कबीर मुक्त द्वार सँकरा . . . 

01-01-2025

कबीर मुक्त द्वार सँकरा . . . 

दीपक शर्मा (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

अपनी पुरानी डायरी के ये पृष्ठ-आप से साझा करना चाहता हूँ . . .

मेरा जन्म 30 नवंबर 1928 के दिन हुआ था और आज 6 जून 2006 की रात है कल मेरी उम्र भीमरथी हो जाएगी . . . 

भीमरथी? आप नहीं जानते? 

भीमरथी मनुष्य की वह अवस्था है जो उसके 77 में वर्ष के सातवें मास की सातवीं रात समाप्त होने पर होती है। 

मेरे जीवन की कोई ऐतिहासिक घटना? 

पहले बताइए ऐतिहासिक से आपका तात्पर्य क्या है? 

केवल इतिहास-प्रसिद्ध? 

जिसके अंतर्गत पूरी मानव-जाति अंतर्ग्रस्त हुई हो? 

जिसके आख्यान इतिहास-लेखक लिपिबद्ध कर चुके हो? जिसके वर्ष वृत्तांत तिथिबंध रख चुके हों? 

जिसकी इतिहास के संग कलाबाज़ी के कार्य-कारण सर्वविदित हों? 

या फिर किसी ऐसी घटना को भी आप ऐतिहासिक मान लेंगे जो इतिवृत्त बन चुकी हो? पूर्ववृत्त घट चुकी हो? जिसके दोनों छोर हमारे हाथ में हो? उसका उद्गम भी? और उसका अवसान भी? 

हाल ही में 1999 में संगठित मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट के आने से आजकल सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु के विषय में अटकलबाज़ी फिर तेज़ हो रही है। अभी तेरह दिन पहले अपने को आज़ाद हिंद फ़ौज के सुभाषचंद्र बोस का ड्राइवर बताने वाले आजमगढ़ निवासी निजामुद्दीन का बयान 24 मई, 2006 को ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में आपने देखा भी होगा—‘यह सब प्रोपेगेंडा नेताओं द्वारा किया गया कि नेताजी एयर क्रैश में मारे गए। सच तो यह है कि आज़ादी के वक़्त नेता जी भी मौजूद थे।’ 

लेकिन 19 अगस्त, 1945 को अख़बारों ने साफ़-साफ़ छापा, नेता जी को टोक्यो ले जा रहा हवाई जहाज़ आग की लपट में पूरी तरह नष्ट हो गया है और जहाज़ में सवार सभी यात्री परलोक सिधार लिए हैं। 

उस दिन मेरे पिता असमय घर चले आए थे, मुस्कुराते हुए, “खबर बड़ी है . . .”     

“क्या हुआ?” माँ नीचे पीढ़ी पर बैठी मेरी सबसे छोटी, चौथी, बहन को स्तनपान करा रही थीं। 

“बोस ख़त्म। आज़ाद हिंद फ़ौज ख़त्म। आज़ाद हिंद फ़ौज के फ़ौजी ख़त्म।” 

