कलोल
दीपक शर्मा
“क्या कर रहे हो?” उस रविवार, साढ़े बारह बजे के लगभग विनोद का फ़ोन आया।
“तुम्हारा क्या इरादा है?” मैं उछल पड़ा।
अपने सभी मित्रों में विनोद मुझे सर्वप्रिय है। भारतीय राजस्व सेवा के अन्तर्गत हम दोनों एक ही समय नागपुर की प्रशिक्षण संस्था में साथ-साथ रह चुके हैं।
“क्लब चलोगे क्या?” विनोद ने पूछा।
“क्यों नहीं?” मैं झूमने लगा।
“मगर आज कमला को ज़रूर साथ चलना होगा,” विनोद ने ज़िद की।
“कमला को रहने दो,” अपनी ठस्स, नीरस, उबाऊ और पिछल्ली पत्नी को साथ घुमाने से मैं बहुत कतराता हूँ, “वह अपनी यूनिवर्सिटी का कोई काम कर रही है। आज बाहर न निकलेगी।”
“हाँको नहीं,” विनोद अड़ गया, “कमला से बात कराओ।”
“वह उधर धूप में बैठी है,” मैंने फिर टालना चाहा, “उसे रहने दो। उसे घूमने का कोई शौक़ नहीं। आज स्टैग पार्टी रखते हैं। पुरुष गोष्ठी।”
“न,” विनोद न माना, “निशा को मैं नाराज़ नहीं करना चाहता और उस का कहना है, आज लंच क्लब में करेंगे और तुम दोनों के साथ करेंगे।”
“ठीक है,” विनोद की बात मुझे रखनी पड़ी, “अभी आधे घंटे में मिलते हैं।”
“और मिलेंगे तुम्हें कमला की संगति में,” विनोद हँस दिया।
♦ ♦ ♦
“गुड आफ़्टर नून, सर,” बार के काउंटर पर अपना गिलास भरवाते हुए हरिदत्त मिल गए। उन्हें सर्विस से रिटायर हुए दस साल से ऊपर होने को आए, मगर अब भी हम लोग से वह वही पुराने आदर-सत्कार की अपेक्षा रखते हैं।
“बीवी तुम्हें बहुुत सही मिली,” हरिदत्त की आवाज़ लड़खड़ायी, “तभी तो इस उम्र में भी भरपूर जवान दीखते हो।”
नज़र उन की उसी बार-रूम की एक मेज़ पर विनोद के साथ बैठी आकर्षक निशा पर टिकी थी। उन की बग़ल में बैठी निष्प्रभ कमला पर नहीं।
“थैंक यू, सर! थैंक यू,” मैं समझ गया हरिदत्त मुझे विनोद मान कर ऐसा बोल रहे थे। मेरे चेहरे एवं शरीर की तराश और बनावट विनोद से मिलती-जुलती है भी और जो लोग हमें निकट से नहीं जानते, वे प्रायः धोखा खा जाते हैं।
“और कहो,” हरिदत्त मेरी ओर मुड़ लिए, “बच्चे कहाँ हैं तुम्हारे? क्या करते हैं?”
“दो बेटियाँ हैं, सर,” मैंने विनोद की बेटियाँ गिन दीं, “दोनों कैम्ब्रिज में हैं। बड़ी हार्वर्ड में और छोटी एम. आए.टी. में।”
“वहाँ की पढ़ाई बहुत महँगी नहीं क्या?” प्रभावित होकर हरिदत्त ने सीटी बजायी, “कैसे एफ़ोर्ड कर रहे हो?”
मेरा अपना बेटा एक स्थानीय कॉलेज में बी.ए. कर रहा है और उस कॉलेज की शिकायत पेटी का कार्य-भार सँभालने के अतिरिक्त बाक़ी सब तरफ़ से निश्चिंत रहता है।
“आप शायद भूल रहे हैं, सर! मैंने विश्व बैंक की अपनी एक पोस्टिंंग के अंतर्गत पिछले पाँच वर्ष वाशिंग्टन में गुज़ारे हैं,” विनोद बन कर हरिदत्त को छकाने में मुझे ख़ासा मज़ा आने लगा।
“यू.एस. से कब लौटे तुम?” हरिदत्त अपना चेहरा मेरे निकट ले आए।
“पिछले महीने, सर,” झूठ बोलते समय मैं तनिक न सकपकाया।
“इसी ख़ुशी में एक मेरी तरफ़ से लो,” हरिदत्त उदार हो लिए। पहले भी हरिदत्त मुझे यदा-कदा दिखाई देते रहे थे, परन्तु ऐसा आतिथ्य उन्होंने पहले कभी न प्रदर्शित किया था।
“रहने दीजिए, सर,” मैंने ऊपरी तौर पर कहा।
“नहीं, बताओ, क्या लोगे?”
