सौग़ात

दीपक शर्मा (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“सअ!” रेलवे प्लैटफ़ॉर्म एक पर अभी में पहुँचा ही था कि एक परिचित आवाज़ ने मुझे पुकारा। 

आयकर विभाग की केंद्रीय सेवा के अन्तर्गत चार साल मेरी जूनियर रोहिणी, मुझे ‘सर’ बुलाते समय ‘सर’ के अन्त में आ रहे ‘र’ को ‘अ’ में बदल देती है। 

अँगरेज़ी उच्चारण-कोश के ज्ञापनानुसार। 

“हल्लो,” मैंने उत्साह दिखाया। हालाँकि, मुझे अफ़सोस हुआ स्टेशन आने से पहले मैंने अपनी दाढ़ी क्यों न बनाई थी। 

रविवार होने के कारण उस दिसम्बर की बारिश वाले दिन मैं अपने बिस्तर से ही दस बजे उठा था। 

वह भी स्वेच्छया नहीं। 

केवल अपनी पत्नी के भावुकतापूर्ण रोदन से बचने के लिए। 

“आपसे भेंट होने का अच्छा संयोग है, सअ!” रोहिणी मेरे समीप क्या आई मानो एक सुगंधशाला पूरी हवा को सुवासित कर गई। मुझे यक़ीन है रोहिणी विशुद्ध विदेशी द्रव्य प्रयोग में लाती है और वह भी कोई यू-डी-कोलोन नहीं, कोई अमिश्रित परफ़्यूम ही! 

“तुम बहुत भिन्न लग रही हो,” मैंने कहा। 

दफ़्तर में रोहिणी हमेशा साड़ी और जूड़े में आती थी, जबकि उस दिन उसने जीन्स के साथ गर्दन तक ऊँचा, पूरी बाँहों का स्वेटर पहन रखा था और उसके चमकीले बाल मुक्त रूप से उसके कंधों पर लहरा रहे थे। 

“इतनी तेज बारिश में अपनी रेशमी साड़ी कैसे ख़राब करती?” 

“ख़ूबसूरत होने के साथ-साथ तुम ख़ासी समझदार भी हो,” मैंने चुहल की। 

रोहिणी सुन्दर तो नहीं ही है, किन्तु अपने उच्चाधिकारियों के संग एक दिखावटी चोंचलेबाज़ी के हाव-भाव ज़रूर प्रदर्शित करती है। किसी भी दूसरी या तीसरी अभिजात युवा आधुनिका की भाँति। 

“आप किसे लेने आए हैं, सअ?” 

“अपनी पत्नी के पिता को।”

“आपकी पत्नी नहीं आई, सअ?” 

“तुम्हारे पति भी तो नहीं आए!” मैंने उसे नहीं बताया मेरे साथ स्टेशन पर आने के लिए मेरी पत्नी ने कितनी ज़िद की थी, बल्कि नौ बजे तक अपने संग-संग उसने हमारे दो वर्षीय बेटे को भी नहलाकर तैयार कर लिया था। ‘पंजाब मेल कई बार अपने निश्चित समय से आधा घन्टा पहले आ जाती है और स्टेशन पर हमें दस बजे तक तो पहुँच ही जाना चाहिए।’

“बी.ऐन., सअ?” रोहिणी के आई.पी.एस. पति का नाम भुलेश्वर नाथ है, लेकिन रोहिणी उनका उल्लेख हमेशा उनके नाम के आद्यक्षरों से करती है, “इतवार-के-इतवार बी.ऐन. का नाश्ता अपनी गोल्फ़ क्लब में रहता है। गोल्फ़ खेलने वाले अपने साथियों के साथ। सो, बारिश की वजह से आज उनका गोल्फ़ तो टल गया, मगर नाश्ता वहीं बरक़रार रहा। और फिर पिता भी मेरे ही आ रहे हैं, उनके नहीं।” 

“कहाँ से?” 

