भुलावा
दीपक शर्मा
“स्मृति हमारी आत्मा के उसी अंश में वास करती है जिसमें कल्पना।” (मेमोरी बिलोंग्स टू द सेम पार्ट ऑफ़ द सोल एज इमेजिनेशन।)—अरस्तू
हरिगुण को मैंने फिर देखा।
रश्मि के दाह-संस्कार के अंतर्गत जैसे ही मैंने मुखाग्नि दी, उसकी झलक मेरे सामने टपकी और लोप हो ली। पिछले पैंतीस वर्षों से उसकी यह टपका-टपकी जारी रही थी। बिना चेतावनी दिए किसी ही भीड़ में, किसी भी सिनेमा हॉल में, रेलवे स्टेशन के किसी भी प्लैटफ़ॉर्म पर या फिर हवाई जहाज़ के किसी भी अड्डे पर, बल्कि सर्वत्र ही, वह मेरे सामने प्रकट हो जाता। अनिश्चित लोपी-बिंदु पर काफ़ूर होने।
अवसर मिलते ही मैंने आलोक को जा पकड़ा, “हरिगुण को सूचना तुमने दी थी?”
“हरिगुण कौन?” आलोक ने अपने कंधे उचकाए; मेरे साथ बात करने में उसकी दिलचस्पी शुरू से ही न के बराबर रही है।
“तुम्हारे कस्बापुर में रहता है। रश्मि ने मुझे उससे मिलवाया था। उधर अमृतसर में।”
“इतने साल पहले?” रश्मि के इस एकल भाई, आलोक, को अमृतसर का उल्लेख अच्छा नहीं लगता। मेरे परिवारजन को भी नहीं भाता। हम दोनों ही के परिवारों के लिए अमृतसर उस ग्रह का नाम है जहाँ रश्मि और मेरी ‘कोर्टशिप’ ने लंबे डग भरे थे, ‘कोर्ट मैरिज’ में परिणत होने हेतु। बिना अपने परिवारों को साझा तल बनाए। अपनी आज़ादी को काम में लाते हुए। कहना न होगा रश्मि सन् सत्तर के दशक की लड़कियों की उस पीढ़ी की सदस्या रही जिनकी क्लास-टू नौकरी उन्हें न केवल किसी भी अजनबी शहर में अपना डेरा डालने का अधिकार देती थी, वरन् उन्हें अपने लिए क्लास-वन वर झपटने में सफलता भी। यह अलग बात है उस जैसी लड़कियों के स्वयंवर असफल रहे, क्योंकि उनका ध्यान घर-गृहस्थी के काम-काज की बजाय बाहरी निशानों और उलझनों पर अधिक केंद्रित रहा।
“ख़ुफ़िया विभाग से रिपोर्ट मिली थी रश्मि के विभाग में नक्सली इकट्ठे होते हैं,” आलोक को अपने पास रोक रखने के लिए अपनी मनगढ़ंत में सनसनी की चुनट डालनी मेरे लिए ज़रूरी थी।
“नक्सली?” आलोक सकते में आ गया, “जीजी के कॉलेज में?”
“हाँ, तुम्हारे साथ इस बात का ख़ुलासा करने का पहले कभी मौक़ा ही नहीं मिला। शायद तुम नहीं जानते रश्मि के विभाग में उसके पास कुली-कबाड़ी भी बेरोक-टोक कभी भी आ टपकते थे।”
“हरिगुण नक्सली था?”
“इससे पहले कि मैं पता करता, वह भारत से ग़ायब हो गया,” मेरी चुग़ली ने कपोल-कल्पना में दूसरा गोता लगाया, “फिर अभी कुछ साल पहले उड़ती ख़बर मिली वह भारत लौट आया है और आपके कस्बापुर ही में है।”
“आप उससे मिले क्या?”
“नहीं, लेकिन मुझे यक़ीन है रश्मि के साथ उसने अपना मेल-जोल फिर से बाँध लिया था।”
“आप मुझसे क्या चाहते हैं?” आलोक खीजा। जटिल और टेढ़े-मेढ़े रास्ते उसे ग़ुस्सा दिलाते हैं।
“उसका पता-ठिकाना . . .”