“जिन, सर,” हरिदत्त जिन ही ले रहे थे।
“जिन मेरी भी कमज़ोरी है। एक बार पीना शुरू करता हूँ तो तीन-चार पेग अंदर करना मेरे लिए मामूली बात है . . .”
“थैंक यू, सर,” हरिदत्त के स्टूल के पास मैं अपने लिए कुछ दूरी पर रखे एक दूसरे स्टूल को उठा लाया।
“एक ऐसा और बनाओ,” हरिदत्त ने बार पर मेरे लिए और्डर दिया, “मेरे फ़ौरन रिटर्नड दोस्त के लिए।”
“चियर्स सर!” अपना गिलास उठा कर मैं हरिदत्त के गिलास के निकट ले आया।
“येस, चीयर्स,” हरिदत्त ने अपने गिलास के संग मेरे गिलास का स्पर्श स्वीकारा।
“कल शाम मेरे घर आओ,” हरिदत्त ने अपनी नज़र निशा पर गड़ा दी, “अपनी बीवी के साथ।”
“यस सर,” मैंने गिलास से एक बड़ा घूँट लिया। निशा एक अप्सरा के समान त्रिपुरसुंदरी होने के साथ-साथ एक भव्य पृष्ठभूमि व व्यक्तित्व की स्वामिनी भी है—उस के पिता हमारे प्रदेश के मुख्य आयकर आयुक्त रह चुके हैं—और उस की मनोहर एवं शालीन मुखाकृति के सम्मुख कमला के चेहरे की भृकुटि और त्यौरी मुझे कचोट-कचोट गयी। उस के कॉलेज अध्यापक, अकड़बाज़, पिता का स्मरण दिलाती हुई।
“तुम्हारी बीवी को खाने में क्या पसंद है?” हरिदत्त ने भी एक लंबा घूँट भरा।
“क्या बताऊँ सर?” मैं सोच में पड़ गया। कैसे कहता कमला की पसन्द-नापसंद की ओर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया है और दिमाग़ पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देने पर भी मैं नहीं बता पाऊँगा खाने में उसे क्या अच्छा लगता है! वास्तव में उस का खान-पान कभी भी मेरी रुचि का केंद्र नहीं रहा है। शायद यही हाल उसका भी है। मेरे खाने के प्रति वह पत्नी होते हुए भी अक्षम्य लापरवाही बरतती है। बावजूद इसके कि जिस स्थानीय यूनिवर्सिटी में वह पढ़ाती है, उस में आधे दिन घेराव अथवा हड़ताल की स्थिति बनी रहती है, जिस कारण उस के काम के घंटे बहुत कम रहते हैं। और वह मेरे खाने के काम की पूरी ज़िम्मेदारी सुगमता से ले सकती है। मगर उसने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। ध्यान सारा उस का अपने शोध-निबंधों को तैयार करने और फिर उन्हें छपवाने में निकल जाता है। नौकर द्वारा तैयार की गई मेज़ पर वह बेटे के और मेरे साथ समान मेहमान की तरह भोजन परखती-जोखती है और जो भी उस समय अच्छा बना होता है, उसका डोंगा ख़त्म कर देती है।
“मेरा नौकर सब बना लेता है,” हरिदत्त ने मुझे अपनी एक प्रशस्त मुस्कान दी, “ईश्वर मेरी बीवी की आत्मा को शान्ति दे . . . मगर यह सच है कि जब तक वह ज़िंदा रही, सिर्फ़ मेहमानों की हाज़िरी ही में मुुझे अच्छा खाना मिला, वरना उस के रहते तो . . .”
“आप ज़रूर मज़ाक कर रहे हैं, सर,” मेरी हँसी छूट चली।
“हाँ, तुम तो हँसोगे ही। तुम्हारी बीवी पाक-शास्त्र में निपुण जो ठहरी। अपनी माँ की तरह। तुम्हारी ससुराल भी तो मेरी देेखी-भाली है। तुम्हारे ससुर और मैं पुराने मित्र हैं।”
“वह आप के बारे में अक्सर बात करते हैं, सर,” मैंने अँधेरे में तीर चलाया।
“तुम से भेंट होने से पहले वह बहुत चाहते रहे, मैं अपने बेटे को उनका दामाद बना लूँ। मगर मेरी बीवी नहीं मानी . . . ईश्वर उस की आत्मा को शान्ति दे . . . मगर यह सच है वह जब तक जीवित रही, कमबख़्त बड़ी ज़ालिम रही। कहती, सुंदर स्त्रियों के पति को दो नहीं, चार आँखों की ज़रूरत रहती है। अब मुझे तो इसका कोई अनुभव रहा नहीं। मेरी बीवी बेचारी तो ऐसी कमसूरत रही कि उसे देखते समय आँखें कई बार सकपका जाया करतीं . . . ईश्वर बेचारी की आत्मा की शान्ति बनाए रखे . . . मगर तुम बताओ, तुम तो अनुभव रखते हो। सुंंदर स्त्रियों के बारे में मेरी बीवी की बात में सच्चाई ज़्यादा रही या ईर्ष्या?”
