कलेजे का टुकड़ा

01-08-2022

कलेजे का टुकड़ा

दीपक शर्मा (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

आपने कहा, आपने कस्बापुर से मैट्रिक पास की? 

सन् सड़सठ में? 

मिनर्वा हाई स्कूल से? तीन साल पहले कस्बापुर में वहीं एक हाईस्कूल रहा . . . 

तेजपाल भंडारी याद है आपको? 

आपने उनसे भूगोल पढ़ा होगा? 

रेखांकन में उनका हाथ बहुत साफ़ था . . . आज की ‘ज़िरॉक्सिंग’ सुविधाएँ तब थीं भी कहाँ? सभी कुछ वे हाथ से बनाया करते . . . पहाड़, नदी, समुद्र, घाटी, मैदान के रेखा-चित्र . . . जलवायु, वर्षाजल, चतुर्दिक, भूस्खलन, ज्वालामुखी के मान-चित्र . . . फिर भूगोल, तो आप जानते हैं, ऐसा विषय है, जिसमें माप और रूप की शत-प्रतिशत सही जानकारी होनी अनिवार्य है और कोई भी अध्यापक केवल अपनी वर्णन-शक्ति अथवा स्मृति पर आश्रित नहीं रह सकता . . . उनके निवास-स्थान पर कभी गए थे आप? 

पुरानी ड्योढ़ी का नाम आपने सुना होगा? उसके मालिक लाला टेकचंद को भी जानते होंगे? जिन्हें ख़स्ताहाल इमारतें ख़रीदने की ख़ब्त रही। जिस ख़ब्त के बाद में उन्हें कस्बापुर का सबसे बड़ा रईस भी बनाया। सुनते हैं, लारेंस गार्डन की एक पुरानी कोठी ने तो उन्हें सौ गुणे से भी ज़्यादा लाभ पहुँचाया था। उसके लिए उन्होंने जेब से केवल चैदह हज़ार और सात सौ निकाले थे, लेकिन तैंतीस साल बाद जब वह बिकी तो उनकी जेब के लिए तेइस लाख पैदा कर गई . . . ख़ैर, इस समय तो हम तेजपाल भंडारी की बात कर रहे हैं, जो पुरानी ड्योढ़ी की छत के एकल कमरे में रहते थे। 

उस दिन इतवार था। 

इतवार की दोपहर वे अक़्सर लारेंस गार्डन में बिताया करते। हाॅकी देखने का उन्हें बहुत शौक़ रहा और उन दिनों वहाँ जमकर हाॅकी खेली जाती थी . . . 

उस इतवार को एक खिलाड़ी ज़्यादा चोट खा गया और खेल एक घंटा पहले बंद कर दिया गया। 

अनमने से जब वे घर पहुँचे तो घर का दरवाज़ा खुला था और लड़का अपने साथियों के साथ पतंग उड़ा रहा था . . . 

सभी उनके पटरे पर खड़े थे। 

”तुम्हारी माँ कहाँ है?” लड़के और उसके हूश साथियों से वे सीधा मुक़ाबला न किया करते। 

”कपड़े धो रही है,” लड़का जानता था, जिस पटरे पर वह अपनी धमा-चैकड़ी जमाए था, वह पटरा तेजपाल भंडारी अपनी जेब से लाए थे और उस पर कूद-फाँद उन्हें सख़्त नापसन्द थी, लेकिन उन दिनों लड़का उन्हें मात देने में स्वाद लेने लगा था . . . उनके एकतंत्रीय संचालन से निकल कर स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हो रहा था। वे हवा के रुख़ में चलते तो लड़का हवा के ख़िलाफ़ चलने लगता और विपर्यय से यदि वे हवा के ख़िलाफ़ चलने लगते तो लड़का हवा के संग हो लेता। 

