कृपाकांक्षी

15-09-2023

कृपाकांक्षी

दीपक शर्मा (अंक: 237, सितम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

बृजबाला को इधर नौकरी देने से पहले मुझे स्कूल-प्रबन्धक के कमरे में बुलाया गया था। 

”आइए, हेड मिस्ट्रेस महोदया।”

स्कूल प्रबन्धक को मेरी समझ पर बहुत भरोसा था और वे प्रत्येक नियुक्ति मेरी संस्तुति पर ही किया करते थे—उनकी राय में पहली जमात के पाँच विद्यार्थियों से शुरू किए गए इस स्कूल को आठ वर्ष की अवधि में आठ जमातों के 361 विद्यार्थियों वाले स्कूल में बदल देना मेरे ही परिश्रम एवं उद्यम का परिणामी फल था।

”कुदन लाल की इस विधवा पत्नी का यह प्रार्थना-पत्र नन्द किशोर बनाकर लाए हैं . . .”

नन्द किशोर हमारे स्कूल के हेड-क्लर्क थे और कुन्दन लाल फ़ीस-क्लर्क। पिछले माह कुन्दन लाल की एक सड़क-दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। 

”आप? बृजबाला?” मैंने उस से पूछा। 

“जी,” वह अपने रूमाल से अपने आँसू पोंछने लगी। 

तीस और पैंतीस के बीच की उम्र की वह लड़की मुझसे एक-दो बरस बड़ी भी हो सकती थी या एक-दो बरस छोटी भी। मैं तैंतीस बरस की रही, लेकिन जो बैंजनी और चटख पीला रंग बृजबाला पहने थी उसे मैं हमेशा दूर से ही देखती रही थी, उसे अपने पास आने का मौक़ा मैंने कभी न दिया था। पहनावे और दिखावट में मेरा चुनाव सादे और हल्के दिखाव-बनाव की साड़ियों तक ही सीमित रहा। जबकि बृजबाला अपनी रोनी सूरत के बावजूद पूरी तरह से तैयार होकर आई थी। उसके हाथ की चूड़ी, उसके कान की बाली, उसके गले की माला, उसकी बिन्दी, उसकी लिपस्टिक और उसकी नेल-पालिश सब उस गहरे बैंजनी रंग के बार्डर और पल्ले वाली चटख पीली साड़ी को नज़र में रखकर चुनी और पहनी गई थी। अपने बाल भी उसने बड़े क़रीने से आगे की तरफ़ कटवा रखे थे और पीछे की तरफ़ एक चटकीले बैंजनी क्लिप में समेट रखे थे। यह स्पष्ट था वह मनोहर दीखना चाहती थी। 

”आप कहाँ तक पढ़ी हैं?” मैंने पूछा। 

वह रोने लगी। 

“देखिए,” में खीझ गई, “आप रोएँगी तो फिर हम कैसे देखेंगे आपको कहाँ रखें?”
“मैंने बी.ए. प्राइवेट कर रखी है,” उसने आँसू लोप हो जाने दिए और प्रकृतिस्थ हो ली, “मैं कुछ भी कर सकती हूँ।”

“कुन्दन लाल का काम आपको दिया जा सकता है,” मैंने अपना निर्णय सुना दिया। अपने दफ़्तर के रास्ते में मैंने हेड-क्लर्क को निर्देश दिया, “कौन-कौन किस-किस दिन जमात की कितनी-कितनी फ़ीस जमा करने का क्या-क्या टाइम रहता है, सब बता दीजिए।”

हमारा स्कूल प्राइवेट था और इसलिए फ़ीस की रक़म और दिन तय करने की हमें पूरी स्वतंत्रता थी। 

“आज हम जल्दी जाएँगी, दीदी,”  बृजबाला ने अपना रूमाल हवा में लहराया, “हमारी लड़कियाँ . . .”

“लड़कियाँ?”

मैंने हैरानी जतलाई। 

“जी, दीदी,” वह रो पड़ी, “पाँच लड़कियाँ मुझ बेसहारा के सहारे छोड़ गए हैं। सबसे छोटी कुल जमा तीन बरस की है . . .”

“ओह?” मैं चिढ़ गई, “इसका मतलब आपके लिए काम करना सुगम न रहेगा?”

“मैडम,” नन्दकिशोर बातूनी होते हुए भी मेरे साथ मेरी उपस्थिति में संक्षिप्त बात कहने का आदी था, “आप निश्चिन्त रहिए। इसके काम में आपको कोई कमी न मिलेगी।” 

“आप अपने काम से मतलब रखिए, नन्दकिशोर जी,” उम्र में नन्दकिशोर मुझसे बीस वर्ष बड़ा बेशक रहा किन्तु उसके संग कठोर स्वर प्रयोग में लाने का मुझे अच्छा अभ्यास था, “फीस की रसीद काटने का काम बृजबाला को ही करना पडे़गा।”

मैं अपने दफ़्तर की ओर बढ़ ली। 

♦    ♦    ♦

“फ़ीस की रसीद काटने का काम अगर मैं न करूँ तो?” दस मिनट के अन्दर बृजबाला मेरे दफ़्तर में चली आई, “आपकी सेक्रेटरी बन जाऊँ तो, दीदी?”

“एक तो यहाँ हेड मिस्ट्रेस को मैडम कहा जाता है,” बृजबाला की सीमा तय करना मेरे लिए अनिवार्य हो गया, “दीदी नहीं। और दूसरे अपनी सेक्रेटरी के काम से मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ और मैं उसे बदलना नहीं चाहती . . .”

