भाईबन्द

15-04-2022

भाईबन्द

दीपक शर्मा (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

“प्रभा जी हैं?” दरवाज़े की घंटी बजाने वाला रमेश मिश्र है। लड़की को पूछ रहा है। उसके पीछे एक ठेले पर पंजर में से एक फ़्रिज झाँक रहा है। 

“नहा रही है,” मैं खाँसती हूँ। दमे की पुरानी मरीज़ हूँ मैं। 

“फ्रिज़ कहाँ रखवाएँ? ठेले वालों को जाना है . . .।” 

“रोक लो उन्हें। नहा कर उसे आ जाने दो। वही आकर बताएगी, फ्रिज़ उसे लेना है या नहीं। और अगर लेना है तो फिर रखवाना कहाँ है।” घर के माल-मते और उसके रख-रखाव में मेरी दखलन्दाज़ी लड़की को सख़्त नापसन्द है, अपने बाप की तरह। सच पूछें तो उसके बाप के घर छोड़ कर भाग जाने के बाद ही से लड़की की अपने बाप के साथ समानताएँ बढ़ ली हैं। अकेली खाती-घूमती है। सजती-सँवरती है। और मुझ पर उसी के अन्दाज़ में चिल्लाती भी है। 

ठेले वाले को बाहर इंतज़ार के लिए रोक कर रमेश मिश्र अन्दर आ बैठा है। 

“फ़्रिज यह लोन पर है या सेकेण्ड हैण्ड है,” मेरे फेफड़ों की जकड़न बढ़ आई है। 

इससे पहले रमेश मिश्र लड़की को एक सेकेण्ड-हैण्ड स्कूटी दिलवा चुका है और एक कूलर। लोन पर, नतीजा घर का ख़र्चा मुझे देते समय लड़की का हाथ तिरछा हुआ करता है। और मुझे जौ-जौ का हिसाब रखना पड़ता है। 

“सेकेण्ड-हैण्ड है मगर हालत इसकी नए फ़्रिज जैसी है। प्रभा जी क्या देर लगाएँगी?” 

रमेश मिश्र अधीर हो चला है। 

“नहाने में, वह देर लगाती ही है,” धड़ा बाँधने का अच्छा मौक़ा मेरे हाथ आन लगा है। “उसके पुराने दोस्त भी तुम्हारी तरह उचाट हो जाया करते हैं . . .।” 

“पुराने दोस्त?” रमेश मिश्र उत्सुक हो आया है। छोटी उम्र है उसकी। यही कोई बाइस-तेइस बरस। जिस स्कूल के पुस्तकालय में लड़की पिछले पाँच सालों में बतौर सहायक के रूप में नौकरी पाई है, रमेश मिश्र ने बतौर फ़ीस बाबू अपनी पहली नौकरी अभी आठ-दस माह पहले ही शुरू की है। 

“हाँ। एक मनोहर लाल था। उधर पुराने पड़ोस में। घंटों डेरा जमाए रहता,” मैं उसे नहीं बताती, मनोहर लाल लड़की से ज़्यादा लड़की के बाप के संग उठता-बैठता था। 

“एक मनोहर लाल को मैं भी जानता हूँ। कविता लिखते हैं। मगर वह पैंतालीस साल से कम नहीं . . .।” 

“नए पड़ोस में आए तो तुम्हारे ही स्कूल का जवाहर वशिष्ट लड़की से प्रेम जताते आ बैठा।” लड़की के बाप के घर छोड़ कर पड़ोसिन के संग भाग जाने के बाद हमें बदनामी से बचने के लिए पुराना मकान छोड़ना पड़ा था, “जवाहर वाला क़िस्सा तो स्कूल भर में चर्चा का विषय भी बन गया था . . .”

लड़की के साथ दूसरा नाम जोड़ने की मुझे जल्दी है। रमेश मिश्र को डरा कर भगाना है मुझे। लड़की की ज़िन्दगी से बाहर करना है। 

“जवाहर वशिष्ठ भी तो कवि हैं,” रमेश मिश्र की आवाज़ डगमगायी है, “अच्छे नामी कवि हैं . . .।” 

“अच्छे कवि होना एक बात है और अच्छे गृहस्थ होना दूसरी बात,” मर्मस्थल की मेरी चोट टीस उठती है और खाँसी छिड़ लेती है। 

“विवाहित हैं वह?” सब कुछ जान लेने की अभिलाषा तीखी है उसमें। 

“तीन बच्चे हैं उसके,” खाँसी के बीच मैं आगे बढ़ती हूँ, “पत्नी उसकी आयी थी मेरे पास। हाथ पैर जोड़ी। रोई। गिड़गिड़ायी। बोली, “मेरे परिवार को तहस-नहस होने से बचा लीजिए दीदी। मेरे पति का अपने घर आना-जाना रोक दीजिए।” 

“रोक दिया आपने?” 