”तूने उन्हें रोका नहीं?” लड़के की माँ पाखाने वाली फांट पर बनी छत-कैंची के नीचे स्थित हैंड-पम्प पर कपड़े धो रही थी। इधर-उधर बिखरी हुई तमाम ईंटों में से कुछ कामचलाऊ ईंटों को एक-दूसरे पर टिका कर तेजपाल भंडारी ने कैंची की छत को दीवारें दे रखी थीं और मुफ़्त का अपना ग़ुसलख़ाना निकाल लिया था। ”रोका नहीं उन्हें? कितनी बार-कहा है तुझे? उन्हें  सीढ़ियों से नीचे लौटा दिया कर, बोला कर इधर ख़तरा है, छत कमज़ोर है, मुँडेर कमज़ोर है, पटरा कमज़ोर है . . . ”

”आप बेवजह डरते रहते हैं,” लड़के की देखा-देखी, उन दिनों, लड़के की माँ भी शेर हो रही थी, ”शुक्र नहीं मानते उसके संग खेलने को उसके पास उसके साथी उसके घर पर आते हैं . . .।”

”बक मत,” वे अड़ गए, ”जा। जाकर बोल उन्हें। नीचे आँगन में पतंग उड़ाएँ, यहाँ नहीं . . . ”

”आप लोग नीचे जाओ,” गिनती के दो डग भर कर दुष्टा चिल्लाई, ”नीचे . . . ”

”सवार पतंग को कैसे नीचे उतारेंगे, चाची जी?” झुंड में से कोई एक बोला, ”अभी पेंच लगा जा रहा है . . . ”

छतीसी पत्थर की मूरत बनकर वहीं खड़ी हो गई। 

पतंगबाज़ी की पुलकी से तेजपाल भंडारी निपट अजान रहे थे। अभी वे बच्चे ही थे, जब उनके पिता ने अपना साया उनके सिर से उठा लिया था। दूसरा ब्याह रचाकर। फलस्चरूप उनका पूरा बचपन अपनी माँ और दोनों बहनों का हाथ बँटाने में बीता था। माँ उड़द की दाल की बड़ी और पापड़ तैयार करती और बहने पुराने काग़ज़ के टुकड़ों के लिफ़ाफ़े। हट्टी-हट्टी जाकर कभी वे लिफ़ाफ़े बेचते तो कभी बड़ी और पापड़ . . . ”यहाँ पत्थर की मूरत बनकर खड़ी हो गई।” उनसे बरदाश्त होते न बना और वे छतीसी पर झपट लिए, ”आगे बढ़कर उन्हें रोकती क्यों नहीं? नीचे भेजती क्यों नहीं?”

”चलो बच्चो,” छतीसी तीन डग भर कर फिर खड़ी हो ली। तीन-चार चपतें खाना उसके लिए मामूली ख़ुराक रही, “आज जाने दो। फिर कभी आना . . . ”

“लीजिए चाची जी?” लड़के को छोड़कर झुंड चिरौरी करने लगा? ”हमारी पतंग तो अब पेंच में बँध गई है। अब हमें कुछ न कहिए। बस, उस पतंग को काट लेने दीजिए . . . ”

छतीसी तुरन्त पाँच लौट आई, ”अब रहने भी दीजिए। पटरा आप का बहुत मज़बूत है, टूटेगा नहीं . . . ”

”बकती है!” उनका हाथ फिर उठ गया, ”फिर बकती है! जा, जाकर उन्हें नीचे भेजकर आ . . . ”

”पटरे से हट जाओ, भाई,” तभी लड़के ने अपनी आवाज़ बुलन्द की और पटरा छोड़कर छत के ख़ाली खुले सहन में आन खड़ा हुआ। 

तेजपाल भंडारी के दिल की धड़कन रुक गई। 

नीचे के कई कमरों के विशीर्ण होने के कारण छत का सहन जगह-जगह से दरका हुआ था। लाला टेकचंद ने सन् सैंतालीस में पैंतीस कमरों वाली यह ड्योड़ी जब इसके पुराने मालिक से ख़रीदी थी तो इसके केवल ग्यारह कमरे ही ढिलाई की अवस्था में रहे थे, मगर अड़सठ के उन दिनों तक आते-आते उसमें गिनती के नौ कमरे ही सलामत बच पाए थे। आठ नीचे और एक ऊपर। 

