नाट्य नौका
दीपक शर्मा
“हलो,” साड़ियों के एक मेले के दौरान अपने कंधे पर एक हाथ के दबाव के साथ यह अभिवादन सुना तो मैंने पीछे मुड़कर देखा।
“नहीं पहचाना मुझे?” अजनबी की उतावली बढ़ ली।
“पहचानूँगी कैसे नहीं?” उसे पहचानने में असमर्थ रह जाने के कारण मुझे गप हाँकनी पड़ी, ”पहचान रही हूँ . . .”
“मेरा नाम बताओ,” अजनबी ठठायी।
मसकारा, लिप-ग्लौस, नेल-पालिश, पाउडर और रूज के प्रवण, सुव्यवस्थित प्रयोग से सजा-सँवरा यह चेहरा जितना अपना लग रहा था, उतना ही बेगाना भी। उसके बालों की ’अल्ट्रा-माडर्न’ काट और विदेशी पोशाक पारस्परिक परिपाटी के विपरीत रहीं। पाँच इंच ऊँची अपन सैंडिल की पिछली एड़ी पर टिके अपने टखनों से दो इंच नीची अपनी गुलाबी पैंट के साथ उसने बिना बाँहों की एक लाल टी-शर्ट पहन रखी थी।
“पहले तुम मेरा नाम बताओ,” मैंने चातुरी बरती।
“प्रौ-औ-औ-मिला,” वह ठठाकर फिर हँस दी, ”रूम नम्बर टवेन्टी सेवन, विमेन्ज होस्टल नम्बर तीन, कस्बापुर यूनिवर्सिटी . . .।”
’देवदाली’, मैंने उसे पहचान लिया। पंद्रह साल पहले सन दो हज़ार दस में उसके वनस्पति-विज्ञान विभाग में जब मैंने एम.एससी. में दाख़िला लिया था तो द्वितीय वर्ष की सभी सीनियरज़ उसे इसी नाम से पुकारती थीं।
“अपना वह नाम मैं भूल चुकी हूँ,” वह गम्भीर हो ली, ”दिनेश नन्दिनी पर लौट आयी हूँ . . .
“और देवदारू?”
हमारे छात्रावास के नियमानुसार आवासी छात्राएँ अपने मुलाक़ातियों को केवल अढ़ाई घंटों के बीच ही मिल सकती थीं; गर्मियों में चार बजे से साढ़े छह बजे तक और सर्दियों में तीन बजे से साढ़े पाँच बजे तक। नियमित रूप से पूरे अढ़ाई घंटों के लिए निरन्तर उपस्थित रहने वालों में ‘देवदारू’ का कोई जोड़ न था। ‘देवदाली’ भी मानो उसी नियम से बँधी थी। दोनों कहीं आते-जाते न थे। न ही मुलाक़ातियों के लिये बनी छात्रावास की विज़िवटर्स गैलरी, दर्शक-दीर्घा, ही में बैठते। पूरे के पूरे अढ़ाई घंटे एक दूसरे की संगति में खड़े-खड़े बिता दिया करते। छात्रावास के मुख्य द्वार के बाहर बायीं ओर रहे वृक्षों और लताओं के झुरमुट के पास। झुरमुट की लताओं में शूलपर्णी हौली की वल्ली भी रही और अंगूर की दाख भी। लेकिन हमारी सीनियरज़ ने दिनेशनंदिनी को पुकारने के लिए वहाँ फैली अमर वेल ‘देवदाली’ ही को ऐंठा था। इसी प्रकार उस झुरमुट में गोल फलियों वाले अमलतास भी थे और द्विफली मेपल पेड़ भी; शंकुधारी रेडवुड भी और लंबे पौपलर भी, किन्तु उन्हें उस बेजोड़ विजिटर के लिये सबसे ऊँचा खड़ा नोकदार ‘देवदारू’ ही सर्वोपयुक्त लगा था।
“वह प्रकरण अब एक त्रासदी का नाम है,” दिनेशनंदिनी गम्भीर हो चली, ”उसे छोड़ो। अपनी कहो। तुमने शादी अपने मदन से की या किसी और से?”