यहाँ यह बता दूँ मेरे नाना आज़ाद हिंद फ़ौज में थे और मेरे पिता के परिवार में उनके उल्लेख पर उतना ही प्रतिबंध था जितना देश की तत्कालीन अंग्रेज़ी सरकार ने नेताजी के नाम पर लगा रखा था। मेरे नाना ने भरती तो ब्रिटिश आर्मी ही में ली थी, सन् सत्ताईस में। इतिहास-पुरुष उन्हीं मोहन सिंह के संग-संग जिन्होंने 15 फरवरी, 1942 के दिन आज़ाद हिंद फ़ौज की पहली ब्रिगेड के अगुवा के रूप में जापान की ओर से सिंगापुर हथिया लिया था। जिनका फिर मुख्य कार्यालय सिंगापुर ही में स्थापित हो लिया था। जापानी फुजिवारा किकन के दफ़्तर की बग़ल में। वही फुजिवारा किकन जो जापानी गुप्तचर विभाग के मुखिया मेजर फुजिवारा के नाम पर खड़ा हुआ रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतर्गत जिस ब्रिटिश भारतीय सेना को थाए-मालाएन सीमा पर जापानी सेना ने उखाड़ा था, उसके फ़र्स्ट ऑब्लिक फ़ोर्टींथ पंजाब रेजीमेंट के मेरे नाना और कैप्टन मोहन सिंह हज़ारों दूसरे भारतीय सेनानियों के साथ युद्धबंदी बना लिए गए थे। इस बीच सन् इकतालीस के आते-आते इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के रासबिहारी घोष जापान सरकार को इस बात के लिए राज़ी कर चुके थे कि युद्ध में पकड़े गए भारतीय सेनानियों को शत्रु नहीं माना जाएगा और वे जापानी सेना के संग अंग्रेज़ी सेना के विरुद्ध लड़ेंगे। ऐसे में कैप्टन मोहन सिंह ने अपनी सेवाएँ जब जापान को सहर्ष और सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत की थीं तो उन्हें अलोर स्टार के उस कैंप में रखे सभी भारतीय युद्ध-बंदियों की निगरानी का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया था। यही नहीं, इधर नई खड़ी आज़ाद हिंद फ़ौज ने भी उन्हें जनरल का पद दे दिया था। सिंगापुर में जमा हो चुके पैंतालीस हज़ार भारतीय युद्धबंदियों में से भी बीस हज़ार सेनानी भारतीय आज़ाद हिंद फ़ौज में सम्मिलित हुए थे। कर्नल फुजिवारा की जगह नए आए कर्नल इवागुरो ने, किन्तु इन फ़ौजियों का जापानियों में विश्वास संदेहास्पद स्थिति में ला पहुँचाया था—आज़ाद हिंद फ़ौज के रेडियो ब्रॉडकास्ट सेंसर किए जाने लगे थे, भारतीय बंदियों के साथ उनका व्यवहार निष्ठुर होने लगा था और सिंगापुर के जापानी कमांडर ने जैसे ही आज़ाद हिंद फ़ौज का संचालन अपने ज़िम्मे लिया था तो दिसंबर, 1942 के आते-आते मोहन सिंह ने त्यागपत्र दे दिया था। पहले उन्हें दिसंबर, 1943 तक एक द्वीप में नज़रबंद रखा गया था फिर उन्हें सुमात्रा भेज दिया गया था जहाँ ब्रिटिश ने उन्हें अपना बंदी बना लिया था। इधर जून, 1943 में सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से सिंगापुर आ गए थे और आज़ाद हिंद फ़ौज के सुप्रीम कमांडर बन गए थे। साथ ही इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के प्रेसिडेंट भी। सिंगापुर ही में उन्होंने आज़ाद हिंद की अंतरिम सरकार की घोषणा की थी जिसमें सरकार के मुखिया वे स्वयं थे और जिसके चार मंत्रियों और सेना के आठ प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी उन्हीं के हाथों संपन्न हुई थी। एग्जिस पावर्स और उसके सेटेलाइट देशों ने आज़ाद हिंद की उस अंतरिम सरकार को मान्यता दी थी और जापानी सुभाषचंद्र बोस की इस पुनः संगठित आज़ाद हिंद फ़ौज को पहले से कहीं अधिक महत्त्व देने लगे थे। मेरे नाना सुभाषचंद्र बोस के साथ रंगून पहुँचे लिए थे जिसे अब आज़ाद हिंद फ़ौज का मुख्यालय बना लिया गया था। बर्मा भारत फ़्रंट पर भी आज़ाद हिंद फ़ौज को भेजा गया था जहाँ फरवरी, 1944 में उसने ब्रिटिश सेना का जमकर सामना किया था और भारतीय क्षेत्र में अपने पैर जमाने में सफलता प्राप्त की थी। अंडमान और निकोबार द्वीप पहले से ही आज़ाद हिंद सरकार को ग्रेट ईस्ट एशिया नेशंस कॉन्फ्रेंस की नवंबर, 1943 की टोक्यो वार्ता के दौरान सौंपे जा चुके थे। यह अलग बात है कि मई 1944 में आज़ाद हिंद फ़ौज अराकन फ्रंट पर इंफाल को अपने क़ब्ज़े में ले लेने में असफल रही थी और आगे चलकर जनवरी, 1945 में भी ब्रिटिश फ़ोर्टींथ आर्मी के हाथों इराक्दी में उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा था। 

