सर्प-पेटी

15-08-2024

सर्प-पेटी

दीपक शर्मा (अंक: 259, अगस्त द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जैसे ही दरवाज़े की घण्टी बजी, मैं चौंककर जाग गई। 

“सुनिए,” मैंने पति को पुकारा, “मेरे गले में बहुत दर्द है, साँस एकदम घुटती-सी मालूम हो रही है . . .।” 

मदन हिले नहीं। शायद उन्हें गहरी नींद आ रही थी। 

घण्टी और ज़ोर से बजी तो मैंने ज़ोर ज़ोर से पुकारा, “सुनिए, उठिए तो-मेरा सिर चकरा रहा है—मेहरी लौट गई तो दिन-भर दुहरी परेशानी मुझी को उठानी पड़ेगी . . .।” 

मदन फिर भी नहीं हिले। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। रोना भी। पर उठे बिना कोई चारा भी तो नहीं बचा था। 

“ओह, आप!” दरवाज़ा खोला तो देखा उषा भाभी अपने बच्चों के साथ सामान से लदी घण्टी बजाए चली जा रही हैं। 

“आइए, आइए,” सबसे हल्के सूटकेस और सबसे छोटे बच्चे को उनके हाथों से झपटते हुए मैं खिल उठी। अपने स्वर में जोश लाना ज़रूरी भी तो बहुत हो गया था। वह मेरी जिठानी थीं और उन्हें देखकर मुझे बाग-बाग तो होना ही चाहिए था। 

“मदन क्या अभी तक सो रहा है?” भारी बक्सों तथा दो बच्चों से घिरी उषा भाभी असहाय स्वर में बोलीं। 

“सो रहे हैं तो क्या हुआ? बिल्लू और गुग्गू अभी जा कर जगा लाते हैं,” पति से सुबह वाले व्यवहार के लिए प्रतिशोध लेने का यह अच्छा अवसर मैं कैसे जाने देती? 

“भाभी, आप सामान यहीं छोड़िए, ये अभी उठा लाएँगे।” 

और जब तक उषा भाभी के बच्चे, सूटकेस तथा थैले घर भर में फैले, चाय के तीसरे दौर के साथ-साथ रास्ते में गाड़ी के लेट हो जाने की वजह से हुई तकलीफ़, और उनकी भाभी की भाभी की बहन, मंजू, की यहीं हमारे शहर में होने वाली शादी के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर चुकी थी। 

“मुन्नू, अब मम्मी से तैयार हो लो। साढ़े सात बज रहे हैं,” कहकर मदन उठ खड़े हुए। 

“चाचीजी, आज मुन्नू को स्कूल मत भेजिए,” तभी बिल्लू और गुग्गू नई ज़िद पर आमादा हो लिए। 

“छोड़ो, सरोज! मुन्नू के भाई इतनी दूर से उसे मिलने आए हैं। स्कूल तो मुन्नू रोज़ ही जाता है,” उषा भाभी बोलीं। 

“आज जाने ही दीजिए,” मैंने कहा, “इसके इम्तिहान भी चल रहे हैं।” 

“हम तो स्कूल ज़रूर जाएँगे,” मुन्नू भी छुटकारा पाने के लिए मचल उठा, “और हमें दूध अभी तक क्यों नहीं मिला है?” 

“अरे, दूध तो बिल्लू, गुग्गू और छुटकू भी पिएँगे। कल शाम से दूध कहाँ मिला इन्हें?” 

झट से मैंने मेहरी को दूध लाने भेज दिया और मुन्नू को स्कूल के लिए तैयार करने लगी। 

जैसे ही मदन मुन्नू को स्कूल पहुँचाने के लिए घर से निकले, वैसे ही उषा भाभी मेरे साथ रसोई में चली आईं। 

“घर में आलू हों, तो नाश्ते में आलू के पराँठे भी चल सकते हैं,” उषा भाभी सब्ज़ी की टोकरी में झाँकती हुई बोलीं। 

“बिल्कुल। आलू के पराँठे तो मुन्नू के पापा को भी बहुत पसन्द हैं,” मैंने कहा, “आप सामान खोलना चाहती हों तो खोल आइए। नाश्ता मैं देख लूँगी।” 

कुछ देर के लिए मैं अकेली रहना चाहती थी-एकदम अकेली, निःशब्द। 

“अरे, सामान का क्या है? बाद में भी खोला जा सकता है। अभी तो तुमसे बातें करने का मन हो रहा है। अच्छा बताओ, अम्माजी क्या यहाँ से ख़ुश नहीं गई थीं?” उषा भाभी ने अपने साथ-साथ चलने वाली विषैली सर्प-पेटी का ढक्कन खोलते हुए कहा। 

“क्यों, क्या कह रही थीं?” मेरा स्वर एकदम ढीला हो आया। 

“वैसे तो तुम्हारे बारे में वे शुरू से ही कुछ-न-कुछ कहती रही हैं, पर इस बार तो ख़ासी नाराज़ रही थीं,” उषा भाभी ने गम्भीर स्वर में कहा। 

