कान की ठेंठी

01-08-2023

कान की ठेंठी

दीपक शर्मा (अंक: 234, अगस्त प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

“बेबी की बीमारी के आसार अच्छे नहीं,” उस रात क्वार्टर में क़दम रखते ही माँ ने मेरे कान की ठेंठी मेरे कान में लगाकर मुझे चेताया, “खसरा लगता है। तुम उधर मत जाना। कहीं तुम्हें छूत न लग जाए।” 

“ख़तरा तो तुम्हें भी कम नहीं,” मैं माँ के साथ लिपट गयी, “तुम भी बेबी के नज़दीक मत जाना।” 

“पैंतीस-छत्तीस की इस पक्की उम्र में कैसी छूत और कैसा परहेज़?” माँ ने मेरा माथा चूमा और कान की ठेंठी मेरे कान से उतार दी। 

माँ जानती थीं, कान की ठेंठी के बिना मैं ज़्यादा ख़ुश रहती थी। 

माँ के साथ कान की ठेंठी मैं बहुत कम इस्तेमाल करती थी। 

माँ की बात उनके चेहरे पर इतनी साफ़ लिखी होती कि मुझे आम हालात में उसे समझने में कभी कोई मुश्किल न रहती। 

हाँ, स्कूल में और बँगले पर कान की ठेंठी के बिना खटका ज़रूर लगा रहता: न जाने कौन कब मुझे क्या हुक्म दे दे जिसे पकड़ न पाने पर मुझे कितनी मार खानी पड़े या कैसी घुड़की सुनने को मिले। 

“मुझे ठंड लग रही है,” बेबी की बीमारी के छठे दिन तक माँ का शरीर ददोड़ों और छालों से भरने लगा और फिर बारहवें दिन न्यूमोनिया की जो थरथराहट माँ के बदन में शुरू हुई सो उनकी मौत के बाद ही बंद हो पायी। 

♦    ♦    ♦

 माँ की मौत की ख़बर मेरे पिता को चौथे दिन मिली। 

जिस समय वे बँगले पर आए, मैं और बेबी बाथरूम में कुत्ते को नहला रही थीं। 

महरिन बाथरूम में मेरे कान की ठेंठी लेकर आयी भी, मगर बेबी ने उसे बाहर धकेल कर बाथरूम का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। 

कुत्ते के शैम्पू और ब्रश ने आधा घंटा और लिया। 

ख़ाली होते ही मैं महरिन के पास गयी। 

“क्या बात थी?” मैंने पूछा। 

“तेरा बाप तेरा क्वार्टर चाहता है। मेम साहब को राज़ी कर रहा है।” 

“कौन है, मेम साहब?” मैं फ़ौरन बरामदे में लपक ली। 

“मैं तुम्हारा पिता हूँ,” पुलिस कांस्टेबल की वर्दी पहने मेरे पिता ने अपनी पुलिस चपती मेरी ओर लहरायी, “तुम्हारे भाई और मैं अब तुम्हारे संग यहाँ रहेंगे।” 

पिता से ज़्यादा पिता की चपती ने मुझे डराया। 

पिता की चपती मेरी देखी-पहचानी थी। 

घबराकर मैंने मालकिन की ओर देखा। 

“तुम्हारे पिता अपनी फ़ैमिली तुम्हारे क्वार्टर में लाना चाहते हैं,” मालकिन बोलीं, “कहते हैं, इस बार शान्ति से रहेंगे . . .।” 

“क्या बताएँ, साहब!” मेरे पिता ने अपनी चपती घुमायी, “कहते हैं, मर चुके लोगों की बुराई नहीं करनी चाहिए मगर वह औरत ही टेढ़ी थी। बात-बात पर झगड़ा मोल लेने की उसे ऐसी बीमारी रही कि बस हमसे चुप न रहा जाता था . . .।” 

“मुझे शाम की पार्टी का इन्तज़ाम करना है,” मालकिन ने मेरे पिता के साथ बात ख़त्म की, “चाहो तो सोनपंखी के साथ जाकर क्वार्टर देख-परख लो।” 

“नहीं, साहब,” मेरे पिता ने अपनी चपती झुका दी, “क्वार्टर हमारा देखा-परखा है। हम अपना सामान लेकर चार बजे तक यहाँ पहुँच लेंगे। हमारी घरवाली आज ही से आपकी ड्यूटी शुरू कर देगी।” 

दोपहर में जब मैंने खाने की थाली लौटा दी तो मालकिन ने मुझे अपने कमरे में बुलवाया। 

“क्या बात है?” मालकिन ने नरमी से पूछा, “आज तुम खाना नहीं खा रहीं?” 

