चीते की सवारी

01-05-2024

चीते की सवारी

दीपक शर्मा (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

1. 

रात माँ फिर दिखाई देती है।

लहू से लथपथ . . . लाल आग में जलती हुई . . . 

“हम माँ को क्यों जला रहे हैं?” मैं पापा से पूछता हूँ . . . 

“यह लहू तभी टपकना बंद होगा जब इन्हें जला दिया जाएगा,” जलाऊ लकड़ियों के ढेर से पापा और लकड़ियाँ उठाते हैं और माँ को ढँकने लगते हैं। 

लेकिन उन लकड़ियों से टकराते ही माँ की कलाई से ढीठ, सुर्ख़ लाल लहू फिर छपछपाने लगता है।

“माँ!” मैं चिल्लाता हूँ।

माँ ग़ायब हो जाती है।

और उनकी चीख मेरे पास लौट आती है—‘मरती मर जाऊँगी लेकिन तुझे तेरे वहशी बाप का नाम न बताऊँगी।’

 2.

“तू जाग रहा है?” पापा कमरे की बत्ती जलाते हैं। 

कमरा देखकर याद आता है, मैं उनकी चौकीदारी में उनके कमरे में सो रहा हूँ। 

मेरे कमरे में दादी और दोनों बुआ लोग सो रही हैं। माँ के मरने की ख़बर उन्हें यहाँ लिवा लाई है। पिछली शाम। 

“हाँ,” झूठ से मुझे बेहद चिढ़ है। 

“कोई बुरा सपना देखा क्या?” पापा मेरे पास आ बैठते हैं। 

“हाँ,” मेरी बेचैनी मुझे चिहुँट रही है, उमेठ रही है और सपने की ओट में अपना खटका मैं उगल देता हूँ, “माँ कहती हैं, वह मुझे लुधियाणे से इधर लाई रहीं . . . ” 

लुधियाणा इधर से पाँच सौ किलोमीटर दूर है और धुँधले, अनिश्चित रूप से माँ के बारे में मुझे यही मालूम रहा कि वह वहाँ के अस्पताल में काम करती थीं और ताई को पहले वहीं मिली थीं। उनके माता पिता पहले ही मर चुके थे और भाई-बहनों में कोई सगा न था। इधर कस्बापुर अपनी एक ट्रेनिंग के सिलसिले में आई थीं और फिर इसी अस्पताल में नौकरी पा गई थीं। इसके परिसर में नर्सों के लिए बने क्वार्टरों में क्वार्टर नंबर सत्रह भी पा गई थीं और यहीं बस गई थीं। पापा के संग शादी रचाकर। 

“धत!” पापा मेरी पीठ घेर लेते हैं, “तू यहीं पैदा हुआ था। सारी दुनिया जानती है। इसी अस्पताल में। तेरे बर्थ सर्टिफ़िकेट पर इसी अस्पताल की मुहर लगी है।”

वे भूल रहे हैं, स्त्री अपने गर्भधारण के नौवें महीने में माँ बनती है! 

क्या वह सचमुच नहीं जानते, वे छले जाते रहे हैं? और उस छल का दंड मैंने भोगा है? मैंने बाँटा है? माँ के साथ? नहीं जानते? क्लेश और क्रोध जब भी माँ पर आक्रमण करता, उसकी गोलाबारी की परास मुझ तक पहुँचती रही है? शुरू ही से। 

“मैं अब सोऊँगा,” मैं अपनी आँखें ढाँप लेता हूँ। पापा को ठेस पहुँचाना मुश्किल है। 

“ठीक है!” पापा कभी बहस में नहीं पड़ते हैं। दूसरे की बात फ़ौरन मान लेते हैं और बत्ती बुझा देते हैं। 

माँ की कलाई मैंने काटी थी। 

कल। 

3.

