प्रबोध
दीपक शर्मा
सन् उन्नीस सौ पचास का वह दशक साल दर साल नयापन लाता रहा था।
हमारी कस्बापुर रोड पर यदि किसी साल बर्फ़ का नया कारख़ाना खुला तो दूसरे साल कपास से धागा बनाने का। और यदि तीसरे साल बिस्कुट बनवाने की भट्ठी खुली तो चौथे साल दवा की नई दुकान।
जिस समय मैं चार साल की थी और भाई सात का, उस सन् इक्यावन में बाबा ने घाटे पर चल रहा अपने लोहे का कारख़ाना बेच कर रेडियो की दुकान खोली थी जहाँ वह अपने जोड़े हुए रेडियो तैयार भी करते और बेचते भी।
“आज कौन गाहक आए?”और आगामी पाँच साल तक रहा माँ का रोज़ाना सवाल सातवें साल के आते-आते अब “आज कोई गाहक आया?” में बदल लिया था। और बाबा का जवाब रहता, “एशियाई फ़्लू ने इधर ऐसा ज़ोर पकड़ रखा है, कि बाज़ार सख़्त मंदी से गुज़र रहा है।”
उसी सन् उन्नीस सत्तावन ही के जूून महीने में कई दिनों से लगातार हो रही मूसलाधार बारिश द्वारा लायी गई बाढ़ ने हमारे स्कूल बंद करवा दिए थे। निकटवर्ती गाँवों के विस्थापित लोगों को शरण देने हेतु।
और बाबा हमें व्यस्त रखने के लिए हमारे लिए नए कॉमिक्स के इलावा लुडो, कैरम और साँप सीढ़ी जैसे खेल लिवा लाए थे।
साथ ही अप्रैल से सरकार की ओर से देश में जो नयी मुद्रा लागू की गयी थी (सोलह आने वाला रुपया अब सौ नए पैसे का मोल रखता था) तो बाबा हम बच्चों के लिए आए दिन नए चमकदार सिक्के भी लाया करते थे: दो, पाँच, दस और बीस नए पैसे के अधिकतर। साथ ही कुछ नयी चवन्नियाँ और अठन्नियाँ भी।
और जब चार अक्टूबर को रूस ने अंतरिक्ष में अपने पहला स्पुतनिक यान छोड़ने के कुछ ही दिन बाद, तीन नवंबर को अपने दूसरे स्पुतनिक में ‘लाएका’ नाम के एक कुत्ते के साथ अंतरिक्ष में छोड़ा तो बाबा हमारे लिए एक नवजात पिल्ला भी ले आए थे: “यह हमारा ‘लाएका’ है।” जिसे हम ने उसे और उस ने हमें बहुत प्यार दिया था।
जभी दिसंबर के किसी एक दिन हमारे रेडियो पर ख़बर आई, लंदन के रॉयल एलबर्ट हॉल में हमारे भारतीय दारा सिंह ने अमरीकन लायो थैज़ को हरा कर कॉमन वैल्थ चैम्पियन शिप जीत ली थी। दारा सिंह के लिए भाई के दिल में तो बाद के कई सालों तक आकर्षण बना रहा था। उस की हर कुश्ती का, हर फ़िल्म का लेखा उस के पास ज़रूर रहा करता।
हमारी कस्बापुर रोड ही के धागा बनाने वाले कारख़ाने की बग़ल में एक विशाल ख़ाली मैदान रहा था (जिसे सन् पैंसठ में शहर के सब से बड़े और आलीशान फ़िल्म थिएटर में बदल देने के लिए ख़ाली नहीं रहने दिया था) जहाँ बाढ़ से पहले के दिनों में हर इतवार को शौक़िया पहलवानों द्वारा कुश्ती के मुक़ाबले रखे जाते थे। शौक़िया दर्शकों से लिए गए चंदे के सहारे। कस्बापुर में उन्हें ‘घोल’ कहा जाता था। एक बाँस के ऊपर एक पगड़ी में चंदे से इकट्ठे किए गए भावी विजेता के नाम के रुपए बाँधे जाते थे और फिर बाँस को अखाड़े में गाड़ दिया जाता था। कुश्ती के समय ढोल भी ख़ूब बजा करता।
सिंतबर से उतर रही बाढ़ उस दिसंबर तक अपना प्रभाव पूरी तरह से गँवा चुकी थी और अब वह मैदान कुश्ती के आयोजन के लिए तैयार था।
छह महीने के लम्बे अंतराल के बाद होने वाली उस कुश्ती को ले कर सभी बहुत उत्साहित थे।
कुश्ती देखने के शौक़ीन बाबा हम भाई-बहन के लिए भी चंदा देते समय अपने समेत दर्शकों की सब से अगली क़तार की तीन सीट आरक्षित करवाया करते थे।
“इस बार लड़की कुश्ती देखने नहीं जाएगी,” माँ हमारे नाम न ले कर अक्सर भाई के लिए ‘लड़का’ और मेरे लिए ‘लड़की’ शब्द का प्रयोग किया करतीं।
“क्यों नहीं देखेगी?” बाबा ने प्रतिवाद किया था।
“वह अब बड़ी हो गयी है। उसे अब ऐसी पिछवाड़े की कुश्ती नहीं देखनी चाहिए।”
“बड़ी हो गयी है? इस ग्यारह साल की छोटी उम्र में? इन्हीं छह महीनों में?” बाबा चौंके थे।
“ग्यारह साल की उम्र ऐसी छोटी भी नहीं। और लड़कियों की उम्र की तो बात ही निराली है। हर दिन हर महीना उन की उम्र बढ़ाने का काम किया करता है। तिस पर आप के इन बेचारे कुश्तीबाज़ लोग के पास पूरे ड्रेस तो हैं नहीं। मैं नहीं चाहती इतने कम कपड़े पहने वे नंग-धड़ग बंदे उस की नज़र के सामने पड़ें . . .”
“माँ सही कह रहीं हैं, बाबा,” भाई चट बोल लिया था, “वहाँ का माहौल भी इस के लिए मन माफ़िक नहीं।”
“ऐसा है क्या?” बाबा सोच में पड़ गए थे और मुझ से पूछे थे, “तुम क्या कहती हो? क्या चाहती हो?”
बाबा की यह आदत पुरानी थी। जब भी असमंजस में रहते तो निर्णय सामने वाले के हवाले कर दिया करते।
“जो आप कहें, जो आप चाहें . . .” मेरा असमंजस उन से ज़्यादा गहरा रहा था।
“तुम्हें अब मैं ने कोई कुश्ती-वुश्ति नहीं देखने देनी,” माँ कहें थीं।
और बाबा व भाई समेत मैं चुप लगा ली थी।
अजाने एक नए प्रबोध के प्रभाव में।