कुंजी
दीपक शर्मा
बीती वह पुरानी थी . . .
लेकिन मोतियाबिंद के मेरे ऑपरेशन के दौरान जब मेरी आँखें अंधकार की निःशेषता में गईं तो उसकी कौंध मेरे समीप चली आई . . .
अकस्मात् . . .
मैंने देखा, माँ रो रही हैं, अपने स्वभाव के विरुद्ध . . .
और ग़ुस्से में लाल, बाबा हॉल की पट्टीदार खिड़की की पट्टी हाथ में पकड़े हैं और माँ को नीचे फेंक रहे हैं . . .
अनदेखी वह कैसे दिख गई मुझे?
धूम-कोहरे में लिपटी माँ की मृत्यु ने अपनी धुँध का पसारा खिसका दिया था क्या?
अथवा मेरे अवचेतन मन ने ऑपरेशन की प्रक्रिया से प्रेरित मेरी आँख की पीड़ा को पीछे धकेलने की ख़ातिर मुझे इस मानसिक दहल की स्थिति में ला पहुँचाया था?
मेरा चेतन मन हिसाब बैठाता है: माँ की मृत्यु हुई, 28 फरवरी, 1956 की रात और मेरा ऑपरेशन हुआ 28 फरवरी, 2019 की शाम . . .
तिरसठ साल पीछे लौटता हूँ . . .
बाबा दहाड़ रहे हैं, “वह कुंजी मुझे चाहिए ही चाहिए . . .।”
माँ गरज रही हैं, “वह कुंजी मेरे पास रहेगी। मेरे बाबूजी की अलमारी की है। मेरी सम्पत्ति है . . .।”
1904 में जन्मे मेरे नाना संगीतज्ञ थे। नामी और सफल संगीतज्ञ। रेडियो पर प्रोग्राम देते, संगीत-गोष्ठियों में भाग लेते। विशिष्ट राष्ट्रीय कार्यक्रमों में बुलाए जाते।
अपने अड़तीसवें वर्ष, 1942 में, उन्होंने अपनी पुश्तैनी इमारत की ऊपरी मंज़िल पर अपना विद्यालय स्थापित किया: सुकंठी संगीत विद्यालय। बोर्ड के निचले भाग पर लिखवाया: शिष्याओं के लिए पृथक कक्ष एवं पृथक शिक्षिका की व्यवस्था।
लड़कियों को माँ पढ़ाती थीं। वे नाना की इकलौती संतान थीं और ‘सुकंठी’ उन्हीं का नाम था। अपने नाम के अनुरूप उनके कंठ में माधुर्य और अनुशासन का ऐसा जोड़ था कि जो भी सुनता, विस्मय से भर उठता।
लेकिन वे अंधी थीं।
ऐसे में 1946 में जब सत्रह वर्षीय बाबा नाना के विद्यालय में गाना सीखने आए तो नाना ने उन्हें अपने पास धर लिया। बीस वर्षीया अपनी सुकंठी के लिए बाबा उन्हें सर्वोपयुक्त लगे थे। बाबा अंधे थे। अनाथ थे। सदाचारी थे। तिस पर इतने विनम्र और दब्बू कि प्रतिभाशाली होने के बावजूद अहम्मन्यता की मात्रा उनमें शून्य के बराबर थी।
नाना उन्हें ‘नेपोलियन थ्री’ कहा करते। ‘नेपोलियन टू’ इसलिए नहीं क्योंकि वह उपाधि वे माँ को पहले दे चुके थे।
उन दिनों नेपोलियन को सफलता और दृढ़निश्चय का पर्याय माना जाता था और नेपोलियन की परिश्रम-क्षमता का एक क़िस्सा नाना सभी को सुनाया करते:
एक रात काउंसलर थककर ऊँघने लगे तो नेपोलियन ने उन्हें डाँटा, “हमें जागते रहना चाहिए, अभी तो सिर्फ़ दो बजे हैं। अपने वेतन के बदले में हमें पूरा-पूरा काम देना चाहिए।”
नेपोलियन के एक भक्त उनकी बात से बहुत प्रभावित हुए और अपने साथी काउंसलरों से बोले, “ईश्वर ने बोनापार्ट बनाया और फिर आराम से चला गया।”
काम करने की ख़ब्त नाना, माँ और बाबा को बराबर की रही, लेकिन बाबा रात को देर में सोते थे और सुबह देर से उठते थे। इसके विपरीत नाना और माँ रात में जल्दी सोने के आदी रहे और सुबह जल्दी जग जाने के।
माँ और बाबा के तनाव का मुख्य बिंदु भी शायद यही रहा। आज स्वीकार किया जा रहा है कि हममें से कुछ लोग फ़ाउल्ज (चिड़ियाँ), मॉर्निंग पीपल (प्रातः कालीन जीव) होते हैं और कुछ आउल्ज (उल्लू), नाइट पीपल (रात्रि जीव)। किन्तु बाबा को माँ का जल्दी सो जाना अग्राह्य लगता। शायद इसीलिए उन्होंने शराब पीनी शुरू की। नाना के जीवनकाल में छुपकर और बाद में खुल्लमखुल्ला।
मेरा जन्म सन् उनचास में हुआ था, माँ और बाबा की शादी के अगले वर्ष। मेरी प्रारंभिक स्मृतियाँ उषाकाल से जुड़ी हैं:
नाना के शहद-घुले गुनगुने पानी के भरे चम्मच से . . .