“हाँ। मदन ही से। लेकिन त्रासदी इधर भी है,” मैंने उसे गुदगुदाना चाहा, ”बाएरन ने कहा है कहीं ’आल कौमेडिज आर एंडेड बाए अ मैरिज’, विवाह सभी कामेडियों को समाप्त कर देता है . . .”
“तुम ज़रूर मेरा मन बहला रही हो। डरती हो तुम्हारी मदनवाटिका को मेरी नज़र लग जायेगी। यह बताओ कितने बच्चे हैं?”
“दो। दोनों बेटे हैं। और तुम्हारे?”
“मेरी एक ही बेटी है . . .”
“दो क्यों नहीं?”
“अपनी साड़ी ख़रीद ली क्या?” उसने मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया और अपना ध्यान मेरी साड़ी पर ला पलटा।
“हाँ . . .”
”दिखाओ तो . . .”
मैंने पैकेट खोलकर उसे साड़ी दिखायी तो वह मुस्कुरा पड़ी, ”पीले और सफ़ेद रंग के काम्बीनेशन तुम्हें अभी भी प्रिय हैं?”
उधर कस्बापुर में बेशक हमारे मित्र-समूह अलग-अलग रहे थे, किन्तु जब भी हम एक-दूसरे के सामने पड़ती थीं तो पारस्परिक स्नेह और सौहार्द बाँटना कभी न भूला करतीें।
“तुम्हारी ख़रीदारी बाक़ी है क्या?” मैंने पूछा। उसके हाथ में अपने बटुए के अलावा कुछ न रहा।
“नहीं। मेरी ख़रीदारी हो चुकी है।”
थोड़ी दूरी पर खड़ी एक संगिनी-स्त्री की ओर उसने इशारा किया। स्त्री साधारण वस्त्रों में थी और साड़ी के तीन पैकेट पकड़े थी।
“बाहर चलें?” मैं सिकुड़ ली।
“तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ?” मेले के परिसर के बाहर पहुँचने पर जैसे ही एक बड़ी मोटरगाड़ी उसकी दिशा में आन बढ़ी उसने मुझसे पूछा। वह जान गयी थी मेरी सवारी सार्वजनिक वाहन रहते हैं।
♦ ♦ ♦
”तुम्हारे घर चलूँ?” इस समय मैं उसे अपने घर नहीं ले जाना चाहती थी। उस सुबह मेरी महरिन आयी नहीं थी और घर के सभी घरेलू कामकाज निपटाने को बाक़ी थे, ”मेरे बेटों को अपने स्कूल से डेढ़ बजे छुट्टी मिलेगी और अभी बारह भी नहीं बजे . . .”
“क्यों नहीं?” वह उत्साहित हो ली।
ड्राइवर ने अपनी सीट से उतर कर दिनेशनन्दिनी के लिये मोटर का दरवाज़ा खोला तो एक सात-साढ़े सात वर्षीया बच्ची आगे बढ़ कर गाड़ी में दाख़िल हो ली। मस्तिष्क संस्तभ की स्पष्ट रोगिणी वह मौंगोलौएड थी, डाउनंज सिन्ड्रोम से पीड़ित। उसका सिर अजीब ढंग से बड़ा था, माथा बहुत छोटा, आँखें ऊपर की तरफ़ मुड़ी हुई, नाक चपटी, कान नीचे की ओर अग्रसर, होंठ मोटे और ठुड्डी की तरफ़ झुके हुए।
दिनेशनन्दिनी ने उसे चुमकारा और अपनी गोदी में समेट लिया। संगिनी-स्त्री अपने पैकेटों के साथ ड्राइवर के पास आगे जा बैठी। मैंने दिनेशनन्दिनी की बग़ल में अपना स्थान ग्रहण किया।
“मुझसे हाथ मिलायेंगी?” मैंने बच्ची की उपस्थिति स्वीकार की। अपना हाथ उस ओर बढ़ाकर।
“हाथ मिलाओ, वसन्ता,” दिनेशनन्दिनी ने लाड़ से बेटी का हाथ मेरे हाथ पर धर दिया।
“बहुत प्यारा नाम है,” बच्ची की चमड़ी पर लकीरें सी गढ़ी रहीं, ”वसन्ता . . . ”
वसन्ता? ‘देवदारू’ का असली नाम वसन्त कुमार ही तो रहा? उसी के नाम की श्रुत्यावृत्ति थी वसन्ता? उसी के नाम का अनुनाद?
