सवारी

दीपक शर्मा (अंक: 197, जनवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मानव-स्मृति, में घटनाएँ कोई पदानुक्रम नहीं रखतीं। न समय का कोई सोपान-उतरान। 

वहाँ क्लिक नहीं, ट्रिगर काम करता है। 

तभी 27 नवम्बर, 2019 की तिथि में डॉ. प्रियंका रेड्डी के संग हुआ जघन्य अपराध मेरे सामने 21 जुलाई, 1967 की तिथि ले आया है। 

बुआ के क्षत-विक्षत चेहरे के साथ। 

साझा कारक दोनों का स्कूटर रहा था। 

“मंगला की सवारी,” सन् 1967 की फरवरी की किसी एक तिथि में हमारे दालान में उतारे एक नए स्कूटर को ढक रहे पेपर बोर्ड को हटाते हुए घोषणा की थी, “मंगला का वेस्पा। मंगला का वौस्प . . .“

“वौस्प?” उन्हें घेर रही हम तीनों चचेरी बहनें उत्सुक हो ली थीं। 

“हाँ वौस्प, ततैया, ही होता है। सुनते हैं इसके इतावली मालिक पियाज्जियों ने जब पहली बार इसे इसकी तैयार अवस्था में देखा तो यही बोला ‘सेम्बरा उना वेस्पा’ (यह तो ततैया, वौस्प जैसा है) ततैया ही की भाँति इसका पिछला भाग इसके अगले चौड़े भाग के साथ बीच में तंग रखी गयी इस कमर जैसी सीट के साथ जुड़ाए रखा गया है . . .”

“बहुत बढ़िया है, बाबा,” बुआ हमारे दादा के साथ जा चिपटी थीं। 

“आप का हर फ़ैसला ग़लत ही क्यों होता है बाबा?” तभी मेरे ताऊ और पिता एक साथ दालान में चले आए थे और चिल्लाए थे, “मंगला इसे सम्भाल पाएगी भला? बारह मील कोई रास्ता नहीं। ऊबड़-खाबड़, झाड़ी-झंखाड़ और गड्ढों से भरी वह राह सीधी-सपाट है क्या? टायर पंक्चर होंगे, स्कूटर उलट जाएगा, ब्रेक टूटेगी, मंगला चोट खाएगी . . .“

“तुम चुप रहो,” दादा उन्हें डपट दिए थे, “मंगला सब सम्भाल पाएगी। सब सम्भाल लेगी . . . “

“जैसी आप अपने सूरतदास को सम्भाल रहे हैं,” ताऊ ने तीखा व्यंग किया था। 

बाद में हम लड़कियों ने जाना था हमारी बुआ ने अभी अपने अठारहवें वर्ष में क़दम रखा ही था कि बाबा ने उनकी सगाई कर दी थी। अपने परम मित्र, सूरतदास जी, के बेटे से। उस समय उनके बेटे के तपेदिक-ग्रस्त होने का न बाबा को पता था और न ही सूरतदास बाबा को। और पता मिलने पर भी हमारे दादा ने सगाई नहीं तोड़ी थी। सूरतदास बाबा के आग्रह बावजूद। हाँ, शादी ज़रूर टाल दी थी। और बुआ को बी.ए., व एम.ए. कराने के बाद नौकरी में लगा दिया था। कस्बापुर के उसी डिग्री कॉलेज में उनके विषय, दर्शन-शास्त्र, में लेक्चरर, जिसके हॉस्टल में रह कर बुआ ने अपनी बी.ए. तथा एम.ए. पास की थी। अल्पसंख्यक वर्ग के उस कॉलेज में ग़ैर-धर्मी विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था तो हॉस्टल में उपलब्ध थी किन्तु अध्यापिकाओं के लिए अल्पसंख्यक उसी वर्ग से होना अनिवार्य था। 

ऐसे में बुआ को अब रोज़ाना हमारे गाँव, बारह मील कस्बापुर से बारह मील की दूरी पर होने के कारण हमारे गाँव ने अनूठा वही नाम पाया था . . ., ही से कॉलेज के लिए निकलना होता था। एक दिन यदि परिवार की जीप की अगली सीट पर बैठ कर मेरे पिता के संग जाती तो दूसरे तीसरे दिन मेरे चाचा की मोटर-साइकिल के पीछे बैठ कर। ताऊ अपने पोलियो-ग्रस्त पैर के कारण न जीप चलाते और न ही मोटर-साइकिल। 