नाना के हाथ के छीले हुए बादाम से, जो रात में भिगोए जाते थे . . .
नाना और माँ की संगति में किए गए सूर्य-नमस्कार से . . .
माँ और नाना द्वारा गिने जा रहे और हस्तांतरित हो रहे रुपयों और सिक्को से . . .
कब्ज़ेदार दो लोहे के पत्तरों की स्लेट के बीच काग़ज़ रखते हुए माँ के हाथों से . . .
काग़ज़ पर ‘रेज्ड डॉट्स (ऊपर उठाए गए बिंदु) लाने के लिए उन पत्तरों में बने गड्ढों पर काग़ज़ दबाते हुए माँ के स्टाइलस से . . .
माँ ब्रेल बहुत अच्छा जानती थीं।
और सच पूछिए तो मैंने अपने गणित के अंक और अंग्रेज़ी अक्षर अपने स्कूल जाने से पहले ब्रेल के माध्यम से सीख रखे थे। और ब्रेल मुश्किल भी नहीं। इसके कोड में तिरसठ अक्षर और बिंदु अंकन है। प्रत्येक वर्ण छह बिन्दुओं के एक सेल में सँजोया जाता है, जिसमें दो वर्टीकल, सीधे खानों में एक से लेकर छह ‘रेज्ड डॉट्स’ की पहचान से उसका विन्यास निश्चित किया जाता है।
अपने तीसरे ही वर्ष से मैं नाना के पास सोने लगा था . . .
हॉल के दाएँ कमरे में . . .
नाना की निचली मंज़िल पर बनी चार दुकानों के ऐन ऊपर बना वह हॉल नाना ने तीन कक्षों में बाँट रखा था, दो छोटे और एक बड़ा। हॉल में चार आदम-क़द, पट्टीदार खिड़कियाँ थीं, जो सड़क की तरफ़ खुलती थीं और हर एक खिड़की के ऐन सामने बीस फुट की दूरी पर एक-एक दरवाज़ा था जो अन्दर आँगन में खुलता। बड़ा कक्ष दो खिड़कियाँ और दो दरवाज़े लिए था और दाएँ-बाएँ के दोनों कक्ष एक-एक खिड़की और एक-एक दरवाज़ा। बाएँ कक्ष में नाना ने विद्यालय का दफ़्तर खोल रखा था और दाएँ कक्ष को वे निजी, अनन्य प्रयोग में लाते थे। उसी कक्ष में उनका पलंग था। उनके कपड़ों की घोड़ी थी, उनकी किताबों का रैक था, उनके निजी संगीत वाद्य थे और वह अलमारी जिसमें रुपया रहता था और जिसकी कुंजी वे अपनी जेब में रखा करते थे।
कहने-भर को मालिकी उनकी थी लेकिन सब कुछ माँ के नाम था, विद्यालय क्या, मकान क्या, दुकानें क्या। और सारा हिसाब-किताब भी माँ ही रखा करतीं। दुकानों के किराए और बकाए का; विद्यालय की फ़ीस और निधि का; नौकर लोग के वेतन का; बाबा के जेब-खर्च का; पंसारी, बजाज और दर्ज़ी के बिल का; मेरे स्कूल की किताबों, बैग और बस के व्यय का।
सुबह के चार बजते ही आँगन पार कर माँ इधर हॉल के बीच वाले कमरे में चली आतीं। यहीं उन्होंने अपना मंदिर बना रखा था। अपनी शिष्याओं को संगीत भी वे यहीं सिखाती थीं और बाबा के रूठने पर इधर सो भी जातीं। बाबा उधर आँगन पार बने अपने कमरे में रहते थे। उधर तीन कमरे थे। बायाँ बाबा का, दायाँ रसोई घर और बीच वाला विद्यालय का, जहाँ पुरुष जन संगीत सीखते थे। यह कमरा और हॉल के बीच वाला कमरा इस तरह एक-दूसरे के ऐन सामने पड़ते थे।
