने की ज़रूरत क्यों पड़ जाती है? इतनी जल्दी-जल्दी?”
“मुझे मेरी नौकरानी बहुत परेशान रखती है,” डॉक्टर के समर्पित चेहरे ने स्वतंत्रता से सच उगलवा दिया।
“उसके पास आप से ज़्यादा साधन हैं? या फिर आप से ज़्यादा बैंक-बैलेंस?” डॉक्टर मुस्कुराए।
“वह बहुत लोभी है और बहुत उदण्ड भी . . .” स्वतंत्रता थोड़ी झेंपी।
“इतनी ताक़त रखती है वह? बिना आप जैसी शिक्षा के? आप जैसे पद के? और मुझे यह बताया गया था बीस साल तक आप एक ऐसे कॉलेज की प्रिंसीपल रही हैं जिसके स्टाफ़ और छात्र आज भी आपकी धाक और आपके अनुशासन की चर्चा करते नहीं अघाते।”
“हाँ, यह सच है . . . फिर अब आपने अपनी दुनिया इतनी संकुचित क्यों कर ली कि उसमें अब केवल आप रहने लगीं? और वह नौकरानी? बाहर के लोगों की, बाहर के विचारों की उसमें कोई जगह नहीं? कोई गुंजाइश नहीं . . .”
“नहीं। मेरी दुनिया में मेरी बहन भी है। मेरा रुलदू भी है,” स्वतंत्रता ने असम्मति जतलायी।
“फिर इन लोग के रहते आप उस नौकरानी को अपनी दुनिया से बाहर क्यों नहीं निकाल फेंकतीं?”
“वह रुलदू की पत्नी है उसके बेटे की माँ है . . . और रुलदू वह लड़का है जो हमारे परिवार में पला बढ़ा है और जिसकी निष्ठा में कभी कमी नहीं पायी गयी है . . .”
“हाँ, शायद अभी भी वही इस आई.सी.यू. के बाहर खड़ा है। पिछले चौदह घंटों से वहीं जमा रहा है। बिना कुछ खाए-पिए। एक ही बात दोहराता हुआ, हमारी जीजी को चंगा कर दीजिए . . .”
“हाँ, वही रुलदू . . .” स्वतंत्रता का गला भर आया।
“ओह! तो मुश्किल यह है। मामला नाज़ुक तो है लेकिन आप घबराइए नहीं। रुलदू से मैं बात कर सकता हूँ। उसकी पत्नी को सही लीक पर लाने में आपकी लिहाज़दारी आड़े आ सकती है मगर मेरी सलाह नहीं। मैं रुलदू से अभी बात करता हूँ . . .”
“धन्यवाद . . .”
जिनेवा से स्वराज्या जब कस्बापुर लौटी तो तिष्णा की विनीत मुद्रा और उसके प्रति स्वतंत्रता के सौजन्य ने उसे एक साथ आश्चर्यचकित कर दिया।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कहानी
-
- अच्छे हाथों में
- अटूट घेरों में
- अरक्षित
- आँख की पुतली
- आँख-मिचौनी
- आडंबर
- आधी रोटी
- आब-दाना
- आख़िरी मील
- ऊँची बोली
- ऊँट की करवट
- ऊँट की पीठ
- एक तवे की रोटी
- कबीर मुक्त द्वार सँकरा . . .
- कलेजे का टुकड़ा
- कान की ठेंठी
- कार्टून
- काष्ठ प्रकृति
- किशोरीलाल की खाँसी
- कुंजी
- कुनबेवाला
- कुन्ती बेचारी नहीं
- कृपाकांक्षी
- कृपाकांक्षी—नई निगाह
- क्वार्टर नम्बर तेईस
- खटका
- ख़ुराक
- खुली हवा में
- खेमा
- गिर्दागिर्द
- गीदड़-गश्त
- गेम-चेन्जर
- घातिनी
- घुमड़ी
- घोड़ा एक पैर
- चचेरी
- चम्पा का मोबाइल
- चिकोटी
- चिराग़-गुल
- चिलक
- चीते की सवारी
- छठी
- छल-बल
- जमा-मनफ़ी
- जीवट
- जुगाली
- ज्वार
- झँकवैया
- टाऊनहाल
- ठौर-बेठौ
- डाकखाने में
- डॉग शो
- ढलवाँ लोहा
- ताई की बुनाई
- तीन-तेरह
- त्रिविध ताप
- तक़दीर की खोटी
- दमबाज़
- दर्ज़ी की सूई
- दशरथ
- दुलारा
- दूर-घर
- दो मुँह हँसी
- नष्टचित्त
- निगूढ़ी
- निगोड़ी
- नून-तेल
- नौ तेरह बाईस
- पंखा
- परजीवी
- पारगमन
- पिछली घास
- पितृशोक
- पुराना पता
- पुरानी तोप
- पुरानी फाँक
- पुराने पन्ने
- पेंच
- पैदल सेना
- प्रबोध
- प्राणांत
- प्रेत-छाया
- फेर बदल
- बंद घोड़ागाड़ी
- बंधक
- बत्तखें
- बसेरा
- बाँकी
- बाजा-बजन्तर
- बापवाली!
- बाबूजी की ज़मीन
- बाल हठ
- बालिश्तिया
- बिगुल
- बिछोह
- बिटर पिल
- बुरा उदाहरण
- भद्र-लोक
- भनक
- भाईबन्द
- भुलावा
- भूख की ताब
- भूत-बाधा
- मंगत पहलवान
- मंत्रणा
- मंथरा
- माँ का उन्माद
- माँ का दमा
- माँ की सिलाई मशीन
- मार्ग-श्रान्त
- मिरगी
- मुमूर्षु
- मुलायम चारा
- मेंढकी
- रंग मंडप
- रण-नाद
- रम्भा
- रवानगी
- लमछड़ी
- विजित पोत
- वृक्षराज
- शेष-निःशेष
- सख़्तजान
- सर्प-पेटी
- सवारी
- सिद्धपुरुष
- सिर माथे
- सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर
- सीटी
- सुनहरा बटुआ
- सौ हाथ का कलेजा
- सौग़ात
- स्पर्श रेखाएँ
- हम्मिंग बर्ड्ज़
- हिचर-मिचर
- होड़
- हक़दारी
- क़ब्ज़े पर
- विडियो
-
- ऑडियो
-