उन दिनों लड़कियों में साइकिल और लड़कों में मोटरसाइकिल का चलन तो आम था किन्तु स्कूटर का बिल्कुल नहीं। 

सच पूछें तो बुआ का वह वेस्पा हमारे गाँव बारह मील, का पहला स्कूटर था। 

बल्कि हमारे क्षेत्र में उसे लोकप्रियता प्राप्त करने में पाँच-छः साल तो और लगे ही लगे थे। 

एक दूसरी इतालवी कम्पनी ने भी लम्ब्रेटा नाम का अपना नया स्कूटर उसी सन् 1957 में बेशक बाज़ार में उतार दिया था किन्तु सन् 1956 का बना हुआ बुआ वाला वेस्पा 150 अभी भी उसे अच्छी प्रतिस्पर्धा देने में सफल हो रहा था। 

हम तीनों चचेरी उसे दिन में लाख बार देखतीं-जोखतीं और जानतीं-समझतीं। और यह भी अब स्वाभाविक था, बुआ का ततैया गाँव भर में चर्चा का विषय बन गया था। महिलाएँ यदि कम ऊँचाई पर बनी उस गद्दी और पिछले अलग आसन की बात करतीं तो पुरुष उसके इंजन और पार्सल कम्पार्टमेन्ट के स्थल की। स्टील के एक ही यूनिफाइड डाई में बना वह वाहन अपने सवार को साइकिल और मोटर साइकिल से ज़्यादा रक्षा व सुविधा उपलब्ध करा रहा था और उन दो की भाँति यहाँ सवार को अपनी गद्दी के ऊपर टाँगे फैला कर नहीं बैठना पड़ता था। पैर रखने के लिए सवार के पास यहाँ सपाट समतल चौड़ा पटरा था, इंजन सीट के नीचे स्थित था, और आधाड़ी हवा रोकने के लिए कवच-नुमा फ़ेयरिंग भी ज़बरदस्त थी। 

मगर जो नज़र लग गयी। इधर मेरी माँ, मेरी ताई और हम चचेरी बहनों के लिए वह स्कूटर अभी साहस-कर्म तथा अपूर्व अनुभव का उपकरण बना ही था और बुआ की पिछली सीट पर बारी-बारी से शहर घूमने का हमारा रोमांच पुराना भी न पड़ा था, कि नृशंस व अमानवीय यह दुर्घटना उधर घट गयी। 

“मंगला अभी तक घर नहीं पहुँची?” बाबा ने उस दिन अपनी मेंटलपीस घड़ी छठी बार उठा कर देखी थी। 

घड़ी की सूइयाँ अढ़ाई बजाने जा रही थीं। बुआ को अगर पहले कभी देर हुई भी थी तो हद से हद पौने दो से सवा दो बज गए थे। मगर इस तरह अढ़ाई तो कभी नहीं बजे थे। 

“विनोद,” बाबा अपने कमरे में दालान में चले आए थे। और चाचा को आवाज़ लगाये थे। 

बाबा अच्छे उपन्यासकार थे और उन्हें सुबह के दस बजे से दो बजे तक अपनी मेज़-कुरसी पर बैठे रहने का अच्छा अभ्यास था। 

दालान में चाचा की मोटर साइकिल खड़ी थी। उन दिनों चाचा घर पर रह कर अपनी आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे थे। 

जीप मेरे पिता काम में लाया करते थे। परिवार की बाग़वानी की निगरानी के अन्तर्गत। उस साल हमारी किनो की फ़सल अच्छी हुई थी और उन्हें शहर पहुँचाना मेरे पिता व ताऊ के ज़िम्मे था। 

“विनोद,” चाचा को दूसरी बार पुकारते समय बाबा झुँझलाए थे। 

“आया, बाबा,” चाचा समेत हम सभी दालान में पहुँच लिए थे। 

“मंगला को देखने जाएँगे . . .” बाबा ने थूक निगली थी। 

“चलिए?” और चाचा की मोटरसाइकिल कस्बापुर की ओर निकल पड़ी थी। 

बाबा टैक्सी से लौट थे। चाचा के बिना। 

घायल बुआ के साथ। जो उन्हें कस्बापुर और बारह मील के बीच एक ऊँचे पेड़ से बँधी मिली थीं। 