नाना की मृत्यु बिना चेतावनी के आई। स्नानगृह में स्नान करने गए। वहाँ ठोकर खाई या फिसले, किसी को नहीं मालूम। माँ को केवल उनका धड़ाम से गिरना सुनाई दिया और समस्या यह कि स्नानगृह की सिटकनी अंदर से बंद थी। जब तक माँ ने बाबा और रसोइए को जगाकर स्नानगृह का दरवाज़ा खुलवाया, नाना अपना शरीर त्याग चुके थे।
नाना की कुंजी अपने अधिकार में लेने का आग्रह बाबा ने उसी भोर से शुरू कर दिया।
“कुंजी मुझे दो। डॉक्टर इधर बुलवाया है। उसकी फ़ीस देनी होगी . . . ।”
बाबा और माँ बेशक अंधे थे लेकिन दोनों सदैव स्वतःस्फूर्त रहे—शरीर से भी और चित्त से भी। दोनों के हाथ-पैर पूरी तरह से उनके अधीन रहा करते। बिना कोई सहारा लिए, बिना कभी डगमगाए वे घर-भर में स्वच्छंद घूमते फिरते, उठते-बैठते। चित्त भी दोनों का बराबर-आत्मकेंद्रित और स्वसंगत!
“मैं सब देख लूँगी, ” चिंतातुर, शोकाकुल उस अवस्था में भी माँ अपने को सँभाले रहीं, “आप अपना देखिए . . . ।”
डॉक्टर के जाते ही माँ ने मुझसे टेलीफ़ोन की अपनी कॉपी मँगवाई और उसमें से एक नंबर खोजकर मुझे टेलीफ़ोन मिलाने को कहा।
नंबर मिलते ही माँ ने मुझसे टेलीफ़ोन पर बृजभान काका को पूछा और बोली, “उन्हें बताइए, मास्टरजी नहीं रहे। वे तत्काल इधर चले आएँ . . . ।”
नीचे वाली हमारी दुकानों में बृजभान काका की दुकान उन दिनों अच्छी पनप रही थी। उनके पास मरफ़ी रेडियो की एजेंसी थी और उनके रेडियो ख़ूब बिकते थे।
बृजभान काका के आते ही माँ ने नाना की सारी ज़िम्मेदारी उन्हें सौंप दी। दाहकर्म की, फूल चुनने की, तेरहवीं के भोज की।
तेरहवीं की रस्म बीतते ही बाबा ने माँ को फिर घेर लिया, “मुझे कुंजी दो। मुझे ठेकेदार को रुपया देना है। नई सीढ़ियाँ बनवानी हैं। सड़क की तरफ़ से। उधर हमारे ग्राहक भटक जाते हैं . . . ।”
“लेकिन सड़क में जगह कहाँ है?” माँ चिल्लाईं। चारों दुकानों के दोनों किनारे घिरे थे।
एक-दूसरे की बात का विरोध माँ और बाबा पहले भी करते रहे थे; माँ उग्र स्वर में और बाबा दबे स्वर में। किन्तु नाना की मृत्यु के बाद बाबा का विरोध कर्णभेदी स्वर में फूटने लगा था, सो वे भी चिल्ला उठे, “बृजभान की दुकान ख़ाली करवाएँगे और उस जगह अपनी सीढ़ी बनवाएँगे . . . ।”
“कभी नहीं,” माँ ने दृढ़ स्वर में कहा, “कभी नहीं। वैसे भी हमारी सीढ़ियाँ अहाते में ठीक हैं। बृजभान काका की दुकान कभी नहीं छेड़ी जाएगी . . . ।”
ऊपर आने के लिए बनी हमारी सीढ़ियाँ अहाते में स्थित थीं। अहाता सड़क की दुकानों के पीछे था; महाकाय एवं कुंडलित। हमारी सीढ़ियों के अतिरिक्त उसमें ऊपरी मंज़िल के दूसरे मकानों की सीढ़ियाँ भी रहीं। साथ ही कई बेतरतीब, बे-सिर-पैर, ठसाठस, सटे-सटे मकान।
“वे भी कोई सीढ़ियाँ हैं? पिछले पैरों पर खड़ीं? उन्हें तो हमें बदलना ही बदलना है। बृजभान को यहाँ से हटाना ही हटाना है . . .रस्सी-वस्सी सब दूर फेंक देनी है . . . ।”