“मेरी फ्राक सुन्दर नहीं क्या?” दिनेशनन्दिनी अपनी आवाज़ में बच्चों की तोतलहाई उतार लायी, ”पूछो, आंटी से पूछो, मेरी फ्राक प्यारी नहीं क्या?”
“फ्राक तो बहुत ही प्यारी है,” मैं समझ गयी वर्तमान संगति में ’वसन्त कुमार’ और ’वसन्ता’ को वार्तालाप की समोच्च रेखा से दूर रखना अनिवार्य था, ”और यह नीला रंग आप पर फबता भी ख़ूब है . . .”
बच्ची ने अपना हाथ मेरे हाथ से अलग खींच लिया।
♦ ♦ ♦
एक वैभवशाली बँगले के सामने उसकी गाड़ी जा रुकी।
अन्दर जाते ही पहले लॉन दिखाई दी जिसकी ताज़ा कटी घास गहरी रही थी और क्यारियों में लगे फूल विविध रंगों के। लॉन के ठीक सामने बँगले का अग्रभाग था जिसका करामाती घेरा मुझे अनायास ही शीशेदार उन वातानुकूलित दुकानों की याद दिला गया जिनके अंदर जाने में मुझे गहरी हिचकिचाहट महसूस हुआ करती।
गाड़ी से नीचे उतरते ही बच्ची लॉन के दूसरे सिरे की ओर दौड़ ली।
“तुम बेबी का ध्यान रखो, जमुना,” दिनेशनन्दिनी ने संगिनी-स्त्री के साथ से साड़ी के पैकेट ले लिये, ”उसके पीछे जाओ . . .”
“यहीं बैठते हैं,” सामने दिखाई देने वाले भव्य उसके ड्राइंग-रूम में अपने क़दम न ले जाकर मैंने लौबी-नुमा प्रतीक्षा कक्ष ही में रोक लिये।
“जीजी की पसन्द मिल गयी है, ममा,” दिनेशनन्दिनी वहीं से एक कमरे की दिशा में चिल्लायी।
“तुम कुछ सोचकर लेने जाओ और फिर वह न मिले? असम्भव,” पचपन और साठ के बीच की उम्र की एक प्रौढ़ा वहीं लौबी में चली आयीं। उन्होंने एक डिज़ाइनर सलवार सूट पहन रखा था और उनके बाल भी आधुनिकतम काट लिये थे। चेहरा उनका भी दिनेशनन्दिनी के चेहरे की तरह पूरा मेकअप पहने रहा।
“आप साड़ी देखिये, ममा,” दिनेशनन्दिनी ने साड़ी के पैकेट लौबी के लम्बे सोफ़े पर टिका दिये, “मैं पीने के लिये कुछ लाती हूँ। जमुना उधर वसन्ता के पास गार्डन में है . . .”
“वसन्ता और हमारा गार्डन,” प्रौढ़ा मेरी ओर देखकर स्वागत-मुद्रा में मुस्करायीं, ”इनसेपेरेबल (अपृथक्करणीय)!”