“ईर्ष्या ही,” मेरा नशा जमने लगा, “आप को याद होगा, मौनटेन ने कहीं कहा था . . . ब्यूटी बिफ़ोर गुडनेस . . . गुणवंती से पहले सुंदरी . . .”
“ओह नो!” हरिदत्त ने अपना गिलास ख़त्म कर दिया, “मैंने अपने बेटे के साथ बहुत अन्याय किया क्या? मगर ठहरो, अभी ठहरो। मेरी बीवी ने एक बात और भी कही थी . . . ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दे . . . सोचता हूँ, तुम्हें भी लगे हाथ चेता ही दूँ। मेरी बीवी का कहना था, सुंदर स्त्रियों के पति लंबी आयु नहीं भोग पाते . . .”
“हलो, जगदीश,” तभी वेंकट ने मुझे पीछे से पुकारा,“हाओ आर यू?”
वेंकट भी मेरा बैचमेट है मगर मेरी भारतीय राजस्व सेवा का न होकर भारतीय पुलिस सेवा में है और हरिदत्त को नहीं पहचानता।
“गुड,” उस के अभिवादन का संक्षिप्त उत्तर दे कर मैंने अपना मुँह फेर लिया।
“उसने तुम्हें जगदीश कहा क्या?” हरिदत्त ने हैरानी जतलाई।
“हाँ, सर,” मैं हँस दिया, “बहुत से लोग समझते हैं हम एक जैसे लगते हैं।”
“कहीं तुम्हारी बीवी तो उनमें से एक नहीं?” हरिदत्त ने मेरी पीठ पर एक धौल जमाया।
“नहीं, सर,” मैंने स्थिति सँभालने का प्रयास किया, “वह नहीं समझती मगर दूसरे कई लोग धोखा खा जाते हैं। कुुछ लोग तो इसका लाभ उठा कर धोखा दे भी देते हैं। समझते हैं, हमाारी समानता ज़बरदस्त है . . .”
“समानता से क्या होता है? मूढ़ ही धोखा खाते या देते होंगे,” हरिदत्त ने अपना एक हाथ मेरे कंधे पर टिका दिया, “तुम्हीं कहो, एक दूसरे का आभास कोई समान शक्ल-सूरत दे भी दे, फिर भी शख़्सियत तो निजी ही बनी रहेगी न! जब माता-पिता, रिश्ते-नाते, अवसर-विकल्प ही समान नहीं . . .”
“क्या हो रहा है?” तभी एक वृद्ध सज्जन हमारी ओर बढ़ आए।
“जिन,” हरिदत्त ने बार के वेटर को अपना ख़ाली गिलास उठा कर दिखाया, “दो जिन और हमारे लिए . . . और तुम क्या लोगे ब्रदर?”
“अभी कुछ देर रुक कर कुछ लूँगा,” वृद्ध सज्जन ने एक मेज़ की ओर इशारा किया, “पहले अपनी वाइफ़ के लिए कुछ भिजवा लूँ . . . ”
“जिन इस बार अपने ही लिए मँगवाइएगा, सर,” वृद्ध सज्जन की उपस्थिति का लाभ उठा कर मैं उठ खड़ा हुआ, “मैं अब अपने ग्रुप की सुध लूँगा, सर।”
“इनकी पत्नी बहुत सुंदर है,” हरिदत्त ने मेरी ओर अपनी आँख मिचकायी, “और यह मुझ से भी दस वर्ष बड़े हैं। द एक्सेपशन प्रूवज़ द रूल, यू सी।”
“तुम कलोल से कभी बाज़ न आओगे, हरि,” वृद्ध सज्जन हँसने लगे।
चाहते हुए भी मैं आशान्वित हँसी छलकाने में असफल रहा और विनोद वाली मेज़ पर लौट लिया।
♦ ♦ ♦
“कहाँ अटके रहे इतनी देर?” बार के काउंटर की तरफ़ विनोद की पीठ रही थी तथा हरिदत्त के साथ हुई मेरी भेंट का उसे ज्ञान न रहा था।
“उधर अभी हरिदत्त मिले थे,” मैंने विनोद को बताया।
“विलक्षण आदमी है वह,” विनोद मुस्कराया, “इस पकी उम्र में भी लाजवाब यादाश्त रखता है। पिछले सप्ताह निशा के पिता की एक पार्टी में पाँच साढ़े पाँच साल बाद हमें मिला था। लेकिन मजाल है जो हमें पहचानने में ज़रा भी चूक गया हो . . .”
मेरा रहा-सहा नशा भी हिरन हो गया।
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