नाना ने अहाते की उन सीढ़ियों के दरवाज़े पर दुफंदी साँकल लगवा रखी थी जिस पर दोतरफ़ी रस्सी बँधी थी। रस्सी के दोनों सिरे ऊपर हमारे आँगन में टँगी एक खूँटी पर टिके रहते। दरवाज़ा हमें खोलना होता तो रस्सी का पहला सिरा अपनी तरफ़ खींच लेते, बंद करना होता तो दूसरा।
“सीढ़ियाँ वे ठीक हैं। उन्हें नहीं बदला जाएगा . . . ” माँ की दृढ़ता दुगुनी हो ली।
“क्या पुरातनपंथी है?” बाबा दुगुने वेग से चिल्लाए, “सीढ़ियाँ वे ठीक नहीं हैं। ख़तरनाक हैं। वाहियात हैं। हमें नई सीढ़ियाँ चाहिए ही चाहिए . . . ।”
“आप क़ानून नहीं जानते,” माँ ने बाबा को चुनौती दी, “वरना ऐसे नहीं कहते, ऐसे नहीं सोचते। क़ानून जानते होते तो मालूम रहता, मकान-मालिक की मर्ज़ी के बिना मकान की एक ईंट तक हिलाई नहीं जा सकती . . . ।”
“धर्म कहता है, परिवार का मुखिया पति होता है, मकान का मालिक पति होता है . . . ” बाबा ने माँ की चुनौती खारिज़ कर दी।
“आप अपना धर्म थामे रखिए,” माँ के पास अपना तर्क था, “मेरा क़ानून मुझे सँभाल लेगा . . . ।”
“इतना ऊँचा उछलोगी तो मुँह के बल गिरोगी . . . ” बाबा के पास धमकी थी।
आगामी दिन भयावह रहे। बाबा ख़ुलेआम शराब पीते और माँ को एलानिया आएँ-बाएँ, बुरा-भला सुनाते। कुंजी को लेकर।
“आप बाबा को कुंजी दे क्यों नहीं देतीं?” एक दिन सूर्य-नमस्कार के समय मेरा धैर्य हार खाने लगा।
“तेरे बाबा को पैसे की बहुत भूख है। कुंजी मिलते ही मुझे मार डालेंगे . . . ।”
उस दिन, 29 फरवरी, 1956 की सुबह मुझे धूप ने जगाया था, माँ ने नहीं।
धूप को देखकर मैं चौंका था . . .
सूर्य-नमस्कार कैसे चूक गया?
माँ कहाँ थीं?
बाहर लपका तो देखा लहूलुहान अवस्था में माँ आँगन में लेटी थीं और सड़क बुहारने वाली माँ-बेटी पास बैठी आपस में कानाफूसी कर रही थीं।
“क्या बात है?” मैंने पूछा। हमारे घर के अंदर वे पहली बार आई थीं।
“सुबह सड़क पर झाड़ू लगाने आई तो बिटिया हमें वहाँ गिरी पड़ी मिलीं . . . ” बेटी की माँ बोली।
मैंने माँ को छुआ।
वे पत्थर थीं!
नाना की तरह लोप हो जाने के लिए?
अनजानी एक शिथिलता मेरे शरीर में उतरने लगी।
माँ की बग़ल में मैं जा लेटा।
अपनी आँखें मूँदकर।
उनके संग लोप हो जाने के लिए . . .
“उठिए भैया जी, उठिए वहाँ से,” दोनों माँ-बेटी अपनी जगह से मुझे दुलराईं। मुझे छूने का साहस उनमें न था। छुआछूत का अनुपालन कर रही थीं वे।
“क्या बात है?” बाबा की आवाज़ आँगन में उतरी।
“भैया जी बिटिया के पास आ लेटे हैं . . .वहाँ से उठ नहीं रहे . . . ”
“गिरधर गोपाल!” बाबा ने मुझे पुकारा।
मैंने आँखें नहीं खोलीं।
“उठो, गिरधर गोपाल, इधर आओ,” बाबा के स्वर में क्रोध छलका।
“भैया जी को डाँटिए नहीं, बाबूजी,” बेटी की माँ ने कहा, “वे सदमे में हैं, गहरे सदमे में . . . ”
“और अभी कच्ची उम्र है,” बेटी बोली, “नासमझ हैं, कुछ नहीं जानते . . . ”
“तुम माँ-बेटी यहाँ किस वास्ते रुकी हो?” बाबा ने उन्हें डाँटा, “बख्शीश के वास्ते?”
