बाजा-बजन्तर

01-09-2020

बाजा-बजन्तर

दीपक शर्मा (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

बाजा अब बजा कि बजा दोपहर में।

नयी किराएदारिन को देखते ही मैं और छुटकू उछंग लेते हैं।

वह किसी स्कूल में काम करती है और सुबह उसके घर छोड़ते ही बाजा बंद हो जाता है और इस समय दोपहर में उसके घर में घुसते ही बाजा शुरू। छुट्टी वाले दिन तो, ख़ैर, वह दिन भर बजता ही रहता है।

गली के इस आख़िरी छोर पर बनी हमारी झोपड़ी की बगल में खड़ी हमारी यह गुमटी इन लोगों के घर के ऐन सामने पड़ती है। जभी जब इनका बाजा हवा में अपनी उमड़-घुमड़ उछालता है तो हम दोनों भी उसके साथ-साथ बजने लगते हैं; कभी ऊँचे तो कभी धीमे, कभी ठुमकते हुए तो कभी ठिठकते हुए। अम्मा जो धमकाती रहती है, “चौभड़ फोड़ दूँगी जो फिर ऐसे उलटे सीधे बखान ज़ुबान पर लाए। घर में दाँत कुरेदने, को तिनका नाहीं और चले गल गांजने.....”

“आप बाजा नहीं सुनते?” नए किराएदार से पूछ चुके हैं हम। हमारी गुमटी पर सिगरेट लेने वह रोज़ ही आता है।

“बाजा? हमारा सवाल उसे ज़रूर अटपटा लगे रहा? "क्यों? कैसे?”

“घर में आपका बाजा जभी बजता है जब आपकी बबुआइन घर में होती है, वरना नाहीं.....”

“हाँ.....आं.....हाँ.....आं। बाजा वही बजाती है। वही सुनती है.....”

“आप कहीं काम पर नहीं जाते?” हम यह भी पूछ चुके हैं। इन लोग को इधर आए महीना होने को आए रहा लेकिन इस बाबू को गली छोड़ते हुए हम ने एक्को बार नाहीं देखा है।

“मैं घर से काम करता हूँ.....”

“कम्प्यूटर है का?” जिन चार दफ्तरों में अम्मा झाड़ू पोंछा करती है सभी में दिन भर कम्प्यूटर चला करते हैं। यूँ तो इन लोग के आने पर अम्मा भी इन के घर काम पकड़ने गयी रही लेकिन इस बाबू ने उसे बाहर ही से टरका दिया रहा काम हमारे यहाँ कोई नहीं। इधर दो ही जन रहते हैं।

“हाँ.....आं.....हाँ.....आं..... कम्प्यूटर है, कम्प्यूटर है। लेकिन एक बात तुम बताओ, तुम मुझे हमेशा बैठी ही क्यों मिलती हो?”

“बचपन में इसके दोनों पैर एक मोटर गाड़ी के नीचे कुचले गए थे," मेरी जगह छुटकू जवाब दिए रहा।

“बचपन में?” “झप से वह हँसे रहा, "तो बचपन पार हो गया? क्या उम्र होगी इस की? ज़्यादा से ज़्यादा दस? या फिर उस से भी कम?”

“अम्मा कहती हैं मैं, तेरह की हूँ और छुटकू बारह का.....”

“मालूम है?" झड़ाझड़ उसकी हँसी बिखरती गयी रही, "मैं जब ग्यारह साल का था तो मेरा भी एक पैर कुचल गया रहा। लेकिन हाथ हैं कि दोनों सलामत हैं। और सच पूछो तो पैर के मुकाबले हमारे हाथ बड़ी नेमत हैं। हमारे ज़्यादा काम आते हैं। पानी पीना हो हाथ उलीच लो, बन गया कटोरा। चीज़ कोई भारी पकड़नी हो, उँगलियाँ सभी साथ, गूँथ लो, बन गयी टोकरी.....”