“रिहायश उनकी चंडीगढ़ में है, लेकिन आप जानते हैं, सअ, लखनऊ और चंडीगढ़ के बीच कोई सीधी गाड़ी है ही नहीं, सो वे अंबाला से पंजाब मेल में सवार हो लेते हैं . . . ”

“उन्हें चाहिए चंडीगढ़ से वे दिल्ली चले जाया करें और दिल्ली से तो लखनऊ के लिए फिर तमाम गाड़ियाँ उन्हें मिल जाएँगी . . .”

“दिल्ली से लखनऊ फिर वे गाड़ी से क्यों आएँगे, सअ? उड़ न लेंगे? लेकिन रेलगाड़ी से आना उन्हें ज़्यादा ठीक बैठता है। लड़की के बाप हैं। अंकवार-भर सामान के बिना कैसे आ सकते हैं?” 

“स्सी,” मैंने सीटी बजाई, “इस बार तुम्हारे लिए क्या-क्या आ रहा है?” 

“एक तो मेरी पिआनो ही है, सअ। पिछले साल जब मेरी शादी हुई, तो बी.ऐन. की माँ ने कहला भेजा, शादी के सामान में पुरानी कोई भी चीज़ न रखी जाएगी। सो, अपनी वह पिआनो मैंने चंडीगढ़ अपने पपा के पास भिजवा दी और इस साल अपनी शादी की पहली सालगिरह मना लेने के बाद ही अपनी प्यारी पिआनो को अपने पास मँगा लेने का साहस जुटा पाई . . .।”

“पिआनो पर तुम क्या-क्या बजा लेती हो? जोहान? वुल्फी? लुडविग?” विदेशी संगीत के लिए मेरे कान दो हज़ार दस में तैयार हुए। उसी वर्ष मैं केन्द्रीय सेवा के लिए चुना गया था और उसी के प्रशिक्षण के दौरान मुझे एक ऐसे संगीत-प्रेमी के संग एक ही कमरे में रहने का संयोग प्राप्त हुआ था जो 1685 में जन्मे बाख को ‘जोहान’ कहता, 1756 में जन्मे मोत्ज़ार्त को ‘वुल्फी’ कहता और 1770 में जन्मे बीथोवन को ‘लुडविग’। 

“तीनों ही,” वह हँसने लगी, “जानते हैं, सअ? पिआनो बजाना मैंने किस उम्र में सीखना शुरू किया? नौ बरस की। और मेरी पहली पिआनो मेरे पपा ने मुझे किस उम्र में लेकर दी? चौदह बरस की। वह भी एक अपराइट पिआनो ही थी, ग्रेंड नहीं . . .।”

“दोनों की बनावट में अंतर है, मैं जानता हूँ,” मैंने कहा, “ग्रेंड पिआनो में तारें बाएँ सिरे से दाएँ सिरे तक समतल रहती हैं-हौरिज़ोन्टली। मगर अपराइट पिआनो में तारें दक्षिण से उत्तर की ओर जाती हैं, वर्टिकली।”

“हाँ, सअ। अपराइट पिआनो की तारों का तल और ध्वनिपटल जो खड़ा-खड़ा रहता है . . .।”

“गाड़ी आ रही है,” प्लैटफ़ॉर्म की भीड़ में सम्मिलित हो रहे कुली चिल्लाए। 

“ए.सी. वन की सवारी है, साहब?” अपने क़दमों पर कुली ने उसी क्षण विराम लगा लिया, “ए.सी. वन का डिब्बा तो एकदम शुरू में ही लगाया जाता है और उसे उधर रेलवे थाने के सामने ही लगना चाहिए . . .।”

“क्या मालूम आपके ‘पा-इन-लौ’ और मेरे पपा एक ही डिब्बे से एक साथ उतरें?” मुझे अपनी बग़ल में चलते हुए देखकर रोहिणी ने कहा। 

“देखते हैं,” मैंने उसे नहीं बताया मेरे श्वसुर गाड़ी के थ्री-टियर डिब्बे में आ रहे थे। उन्हें गाड़ी में बिठाकर मेरे छोटे साले ने अमृतसर से मुझे फ़ोन भी किया था। डिब्बे का नम्बर एस थ्री है और सीट का नम्बर उनसठ। और तोते की तरह मेरी पत्नी ने ये दोनों नम्बर मेरे सामने हज़ारों बार दोहराए भी थे। 