बिना स्कूटर के। 

उस समय हम चचेरी को बताया गया था, पड़ोस के गाँव के अपराधशील कुछ बुआ से उनका स्कूटर छीनते समय उन्हें घायल कर गए थे। 

समूचा सच हम ने बहुत बाद में जाना था। 

बुआ के साथ बलात्कार हुआ था। सामूहिक। 

लगभग उसी अन्दाज़ में जिस में डॉ. प्रियंका रेड्डी अहेर बनी थीं। 

प्रियंका रेड्डी हैदराबाद के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे वाले क़स्बे, शम्शाबाद की रहने वाली थी और कौलूर गाँव के सरकारी अस्पताल में सर्जन थी। 

उनकी सवारी भी हमारी बुआ की तरह स्कूटर रही थी। रोज़ का आना-जाना था। रास्ता लम्बा रहता था। 

उस दिन डॉ. प्रियंका रेड्डी को हैदराबाद के एक त्वचा-विशेषज्ञ से मिलना रहा था और अपना स्कूटर एक चुंगी के पास टिका कर टैक्सी से हैदराबाद के लिए निकल ली थी। वहाँ से लौटी तो उसने पाया उसके स्कूटर के टायर हवा माँग रहे थे। तभी चार-चार लड़के उसकी ओर बढ़ते चले आए थे, कहते हुए, कि वे उसके स्कूटर में हवा भरवा लाएँगे। मगर हवा भरवाने की बजाए वे उसे झाड़ियों में ले गए थे। अपने दुष्कर्म को अन्जाम देने। सामूहिक बलात्कार के बाद उन्होंने प्रियंका रेड्डी को मौत के घाट भी उतार दिया था। डॉ. प्रियंका रेड्डी के अपराधी तो सी.सी.टी.वी. कैमरे के सहयोग से पहचान में आ गए थे और पुलिस ने उन्हें एनकाउन्टर में मार भी डाला था। 

किन्तु बुआ के अपराधी तो पहचान ही में न आ पाए थे। बुआ के रास्ते में किन चार लोगों ने कटे हुए एक पेड़ की टहनियाँ बिछाकर उनके स्कूटर का रास्ता रोका था, और जब बुआ अपने स्कूटर से उतर कर टहनियाँ हटाने लगीं थी तो किन लोगों ने उनपर आक्रमण कर दिया था, बुआ कभी बता न पायी थीं। 

और यदि बुआ ने उनमें से किसी को पहचाना भी होगा तो भी अपना मुँह अन्त तक बन्द ही रखे रही थीं। 

उत्तरवर्ती दिन परिवार के लिए गहरा असामंजस्य लाए थे। 

बात केवल स्कूटर की हानि उठाने की नहीं रही थी। 

बल्कि असली बात तो यह थी कि स्वास्थ्य-लाभ के बाद बुआ ने जब नौकरी पर लौटना चाहा था तो तीनों भाइयों ने उनका विरोध किया था। कस्बापुर भूल जाओ। कॉलेज भूल जाओ। बाबा ने और तुमने बहुतेरी मरज़ी कर ली। अब विराम दो। पूर्ण विराम . . .”

ऐसे में बाबा ने एक और ख़रीद कर डाली। 

बुआ के कस्बापुर कॉलेज के समीप रहे नवनिर्मित एक मकान की। 

“मंगला का मकान?” बाबा ने रजिस्ट्री के नए काग़ज़ हवा में लहराए थे, “मंगला के नाम।” 

“क्या कह रहे हैं?” तीनों भाई समवेत स्वर में हकबकाए थे। 

“मंगला कस्बापुर में रहेगी। तीनों बच्चियाँ भी वहीं शहर में स्कूल में पढ़ेंगी और हम लोग वहाँ आते-जाते रहेंगे . . .”