”जा,” तेजपाल भंडारी ने लड़के की माँ को सहन की दिशा में ढकेला, ”मूर्ख को इधर बुला ला। बोल उसे, मौत को यों आवाज़ न दे, होश में रहे . . . ”

“आओ,” लड़का दोबारा चिल्लाया, ”इधर सहन पर आ जाओ। पटरा ख़ाली कर दो . . . ”

“डोर साधने की तैयारी करो,” उनकी बेचैनी से बेख़बर पतंग वाले हाथ ने पतंग और ऊँची उछाल दी, ”पेंच अच्छा बँधा है। उन गधों की पतंग सीधी इधर आ रही है।”

”सचमुच क्या?” झुंड का झुंड पटरे पर उछलने लगा। एकाएक उनकी नज़र लड़के की ओर चली गई और वहीं जा जीम। लड़का झुंड के क्रीड़ा-कौतुक से एकदम बाहर आ चुका था। उसने हाथ में एक साबुत ईंट पकड़ रखी थी और वह निशाना बाँध रहा था उन पर। 

मूर्ख को उन्होंने अपने मुँह का निवाला खिलाया था, चिट्टी सफ़ेद कमीज़ें पहनाई थीं, मोटे सूत की निक्करें लेकर दी थीं, हाथ में उसके आज रबड़ की गेंद रखी थी तो अगले दिन लकड़ी का तोता। 

लपक कर वे एक तरफ़ हो लिए। 

लड़के का निशाना चूक गया और उनके सामने चट्टान की तरह खड़ी उस ढीठ के सिर पर जा लगा। तत्क्षण अभागी के सिर से लहू फूट निकला और वह ज़मीन पर ढेर हो गई। 
झुंड में से किसने लड़के की कौन-सी हरकत देखी और कौन-सी नहीं, तेजपाल भंडारी कभी जान न पाए। हाँ, इतना ध्यान उन्हें ज़रूर है, सीढ़ियों से जब वे नीचे की ओर सरपट भाग रहे थे तो झुंड में से कोई एक बोला था, ”चाची जी मर रही हैं . . . चाचा जी शायद डाॅक्टर लिवाने जा रहे हैं . . . ”

अभागी की मृत्यु अस्पताल में हुई। घटना के चार घंटे बाद। 

लड़का बहुत रोया। बिलख-बिलख कर रोया। मगर तेजपाल भंडारी अपने कोने में बराबर बने रहे। आगे बढ़कर उन्होंने उसे अपने गले न लगाया। न ही उसे शांत करने के लिए अपने मुँह से ही कुछ उचरा। लड़के से वे डर गए थे। बुरी तरह डर गये थे। 

दाह-संस्कार ख़त्म होते ही लड़के को उन्होंने उसकी नानी के सुपुर्द कर दिया, ”मातृतंत्र में लड़के ने तेरह साल बिताए हैं। मातृप्रेम का भरपूर लाभ तथा स्वाद उठाया है। मातृवत् देख-रेख देने में मुझसे ज़्यादा आप समर्थ रहेंगी। अलबत्ता इसकी पढ़ाई का पूरा ख़र्च मैं उठाऊँगा। इसकी ज़रूरत का बाक़ी सारा सामान भी मैं खरीदूँगा। बस, मातृसुलभ अपनी छाया में आप इसे शरण दे दीजिए . . . ”

लड़के के साथ अकेले में उनकी मुठभेड़ फिर कभी न हुई। उसके बाद वह जब भी उनसे मिला, अपनी आँख नीची करके ही मिला। 

दूसरी पत्नी के साथ अपना दाम्पत्य उन्होंने कस्बापुर में न बिताया। 

अपने दूसरे विवाह से पहले ही उन्होंने मिनर्वा हाई स्कूल की नौकरी छोड़ दी। लखनऊ के एक भौगोलिक संस्थान में क्लर्की शुरू कर ली। 

लखनऊ कभी नहीं आते आप? 

क्यों? क्या आप निकल रहे हैं? 

अभी निकलेंगे क्या? 

बिल्कुल अभी? 

क्या? 

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