कुली का अन्दाज़ा सही निकला और जब गाड़ी खड़ी हुई, तो हमने स्वयं को वातानुकूलित डिब्बे के दरवाज़े के ऐन सामने पाया। 

“पपा,” रोहिणी जिन सज्जन के गाल चूमने के लिए लपकी, उनकी आब-ताब देखने योग्य थी। 

सज्जन ने गहरे नीले रंग का गर्म सूट पहन रखा था। उनकी नीली टाई गुलाबी धारियाँ धारण किए रही और उनके ताज़े पॉलिश किए गए काले जूते उनके ताज़ा रंगे काले बालों से मेल खा रहे थे। 

“हनी, हनी, हनी,” सज्जन ने अपने ख़ाली हाथ से रोहिणी का हाथ तीन बार झुलाया। 

उनका दूसरा हाथ सैलुलर फ़ोन लिए था। 

“ये मेरे बॉस हैं, पपा,” रोहिणी ने मुझे उनमें मिलाया, “श्री जगदीश कुमार कौशल। अपने ‘पा-इन-लौ’ को लिवाने आए हैं . . .”

“वे कहाँ से गाड़ी में सवार हुए?” 

“अमृतसर से . . . ” मैंने कहा। 

“अमृतसर की एक सवारी है तो,” सज्जन ने मुझसे हाथ मिलाया, “कोई रामकिशोर वशिष्ठ . . .।”

“नहीं,” मैंने कहा, “उनका नाम यह नहीं . . .”

“कौन-सा सामान जाएगा, साहब?” हमारे साथ लग चुके कुली ने रोहिणी से पूछा। 

“एक कुली से न चलेगा,” सज्जन ने कुली से कहा, “जाओ। अपना कोई साथी लेकर आओ।”

“आप चाहें तो अपने ‘पा-इन-लौ’ का नाम यहाँ से देख सकते हैं,” रोहिणी ने रेल के डिब्बे पर चिपकी यात्रियों की सूची की ओर संकेत किया। 

“देखता हूँ, अभी देखता हूँ,” मैं सूची के पास जा खड़ा हुआ। 

सज्जन के सामान में रोहिणी की अपराइट पिआनो का बक्सा तो रहा ही, साथ में रहे: क़ीमती, ख़ालिस चमड़े के दो बड़े सूटकेस, फलों की एक बड़ी लकड़ी की पेटी, पानी की एक बड़ी थरमस और खाने का लम्बा टिफ़िन बॉक्स लिए हत्थे वाली प्लास्टिक की एक बड़ी टोकरी . . . . . . 

“इस सूची में यदि आपके ‘पा-इन-लौ’ नहीं हैं, तो आप ए.सी. टू का डिब्बा क्यों नहीं देख लेते, सअ?” 

“हाँ,” मैंने कहा, ”वही करना पड़ेगा . . .”