“क्यों, ऐसी क्या बात हो गई थी?” मेरी टाँगों व बाँहों में कँपकँपी छूट गई! मैंने आटे की परात को परे धकेलकर रसोई से बाहर भाग आना चाहा। 

“कह रही थीं—सरोज़ बहुत ही स्वार्थी व दम्भी है। नाश्ते में पराँठे के साथ मुझे रात की सब्ज़ी देती थी और स्वयं पति व बच्चे के साथ आमलेट-टोस्ट उड़ाती थी,” एक भयावह नाग अपनी नंगी जीभ लिए मेरी ओर लपलपाया। 

ऐसा केवल उस दिन हुआ था, जब हमारे यहाँ कुछ मेहमान आए हुए थे। नहीं तो अम्माजी को तो . . . ।” अचानक मैंने अपनी ज़बान पर लगाम खींच ली। 

ये कैसे रिश्ते थे, जिनमें हर क़दम पर अत्यन्त सावधानी व सतर्कता बरतनी पड़ती थी और हल्की-सी चूक भी गहरी खरोंच लगा देती थी। 

“और क्या तुमने अम्माजी के साथ बिल्कुल कुट्टी कर छोड़ी थी? कह रही थीं, तीन महीनों में सरोज़ ने मुश्किल से तीन बातें की होगी मुझ से।” 

“असल में उन दिनों मेरा गला बहुत ख़राब चल रहा था। डॉक्टर ने मुझे ज़्यादा बातचीत करने से मना कर रखा था,” मैंने लड़खड़ाते स्वर में प्रतिवाद किया। 

“तो क्या उन दिनों तुम मदन और मुन्नू के साथ भी हँसती-बोलती नहीं रही?” 

“मुझे कुछ ठीक से याद नहीं पड़ रहा,” एक गहरी खीझ और ऊब मुझे अन्दर तक मथ गई, “मैं हैरान हूँ, अम्माजी ने यह सब मुझे क्यों नहीं कहा?” 

“कहती भी कैसे? दुःख तो उन्हें इस बात का रहा होगा कि तुमने उनके क़िस्से धरे-के-धरे रहने दिए। नहीं तो पटवारी पिता के साथ बिताए बचपन के दिन, तहसीलदार पति के साथ रचाया राज, शराब के ठेकेदार भाई की शान-शौकत, दूकानदार बहनोई के विस्तृत व्यापार, मेजर दामाद के अनोखे रोब-दाब, बारह वर्षीया नातिन सुलभा का अलौकिक सौन्दर्य, आठ वर्षीय नाती अनमोल की मौलिक सूझ-बूझ-सब बखान करना चाहती रही होगी तुम से! और तुम उन्हें घर पर बच्चों के साथ अकेला छोड़कर ख़ूब पिक्चरें देखती रहीं।” 

“नहीं तो!” मैं एकदम बुझ-सी गई। इस अवांछनीय दर्प-प्रदर्शन में मैं कोई रुचि अनुभव नहीं कर पा रही थी और अपने अन्दर फैलती गहरी थकान से मुक्ति पाने के लिए मैं बिस्तर पर गिर पड़ना चाह रही थी। 

“मैं जानती हूँ, अम्माजी को हर किसी से ख़ूब शिकायत रहती है। अरे, मेरे बारे में क्या कम बतियाती हैं? अभी उस रोज़ पड़ोस की कान्ता बता रही थी कि अम्माजी हरदम उसकी सास से मेरी बुराइयाँ करती रहती हैं—उषा निकम्मी है, उषा आरामतलब है, उषा कामचोर है, उषा के मायके के लोग दिन-भर घर में जमे रहते हैं, उषा अपने बच्चों के कपड़े अपने भाई-बहनों के बच्चों में बाँट देती है, उषा को अपनी ननद से कोई लगाव नहीं—अपनी बहन के लिए लड़का ढूँढ़ना होता तो उषा चाँद तक हो आती, पर यहाँ मेरी बिटिया एम.ए. करके तीन साल से घर बैठी है और उषा को अपनी भाभी की भाभी की बहन की शादी में शामिल होने के लिए छह सौ मील लम्बी दौड़ लगाने की पड़ी है . . . और सच पूछो तो यहाँ मैं मंजू की शादी में शामिल होने थोड़े ही आई हूँ। तुम्हें मिले एक अरसा हो चला था और बच्चे भी मुन्नू को मिलने के लिए अलग मचल रहे थे . . . ।” 

“ममी, हम आमलेट खाएँगे,” तभी बिल्लू और गुग्गू हाथों में चार अण्डे लिए रसोई में आ धमके। 

“अरे, बेचारे बच्चों का तो भूख से बुरा हाल हो रहा होगा,” उषा भाभी उनके हाथों से अण्डे लेते-लेते तड़प उठीं। 