“मैं दिनेशनन्दिनी की पुरानी सहेली हूँ, प्रमिला,” मैंने प्रौढ़ा को अपना परिचय दिया। अपनी तरंग में दिनेशनन्दिनी उन्हें मेरा परिचय देना भूल गयी थी।
“मैं उसकी सास हूँ . . . ”
“आपका बँगला बहुत सुन्दर है। अभी हाल में बनवाया है?” लौबी से दिखाई दे रहे ड्राइंग रूम की लम्बी, ऊँची खिड़कियों के शीशे इतने पारदर्शी रहे कि उनके होने का अहसास ही ख़त्म हो रहा था और लौबी के फ़र्श का संगमरमर इतना चमकीला था मानो रगड़ाई की मशीन उस पर पिछले ही दिन चलाई गयी हो।
“यह सवाल पूछने वाली तुम पहली नहीं हो ,” प्रौढ़ा हँसी, ”यहाँ जो भी पहली बार आता है, यही पूछता है। सच बताऊँ? हमारा बँगला आठ साल पुराना है। अपने बेटे की शादी पर बनवाया था। और जो यह इतना नया लगता है सो सब दिनेशनन्दिनी के हाथों का चमत्कार है। इसकी पूरी चमक-दमक उसी की मेहनत की बदौलत क़ायम है। हर रोज़ तीन घंटे सुबह और दो घंटे शाम को वह इसी को सजाने सँवारने में गुज़ारती है . . . ”
“मैंने ग़लत सुन रखा था,” उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा के अंतर्गत मैंने कहा, “एक अच्छी और बुरी गृहिणी में केवल एक घंटे का अन्तर होता है . . .”
“क्यों?” हाथ में ट्रे लिए दिनेशनन्दिनी हमारे पास पहुँच ली, “वह एक लौ आव हाउसवर्क है न! उस की बाबत नहीं सुना तुमने? इट एक्सपैन्डज़ टू फ़िट द टाइम अवेलेबल प्लस हाफ-एन-हावर-सो औबवियसली इट इज़ नेवर फिनिशड (समय की उपलब्धता को देखते हुए घर का काम जितना विस्तार पाता है उसमें आधे घंटे का जुड़ना अनिवार्य है और यह प्रत्यक्ष है वह कभी भी ख़त्म नहीं हो सकता) . . .”
“यही तो,” प्रौढ़ा ज़ोर से हँस पड़ी, “उधर हमारे पंजाब में भी एक कहावत है, कंठी वाला आ गया पाहुना, नी माए, तेरे कॅम नईं मुक्के। मतलब, कंठी पहने पाहुना आ पहुँचा है, लेकिन माँ, काम तेरे अभी तक ख़त्म नहीं हुए) . . . ”
“लो, जूस लो,” दिनेशनन्दिनी ने सबसे पहले प्रौढ़ा के हाथ में गिलास थमाया, फिर मेरी ओर बढ़ आयी।
“थैंक यू,” गिलास लेकर मैंने पास पड़ी एक साइड-टेबिल पर उसे टिका दिया।
“देखिये, ममा,” दिनेशनन्दिनी अब साड़ियों के पैकेटों पर लौट आयी, ”जीजी के लिये क्या उम्दा चीज़ लाई हूँ . . .”
पैकेट का डिब्बा खोलकर उसने एक साड़ी अपनी सास की गोदी में ला धरी, ”चिकनकारी में कामदानी और जरदोज़ी वर्क। रेशमी और सूती धागे के साथ-साथ सोने और चाँदी की तारों को कैसे इस बंगलौरी सिल्क में पिरोया गया है . . . ”
“बहुत सुन्दर है। अपने लिये क्या लायीं?”
“पहले अपनी साड़ी देखिये अब,” दिनेशनन्दिनी ने दूसरा डिब्बा खोला, ”डस्की आरेंज काटन पर पारसी गारा थ्रेडवर्क और मोटिफ का जाल . . . ”
“सुन्दर, बहुत सुन्दर,” अपनी कुर्सी से प्रौढ़ा उठ खड़ी हुई, बहू अपनी की गाल चूमने, ”थैंक्स अ टन . . . ”
“मेरी भी देखिये,” दिनेशनन्दिनी ने तीसरा डिब्बा खोला, ”स्वरोस्की क्रिस्टल का इस्तेमाल। दुकानदार बोला जब इस साड़ी से आप ऊब जाएँ तो इन क्रिस्टल को नये सिरे से दूसरी साड़ी में लगवा लीजिये . . . ”
“तुम पर यह ख़ूब फबेगी, मगर तुझे अपने लिये भी चिकनकारी में कुछ लाना चाहिये था . . . अब मेरी मान . . . यह बंगलौरी भी तू रख ले . . . विद्या के लिये यह मोटिफ के जाल वाली रख लेते हैं . . .”