“पेट में दर्द है,” मैंने कहा। 

“मुझे ग़लत मत समझना,” मालकिन ने इशारे से मुझे अपने पास बिठा लिया, “तुम्हारा क्वार्टर ख़ाली रहा। किसी दूसरे अनजान को देने की बजाय तुम्हारे पिता को दे दिया तो क्या बुरा किया? फिर वह तुम्हारा पिता है, पिता होने के हक़ से तुम्हें अपने साथ अपने घर भी ले जा सकता है . . .।” 

“पहले आप दूसरी तरह बोलती थीं,” मैंने अपना एतराज़ दिखाया, “जब भी बप्पा मिलने आते थे, आप उन्हें बाहर से ही हड़का देती थीं . . .।” 

“मुझे बवाल से बहुत तकलीफ़ होती है,” मालकिन ने अपनी सफ़ाई दी, “तुम्हारी माँ तुम्हारे पिता को देखते ही बेक़ाबू हो जाती थी। उसे क़ाबू में रखने के लिए ही मैं तुम्हारे पिता को भगा देती थी, वरना मुझे तुम्हारे पिता से कभी कोई शिकायत नहीं रही। मेरी मानो तो तुम भी पिछली बातों को भूल जाओ। अपनी ज़िन्दगी अब नए सिरे से शुरू करो।” 

मालकिन की मर्यादा बनाए रखने के लिए मैंने सहमति में सिर हिला दिया। 

मगर मैं जानती थी, मालकिन की बात गले उतारना मेरे लिए मुश्किल था। 

माँ की ज़िन्दगी की दहल मेरे दिल की धुकधुकी का हिस्सा बन चुकी थी और मेरी हर साँस में माँ की आहें दम लेती थीं। 

ठीक चार बजे अपनी दूसरी औरत के साथ मेरे पिता बँगले पर आ पहुँचे। 

“यहाँ का काम पार्वती देख लेगी,” मेरे पिता ने मटर छील रहे मेरे हाथों को रोक दिया, “तुम क्वार्टर की चाभी लेकर मेरे साथ आओ।” 

पिता की दूसरी औरत की साड़ी सुर्ख़ लाल रंग की थी और उसने अपनी दोनों कलाइयों में ढेरों काँच की चूड़ियाँ पहन रखी थीं। 

मटर छोड़कर मैं पिता के साथ बँगले के गैराज के ऊपर बने अपने क्वार्टर की ओर चल दी। 

♦    ♦    ♦

“पार्वती को मैंने सब समझा दिया है,” रास्ते में मेरे पिता ने मेरी हिम्मत बाँधी, “वह तुम्हें तुम्हारी माँ से भी ज़्यादा अच्छा रखेगी।” 

मैं चुप रही। 

“तुमने कान में यह क्या लगा रखा है? कान में कोई तकलीफ़ है क्या?” 

“यह मेरे कान की ठेंठी है। अब मैं इसी के सहारे लोगों की बात सुनती हूँ, इसे कान से निकालती हूँ तो एकदम बहरी बन जाती हूँ . . .।” 

मैं जन्म से बहरी न थी। 

बहरापन मुझे मेरे पिता ने दिया था। 

सात साल पहले तक मेरे पिता हमारे साथ हमारे क्वार्टर में रहते रहे थे। 

अपनी पुलिस चपती और पुलिस के भारी बूट वे माँ पर तो रोज़ जमाते ही, साथ-साथ मुझ पर भी तमाचे, घूँसे और लात अक़्सर छोड़ दिया करते। माँ ने ही बताया था, जब मैं बहुत छोटी थी, तो एक दिन अपने ताव की घुमड़ी में मेरे पिता ने मुझे जो ज़मीन पर पटका तो मेरे सुनने की ताक़त जाती रही। 

लापरवाही की अपनी झख में पिता ने मेरे कान के बिगाड़ पर कभी ध्यान न दिया था। 

मेरे कान की वह ठेंठी माँ ने पिता के हमें छोड़कर चले जाने के बाद ही दिलायी थी। 

“क्या सारा सामान नहीं लाए?” सामान के नाम पर क्वार्टर के बरामदे में गैस के सिलेंडर और चूल्हे के साथ सिर्फ़ दो बक्से, चार पीपे और एक बाल्टी देखकर मुझसे चुप नहीं रहा गया, “लड़के कहाँ हैं?” 

“उन्हें दूसरे सामान के साथ दूसरे चक्कर में लाऊँगा,” मेरे पिता ने मेरी तरफ़ हाथ बढ़ाया, “लाओ, चाभी इधर लाओ।” 

क्वार्टर के दरवाज़े पर पड़े ताले को खोलने के एकदम बाद पिता ने चाभी के गुच्छे में लगी दूसरी चाभी अपनी उँगलियों में कस ली, “इसका ताला कहाँ है?” 