“लाइए, मैं बना देती हूँ,” मैंने घी का डिब्बा बिल्लू के हाथ से ले लेना चाहा। 

“नहीं, तुम तब तक आलू छील लो,” उषा भाभी ने उबले आलुओं का भगौना मेरे सामने धरते हुए मुझे आदेश दिया। 

“और हाँ, नाश्ते के बाद ज़रा बाज़ार तक चलेंगे। मुझे मंजू के लिए कुछ और ख़रीदना पड़ेगा। जो थरमस अम्माजी ने अपने बहनोई की दुकान से दिलवाया है, वह काफ़ी हल्का पड़ जाएगा। मैं तो रूम-हीटर देना चाहती थी, पर फिर डरती थी, कहीं अम्माजी के धीरज का बाँध टूट गया और वे बरस उठीं—अभी तुम्हारे और बच्चों के नए कपड़े बनवाने में ही हजार-बारह सौ निकल गए हैं—अब क्या घर ही बेच डालने का इरादा है?” 

“नाश्ते के बाद तो मैं कपड़े धोने की सोच रही थी,” उषा भाभी का मुँह बिचकाना मुझे क़तई नहीं भाया था, “मुन्नू को कल दूसरा यूनिफ़ॉर्म पहनकर जाना होगा।” 

“तो ठीक है, दोपहर के खाने के बाद चलेंगे। दोपहर में खाना ज़रा हलका ही रखना। अरहर की दाल चावल और भिण्डी की सूखी सब्ज़ी झट से तैयार हो जाएगी,” उषा भाभी ने तवे पर तीन बड़े चम्मच घी छोड़ते हुए कहा। 

“तीन प्याले चाय लेती आना,” तभी मदन की आवाज़ बरामदे से तैरती हुई आई, “पण्डितजी और ठाकुर साहब आए हैं।” 

“मदन ने अपनी आदतें क्या अभी तक नहीं बदलीं?” उषा भाभी ने अपनी आँखों में झूठी सहानुभूति भरते हुए कहा, “क्या यहाँ भी आए दिन मित्र-मण्डली जमी रहती है?” और उन्होंने दो अण्डे गर्म घी में छोड़ दिए। 

“और क्या? आज ही शाम को इनके निर्देशक साहब बीवी-बच्चों समेत खाने पर आ रहे हैं,” चाय का पानी गैस के चूल्हे पर चढ़ाते हुए मैंने कहा। 

“फिर तो इस बहाने तुम्हारे घर में हमें भी अच्छा खाना नसीब हो जाएगा, नहीं तो तुम हम लोगों की ख़ातिर तकलीफ़ कम ही उठाती हो।” 

“ऐसा तो नहीं,” मैं तपने लगी, “सीमित आय वाले हम लोग कहाँ तक नियमित अतिथियों को राजा भोज वाले पकवान खिला सकते हैं? और आपको तो याद ही होगा शादी के बाद जब मैं पहली बार ससुराल गई थी, तब मुझे कद्दू के साथ मटर की रसेदार तरकारी पेश की गई थी।” 

यह कैसा षड्यंत्र था जो मुझ से मेरी स्वाभाविक सहृदयता व सहनशीलता लूटकर मुझे एक ऐसे कुत्सित कुचक्र में ला खड़ा करता था, जिसकी शिकार हो मैं प्रतिवाद में वैसे ही तुच्छ व विषाक्त प्रहार करने को आतुर हो उठती थी। 

“मटर में ज़्यादा पानी छोड़ने की तो अम्माजी को पुरानी बीमारी है,” उषा भाभी फिर शुरू हो गईं, “इसीलिए उस रोज़ जब मेरी भाभी अपने भाई-भाभी को लेकर पहली बार घर खाने पर आ रही थी तो अम्माजी के रसोई में घुसने से पहले ही मैंने मटर-पनीर की सब्ज़ी तैयार कर भी ली थी। मछली और कबाब तुम्हारे भैयाजी बाज़ार से ले आए थे। चटनी अम्माजी से पिसवा ली थी। तुम बताओ, तुम आज शाम को क्या बना रही हो?” 

“मैं अभी ग़ुस्लख़ाने से होकर आई,” न जाने क्यों अचानक मेरा मन कुछ पल अकेले, शान्त वातावरण में गुज़ारने के लिए ललक उठा। मानवीयता से भरपूर जो स्निग्ध प्रकाश, जो अन्तहीन पवित्र सागर मेरे मन में कभी हिलोरें लिया करता था, वह न जाने कब कैसे पीछे, बहुत पीछे छूट गया था! ये कैसे सामाजिक दायित्व थे, जिनके नाग-दंश से अभिशप्त मेरे परसों, कल और आज-और मेरे आज, कल और परसों दैत्याकार पहाड़ों की मानिन्द मुझे गुमराह करते, स्वार्थ और अनिष्ठा से कलुषित चेहरों के बीच अर्थहीन, प्रयोजनहीन तथा महत्वहीन पड़ावों पर बार-बार पटकते मेरे एक और पूरे जन्म को व्यर्थ किए दे रहे थे। 

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