“कैसी बात करती हैं, ममा?” दिनेशनन्दिनी ने सास की गाल चूम ली, “जीजी के लिये जो गिफ़्ट लायी हूँ, वह सिर्फ़ जीजी ही के लिये है। हमें भूलना नहीं चाहिए हमारे परिवार को उन्होंने पहला ग्रैन्डसन दिया है . . .”
”परसों की पार्टी में तू अब यही अपने क्रिस्टलज़ पहनना,” प्रौढ़ा ने अपनी बहू को अपने अंक में भर लिया, “इसके ब्लाउज, पेटीकोट और फ़ौल का ज़िम्मा मेरा . . . ”
“थैंक यू, ममा,” दिनेशनन्दिनी साड़ियाँ समेट कर उन्हें उनके डिब्बों में वापस धरने लगी।
तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी।
“मैं देखती हूँ, ममा,” दिनेशनन्दिनी ने हाथ का काम छोड़ दिया, “आप बैठी रहिये . . .”
“आप बहुत भाग्यशाली हैं,” अपनी बेआरामी दूर करने के लिये मैंने प्रौढ़ा से कहा; उन साड़ियों की क़ीमत मैं जानती रही, आठ हज़ार, पाँच हज़ार और साढ़े चार हज़ार। जबकि दिनेशनन्दिनी ने जिस साड़ी के साथ मुझे उस मेले में पकड़ा था उसकी क़ीमत मात्र तीन सौ चालीस रही थी, “आपको बहुत अच्छी बहू मिली है . . . ”
“हलो,” दिनेशनन्दिनी की आवाज़ हमारे पास तैर ली, “बिल्कुल . . . माथुरज़ आ रहे हैं . . . द्विवेदीज़ आ रहे हैं . . . रिज़वीज़ आ रहे हैं . . . हाँ शुक्लाज़ भी . . . ओकेज़न? (अवसर? ) . . . जब सब इकट्ठा होंगे तो ख़ुलासा करेंगे . . . इस समय कोई बैठा है, बाद में विस्तार से बताती हूँ . . . बाय . . . ”
“मैं जानती हूँ मैं बहुत भाग्यशाली हूँ,” दिनेशनन्दिनी पर की गयी मेरी टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया प्रौढ़ा ने फ़ोन के रखे जाने पर दी; टेलीफोन-वार्ता वह शायद पूरी की पूरी सुना चाहती रही थीं, “नौ निध बारह सिद्ध . . . ”
“जी,” मैंने अपना गिलास ख़ाली किया। टेलीफोन पर दिनेशनन्दिनी ने मेरी चर्चा करते समय जैसे ही मेरा सम्बन्ध ‘कोई’ से जोड़ कर अपनी पार्टी के आयोजन का कारण बताना टाल दिया था, उस सब से मैं उखड़ ली थी।
“हीरा का फोन था,” दिनेशनन्दिनी ने सास की जिज्ञासा तुष्ट की।
“मैं समझ गयी थी,” प्रौढ़ा हँसी, “जब तुम बाज़ार गयी रहीं, तब भी उसने पीछे फ़ोन किया था। बहुत सवाल पूछती है। कौन से बाज़ार गयी? क्या लेने गयी? किसके साथ गयी?”
