सिटकिनी

01-06-2025

सिटकिनी

दीपक शर्मा (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“देखिए,” पति से रमा अपना शारीरिक कष्ट हमेशा बढ़ा-चढ़ा कर बताती, “आज मुझे हाथ में भयंकर चोट लग गयी। पूजाघर की सिटकिनी पुरानी थी। खोलते समय टूट कर मेरे हाथ में आन गिरी। बत्ती उस समय गई हुई थी और उस के एक काबले ने . . .” 

“कल सुबह उठते ही सी.एम.ओ. को फ़ोन कर दूँगा,” अपनी शाम की ड्रिंक ले रहे पति ने रमा की बात पूरी न होने दी, “ड्राइवर अस्पताल की सबसे क़ाबिल लेडी डॉक्टर को यहाँ लिवा लाएगा और वह सब देख-वेख लेगी। तुम जाओ और मेरे लिए मसाला पापड़ बना लाओ। इस समय मैं इन तमाम अख़बारों के संपादकीय पढ़ना चाहता हूँ। इधर की राजनीतिक स्थिति विकट चल रही है और मैं बहुुत चिंतित हूँ . . .” 

रात में पति अलग कमरे में सोने गए। ऐसा अक्सर होता था, जब भी रमा अस्वस्थ होती, पति अलग कमरे ही में सोते। 

रमा अपने बिस्तर से खुली आलमारी की अंदर वाली सिटकिनी पर नज़र गड़ाए देर तक अनुमान लगाती रही। जब उसे विश्वास हो गया घर के सारे सदस्य सो चुके थे तो वह दबे पाँव उठ खड़ी हुई। 

बग़ल वाले ग़ुस्लख़ाने से झाँक रहे प्रकाश में वह अपने ड्रेसिंग टेबल तक गयी। उस की दराज़ में एक पेचकस रखा रहता था। 

रमा ने पेचकस उठाया और आलमारी की सिटकिनी की ओर बढ़ ली। 

पेचकस उस ने सिटकिनी के दाएँ घुमाया, बाएँ घुमाया, ऊपर घुमाया, नीचे घुमाया किन्तु सिटकिनी टस से मस न हुई। 

रमा वहीं ज़मीन पर बैठ कर रोने लगी। 

“क्या हुआ तुझे?” रमा की सास ने उस के कमरे की बत्ती आन जलाई, “रोती क्यों है? इस पेचकस से क्या करेगी?” 

“क्या हुआ भाभी?” रमा की ननद भी माँ के पीछे आन धमकी, “भैया पर पहले ही अपनी ड्यूटी का इतना बोझ है। अब आप क्या नया बखेड़ा खड़ा करेंगी?” 

घटने की बजाए रमा की रुलाई बढ़ गयी। 

“हैं? बात क्या है?” रमा के ससुर भी कमरे में आन खड़े हुए, “यह लड़की ज़मीन पर क्यों बैठी है? इस के हाथ में क्या है?” 

“पेचकस है,” रमा की ननद ने मुँह बिचकाया, “क्या मालूम इस के साथ क्या करेगी?” 

“कैैसी नादान लड़की है! सिरे से संस्कार विहीन!! वहाँ बाप ने कुछ नहीं सिखाया तो हमीं से कुछ सीख-समझ लेती। और कुछ नहीं तो पति ही का कुछ ख़्याल करती। रात को भी बेचारे को आराम न मिला तो उस की सेहत पर कितना बुरा असर पड़ेगा। यह तो दिन में सो कर अपनी नींद पूरी कर लेगी मगर उस बेचारे को तो कल फिर दिन भर खटना है,” रमा के ससुर की भृकुटि तन गयी। 

रमा की सिसकियाँ फिर भी मंद न पड़ीं। 

“यह क्या हो रहा है?” मजबूर हो कर रमा के पति को अब आना ही पड़ा, “यह कैसी बदतमीज़ी है, रमा? नीचे ज़मीन से उठो, रमा। बड़ों का कुछ तो लिहाज़ रखो। उन की नींद मत ख़राब करो . . .” 

रमा के गले ने फिर भी उस की आवाज़ को संकुचित नहीं किया। 

“कल इसके बाप को इधर बुलाना पड़ेगा। कहना होगा, बेेटी उसकी पागल है। इसे अपने घर पर लौटा ले जाओ . . .” और रमा के पति ने रमा के गाल पर अपना पुलिसिया हाथ छोड़ दिया—कड़ा और ज़ोरदार। रमा का मुड़क रहा चेहरा तुरंत खिंच गया और कंठगत उस का क्रंदन वहीं रुक गया। बोली, “उन्हें मत बुलाना।” 

“क्यों न बुलाऊँ?” 