अभी मैं थोड़ी दूर ही गया था कि मुझे अपने श्वसुर दिखाई दे गए। 

एक खम्भे के पास वे खड़े थे और उनकी निगाह इधर-उधर घूम रही थी। 

अपने एक हाथ में वे कंबल लिए थे और दूसरे हाथ में एक बहुत छोटा सूटकेस। 

कंबल मुसा था और सूटकेस भोंडा। 

तिस पर उनकी अपनी धज/ दिखावट; एकदम बेढंगी। 

उनका मफ़लर, उनका कोट, उनकी पतलून, उनके जूते सभी कुछ नितांत लज्जाजनक। 

मैं विपरीत दिशा में लपक लिया। मैंने तय किया मैं उन्हें देखा-अनदेखा कर जाऊँगा। 

“जगदीश,” मेरी पीठ पीछे आवाज़ आई। 

मैंने उन्हें सुना-अनसुना कर दिया। 

सामने से रोहिणी सदल आ रही थी। 

मैंने अपनी रफ़्तार तेज़ कर ली। 

“नो ‘पा-इन-लौ’, सअ?” रोहिणी ने हाथ हिलाया। 

“नो,” मैंने अपने कंधे उचकाए। 

“गुड लक,” वह मुस्कराई और सदल आगे बढ़ ली। 

तत्क्षण पलटकर इतस्ततः मैंने प्लेटफॉम पर नज़र दौड़ाई। 

मेरे श्वसुर प्लैटफ़ॉर्म के मुख्य निर्गमद्वार की दिशा में अपने क़दम बढ़ा रहे थे। 

द्रुत गति से। 

यहाँ-वहाँ देखे बिना। 

तथापि रोहिणी अपने दल के साथ निर्गम-द्वार पर पहुँच चुकी थी। 

अपने क़दम रोककर कुछ समय तक मैं वहीं जड़ हो लिया। 

“बाबूजी कहाँ हैं?” घर के बरामदे में बेटे को बच्चा गाड़ी में लिए मेरी पत्नी घोड़े की तरह बेसब्री से क़दम चला रही थी। 

वह तो ग़नीमत रही, जो उस समय बारिश ख़ूब तेज़ थी। वरना उसके दिमाग़ का कोई भरोसा न था। अपने बाबूजी की राह में आँखें बिछाने हेतु वह हमारे इस सरकारी आवास क्षेत्र के मुख्य द्वार पर भी जाकर खड़ी हो सकती थी। 

“मुझे नहीं मिले,” अपनी मारूति गाड़ी की चाबी मैंने हाथ में छनछनाई, “पूरा प्लैटफ़ॉर्म छानकर आ रहा हूँ . . . . . . ”

“मैंने कहा था आप उन्हें नहीं ढूँढ़ पाएँगे,” पत्नी फूट-फूटकर रोने लगी, “मुझे साथ ले चलिए . . .”

“मुझे ठंड लग रही है, ” बेटे की बच्चा-गाड़ी की हत्थी मैंने अपने हाथ में थाम ली, “तुम रसोई में जाओ और अदरख वाली चाय बना लाओ। तुम जानती हो स्टेशन जाने के चक्कर में मेरी सुबह वाली चाय गोल हो गई . . .”

“मैं चाय न बनाऊँगी,” पत्नी बरामदे में जीम रही, ”बाबूजी की राह देखूँगी।”

“पिआनो सुनोगे?” बेटे के साथ मैं अपनी बैठक में आ गया। 

मोत्जार्त का ‘द मैरिज आव फिगारो’ अपनी उछाल की पराकाष्ठा पर पहुँच ही रहा था कि पत्नी ने बैठक में आकर मेरे संगीत का खटका बन्द कर दिया, “एक रिक्शा हमारे घर के आगे रुका है। छाता लेकर ज़रा बाहर जाइए तो।”

रिक्शे में मेरे श्वसुर ही रहे। 

“मैं स्टेशन पर गया था,” उनके रिक्शे से उतरते ही मैंने उन्हें छाते का संरक्षण देना चाहा, “लेकिन आप मुझे कहीं नहीं दिखाई दिए . . .।”

“मैं जानता हूँ,” छाते की आड़ से वे तत्काल अलग छिटक लिए। 

“आप भीग रहे हैं, बाबूजी,” बरामदे से पत्नी चिल्लाई। 

“कहाँ?” देखते-देखते वे छह-सात डग में सड़क से हमारे घर के गेट तक का लम्बा गलियारा फलांग बरामदे में अपनी बेटी के पास जा पहुँचे, “दो-चार छींटे ही तो हैं। तुम इस्त्री से सुखा देना . . .”