“अरुण!” घर में घुसते ही ताऊजी ने मुझे पुकारा था। हमेशा की तरह। 

इतवार होने की वजह से मेरी और पापा की छुट्टी थी और माँ अपनी नाइट शिफ़्ट से सुबह ही लौटी थीं। 

“चरण स्पर्श ताऊजी!” मैंने उनका अभिवादन किया था। पापा उस समय बाथरूम में थे और माँ रसोई में। 

“जीता रह!” ताऊजी ने हमेशा की तरह मुझे अपने अंक से लगा लिया था और फिर मुझे अपने बराबर खड़े होने को बोले थे। मेरा क़द मापने के लिए। वे जब भी आते हैं, मेरा क़द ज़रूर मापते हैं। 

“मैं आपके कंधे छू रहा हूँ,” मैं हँसा था, “पिछली बार आपकी कुहनी से ज़रा ही ऊपर था।”

“क्यों नहीं? क्यों नहीं?” उन्होंने मेरा माथा चूमा था, “तुझे तो मुझसे भी ऊँचा क़द निकालना है।”

ताऊजी बहुत लंबे हैं। पापा से भी चार इंच ऊँचे, छह फ़ुट दो इंच। 

उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला था और सौ का एक नोट मुझे थमा दिया था। हमेशा की तरह। 

पापा की तरह ताऊजी ने बेशक उच्च शिक्षा हासिल नहीं की है, उधर गाँव ही के स्कूल से दसवीं का दो बार इम्तिहान दिया था और जब दोनों बार पास होने में विफल रहे थे तो पढ़ाई छोड़कर पूरी तरह खेती सँभालने में लग गए थे। जिसका फिर उन्हें लाभ ही लाभ मिला है। आज उनके पास एक ट्रैक्टर भी है और एक सेंट्रो भी। जबकि अपने हिस्से की ज़मीन बेचकर पापा ने जो इधर कस्बापुर में दुकान ख़रीदी और समय-समय पर जिसे भी बिकाऊ मान समझकर उसमें रखा, वह कंटक ही साबित हुआ। हर बार वह अपनी लागत की क़ीमत पर पहला माल बेचकर दूसरे माल का सौदा तय करते हैं और इस तरह या तो अटकलबाज़ी की स्थिति में रहते हैं या किसी नए उपक्रम की तैयारी में। 

“नहीं ताऊजी!” हमेशा की तरह मैंने हल्का प्रतिवाद किया था और अपनी जेब भर ली थी। 

“रख ले बेटे, रख ले।” ताऊजी ने मेरी पीठ थपथपाई थी, “यह सब तेरा ही तो है।”

ताऊजी संतानहीन हैं। ताई कई वर्षों से कैंसर से पीड़ित हैं, जिसका नाम माँ एक्यूट ग्रैन्यूलोसाइटिक ल्यूकीमिया बताया करतीं। इस प्रकार के कैंसर में शरीर के बोनमैरो में सफ़ेद कोशिकाओं का बढ़ते चले जाना घातक हो जाता है। इलाज के लिए ताई को हर तिमाही-छमाही ताऊजी को यहाँ लाना पड़ता है। इंटरफिरोन दिलाने। 

“भाभी सीधी वार्ड में दाख़िल हो गईं क्या?” पापा बैठक में चले आए थे। 

“उसके मसूड़ों में लगातार ख़ून बह रहा था।” ताऊजी ने कहा था। ”इसलिए उसे सीधे एमरजेंसी ले जाना पड़ा। स्नेहप्रभा कहाँ है?” 