“अम्मा के बक्से में लगा है,” मैंने चाभी का गुच्छा पिता के हाथ से ले लेना चाहा। 

“लाओ, बक्सा इधर लाओ,” मेरे पिता के माथे पर बल पड़ गए। 

बक्से में माँ के गहने-लत्ते के साथ उनके पिता और मेरे भाई की तस्वीरें बन्द थीं। 

मेरी माँ अपने परिवार में सिर्फ़ अपने पिता को ही चीन्हती थीं। वह जब आठ साल की थीं तो उनकी माँ से झगड़कर उनके पिता उन्हें अपने पैदाइशी शहर से बहुत दूर अपने संग यहाँ लखनऊ में लिवा लाए थे। इस तरह उन्होंने अपने परिवार के किसी दूसरे जन का मुँह फिर कभी न देखा था। न ही उनको किसी के बारे में कोई ख़बर ही रही थी। दस साल बाद जब टेम्पो चलाते समय माँ के पिता का एक सड़क-दुर्घटना में देहान्त हुआ तो वह इस भरी-पूरी दुनिया में बिल्कुल अकेली रह गयी थीं। मेरे पिता के संग उनकी शादी पड़ोसियों के चंदे और टेम्पो के इंश्योरेंस के काग़ज़ों के बूते पर सम्पन्न हुई थी। इंश्योरेंस की रक़म हाथ लगते ही मेरे पिता ने माँ के प्रति अपना रुख़ और रवैया बदल लिया था। रोज़ के रोज़ मार पिटाई पर उतरने लगे थे और तंग आ कर मालकिन ने उन्हें क्वार्टर छोड़ देने को कह दिया था और जभी अपनी शादी के आठवें साल में ही मेरे पिता हम माँ-बेटी से अलग हो लिए थे। मगर यहाँ से जाते समय अठारह साल पहले घटित मेरे नाना की करतूत को मिसाल मान कर वह चार साल के मेरे भाई को अपने साथ लिवा ले गए थे। हम माँ-बेटी बस मुँह थामतीं रह गयीं थीं और बेटे को पलक-भर देखने की अधूरी तमन्ना लिए माँ की पलकें बंद हों ली थीं। 

“बक्से में कुछ नहीं है,” चारपाई के नीचे धरे बक्से को खिसका कर मैं पिता के पास ले आयी। 

“हरामज़ादी ने यह साड़ी कब ली?” बक्से को छानते समय पिता आग-बबूला हो उठे। 

“मालकिन ने दी थी,” पिता के हाथ से गोटे वाली वह साड़ी मैंने अपने हाथ में ले ली, “यहाँ बँगले पर मालिक की बहन की शादी रही। शादी में अम्मा ने ढेरों काम सँभाला था . . .।” 

“चल, चुप कर,” पिता ने मुझे डपट दिया, “औरत जात को ज़्यादा बोलना शोभा नहीं देता . . .।” कहकर उन्होंने बक्से का ढक्कन ज़ोर से बक्से पर जमाया और ताला लगाकर चाभी के गुच्छे से बक्से की चाभी निकाल ली। फिर जेब से अपना बटुआ निकाला और उसकी बटन वाली जेब में चाभी ठेक ली। 

“मेरे लौटने तक बरामदे और कमरे की झाड़-पोंछ पूरी हो जानी चाहिए,” सीढ़ियाँ उतरते समय पिता ने मुझे हुक्म सुनाया। 

♦    ♦    ♦

“यह सोनपंखी है—तुम्हारी बहन,” चारपाइयों से लदे रिक्शे पर बैठे उन दो लड़कों को जैसे ही मैंने बँगले के गेट से अंदर आते देखा, मैं क्वार्टर से नीचे भाग आयी। 

मेरे पिता दूसरे रिक्शे के पीछे अपनी साइकिल पर सवार थे। 

इस बार सामान काफ़ी ज़्यादा और भारी था। 

रिक्शे वालों ने सामान ऊपर क्वार्टर में पहुँचाने में मेरे पिता का हाथ बँटाया। 

दोनों लड़के मेरे पास खड़े रहे। दोनों ने ही सफ़ेद पेंट और नीला स्वेटर पहन रखा था। लगता था स्कूल से लौटकर उन्हें कपड़े बदलने का मौक़ा न मिला था। 