“आप डी.जी. रैंक के अफ़सर हैं, किसी से भी उसका पता लगा सकते हैं।”
“हरिगुण को मैं कोई नुक़्सान नहीं पहुँचाना चाहता। रश्मि का वह प्रिय विद्यार्थी था। इसलिए पुलिस को तस्वीर से बाहर रखना चाहता हूँ।”
“उसकी कोई ख़ास पहचान?”
“वह अंधा है और हमेशा काला चश्मा पहने रहता है।”
“हरिगुण का पता लिखिए,” आलोक के कस्बापुर पहुँचने के चंद दिनों ही में उसका फोन आ गया।
अपनी बहन को मेरे उलाहने से छुटकारा दिलाने की उसे जल्दी रही।
“पहले बताओ, भारत वह कब लौटा?”
“भारत के बाहर वह कभी गया ही नहीं,”आलोक उत्तेजित हुआ, “जब तक उसकी माँ जीवित रही, उधर अमृतसर ही में पड़ा रहा। फिर नब्बे में हुई उनकी मृत्यु के बाद इधर कस्बापुर के अपने भतीजे के पास आन बसा।”
“उसका अपना परिवार?”
“नहीं है। भतीजे ने अपने घर ही में एक कंप्यूटर कोचिंग सेंटर खोल रखा है। बस्तीपुर बस अड्डे के पास। घर के बाहर कंप्यूटर कोचिंग का बोर्ड लगा है जिस पर आँखों से निर्योग्यजन को कंप्यूटर सिखलाने की सुविधा के उपलब्ध होने की सूचना दर्ज है। उसी बोर्ड से मैंने हरिगुण को पाया।”
“रश्मि के बारे में बात हुई?”
“हाँ, हुई। लेकिन हरिगुण ने बताया कि जीजी से सन् इकहत्तर की तेरह जून के बाद वह कभी नहीं मिला।”
सन् इकहत्तर की तेरह जून मेरी आँखों में आ तैरी।
♦ ♦ ♦
“आप कौन?” रश्मि के विभाग में वह मेरे वहाँ पहुँचने से पहले बैठा है।
“आप कौन?” मैं पूछता हूँ।
उसकी हिमाक़त मुझे हैरत में डालती है।
देखने में वह अल्लम-गल्लम नज़ारा है, एक काले क़ीमती चश्मे ने उसका एक तिहाई चेहरा ढाँप रखा है और दो तिहाई जो चेहरा नज़र में उतरता है वह निहायत मटियाला है, दो दिन की बेहजामती लिए है। सिर के बेतरतीब बाल कंघी माँग रहे हैं। भूरे और सलेटी रंगों के बीच की कोई रंगत लिए क़मीज़ सिलवटदार है। सलेटी पतलून बेकरीज़ है। लेकिन चप्पल ख़स्ताहाल नहीं। नई है और अच्छी चमक रही है। उसके धूल-सने पैरों से उसका मेल मिलाना मुश्किल है। हाँ, उसका मेल रश्मि की पसंद से ज़रूर मिलाया जा सकता है। बल्कि मेरी सहज बुद्धि उसके चश्मे के ख़रीदार का नाम भी जान चुकी है, रश्मि। अब मुझे पता यह लगाना है कि रश्मि ने उसे ये दोनों चीज़ें हमारी शादी से पहले लेकर दी थीं या बाद में।
“मैं हरिगुण हूँ,” वह अभी भी बैठा है।
“मैं पुलिस हूँ,” मैं उसे धमकी देता हूँ।
“हमें रिहा कब करेंगे?” वह ठीं-ठीं छोड़ता है।
“क्या हो रहा है?” तभी रश्मि अपने विभाग में आन दाख़िल होती है।
“आपके मेहमान के साथ आप वाली ‘फैलेसी आव क्युसचंज (तर्काभास के प्रश्न) का एक नमूना औंधा रहा था,” हरिगुण की ठीं-ठीं दुगनी तेज़ हो लेती है।