“बेटी की हर बात आपने माननी ही क्यों होती है, बाबा?” ताऊ ऊँचे स्वर में झल्लाए थे। 

“मंगला ने न कभी मकान की बात उठायी थी और न ही स्कूटर की?” बाबा शान्त बने रहे थे, “मकान की बात मेरे दिमाग़ की उपज थी और स्कूटर की भी . . .”

“खाइए अम्मा की सौगन्ध?” ताऊ ताव में आ गए थे! “मंगला ने आपसे न कभी मकान की इच्छा व्यक्त की थी और न कभी स्कूटर की . . .”

ताऊ ज़रूर जानते रहे थे बाबा अम्मा के नाम की झूठी सौगन्ध कभी नहीं खाएँगे। 

परिवार में हमारी दादी का उल्लेख बिरले, अवसरों पर ही किया जाता था। उन की पाँचवीं गर्भावस्था उन पर भारी पड़ी थी और अकाल वह प्रसव उन्हें अपने साथ ले गया था। सन् 1955 में। उस समय चाचा ग्यारह वर्ष के थे, मेरे पिता इक्कसी के, ताऊ अट्ठाइस के तथा मंगला बुआ सत्तरह वर्ष की। ताऊ की शादी हो चुकी थी और उनकी दोनों बेटियाँ भी परिवार में आ चुकी थीं। दादी की स्मृति बाबा को यों तो प्यारी थी किन्तु उनका उल्लेख उन्हें अस्थिर अवश्य कर जाता। शायद उनकी उस अपमृत्यु के लिए वह स्वयं को उत्तरदायी मानते थे। 

“मेरा कहना काफ़ी नहीं क्या?” बाबा उग्र हो लिए थे, “मंगला ने न कभी मकान मुझसे माँगा और न ही स्कूटर . . .”

“फिर भी आप बिना आगा-पीछे सोचे परिवार के नाम को डुबोने पर तुले रहते हैं? मालूम है, स्कूटर के उस क़िस्से को लेकर मंगला तो क्या, हम भाई भी किसी को मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहे . . .” ताऊ और भड़क लिए। 

सन् 1967 में बलात्कार पीड़िता तथा उसके परिवारजन को अपराधी से अधिक दोषी माना जाता था। 

“जो समझ लो, जो सोच लो। मुझे नहीं लगता, मंगला मुँह दिखाने योग्य नहीं रही। हम सभी मुँह दिखाएँगे। और गर्व से दिखाएँगे। हम में साहस है। आत्मबल है। और एक बात सारा परिवार समझ ले, और हमेशा याद भी रखे! सूरतदास को वचन दिया मैंने था और निभा वह रही है . . .।”

“निभाने को रोक कौन रहा है?” ताऊ तनिक शान्त न हुए थे, “रोका तो परिवार के नाम-सम्मान के लिए जा रहा है, स्कूटर सरीखी लोक-प्रसिद्धि वह मकान कहीं दोहरा न दे . . .”

“क्यों दोहराएगा? कैसे दोहराएगा?” बाबा समापक मुद्रा में अपने स्वर में दृढ़ता ले आए थे, “मंगला वहाँ अकेली नहीं रहेगी। साथ में तीन-तीन भतीजियाँ होंगी और विनोद चाहेगा तो वह अपनी तैयारी वहीं कस्बापुर वाले मकान में कर लेगा . . .”

उस समय कोई नहीं जानता था, सामूहिक वह बलात्कार बुआ को यौन संचारित रोग दे गया था: एड्स। जिस रोग को अपना यह नाम सन् 1981 में मिला था लेकिन सौकड़ों अभागों को अपना अहेर पुराने कई दशकों से बनाता रहा था

कस्बापुर के उस मकान में बुआ हमारे चाचा व हम तीनों चचेरी बहनों के साथ ही प्रवेश किए थीं और पढ़ाने भी लगी थीं कि उन्हें बुखार आने लगा। बारम्बार। फिर बुखार पहले तो खाँसी और फ़्लू में बदला और अन्ततोगत्वा निमोनिया में। 

उन्हें अस्पताल दाख़िल करवाने पर ही हमें पता चला, उनके गले में घनी सूजन थी और शरीर में कई जगह पर फोड़े थे। 