तेज़ चलने की बीमारी मेरी पत्नी के पूरे परिवार को है। 

मेरी सास को छोड़कर। 

वे पिछले नौ वर्षों से पक्षाघात से लाचार होकर अपने अंतिम दिन अपनी चारपाई पर गुज़ार रही हैं। 

लेकिन, मेरे दोनों साले तो अपने पिता की मानिंद लम्बे क़दम भरते ही हैं, मेरी पत्नी भी उनसे कम नहीं। बल्कि अपनी शादी से पहले अपने प्रणय-निवेदन के अंतर्गत जब-जब मैं अपनी पत्नी को किसी विहार-स्थल पर घूमने-फिरने के लिए लेकर गया, वह हमेशा मेरे साथ चहलक़दमी करने के बजाय अपनी ही एक फ़ुर्तीली पदयात्रा पर निकल पड़ती, जिसमें उसे आसानी से पिछेला न जा सकता। 

रविवार का मेरा वह पूरा दिन अपने श्वसुर के संग जोड़-तोड़ संपर्क में कटा। 

असल में उनका और मेरा परिचय तेरह वर्ष पुराना है। 

चार वर्ष तो वे मेरे अध्यापक ही रह चुके हैं। दो हज़ार चार से दो हज़ार सात के बीच। मेरी तेरहवीं जमात से मेरी सोलहवीं जमात तक। फिर दो हज़ार आठ और नौ के बीच वे मेरे सहकर्मी रहे। एम.ए. के एकदम बाद मुझे उसी स्नातकोत्तर विद्यालय में प्राध्यापक का काम मिल गया था, जिसके आधुनिक इतिहास विभाग के वे आज भी अध्यक्ष हैं और दो हज़ार दस में जब मैं आयकर विभाग में नियुक्त हुआ, उनकी पुत्री से मेरा विवाह लगभग निश्चित हो चुका था। 

किन्तु उस रविवार को हम दोनों सद्भावपूर्वक संवाद में दो-तीन बार जब बहे भी तो उन्होंने अपनी आँखों में तुरन्त सरसों फुला ली। 

हाँ, अपनी पुत्री के संग उन्होंने अपनी आँख बराबर रखी। नए–पुराने कई देशी–विदेशी उपन्यासों पर जी भरकर बात की। 

पिता और पुत्री दोनों ही स्वसंचारी साहित्य-प्रेमी जो ठहरे! 

अगले ही दिन, सोमवार को, उनकी वापसी रही। 

अपनी पत्नी की अस्वस्थता को देखते हुए वे अपने साथ उस सोमवार का आरक्षित टिकट लेते आए थे। 

“आपको स्टेशन पहुँचाने मैं दोपहर में आ जाऊँगा,” मर्यादा बनाए रखने की ख़ातिर दफ़्तर जाते समय मैंने सुझाया, क्योंकि सामान्यतः दोपहर में खाना खाने मैं घर नहीं आता, सुबह ही भरपेट नाश्ता कर लिया करता हूँ। 

“सवाल ही नहीं उठता,” उन्होंने दृढ़ता से मुझे मना कर दिया, “मैं रास्ता पहचानता हूँ।”

शाम छह बजे जब मैं दफ़्तर से लौटा तो बेटा मुझे नए कपड़ों में मिला। 

“बाबूजी दे गए हैं,” मेरी पत्नी ने अपनी गरदन लहराई, “ऐसे ही चार जोड़े और हैं। अलग-अलग रंग और बुनावट के। साथ में और भी बहुत कुछ छोड़ गए हैं, आपके लिए एक ऊनी जैकेट, मेरे लिए एक गर्म शॉल, उड़द की दाल वाली आपकी मनपसन्द पिन्नी, मेरा मनपसन्द कराची हलुवा और नमकीन लच्छा . . .”

“हैरत है! कल तुमने मुझे नहीं बताया . . .”

“मुझे ही कहाँ मालूम रहा? स्टेशन जाने से कुछ देर पहले ही तो उन्होंने अपना सूटकेस ख़ाली किया . . .”

“मगर, सूटकेस तो उनका बहुत छोटा था . . .”

“छोटा कहाँ था?” भावावेग में पत्नी रुआँसी हो चली, “इतना सारा सामान उसी में तो रखा रहा . . .”

“सामान?” मेरी हँसी छूट गई। 

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