“स्नेहप्रभा!” पापा ने माँ को पुकारा था, “इधर देखना।”

“नमस्कार!” माँ को ताऊजी जिस भी दिशा में खड़े मिलते, माँ उसी दिशा में घूँघट निकाल लिया करतीं। बल्कि पूरे अस्पताल में यह परिहास का विषय रहता। कैसे जब भी माँ को संयोगवश ताऊजी कहीं वहाँ दिखाई दे जाते, माँ अव्वल तो लपककर ओट में छिप जातीं और बचना अगर एकदम असंभव रहता तो कैसे माँ अपने सिर के स्कार्फ़ के कोनों को उनके अधिकतम विस्तार तक खींचकर अपने चेहरे पर तान लिया करतीं। अपनी इस आदत के लिए माँ आदिकालीन उस परंपरा का हवाला दिया करतीं जिसके अंतर्गत स्त्रियों के लिए अपनी ससुराल में अपने पति से बड़े सभी पुरुषों से घूँघट काढ़ना ज़रूरी रहता। 

“तेरी सहेली तुझे याद कर रही है,” ताऊजी ने माँ से कहा था। 

पापा के परिवार में माँ का सम्बन्ध इन्हीं ताई के संग सबसे अधिक घनिष्ठ रहा। 

“आप पहले हो आइए,” माँ ने पापा से कहा था,”मैं बाद में जाऊँगी, अभी मुझे नाश्ता बनाना है।”

“ठीक है,” दरवाज़े की ओर बढ़ते हुए पापा ने कहा था, “अभी लौटकर नाश्ता करते हैं . . . “

माँ की वजह से कई डाॅक्टर पापा को जानते और पहचानते हैं। 

“ला, वह सौ का नोट इधर ला!” दोनों के जाते ही माँ ने मुझे घेरना चाहा था। 

मेरी जेब भारी देखकर माँ को अजीब तलमली लग जाया करती। 

“नहीं दूँगा,” मैं भागकर अपने कमरे की कुर्सी पर जा बैठा था। जबसे अपने इस बारहवें साल में तैराकी की मैंने जूनियर चैंपियनशिप जीती है, तब से माँ के मुक़ाबले पर मैं उतर लेता। उनका टर्राना-गुर्राना, धमकाना-धौंसियाना अब मुझे डराता नहीं। 

“देना तो तुझे पड़ेगा,” माँ की आवाज़ तर्रार भरने लगी थी। अपनी मर्ज़ी मुझ पर थोपने को माँ बहुत उतावली रहा करतीं। 

“नहीं दूँगा तो क्या मार डालोगी?” उस सौ रुपए से मुझे अपनी मनपसंद फ़िल्म देखनी थी। बालकनी में। इंटरवल में एक हाॅट डाॅग खाना था, एक कोल्ड ड्रिंक पीनी थी। 

’”हाँ, मार डालूँगी!” माँ के ताव ने घुमटी ली थी और वे मुझ पर झपटी थीं। 

उन्हें रोकने के लिए अपनी कुर्सी से मैं उठ खड़ा हुआ था और उनके दोनों हाथ मैंने अपने हाथों में कस लिए थे। निस्संदेह उस बल-परीक्षा में मेरे हाथ ज़्यादा ज़ोरदार साबित हो रहे थे। 

“मेरे हाथ छोड़!” माँ चीखी थीं। 

“नहीं छोड़ूँगा, क्या करोगी?” 

“वहशी बाप की वहशी औलाद!” माँ मेरे मुँह पर थूकने लगी थीं, “छोड़ मुझे।”

वहशी बाप? मैं चौंका था। पापा तो स्नेही हैं? कोमल हैं? सज्जन हैं? 

“कौन वहशी बाप?” मेरी पकड़ ढीली पड़ने लगी थी। 

“मरती मर जाऊँगी, लेकिन तेरे बाप का नाम नहीं बताऊँगी,” वे चीखी थीं, “यही तेरी सज़ा है।”

“नहीं बताएगी?” मेरे हाथ चिनग लिए थे और उनकी चिंगारियाँ माँ के चेहरे पर छूट ली थीं। 

“नहीं बताऊँगी!” वे फिर चीखी थीं। 

उनके देखने से पहले, जानने से पहले मैंने सातवीं जमात के अपने ज्यामिति बाॅक्स में रखे अपने नंगे ब्लेड को उठाया था और उनकी कलाई पर वार किया था। 

लहू के फव्वारे छूटते देखकर फिर मैं घबरा गया था। लपककर मैंने इंटरकाॅम से एम्बुलेंस मँगवाई थी, माँ को पानी पिलाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्होंने पानी नहीं स्वीकारा था। बुदबुदाती रही थीं, “तुझे मैंने क्यों जन्म दिया? क्यों उस वहशी का कुकर्म ढोया? क्यों उसका पाप, उसका मल पाला?” 