“मगर आप लंगड़ाते तो हो नहीं?” पूछे ही रही मैं भी।

“हाँ.....आं.....हाँ.....आं.....लंगड़ाता मैं इसलिए नहीं क्योंकि मेरा नकली पैर मेरे असली पैर से भी ज़्यादा मजबूत है। और मालूम? तुम भी चाहो तो अपने लिए पैर बनवा सकती हो। कई अस्पताल ऐसे हैं, जहाँ ख़ैरात में पैर बनाए जाते हैं.....”

“सच क्या?” मेरी आँखों में एक नया सपना जागा रहा। अपनी पूरी ज़िन्दगी में बीड़ी-सिगरेट और ज़रदा-मसाला बेचती हुई नहीं ही काटना चाहती। यों भी अपने पैरों से अपनी ज़मीन मापना चाहती हूँ। घुटनों के बल घिरनी खाती हुई नहीं।

सच, बिल्कुल सच। एकदम सच, वह फिर हँसे रहा, और मालूम? मेरा तो एक गुर्दा भी माँगे का है, दिल में मेरे पेसमेकर नाम की मशीन टिक्-टिक् करती है और मेरे मुँह के तीन दाँत सोने के हैं.....”

“दिखाइए,” छुटकू उनके रहा, "हम ने सोना कहीं देखा नाहीं.....”

“सोने वाले दाँत अन्दर के दाँत हैं, दिखाने मुश्किल हैं.....”

“नकली पैर के लिए कहाँ जाना होगा?” अपने घुटनों पर नए जोड़ बैठाने को मेरी उतावली मुझे सनसनाएँ रही।

“पता लगाना पड़ेगा। मेरा नकली पैर पुराना है। तीस साल पुराना.....”

“दो पैकिट सिगरेट चाहिए," अपनी बबुआइन के स्कूल के समय वह आया है, "लेकिन उधार....."

उसके हाथ में एक छोटा बक्सा है।

“बाहर जा रहे हैं?” छुटकू पूछता है।

“हाँ, मैं बच्चों के पास जा रहा हूँ।”

“वे आप के साथ नहीं रहते?”

“नहीं। उधर कस्बापुर में उन के नाना नानी का घर है। वहीं पढ़ते हैं। वहीं रहते हैं.....”

“ऊँची जमात में पढ़ते हैं?”

“हाँ। बड़ा बारहवीं में है और छोटा सातवीं में। इधर कैसे पढ़ते? इधर तो हम दो जन उन की माँ की नौकरी की ख़ातिर आए हैं। सरकारी नौकरी है। सरकार कहीं भी फेंक दे। चाहे तो वीरमार्ग पर और चाहे तो, ऐसे उजाड़ में”

“उजाड़ तो यह है ही,” मैं कहती हूँ, “वरना म्युनिसिपैलटी हमें उखाड़ न देती? यह गुमटी भी और यह झोपड़ी भी।”

“सड़क पार वह एक स्कूल है और इधर सभी दफ्तर ही दफ्तर,” वह सिर हिलाता है।

“उधार चुकाएँगे कब?” छुटकू दो पैकेट सिगरेट हाथ में थमा देता है।

“परसों शाम तक,” वह ठहाका लगाता है, “इधर इन दो डिबिया में कितनी सिगरेट है? बीस। लेकिन मेरे लिए बीस से ऊपर है। मालूम है? एक दिन में मैं छः सिगरेट खरीद पीता हूँ और सातवीं अपनी कर बनायी हुई। छः सिगरेटों के बचे हुए टर्रों को जोड़ कर।”

“उधर कस्बापुर में नकली पैर वाला अस्पताल है।” पैर का लोभ मेरे अन्दर लगातार जुगाली करता है। अम्मा की शह पर, “जयपुर नाम का पैर मिलता है। ताक में हूँ जैसे ही कोई तरकीब भिड़ेगी, तेरे घाव पुरेंगे। ज़रूर पुरेंगे।”

“कस्बापुर में? नाहीं..... नाहीं..... कस्बापुर कौन बड़ी जगह है?”