“आज़ाद हिंद फ़ौज कभी ख़त्म नहीं हो सकती,” ताव खाकर माँ चिल्लाई थीं, “कभी ख़त्म नहीं होगी। ख़त्म होंगे गल्ले वाले और उनका आटा डालने वाले . . .” 

मेरे दादा गल्ले के आढ़ती थे और द्वितीय विश्वयुद्ध के उन दिनों में लगभग अकाल की स्थिति के आ जाने से अच्छी चाँदी काट रहे थे। 

“फिर बोल,” मेरे पिता ने माँ की पीठ पर अपनी लात चलाई थी। 

माँ पीढ़ी से औंधे मुँह फ़र्श पर जा गिरी थीं, दूध-पीती मेरी बहन समेत। 

“फिर बोल,” मेरे पिता ने माँ को फिर लतियाया था। 

“आज़ाद हिंद फ़ौज कभी ख़त्म नहीं होगी,” माँ फिर चीखी थीं। 

“यह कैसा बलवा है?” मेरी दादी कमरे में आन घुसी थीं। रो रही मेरी सबसे छोटी बहन को उन्होंने माँ की बग़ल से उठाया था और पास खड़ी मेरी सबसे बड़ी बहन के कंधे से जा चिपकाया था। 

“बलवई बाप की बलवई औलाद है,” मेरे पिता ने अपनी लात फिर माँ की ओर ला बढ़ाई थी, “अपने बाप का नाम रोशन कर रही है . . .” 

माँ ने अपने हाथ मेरे पिता की लात पर जमा दिए थे। 

“तू कब समझेगी?” मेरी दादी ने माँ को झकझोरा था, “तू चौपड़ बाज़ार में नहीं खड़ी है। घर-परिवार की चारदीवारी के अंदर बैठी है। तेरी ज़बान पर नारे नहीं सजते, आरती सजती है, प्रभु महिमा सजती है . . .” 

“यह कभी नहीं समझेगी, ” मेरे पिता अपने दोनों हाथ माँ पर बरसाने लगे थे। ताबड़तोड़। 

दादी ने भी माँ के बालों और बाँहों पर धावा बोल कर अपना योगदान प्रस्तुत किया था। 

दोतरफ़ा आक्रमण माँ के लिए भारी सिद्ध हुआ था और वह अचेत होकर फ़र्श से जा चिपकी थीं। 

मैं और मेरी तीनों बड़ी बहनें माँ की बग़ल में बैठकर रोने लगे थे। उन दिनों बच्चे बड़ों के सामने अपनी ज़ुबान पर ताला लगाए रखते थे। 

दादी ने आढ़त से दादा को बुलवा लिया था। दादा ने आते ही समझाया था। माँ के उजले रंग के कारण उनके चेहरे और गर्दन पर उभर आए नीले निशान पड़ोसियों में कानाफूसी का कारण बन सकते थे और माँ को हटाना ज़रूरी था। 

तत्काल दो ताँगे बुलाए गए थे। 

एक में दादी, ताई और बड़ी बुआ माँ के साथ सवार हुई थीं तो दूसरे में दादा, ताऊ, चाचा और मेरे पिता। 

माँ उनके संग न लौटी थीं। 

उन्हें उसी दोपहर श्मशान घाट पर जला दिया गया था। 

आज भी मेरे मन में एक खटका जीवित है, ताँगे में सवार की जा रही माँ निष्प्राण नहीं थीं, केवल अचेत थीं। 

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