एम्बुलेंस जल्दी ही आ गई थी, स्ट्रेचर पर माँ को खिसकाने में मैंने वार्ड ब्याॅयज़ की मदद भी की थी, लेकिन एमरजेंसी वार्ड तक पहुँचते-पहुँचाते फिर भी देर हो ही गई थी। 

4.

सुबह नाश्ते में दादी ने पूरी बनाई है। टमाटर-आलू बनाया है, हलवा बनाया है। 

ताऊजी भी यहीं आ रहे हैं, नाश्ता करने। पापा उन्हें अस्पताल से लिवाने गए हैं। 

अभी बुआ लोग और मैं खाने की मेज़ पर बैठे हैं। 

“कितनी पूरी खाओगी?” बड़ी बुआ छोटी बुआ को टोकती हैं। 

दौनों की आयु में ज़्यादा अंतर नहीं। बड़ी बुआ तेईस साल की हैं और उधर अपने गाँव के स्कूल में पढ़ाती हैं। छोटी बुआ बीस की हैं और गाँव के साथ लगे शहर से इतिहास में एम.ए. कर रही हैं। दोनों का विवाह होना अभी बाक़ी है। 

“क्यों?” छोटी कहती हैं, “यह मेरी तीसरी पूरी ही तो है . . . ”

”तीसरी?” बड़ी हँसती हैं, “है तो यह तेरी पाँचवीं, लेकिन यहाँ गिन कौन रहा है?”

छोटी पहले झेंपती हैं, फिर बहन की हँसी में शामिल हो जाती हैं। 

मैं उखड़ लिया हूँ। 

मुझे लगता है, यदि मैंने पूरी का एक और कौर मुँह में रखा तो मुझे कै हो जाएगी। 

मैं चुपचाप मेज़ से उठ खड़ा होता हूँ। 

बुआ लोग हँसी में मग्न हैं और उनका ध्यान मेरी तरफ़ नहीं जाता। 

बिना अपने हाथ धोए मैं क्वार्टर नंबर सत्रह से बाहर निकल आता हूँ। 

 5.

सामने वाले स्त्री-रोग वार्ड में रोज़ की तरह ख़ूब भीड़ है, ख़ूब कोलाहल है . . . 

मैं आगे बढ़ लेता हूँ। कैंसर वार्ड की तरफ़। 

मुझे ताई से मिलना है। 

ताई को ताऊजी ने अलग कमरा दिला रखा है: कमरा नंबर पाँच। 

ताई वहाँ अकेली लेटी हैं। 

“ताऊजी कहाँ हैं?” मैं उनकी अनुपस्थिति की पुष्टि चाहता हूँ। मुझे मालूम है, पापा उन्हें नाश्ते के लिए उधर दादी के पास लिवा ले गए होंगे। 

“नहीं मालूम,” ताई हमेशा की तरह बहुत क्षीण, बहुत दुर्बल आवाज़ में बोलती हैं। उनका चेहरा पीला है और बालों से वंचित अपने सिर पर उन्होंने एक स्कार्फनुमा रूमाल कसकर बाँध रखा है। 

“आप माँ को पहले से जानती थीं?” मैं शुरू हो लेता हूँ। हाँफते हुए। 

“पहले से? माने?”

“माने, पापा की शादी के पहले से . . . ”

“हाँ। स्नेहप्रभा तब अपने लुधियाणे वाले अस्पताल में नई-नई आई थीं: बेहद मासूम, बेहद उदास। कुल जमा अठारह बरस की।”

“मुझे वे वहीं से साथ लाई थीं?” मेरा दम फूल रहा है। 

“तू क्या कह रहा है? क्या कह रहा है तू?”