यह विडम्बना ही थी जिन दिनों बुआ अपनी मृत्यु की ओर बढ़ रही थीं, सूरतदास बाबा के बेटे, बुआ के मंगेतर, निरोगता के निकट पहुँच रहे थे। पिछले दशक से तपेदिक की दवाएँ भारत में उपलब्ध रही थीं और तपेदिक अब घातक नहीं रहा था। घातक था, एड्स, जिसे नियन्त्रित तो किया जा सकाता था किन्तु जिससे छुटकारा पाना सम्भव नहीं था। 

सन् 1967 में तो क़तई नहीं। 

अपने अंतिम दिनों के किसी एक दिन बुआ ने हमारे ताऊ से मिलने की इच्छा व्यक्त की थी। 

चाचा उन्हें अगले ही दिन हमारे गाँव, बारह मील, से अस्पताल लिवा लाए थे। 

“मंगला जो भी कहे, तुम उसकी सुनना ज़रूर,” उन्हें देखते ही बाबा ने उनकी पीठ थपथपायी थी। 

बुआ से मिले उन्हें तीन वर्ष हो चले थे। परिवारजन में वही एक थे जो कस्बापुर वाले इस मकान पर कभी नहीं आए थे। बुआ भी इस बीच गाँव, बारह मील, कभी न गयी थीं। 

सच तो यह था, बुआ के संग हुई उस त्रासदी के बाद ही से वह बुआ से कतराने लगे थे। बात तक नहीं करते। बुआ कभी सामने पड़ भी जातीं तो उन्हें अनदेखा कर दिया करते। 

“सुनूँगा। क्यों नहीं सुनूँगा?” ताऊ अकड़ लिए थे, “मेरी भी तो कुछ लगती है। बहन है मेरी . . .”

“ताऊ आ गए हैं,” बुआ के बिस्तर तक मैं ही उन्हें ले कर गयी थी। 

“आप से कुछ बताना था, बड़के भैइया,” बुआ सधे, आवेगहीन अपने सामान्य स्वर में बोली थीं . . . यह अचरज ही था जो बुआ का स्वर अंत तक वही बना रहा था। 

“तुम्हारा बताना बहुत ज़रूरी है, मंगला,” ताऊ उनके समीप खिसक लिए थे, “कौन लोग थे वे? आपस में एक दूसरे को किस नाम से पुकार रहे थे?”

“मैं सच में नहीं जानती, बड़के भैइया, वे कौन थे। रास्तें में बिछी टहनियाँ हटा ही रही थी कि मुझे कुछ सुंघा दिया गया था और मैं अचेत हो गयी थी . . . मैं ने आप से यह बताना था कि आपने स्कूटर और मकान के बारे में जो दो अनुमान लगाए थे, उनमें से एक ग़लत था और एक सही।”

“मुझे दोनों में से किसी के बारे में कुछ भी कहना-सुनना नहीं,” ताऊ रोआँसे हो गये थे। 

“बाबा से मैंने मकान नहीं माँगा था। स्कूटर माँगा था . . .”

“क्यों माँगा स्कूटर?” ताऊ फफक लिए थे, “तुम्हारी ज़िन्दगी में पहले ही पेंच कम थे क्या? जो एक पेंच यह भी डाल लिया?”

“लोभ था मुझे। निजी एक वाहन चाहती थी। जीप और मोटर-साइकिल पर अपनी निर्भरता पसन्द नहीं थी मुझे। तभी एक दिन कॉलेज आते-जाते मुझे वह बोर्ड दिखाई दे गया जिस पर स्कूटर पर सवार एक लड़की पेंट और लम्बा कोट पहने हुए घोषणा कर रही थी। 

“लाइफ़ ऑन टू व्हीलस/इट इज़ अ ब्युटीफुल राइड। और मैं बाबा का हाथ पकड़कर उन्हें उस शो-रूम में ले गयी थी जहाँ नए स्कूटर अपनी धूम गा-बजा रहे थे . . .”

“वह लड़की गाँव में नहीं रहती थी, मंगला,” ताऊ अपना सिर हिलाए थे, “उसके तीन भाई नहीं थे . . .”

“हाँ बड़के भैइया,” बुआ ने भी सिर हिलाया था, “उस लड़की की नियति मेरी नियति से भिन्न थी . . .”

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