“आज बाजा नहीं बज रहा?” छुटकू धीर खो रहा है। बबुआइन को अपने स्कूल से लौटते हुए हम देखे तो रहे।

“जा कर पूछेगा?” मैं हँसती हूँ।

बबुआइन से हम भय तो खाते ही हैं।

सुबह स्कूल जाते समय बंद दरवाज़ा खोलती है और एकदिश धारा की मानिन्द नाक अपनी सीध पर लम्बे-लम्बे डग भर कर गली से ओझल हो लेती है। इसी तरह दोपहर में दौड़ती हाँफती हुई बंद अपने दरवाज़े पर अपने क़दम रोकती है और दरवाज़ा खुलते फिर ओझल हो जाती है। अपने से उसने कभी हमें पास बुलाए तो रहा नहीं और फिर जितना उसे दूर ही से देखा पहचाना है उसी से उस पर भरोसा तो नहीं ही जागता है।

“हो,” छुटकू चुटकी बजाता है, “सिगरेट का उधार माँगने के बहाने से जा तो सकता हूँ.....”

छुटकू के साथ वह भी हमारी गुमटी पर चली आती है।

“सिगरेट किस से ली थी?” उसकी आवाज़ में ऐंठ है, ठसक है।

“मुझ से,” मैं कहती हूँ।

“यहाँ कोई और भी तो बैठता होगा? यह गुमटी है किस की?”

“हमारी है-”

“लेकिन इसे चलाता कौन है?”

“हमीं तो चलातो हैं-”

“मतलब? तुम्हारे साथ और कोई नहीं?”

“नहीं,” उसकी बेचैनी बढ़ते देख कर मुझे ठिठोली सूझती है।

“यह कैसे हो सकता है?” अपनी खीझ वह दबा नहीं पा रही, “मुझे तो लगता है, इधर जब भी मेरी नज़र पड़ी है मुझे तुम अकेले तो कभी दिखाई नहीं ही दिए हो.....”

“वे सब हमारे ग्राहक होते हैं,” उसे खिजाने में मुझे मज़ा आ रहा है।

“और उनमें से कोई तुम्हें धोखा नहीं दे जाता? ज़ोर-ज़बरदस्ती या चकमे से सामान उठा नहीं ले जाता?”

“नाहीं.....कभी नाहीं.....”

“ज़रूर तुम झूठ बोल रही हो। अच्छा, यह बताओ, तुम्हारी माँ कहाँ है? पिता कहाँ है?”

“हमारा बाप हमें छोड़ भागा है," यकायक बप्पा और उसका रिक्शा मेरी आँखों के सामने चला आता है। रिक्शे में बप्पा की नयी घरवाली और दूसरे बच्चे बैठे हैं।

“ओह।” उसकी तेज़ आवाज़ मंद पड़ रही है,” और तुम्हारी माँ?”

“माँ है, “मैं अब रोआँसी हो चली हूँ,” माँ ही अब सब कुछ है.....”

“ओह!”  वह और नरम पड़ जाती है।

“आज बाजा नहीं बज रहा?” छुटकू मौक़े का फ़ायदा उठाता है।

“बाजा?”

“हाँ, बाजा। आप का बाजा।”

“बाजा? ओह, बाजा। बाजा सुनने के मेरे पति शौक़ीन हैं, मैं नहीं.....”

“लेकिन आप शौक़ीन नहीं तो फिर आप इतना बजाती क्यों हो?”

“मैं कहाँ बजाती हूँ? वही बजाते हैं-” फिर खट से पलट कर पूछती है, “अच्छा एक बात बताओ। बाजा जभी बजता है जिस समय मैं घर पर नहीं रहती? मेरे पीछे क्या  वे बिल्कुल नहीं बजाते?”

“नाहीं। बिल्कुल नाहीं,” छुटकू हँस पड़ता है, “आप इधर होती हैं, बाजा जभी बजता है.....”

“ओह।” उसकी ऐंठ, उसकी ठसक गायब हो रही है।

“अच्छा, आप हमें बताइयो,” मेरी ज़ुबान से मेरे सवाल टपक रहे हैं, “आप के बाबू का एक पैर नकली है का? एक गुर्दा माँगे का है का? दिल में मशीन फिट है का? तीन दाँत सोने के हैं का?”