“नहीं बुलाना,” रमा ने पति के पैर पकड़ लिए, “मुझ से भंयकर भूल हुई। अब ऐसा कभी न होगा . . .।” 

“तो अपनी आवाज़ फिर अब बंद रखना,” रमा के पति ने कमरे की बत्ती बुझा दी, “हम लोग की नींद में अब विघ्न नहीं पड़ना चाहिए . . .” 

“नहीं पड़ेगा। विघ्न कभी नहीं पड़ेगा . . .” 

♦    ♦    ♦

अगली सुबह घर से निकलते समय रमा के पति ने ज़िले के मुख्य चिकित्सा-अधिकारी से बात की, “मेरी पत्नी के हाथ में लोहे के एक काबले से गहरी चोट आई है। मैं तो यहाँ रहूँगा नहीं। केंद्र से आ रहे एक जाँच दल के साथ दंगा-ग्रस्त क्षेत्रों का सर्वेक्षण करूँगा। आप अपनी किसी योग्य महिला-डॉक्टर को पट्टी-वट्टी करने के लिए भेज दीजिएगा। और ज़रूरत हुई तो वह एंटी-टौक्सिन इंजेक्शन भी दे देगी। ठीक है न?” 

“क्यों नहीं? एस.एस.पी. साहब?” चिकित्सा-अधिकारी ने ख़ुशामदी आवाज़ में रमा के पति का आदेश ग्रहण किया, “आप इत्मीनान से ज़िला सँभालिए। हम सब आप की सेवा में उपस्थित रहेंगे . . .” 

“धन्यवाद। इस समय तो केवल एक महिला-डॉक्टर ही पर्याप्त रहेगी . . .।” 

♦    ♦    ♦

“मैं वह सिटकिनी देखना चाहूँगी,” महिला-डॉक्टर ने आते ही अपनी चिकित्सा-अभिक्रिया प्रारंभ कर दी, “कई बार लोहे में जंग रहता है। जंग में टेटनोस्पेस्पिन नाम का एक जानलेवा विष होता है जो घाव के द्वारा रक्तशिराओं में प्रवेश कर रीढ़ की हड्डी के गैंग्लियौन सैल्ज़ तक पहुँच जाता है . . .” 

“आप ज़रूर तिल का ताड़ बना रही हैं,” रमा मुस्कुराती, “यह तो एक मामूली खराश है . . .” 

“नहीं,” महिला-डॉक्टर ने सिर हिलाया, “सिटकिनी का निरीक्षण ज़रूरी है . . .” 

“आइए,” रमा ने अपने पूजाघर के दरवाज़े पर पड़े ताले को खोला। 

“ओह! यहाँ तो आप अर्चना-आराधना करती हैं,” महिला-डॉक्टर ने अपनी चप्पल उतार दी और सिर ढक लिया, “मैं तो स्वयं संध्या, पूजा, जप और पाठ में गहरी आस्था रखती हूँ . . .” 

“यह सिटकिनी देखिए,” रमा ने महिला-डॉक्टर का ध्यान पूजाघर के दरवाज़े की अंदर वाली टूटी हुई सिटकिनी की ओर निर्देशित किया, “क्या आप समझती हैं इस में जंग लगा है?” 

“आप की पूजा सामग्री तो एकदम भव्य है,” उत्साहित हो कर महिला-डॉक्टर ने लक्ष्मी और गणेश की मूर्तियाँ छुईं, “क्या ये चाँदी की हैं?” 

“हाँ,” रमा ने कहा। 

“इतनी विशाल! इतनी उत्कृष्ट!! कहाँ से लीं आप ने?” 

“ये मेरे नाना ने मेरी माँ को दहेज़ में दी थीं। और माँ के बाद ये मेरी सम्पत्ति बन गईं।” 

“माँ के बाद? यानी . . .” 

“अभी मैं सात साल ही की थी जब मेरी माँ का देहांत . . .” रमा का गला रुँध चला। 

“और यह रुद्राक्ष?” महिला-डॉक्टर ने रुद्राक्ष की माला अपने हाथ में ले ली, “पंचमुखी है क्या? कहाँ से ली आप ने? मैं भी मँगवाना चाहूँगी . . .” 

“वाराणसी से यह माला मेरे पति लाए थे।” 

“सुना है, इस का जाप ज़रूर फल देता है। आप कितने जाप करती हैं?” 