“मरते समय माँ ने मुझे बताया, वे मुझे जन्म नहीं देना चाहती थीं।”

“तू अभी बहुत छोटा है। उस बेचारी का दुःख नहीं समझ सकेगा . . . ”

“मेरा दुःख कोई दुःख नहीं?” मैं फट पड़ता हूँ, “माँ ने मुझे नफ़रत में जन्म दिया। नफ़रत में बड़ा किया और फिर कह गईं—मैं एक वहशी की संतान हूँ, बिना यह बताए कि किस वहशी की?”

“अपने ताऊ की।”

“क्या?” मेरा गला सूख रहा है। 

“मैं तुम्हें बताती हूँ,” काँपती, भर्राई आवाज़ में ताई विभीषण उस समय फलक से परदा उठाती हैं, “सब बताती हूँ। उस रात इसी तरह मैं उधर लुधियाणे में भरती थी। मेरा भाई उन दिनों अपनी एल.आई.सी. की नौकरी में लुधियाणे में तैनात था। जब मैं एकाएक उधर बीमार पड़ी और उधर अस्पताल में दाख़िल करवा दी गई, तेरे ताऊजी उसी शाम इधर अपने गाँव से मुझे देखने के लिए पहुँच लिए थे। उन्हीं की ज़िद थी कि उस रात मेरी देखभाल वही करेंगे और उसी रात स्नेहप्रभा की भी ड्यूटी वहीं थी। अभी मेरी आँख लगी ही थी कि अचानक मेरे प्राइवेट कमरे के बाथरूम के आधे दरवाज़े के पीछे से एक सनसनी मुझ तक आन पहुँची थी। पशुवत् तेरे ताऊ की बर्बरता की गंध साथ लाती हुई, सुकुमारी स्नेहप्रभा की दहल के बीच। मगर उधर स्नेहप्रभा निस्सहाय रहने पर मजबूर रही और इधर मैं निश्चल पड़ी रहने पर बाध्य।”

“पापा से माँ की शादी इसीलिए आपने करवाई?” 

“अस्पताल में मेरी भरती लंबी चली थी और जब स्नेहप्रभा ने अपने गर्भवती हो जाने की बात मुझसे कही थी तो मैंने ही उसे अपनी बीमारी का वास्ता दिया था, अपने स्वार्थ का वास्ता दिया था और लुधियाणे से उसे अपने साथ इधर ले आई थी। सोचा था, जब वह अपने दूसरे बच्चे को जन्म देगी तो मैं इस पहले बच्चे को गोद ले लूँगी। लेकिन तुम्हारी प्रसूति के समय उसे ऐसा ऑपरेशन करवाना पड़ा, जिसके बाद उसका दोबारा माँ बनना मुश्किल हो गया।”

“पापा को सब मालूम है?”

“नहीं। बिलकुल नहीं। और उसे कभी मालूम होना भी नहीं चाहिए। उसी की ख़ातिर। मेरी ख़ातिर। तेेरे ताऊ की ख़ातिर। स्नेहप्रभा की ख़ातिर।”

लहू-लोहान माँ की कलाई मेरे सामने घूम आई है। पापा का शोकाकुल चेहरा भी। 

मेरी बाईं तरफ़ माँ की चीख है और दाईं तरफ़ पापा की सरलता। 

यह सच किसी चीते की सवारी से कम नहीं। जिस के नीचे उतरने पर पापा अपनी सरलता खो देंगे और जिस पर चढ़े रहना मुझे उस बहिंंगी से अलग नहीं होने देगा जो माँ मेरे कंधों पर लाद गयीं हैं, अपनी जान गँवाते समय। 

अपना संतुलन बनाए रखने का मुझे भरसक प्रयास करना होगा। लेकिन मुझे लगता है, अगर कभी मैंने झोंका खाया तो अपनी दाईं ओर ही गिरूँगा। 

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