“कौन-सा?” रश्मि मेरी तरफ़ देखती है,” हरिगुण मेरी एम.ए. वन का स्टुडेंट है। हमारे कस्बापुर में इसका ददिहाल है।”
“वाइफ़ बीटिंग वाला,” हरिगुण अपनी मौज में बह रहा है, “क्या फैलेसी है? वैन डिड यू स्टॉप बीटिंग योर वाइफ़? आप पूछते हैं जबकि पूछे जाने वाले आदमी ने शायद अभी शादी ही न की हो या फिर अपनी पत्नी को पीटना शायद शुरू ही न किया हो या फिर पीटना शुरू भी कर दिया हो मगर अभी बंद न किया हो।”
“क्या बक रहे हो?” उसका चश्मा उतारकर मैं अपने हाथ में ले लेता हूँ।
उसकी आँखों की आईरिस, परितारिका, में बहुत ज़्यादा सफ़ेदी है।
“आप क्या कर रहे हैं?” रश्मि हमारी ओर बढ़ आई है।
“आप कौन हैं?” हरिगुण मुझे ललकारता है।
उसकी बाईं आँख की पुतली उसकी नाक की तरफ़ मुड़ जाती है और दाईं आँख की पुतली अपने साकेट में तेज़ी से चल-फिर रही है।
“बड़ी-बड़ी बातें बनाते हो और दूसरे की ख़रीद पहनते हो?” मेरे हाथ उसके कॉलर की ओर बढ़ते हैं।
“हरिगुण मेरा दोस्त है,” रश्मि हम दोनों के बीच आ खड़ी होती है, “उसे ये चीज़ें मैंने दोस्ती में दी हैं।”
बौखलाकर हरिगुण का चश्मा मैं ज़मीन पर पटकता हूँ और रश्मि को पीछे धकेलकर उसके विभाग से बाहर निकल आता हूँ। अपनी सरकारी जीप में सवार होने हेतु।
रश्मि उस दिन घर रिक्शे से लौटती है . . .
♦ ♦ ♦
रश्मि की तेरहवीं निपटाते ही मैं कस्बापुर पहुँच लिया।
हरिगुण से मिलने मैं अकेला गया।
उसे देखकर मैं हैरान हुआ।
जिस हरिगुण को मैं सालों-साल देखता रहा था वह तो हरिगुण था ही नहीं . . . मेरी कल्पना का वासी था . . . मेरे मन-मंडल का निर्मूल भ्रम . . .
हरिगुण तो यह रहा; दईमारा, फटेहाल, हतभागा . . . बूढ़ा, हड्डियों का ढाँचा . . . जिसके सिर के बाल लगभग ग़ायब हो चुके थे; जिसके चेहरे की बेहजामती ने एक घनी, लंबी दाढ़ी का रूप ले रखा था और जिसकी दाढ़ी के आधे से ज़्यादा बाल सफ़ेद थे; जिसकी बनियाननुमा टी-शर्ट बिजूखी जैसी बेचरबी उसकी क्षीण बाँहों को और झुर्रीदार, झुकी गरदन को उघाड़ रही थी; जिसकी सस्ती, नीली जींस बदरंग हो चुकी थी; जिसके पैरों में मटियाले, खाकी रंग के कपड़े के जूते थे, बिना मोज़ों के।
कंप्यूटर सेंटर के एक कोने में वह अकेला बैठा था। कंप्यूटर का स्पीकर बोल रहा था:
द औक्सन पास अंडर द योक
एंड द ब्लाइंड आर लेड एट विल
बट अ मैन बोर्न फ़्री हैज़ अ पाथ आव हिज ओन
एंड अ हाउस ऑन द हिल . . .
(गाय-बैल डंडी के नीचे गुज़र करते हैं। अंधों को दूसरे अपनी इच्छानुसार चलाते हैं। लेकिन आज़ाद पैदा हुआ शख़्स मालिक होता है, अपने रास्ते का और पहाड़ी पर बने मकान का . . .)