“ग्यारह।” 

“ग्यारह जाप?” महिला-डॉक्टर ने रमा की ओर आशंकित हो कर देखा और अपने हाथ के रुमाल से उस माला पर जमी पुरानी धूल पोंछ दी। 

“जाप के लिए मैं अपनी माँ की पुरानी तुलसी की माला प्रयोग में लाती हूँ,” रमा ने महिला-डॉक्टर के हाथ से रुद्राक्ष की माला अपने हाथ में ले ली, “आप इधर यह सिटकिनी देखिए। क्या इस में जंग लगा है?” 

“तो क्या आप गायत्री मंत्र का जाप करती हैं?” महिला-डॉक्टर ने रमा को घेर लेना चाहा। न मालूम उसे कैसा यह आभास हुआ रमा को किसी भी जाप में आस्था न थी . . . 

“नहीं।” 

“क्या किसी पंडित ने किसी विशेष प्रयोजन के लिए कोई और मंत्र दे रखा है?” 

“प्रयोजन है। तभी तो दिया है,” रमा का स्वर क्षुब्ध हो आया, “मेरे विवाह को सात साल होने को आए और अभी तक मैं माँ नहीं बन पायी। दो बार गर्भ ठहरा भी किन्तु किन्हीं कारणों से गिर गया . . .” 

“आप किसी दिन अस्पताल में आइए। मैं आप का पूरा चेक-अप करूँगी। . . .” 

“बहुत से डॉक्टरों को बहुत बार दिखा चुकी हूँ, मगर बात नहीं बनी। अब सास के ज़ोर देने पर जप-तप आज़मा रही हूँ . . .” 

“हाँ, कहते तो हैं, कुछ मंत्रों की संख्यापूर्वक आवृत्ति से मन की इच्छा अवश्य पूरी होती है। . . .

दस दिसि देखते सगुन शुभ 
पूजहिं मन अभिलाष . . . 

जप से आप को अपने प्रयत्न की सिद्धि में अवश्य सफलता मिलेगी . . . 

पूजहिं माधव पद जल जाता। 
परसि अषयबटु हर्षित गाता। . . .” 

“आप सिटकिनी देखिए,” प्रेरित होने की बजाय रमा व्याकुल हो उठी, “क्या इस में जंग लगा है?” 

“हाँ। पुरानी सिटकिनी है। इस में जंग है,” महिला-डॉक्टर अपने बाक़ी परिप्रश्न टाल गयीं, “ऐसे में ऐंटी-टौक्सिन का एक इंजेक्शन आप के शरीर की प्रतिरोध-शक्ति बढ़ाएगा और टेटनस नहीं होने देगा . . .” 

♦    ♦    ♦

महिला-डॉक्टर के लोप होते ही रमा ने दो अर्दलिओं को अपनी आलमारी के पट की अंदर वाली सिटकिनी उतारने का निर्देश दिया। 

दोनों अर्दली चतुर थे और उन्होंने बड़ी मुस्तैदी व निपुणता से वह सिटकिनी उतार ली। 

सिटकिनी के बारे में रमा का अनुमान सही निकला और वह रमा के पूजाघर के दरवाज़े पर ठीक बैठ गयी। 

सिटकिनी चढ़ाते ही रमा अपनी लहर में बह चली . . . 

सब से पहले उस ने विधवा अपनी ताई को कोसा . . .

फिर अपने पिता को कोसा, जिन्होंने रमा की माँ की आख़िरी साँसें उस ताई की संगति में एक साथ सुनीं और गिनी थीं . . . 

फिर ताई के उन चार गुणक बेटों को कोसा, जो रमा के पिता के पितृतंत्र के आवाह-क्षेत्र में अपने अनैतिक प्रवेश के बावजूद रमा से ऊपर रमा के पिता पर परिपूर्ण प्रभाव व अधिकार रखे थे . . .

फिर उस ने अपनी सास के दुर्वचनों का पलट कर जवाब दिया . . . 

फिर ननद की फबतियों पर उसे जली-कटी सुनाई . . . 

फिर उस ने ससुर की कुड़कुड़ाहट पर विवाद खड़ा किया . . .

फिर पति के झीखने पर उन्हें धौंसिया दिया . . . 

♦    ♦    ♦

फिर पूजाघर से बाहर आयी तो तुरंत सास के सामने जा उपस्थित हुई। उन के चरण-स्पर्श किए और अपने स्वर में अपनी पुरानी घिसी-पिटी, चिकनी-चुपड़ी, झूठी व मीठी तितिक्षा भर कर सास से बोली, “मम्मी जी, आज मौसम ख़ूब अच्छा है। आप कहें तो शाम की मघौरी के लिए मूँग की दाल भिगो दूँ? . . .” 

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