“हाँ,” मैं खाँसती हूँ। रमेश मिश्र को नहीं बताती, जवाहर वशिष्ठ की पत्नी मेरे पास नहीं आयी थी। मैं उसके पास गयी थी। हाथ-पैर मैंने उसके जोड़े थे, उसने मेरे नहीं। रोई-गिड़गिड़ायी मैं थी, वह नहीं। मुझे डर था लड़की मुझे छोड़ भागेगी। अपने बाप की तरह। जो हमें किनारे ढकेल कर उधर कानपुर जा बसा था। पाँच साल पहले। पड़ोसिन, सुलोचना वत्स के साथ। घड़ी-घड़ी मुझे लूटने के बाद। सौ तहों के नीचे छिपाए गए मेरे बक्से के सभी रुपए-पैसे बटोर कर चलता बना था जो मैं घर-खर्च से बचा कर जमा करती रही थी। चुरा ले गया था मेरी माँ की दी हुई सोने की बालियां और चाँदी की पाज़ेब। 

“जवाहर वशिष्ठ के बारे में तो इन्होंने मुझे कभी कुछ नहीं बताया,” रमेश मिश्र तमतमाया है, “हाँ, मदन के बारे में ज़रूर सब बताया है . . .।” 

“मदन? कौन मदन?” मैं चौंक ली हूँ। 

मानो भर रहे किसी घाव का अंगूर तड़का है। एक मदन वह भी था जो चोचलहाई उसी सुलोचना वत्स का भाई था जिसने मेरा घर फोड़ा था। 

“आपके पुराने पड़ोस में रहता था। आपके घर की कोई एक खिड़की उसके घर के चबूतरे का रुख़ रखे थी . . .।” 

“हाँ। मुझे याद है।” पिछले बरामदे में रही एक खिड़की। लेकिन मैं बेख़बर रही थी। उन सालों में पति की सिगरेट-बीड़ी ने मेरा दमा उग्र कर रखा था और मुझे कुछ भी देखने-सुनने की फ़ुरसत न रही थी। पति ने सुलोचना वत्स को कितनी बार निहारा-सराहा था या फिर लड़की को मदन ने उधर से कितनी बार टेरा-गोहरा था। पूरा मेरा समय तब अपनी साँस की हाँफ को दबाने में निकल जाया करता। 

“लेकिन वह मदन तो बहुत बीमार रहा करता था,” मैं खाँसती हूँ। मदन की सूरत मेरे सामने आन खड़ी हुई है: क्षीणकाय व निरीह। सौतेली माँ रही उसकी और सुलोचना वत्स की। झगड़ालू व कलह-प्रिय। उसके संग सुलोचना वत्स का बत-बढ़ाव ज़रूर कानों तक मेरे पास पहुँचता रहा था किन्तु मदन का क़तई नहीं। मानो कोई चुप्पी लगी थी उसे। 

“हाँ। उसे कैन्सर था। और यह रोज़ उस के लिए कोई न कोई फल ले जाया करतीं . . .।” 

“फल?” मैं हैरान हूँ। लड़की के पास तब इतने रुपए रहे ही कहाँ जो वह बाज़ार जा कर उसके लिए फल ख़रीद सके? अपने बाप से लेती रही क्या? जो सुलोचना वत्स की लिहाज़दारी में ज्योनार बिठलाने को तत्पर रहा? 

“हाँ, ” रमेश मिश्र की ज़ुबान घुमावदार हो चली है, “और जब मदन अपनी बहन के साथ इलाज के लिए कानपुर ले जाया जा रहा था तो भी प्रभा जी ने उन्हें ढेर से रुपए दिए। कुछ आपके ज़ेवर बेच कर और कुछ आपके बक्से से चुरा कर . . .”

लड़की ने छीजा मुझे, उसके बाप ने नहीं? या फिर उस लूट में बाप-बेटी दोनों की साठ-गांठ रही? झमाझम? 

मैं भौचक तो हुई ही हूँ, भयभीत भी। 

लड़की का ख़ून सफ़ेद है। जान ली हूँ अब। वह मेरी संगी नहीं। संगी अपने बाप ही की है। 

“और विडम्बना देखिए,” रमेश मिश्र की ज़ुबान ने एक ख़म और खाया है, “मदन बचा भी नहीं . . .।” 

“कब हुई उसकी मृत्यु? कहाँ हुई उसकी मृत्यु?” दहल और कुतूहल के बीच झूल रही मेरी हाँफ़ ने मेरी छाती का भारीपन बढ़ा दिया है। 

बतासा सा कैसे घुल गया बेचारा! 