“मैं नहीं जानती,” वह ठिरा गयी है।

सिगरेट के पैसे दिए बिना ही अपने घर की दिशा में लपक ली है।

“फकड़ी है वह बाबू?” छुटकू से कम, अपने से ज्यादा पूछती हूँ, "उस का पैर एक नकली नाहीं?”

“फकड़ी तो वह है ही,” छुटकू कहता है, "तू यह सोच उस का नकली पैर अगर तीस साल पुराना है तो फिर उस के दूसरे के बराबर कैसे है?”

तीसरे दिन, दोपहर के समय बाबू हमें गली में दिखाई देता है।

ज़रूर वह लोकल से सड़क पर ही उतर लिया होगा।

इस बार उसके दोनों हाथ भरे हैं। पहले वाले छोटे बक्से के इलावा एक झोला भी पकड़े है।

सीधे वह हमारी गुमटी में आया है।

“सिगरेट है?” ख़रीदारी उसकी ऐसे ही शुरू हुआ करती है।

“अभी तो उधार भी है,” मेरा ग़ुस्सा छलका जा रहा है। क्यों छकाए रहा यह मुझे?

“उसी उधार में यह डिबिया भी जोड़ लेना,” अपना झोला वह हमारी गुमटी में टिका रहा है, “इसे उधर अन्दर अभी नहीं ले जाऊँगा। बाद में यहीं से उठा लूँगा.....”

“इसमें क्या है?” छुटकू पूछता है।

“मेरे महीने का राशन.....”

“बबुआइन यहाँ आयी थी,” उसका कूट खोलने की मुझे बेचैनी है।

“मेरी सिगरेट का नामे खाता बंद कराने? मेरी हर ख़ुशी की तान तोड़ना उसे बहुत ज़रूरी लगता है।”

“उसने बताया आप के पास कोई कम्प्यूटर नहीं है,” अटकल पच्चू में तीर छोड़ती हूँ।

“यह नहीं बताया, अपनी नौकरी मैंने छोड़ी नहीं थी, मेरी नौकरी ने मुझे छोड़ा था। मेरे साथ और भी कितने लोगों की नौकरियाँ गयी थीं। जिस टी.वी. कम्पनी में हम काम करते थे, वही बंद कर दी गयी थी। हमारे काम में थोड़े न कोई कमी थी। बल्कि मुझे तो अपने काम में ऐसा कमाल हासिल था कि कंपनी की जिस भी टी.वी. में कैसी भी खराबी क्यों न होती, मैं फ़ौरन जान जाता था और सही भी कर देता था।  कम्पनी के एम.डी. कम्पनी के चेयरमैन सभी अफसर मुझे मेरे नाम से जानते थे। टी.वी. में कोई भी शिकायत होती, मेरे ही नाम की डिमांड आती, लालता प्रसाद ही को भेजना, वह अच्छा कारीगर है.....”

“बबुआइन ने बताया, बाजा आप बजाते हो, आप सुनते हो, छुटकू ने बाजे की कमी बहुत महसूस की है, पिछले पूरे दो दिन पूरा सन्नाटा रहा है। बाजा एकदम बज ही नहीं रहा।”

“बजेगा। बाजा अब बजेगा। भलामानुस हूँ इसलिए बाजा ही बजाता हूँ। कोई दूसरा होता तो उस औरत की कुड़-कुड़ बंद करने के वास्ते उस की गरदन मरोड़ देता। ऐसी बेरहम औरत है, जब से मेरी नौकरी गयी है उसकी कुड़-कुड़ ऐसी शुरू हुई है कि बस एकदम बरदाश्त के बाहर है.....”

बाबू के जाने के बाद हम झोला खोलते हैं। झोले में शराब की कई बोतलें हैं।

बाजा बज रहा है।

लेकिन अब बाजा पकड़ने की बजाए मेरे कान बंद दरवाज़े के पीछे की कुड़-कुड़ आवाज़ पकड़ना चाहते हैं।

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