“रश्मि के कंप्यूटर पर भी यह रहा,” मैंने कहा।
इधर कुछ सालों से रश्मि अपने दर्शनशास्त्र के क्लास नोट्स कंप्यूटर पर तैयार करने लगी थी और कंप्यूटर की ‘हिस्ट्री’ चेक करते समय मेरी नज़र से ये पंक्तियाँ गुज़र चुकी थीं।
“आप?” हरिगुण अपनी कुर्सी से उछल गया। उसके हाथ अपने काले चश्मे पर जा टिके। यह चश्मा उसकी तंगहाली का एक और सुबूत था। उसकी एक कमानी टेढ़ी हो चुकी थी और दूसरी एक कॉमन पिन के सहारे चश्मे के शीशे वाले हिस्से से सम्बद्ध की गई थी।
“ये रश्मि ने भेजी?” मैंने उसे टोहा।
“क्या?” वह काँपने लगा।
“कंप्यूटर की ये पंक्तियाँ?”
“नहीं-नहीं, तब कंप्यूटर कहाँ था? बहुत पहले जब वे अमृतसर में पढ़ाती थीं तो उन्होंने सन् चालीस में छपे हर्बर्ट रीड के पैंतीस कविताओं वाले संग्रह में से यह कविता हमें सुनाई थी।”
“किस सिलसिले में?”
“अराजकतावाद पर दिए अपने लेक्चर के दौरान उन्होंने हमें बताया था कि रीड की इस कविता को स्पेन के अराजकतावादी मिलकर गाया करते थे।”
“आपकी उम्र तब कितने साल थी?” अपने नरक-दूत की उम्र जाननी थी मुझे।
“जब वे पढ़ाती थीं तो लगता था मेरी उम्र पूरी मनुष्य जाति की उम्र के बराबर है—सुकरात के बराबर है . . . अरस्तू के बराबर है।”
“मैं आपके बर्थ सर्टिफ़िकेट वाली उम्र की बात कर रहा हूँ,” मैंने उसे बहकने से रोक दिया।
“बीस साल।”
“यह दाढ़ी कब रखी?”
“सोलह-सत्रह साल पहले। माँ को खोने के बाद।”
“अपनी एम.ए. टू पूरी की?”
अमृतसर का वह पी.जी. कॉलेज रश्मि ने उसी साल छोड़ दिया था, मेरी पोस्टिंग बदल जाने के कारण।
“नहीं,” वह अचानक रोने लगा। दोनों हाथों से अपने चेहरे को ढाँपकर। अपना सिर नीचे झुकाकर।
तभी मेरी आँखों ने एक अजीब, अनजानी चुभन महसूस की। यह जानने में मुझे समय लगा कि वे भी बरसना चाहती थीं . . . बरस रही थीं . . . लेकिन जान लेते ही मैंने वह बौछार रोक दी। तत्काल।
“अराजकतावाद का युग अब ख़त्म हो गया है,” उसे सामान्य दशा में लौटाने के लिए मैं वह नुस्ख़ा अमल में ले आया जो रश्मि के साथ हमेशा सफल सिद्ध होता रहा था। खिन्न से खिन्न मनोदशा में भी रश्मि दर्शनशास्त्र के किसी भी विषय पर वाग्युद्ध करने के लिए तैयार हो जाती थी। मुझे आज भी ऐसा लगता है रश्मि की आत्महत्या वाले दिन अगर मैं उसे वाद-विवाद में उलझाए रहा होता तो वह दुर्घटना टल गई होती।
“ख़त्म कैसे हुआ?” मेरी जुगत कारगर रही थी—हरिगुण ने रुलाई रोककर बहस शुरू कर दी, “ख़त्म हुआ होता तो साठ के दशक के हॉलैंड के ‘प्रौवोस’ और अड़सठ की पेरिस ‘इनसरैक्शन’ के ‘लेदर जैकेट्स’ बग़ावत कर रहे पेरिस यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी जैसे युवा आज नेपाल में कैसे दिखाई देते? माओवादी आर-पार की अपनी लड़ाई वह क्यों जीते होते?”
मैं हलका हुआ। मुझे हँसी भी आई। हरिगुण पर। रश्मि पर। दर्शनशास्त्र पढ़ने-पढ़ाने वालों की चौकी-दौड़ पर। अराजकता की इमदादी गाड़ी पर।
हरिगुण से वह मेरी आख़िरी भेंट थी।
उसके बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दिया।
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