“हम छोटी जात की हैंगी,” बेटी की माँ ने कहा, “मगर समझ तुमसे बड़ी रखती हैं। मौत की मर्यादा बख्शीश से ऊपर है . . .”
“हम जा रही हैं,” बेटी ने कहा।
बाबा के हाथ मेरे कन्धों और एड़ियों से आ चिपके।
मैंने प्रतिवाद न किया। मुझसे करते न बना।
अपनी बाँहों में भरकर वे मुझे नाना के कमरे में ले आए।
नाना के पलंग पर।
मैं वहीं धँस गया।
जभी मुझे नाना की अलमारी के खुलने की आवाज़ आई।
मेरी आँखें भी खुल लीं और बाबा के कुर्ते की ऊपरी जेब पर जम गईं।
जेब से उस रुमाल का सिरा बाहर झाँक रहा था, जिसके एक कोने में माँ इस अलमारी की कुंजी बाँधे रखती थीं।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कहानी
-
- अच्छे हाथों में
- अटूट घेरों में
- अदृष्ट
- अरक्षित
- आँख की पुतली
- आँख-मिचौनी
- आँधी-पानी में
- आडंबर
- आतिशी शीशा
- आधी रोटी
- आब-दाना
- आख़िरी मील
- ऊँची बोली
- ऊँट की करवट
- ऊँट की पीठ
- एक तवे की रोटी
- कबीर मुक्त द्वार सँकरा . . .
- कलेजे का टुकड़ा
- कलोल
- कान की ठेंठी
- कार्टून
- काष्ठ प्रकृति
- किशोरीलाल की खाँसी
- कुंजी
- कुनबेवाला
- कुन्ती बेचारी नहीं
- कृपाकांक्षी
- कृपाकांक्षी—नई निगाह
- क्वार्टर नम्बर तेईस
- खटका
- ख़ुराक
- खुली हवा में
- खेमा
- गिर्दागिर्द
- गीदड़-गश्त
- गेम-चेन्जर
- घातिनी
- घुमड़ी
- घोड़ा एक पैर
- चचेरी
- चम्पा का मोबाइल
- चिकोटी
- चिराग़-गुल
- चिलक
- चीते की सवारी
- छठी
- छल-बल
- जमा-मनफ़ी
- जीवट
- जुगाली
- ज्वार
- झँकवैया
- टाऊनहाल
- ठौर-बेठौ
- डाकखाने में
- डॉग शो
- ढलवाँ लोहा
- ताई की बुनाई
- तीन-तेरह
- त्रिविध ताप
- तक़दीर की खोटी
- दमबाज़
- दर्ज़ी की सूई
- दशरथ
- दुलारा
- दूर-घर
- दूसरा पता
- दो मुँह हँसी
- नष्टचित्त
- नाट्य नौका
- निगूढ़ी
- निगोड़ी
- नून-तेल
- नौ तेरह बाईस
- पंखा
- परजीवी
- पारगमन
- पिछली घास
- पितृशोक
- पुराना पता
- पुरानी तोप
- पुरानी फाँक
- पुराने पन्ने
- पेंच
- पैदल सेना
- प्रबोध
- प्राणांत
- प्रेत-छाया
- फेर बदल
- बंद घोड़ागाड़ी
- बंधक
- बत्तखें
- बसेरा
- बाँकी
- बाजा-बजन्तर
- बापवाली!
- बाबूजी की ज़मीन
- बाल हठ
- बालिश्तिया
- बिगुल
- बिछोह
- बिटर पिल
- बुरा उदाहरण
- भद्र-लोक
- भनक
- भाईबन्द
- भुलावा
- भूख की ताब
- भूत-बाधा
- मंगत पहलवान
- मंत्रणा
- मंथरा
- माँ का उन्माद
- माँ का दमा
- माँ की सिलाई मशीन
- मार्ग-श्रान्त
- मिरगी
- मुमूर्षु
- मुलायम चारा
- मुहल्लेदार
- मेंढकी
- रंग मंडप
- रण-नाद
- रम्भा
- रवानगी
- लमछड़ी
- विजित पोत
- वृक्षराज
- शेष-निःशेष
- सख़्तजान
- सर्प-पेटी
- सवारी
- सिद्धपुरुष
- सिर माथे
- सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर
- सीटी
- सुनहरा बटुआ
- सौ हाथ का कलेजा
- सौग़ात
- स्पर्श रेखाएँ
- हम्मिंग बर्ड्ज़
- हिचर-मिचर
- होड़
- हक़दारी
- क़ब्ज़े पर
- विडियो
-
- ऑडियो
-