“लेकिन, दीदी,” बृजबाला कुर्सी पर बैठ गई और सिसकने लगी। 

“यह धृष्टता है,” मैंने आपत्ति की, “काम के समय आप अपनी कुर्सी पर दिखाई देनी चाहिए . . .। मेरे दफ़्तर की कुर्सी पर नहीं।”

कुर्सी से उठने की बजाय उसने अपनी रूलाई तेज़ कर दी। 

“बड़े बाबू को बुलाओ,” घंटी बजाकर मैंने चपरासी को आदेश दिया। 

“मैं अन्दर आ सकता हूँ, मैडम?” नन्दकिशोर ने मुझसे दरवाज़े पर पूछा। 

”इन्हें अपने दफ़्तर के नियम समझाइए, नन्दकिशोर जी . . .”

”बहुत अच्छा, मैडम . . .”

♦    ♦    ♦

अगले दिन बृजबाला अपनी दो बेटियों को मेरे दफ़्तर में ले आई, “मैडम को नमस्ते करो और अपने नाम बताओ . . .”

“मेरा नाम सीमा है, आंटी,” बड़ी लड़की पहले बोल दी। उसने चटख लाल रंग की पृष्ठभूमि में काले पोल्का डाट्स वाली फ्राक पहन रखी थी, “मैं आठवीं जमात में पढ़ती हूँ . . .”

“मेरा नाम करिश्मा है, आंटी,” दूसरी लड़की बोली। उसने तोतई रंग की हरी फ्राक पहन रखी थी जिसमें नीले रंग के फूल खड़े थे, अपनी डण्डियों समेत, ”मैं तीसरी जमात में पढ़ती हूँ . . .”

”आंटी नहीं, मैडम,” मैंने कहा। 

अगर मैं उन्हें अपने दफ़्तर के बाहर मिली होती तो यक़ीन मानिए मैं सौ-दो सौ रुपए उन्हें दे देती लेकिन अपने दफ़्तर में मुझे अनुशासन पसन्द था, “कल से आप इस स्कूल में तभी आएँगी जब आप यहाँ की विद्यार्थी बनने के लिए तैयार होंगी।”

फट से बृजबाला सिसकने लगी। 

लड़कियों को भी मानो सिसकने का संकेत मिला और वे भी सिसक पड़ीं। मैंने घंटी बजा दी। 

“इन्हें बाहर ले जाओ,” चपरासी से मैंने कहा और अपनी फ़ाइल सँभाल ली। 

♦    ♦    ♦

अगले ही दिन हमें अपनी कक्षा आठ के परिणाम घोषित करने थे और मैं फ़ेल हुए विद्यार्थियों के छमाही और तिमाही परीक्षाओं के रिकार्ड देखना चाहती थी। उन्हें फ़ेल घोषित करने से पूर्व। 

आगामी पन्द्रह दिन भी बृजबाला लगभग रोज़ ही किसी न किसी बहाने मेरे दफ़्तर में आती रही और मुझसे झिड़की लेकर लौटती रही। फ़ीस की रसीदों पर वह या तो लापरवाही से फ़ीस देने वाले विद्यार्थी का नाम लिखती या फिर फ़ीस की सही रक़म न लिखकर दूसरी ग़लत रक़म भर देती। मानो मेरी आँख का काँटा बनने की उसने कोई शपथ ली हो। सोलहवें दिन मुझे स्कूल-प्रबन्धक का फिर बुलावा आया। 

“आप कार्य-कुशल तो हैं, मिस शुक्ल,” स्कूल-प्रबन्धक खिन्न होने की स्थिति में ही मुझे मेरे इस सरनेम के सम्बोधन से पुकारते थे, “लेकिन व्यवहार-कुशल नहीं . . .”

“मैं समझी नहीं,” मैंने प्रतिवाद किया। 

“आज बृजबाला मेरे पास आई थी। वह फ़ीस जमा करने वाली रसीद नहीं काटना चाहती। आपकी सेक्रेटरी बनना चाहती है . . .”

“वह सेक्रेटरी नहीं बन सकती। उसे न ही टाइपिंग आती है, न ही शार्ट-हैन्ड। तिस पर उसे स्कूल की बात को भेद बनाए रखने का ज़िम्मा नहीं दिया जा सकता। वह लापरवाह भी है और कार्य-क्षम भी नहीं . . .”

“लेकिन, मिस शुक्ल,” स्कूल प्रबन्धक ने अपना सिर हिलाया, “इस दारूण अवस्था में हमें उसका साहस बँधाए रखना है। तोड़ना नहीं . . .”

“मैं समझती हूँ वह यहाँ काम करने के लिए आई है, हमदर्दी जमा करने नहीं।”

“लेकिन उसके काम में इतनी धर-पकड़ करनी, इतना लिखित स्पष्टीकरण माँगना उचित है क्या? मैं तो सोचता हूँ आपका बर्ताव सुधार माँगता है . . .”

“आप ऐसा सोचते हैं तो मैं ज़रूर अपना बर्ताव सुधार लूँगी, सर,” न चाहते हुए भी मैं नरम पड़ गई। ऐसा अनिवार्य था। घर में बीमार माँ थीं, रिटायर्ड पिता थे, मेरे तीन भाई पढ़ाने बाक़ी थे और चार बहनें ब्याहने को। 

♦    ♦    ♦

आगामी माह मेरे लिए एक नया समाचार लाया। 

बृजबाला फ़ीस वाला दफ़्तर छोड़ कर स्कूल-प्रबन्धक की निजी सचिव नियुक्त होने जा रही थी। 

1 टिप्पणियाँ

  • 19 Sep, 2023 08:37 PM

    कार्य-कुशलता के आगे व्यवहार-कुशलता का विजयी होने को दर्शाती यथार्थ कहानी। साधुवाद।

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