“कौन-सी क्लास में पढ़ते हो?” मैंने पूछ लिया था। 

“मैं वन-ए में पढ़ता हूँ,” छोटे के चेहरे पर जोश रहा। वह लगभग छह साल का था। 

“और तुम?” मैंने बड़े की ओर देखा किन्तु उसने कोई जवाब न दिया। वह मुझ से अनजान बना रहा। बीच के इन पिछले सात सालों में हम एक दूसरे से एक बार भी नहीं मिले थे। 

“इधर आओ, संतोष,” रिक्शे वाले जब सामान टिकाकर चले गए तो क्वार्टर की खिड़की से मेरे पिता ने बड़े को ऊपर बुलाया। 

सीढ़ियाँ चढ़ते समय जब बड़ा लँगड़ाया तो मैंने देखा, उसके एक पैर का जूता दूसरे पैर के जूते से काफ़ी ऊँचा था। 

हैरत से भर कर मैं छोटे को सीढ़ियों से कुछ दूरी पर रखे बेंच पर ले गयी। 

“यह क्या है?” छोटे ने मेरे कान की ठेंठी देखनी चाही। 

“बाद में दिखाऊँगी,” मैंने कहा, “पहले यह बताओ संतोष के पैर में यह चोट कैसे लगी?” 

“उसे चोट नहीं लगी। वह जन्म से लँगड़ा है,” छोटे ने अपने हाथ मेरे कान की ठेंठी की ओर बढ़ाए। 

“नहीं,” मैं काँप गयी, “यह सच नहीं है। चार साल की उम्र तक तो संतोष ठीक-ठाक चला करता था। ज़रूर बप्पा ने उसे किसी रोज़ . . .।” 

“क्या है यह?” एक तेज़ झटके के साथ छोटे ने मेरे कान की ठेंठी बाहर खींच ली। 

“इसे गिराना नहीं,” मैं चिल्लायी, “इसके बिना मैं कुछ नहीं सुन पाती।” 

छोटे को शरारत सूझी और उसने पास पड़ी एक ईंट उठाकर मेरे कान की ठेंठी चकनाचूर कर दी। 

सुबह से अपने अंदर जमा हो रही अपनी रुलाई को मैं ज़ोर के साथ बाहर ले आयी। पिता फ़ौरन नीचे दौड़े आए। 

छोटे की शरारत पिता पर प्रकट करने में मैंने तनिक देर न लगायी। 

नुक़्सान का अंदाज़ा मिलते ही पिता ने छोटे पर अपनी चपती से कई वार किए-सड़ाक, सड़ाक, सड़ाक . . .

कष्ट से करवटें बदल रहा छोटा ज़मीन पर कई बार सीधा और उलटा लोट-लोट गया, मगर संतोष और मैं एक बार भी बीच में न पड़े। 

ऊपर क्वार्टर की खिड़की से संतोष और सबसे निचली सीढ़ी से मैं अपने पिता और छोटे की लीला देखते रहे . . . चुप्पी साधे . . . साँस रोके . . . 

अन्ततोगत्वा छोटे की गर्दन के बीचों बीच पड़े एक भरपूर वार ने बराबर बरस रही पिता की चपती और छोटे की अड़ंगेबाजी पर एकाएक एक साथ रोक लगा दी। 

इधर छोटे का दम निकला तो उधर पिता का दम ख़ुश्क हो गया। 

कचहरी में पिता पर जब उनकी दूसरी औरत ने मुक़द्दमा चलाया तो संतोष ने और मैंने उनका पूरा साथ दिया। 

छोटे के ख़ून का आँखों देखा हाल तो सुनाया ही, साथ में अपनी-अपनी तकलीफ़ का बयान भी जोड़ दिया। मैं ने अपने बहरेपन के लिए और संतोष ने अपने लंगड़ेपन के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराते हुए। 

अपने पिता की दूसरी औरत को जल्दी ही मैं भी संतोष की तरह ‘ममी’ पुकारने लगी। 

मालकिन ने भी उसी सरगरमी के साथ उन्हें सहारा और हौसला दिया जिस सरगरमी के साथ वे मेरी माँ को उनकी बीमारी से पहले तसल्ली और हौसला देती रही थीं। 

1 टिप्पणियाँ

  • 10 Aug, 2023 12:14 PM

    samaj me rhne wale jallad kism ke aadmi ki ye ek dastan hai par manko dukhi karti hai vo larkee jo sada anyay shhti rahi or jab bap mila to uske bigre bete ne vo kiya jo use nahi kana chahiye tha jis bap ne apni beti ko bahra kiya bete ko langra kiya patni ko dhokha diya kahani kar ne use sahi jagh tak pahucha diya ye kahani me bhool nahi pauga Dr RK BHARTI

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