“मैं अब चलूँगी,” मेरी बेआरामी बढ़ ली। वहाँ मैं असंगत थी।
“ठीक है,” किसी पूर्वाधिकृत चिन्ता में डूबती-उतरती दिनेशनन्दिनी मुझे बाहर ले आयी। चुप और गुमसुम।
बाहर वसन्ता लॉन के दूसरे सिरे पर अभी भी खड़ी थी।
जभी मैं ठिठक ली।
उस सिरे पर पेड़-पौधों का वैसा ही झुरमुट था जो उधर हमारे कस्बापुर के छात्रावास के बाहर रहा; वही हौली, अंगूर और घघरवेल की लताएँ और अमलतास, मेपल, रेडवुड और देवदार के वही पेड़। दिनेशनन्दिनी के दिल में वसन्त कुमार निर्वासित कहाँ था?
“कुछ याद आया क्या?” दिनेशनन्दिनी भी रुक ली।
“वसन्त कुमार के सिविल सर्विसिज़ का नतीजा क्या रहा था?”
सन् दो हज़ार दस के उस दशक में हमारी कस्बापुर यूनिवर्सिटी के लगभग सभी स्नातकोत्तर विद्यार्थी सिविल सर्विस का दम भरा करते थे। दिनेशनन्दिनी और वसन्त कुमार तो कुछ ज़्यादा ही। दोनों को यक़ीन था सिविल सर्विस में चुने जाने पर जीवन की दौड़-धपाड़ में साथ-साथ दौड़ने के लिये उन्हें पक्की सड़क मिल जायेगी। हम सभी को मालूम था उधर अपने गाँव में दिनेशनन्दिनी एक बहुत बड़ी हवेली में रहती थी और वसन्त कुमार उस हवेली के ब्राह्यांचल में बनी एक छोटी बस्ती के एक छोटे मकान में।
“कुछ ख़ास नहीं,” दिनेशनन्दिनी ने अपना उत्तर संक्षिप्त रखा।
“वसन्त कुमार को तुम अभी भी भूली नहीं?” पुरानी मैत्री के संदर्भ में मैंने उसके प्रति अपने सद्भाव को दोबारा स्थापित करने के प्रयास में कहा।
“उसके अभिशाप से मैं बच नहीं सकती। यह उसका दैवी धिक्कार है . . .”
दिनेशनन्दिनी वसन्ता की ओर देख रही थी।
“तुम्हें ज़रूर फिर से माँ बन जाना चाहिये . . .”
“नहीं . . . ”
“तुम बेवजह अपने को यातना दे रही हो, उत्पीड़ित कर रही हो . . .”
“वसन्ता की सभी हरकतें उससे इतनी मिलती हैं कि मेरा शक अब यक़ीन में बदल चुका है कि वही वसन्ता के रूप में मेरे पास लौट आया है . . .”
“मतलब?” मेरी चीख निकल गयी, “वसन्त कुमार अब जीवित नहीं?”
“बावले ने मेरी शादी के दिन आत्महत्या कर ली . . .”
“आत्महत्या उसने ज़रूर किसी दूसरे कारण से की होगी। शायद सिविल सर्विसिज़ में न आ पाने ही की वजह से। कौन अपनी गर्लफ्रेण्ड की शादी को इतना महत्त्व देता है? तुम्हें उसे भूल जाना चाहिये . . .”
“वह बावला था। महत्त्व देता था। आत्महत्या से ठीक पहले उसने मुझे फोन पर बताया भी था, ‘तुम्हें गले
बाँधने आऊँगा अब। तुम्हारी संतान के रूप में ’ . . .”
“और तुमने मान लिया? तुम उसे इतना चमत्कारी मानती हो? इतना शक्तिशाली?”
“हाँ। मैं उसे चमत्कारी ही मानती हूँ। उस का प्रेम जुनूनी था। उन्मादी। कुछ भी विचित्र, कुछ भी अलौकिक, कुछ भी असंभव करने की क्षमता रखता था वह। वसंता को मेरे गले उसी ने बाँधा है . . .”
दिनेशनन्दिनी से वह मेरी अंतिम भेंट थी। अपने घर पर उसे बुलाने का साहस मैं जुटा नहीं पायी और उस की नाट्य नौका में बिन बुलाए सवार होने की मेरे भीतर कोई उत्कंठा रही भी नहीं।
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