“चार साल पहले। उधर कानपुर में जब उसके कैन्सर के साथ डॉक्टरों की हार-जीत हार में बदली तो उसकी बहन उसे कानपुर से इधर लिवा लायी। उसके अन्तिम दिन यहीं बीते, कस्बापुर में। प्रभा जी के साथ। बहन के साथ . . .”

“बहन कानपुर छोड़ आयी थी क्या? यहाँ है अब?” काल-धर्म की चपेट में आयी यह सुलोचना वत्स नयी है मेरे लिए। शामत की मारी। शिक्स्ता। 

“जी। यहीं है। प्रभा जी से पहले मैं उन्हीं से मिला था। मदन कविताएँ लिखता था और उसकी बहन से मिल कर छपवायी थीं। और छपते ही वे कविताएँ साहित्य जगत में तहलका मचा गयी थीं। मेरे तो शोध-ग्रन्थ का एक पूरा अध्याय मदन पर केन्द्रित है।” 

“शोध-ग्रन्थ?” 

“समकालीन कविता पर मेरा शोध चल रहा है,” रमेश मिश्र लाट बन बैठा है, “छात्रवृत्ति भी पाता हूँ। मेरे साथ प्रभा जी भी शोध कर रही हैं। मेरी ही गाइड के साथ . . .।” 

“प्रभा को भी छात्रवृत्ति मिलती है क्या?” मेरी साँस मेरे गले में अटकी जा रही है। 

“नहीं। वह प्राइवेट कर रही हैं। छात्रवृत्ति मिले न मिले, नाम तो प्रभा जी को मिल ही रहा है। कविताएँ प्रभाजी की चर्चा में रहती ही हैं . . .”

“क्या यह कविता लिखती है?” मेरी हाँफ लौट आयी है। छाती कसती जा रही है। साँस घुट रही है। घरघरा रही है। 

मेरे हाथ अपने पफ़्फ़र की ओर बढ़ते हैं। अपने मुँह में मुझे एरोसोल दवा छिड़कनी पड़ रही है। 

“ख़ूब कविता लिखती हैं। बहुत अच्छी कविता लिखती हैं। कहती हैं, कविता लिखनी और जाननी इन्होंने मदन ही से सीखी है . . .।” 

“झूठ बोल रही है। सरासर झूठ,” मैं ताव खा गयी हूँ। अपनी हाँफ के बीच उचरती हूँ, “कविता उसे विरासत में मिली है। उसके ख़ून में घुली-मिली है। श्यामाचरण का नाम तो सुना होगा?” 

लड़की के बाप से मुझे लाख शिकायत रही, सो रही लेकिन कविता की दुनिया में उसकी ऊँची साख की मुझे पहचान तो है ही। 

“श्यामाचरण? वह धाकड़ कवि? कानपुर-निवासी? वह प्रभा जी के पिता हैं? और प्रभा जी ने मुझे बताया ही नहीं . . .” रमेश मिश्र का रंग सफ़ेद पड़ रहा . . .। 

“तुम उन्हें मिले हो?” मेरी साँस, मेरी हाँफ रुक ली है। 

“पहले मिलता था। अब नहीं। जब से मेरी बड़ी जीजी उनके घर जा बसी हैं, हम लोगों ने उनका संग-साथ छोड़ रखा है।” 

“जानते हो?” मेरी साँस मेरे क़ाबू से बाहर जाने लगी है। 

एसोसोल फिर से छिड़कती हूँ, मुँह के भीतर। 

“बताइए,” मेरी साँस लौटती देखकर रमेश मिश्र अपनी टकटकी मेरे चेहरे से हटा रहा है। माथे पर आया पसीना पोंछता हुआ। 

“हमारे पास से तुम्हारा वह धाकड़ कवि तुम्हारे इसी मदन की बहन के संग घर बसाने कानपुर के लिए निकला था . . .”

“सुलोचना जीजी के साथ?” भौचक्का रमेश मिश्र मेरा मुँह फिर से ताकने लगा है। 

“हाँ,” मेरी हाँफ़ हँसी में बदल रही हैं, “भाईबन्द हो तुम मदन के . . .” 

रमेश मिश्र उठ भागता है। और भागते समय फ़्रिज समेत ठेले वालों को भी संग ले उड़ता है। 

“कोई आया था क्या?” प्रभा नहा कर जब मुझसे पूछती है तो मैं कहती हूँ, “कोई नहीं।” 

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