जुगाली

15-10-2024

जुगाली

दीपक शर्मा (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

“वनमाला के दाह-कर्म पर हमारा बहुत पैसा लग गया, मैडम,” अगले दिन जगपाल फिर मेरे दफ़्तर आया, “उसकी तनख़्वाह का बकाया आज दिलवा दीजिए।” 

वनमाला मेरे पति वाले सरकारी कॉलेज में लैब असिस्टेंट रही थी तथा कॉलेज में अपनी ड्यूटी शुरू करने से पहले मेरे स्कूल में प्रातःकालीन लगे ड्राइंग के अपने चार पीरियड नियमित रूप से लेती थी। सरकारी नौकरी की सेवा-शर्तें कड़ी होने के कारण वनमाला की तनख़्वाह हम स्कूल के बैंक अकाउंट में प्रस्तुत न करते थे, लेखापाल के रजिस्टर में स्कूल के विविध व्यय के अन्तर्गत जारी करते थे। 

“वेदकांत जी इस समय कहाँ होंगे?” 

लेखापाल होने के साथ-साथ वेदकांत स्कूल के वरिष्ठ अध्यापक भी हैं। 

“वेदकांत जी?” पास बैठी आशा रानी को स्कूल के सभी अध्यापकों व अध्यापिकाओं की समय सारिणी कंठस्थ है, “वेदकांत जी इस समय छठी कक्षा में अंग्रेज़ी पढ़ा रहे हैं।” 

“उन्हें वनमाला की तनख़्वाह का बकाया जोड़ने के लिए बोल आइए,” आशा रानी को अपने दफ़्तर से भगाने का मुझे अच्छा बहाना मिल गया। 

“यह वनमाला की आलमारी की चाभी है मैडम,” जगपाल ने आशा रानी के जाते ही अपनी जेब से एक गुच्छा निकाला, “वनमाला की चैकबुक घर में ढूँढ़े नहीं मिल रही है। आपकी मंज़ूरी हो, तो ज़रा उसकी आलमारी खोल देखूँ।” 

अपने दफ़्तर के साथ सटे एक लंबूतरे कमरे में मैंने अपने स्‍टाफ के लिए कुछ कुर्सियों व आलमारियों का आयोजन कर रखा है। सामान्यतः एक आलमारी तीन-चार अध्यापकों अथवा अध्यापिकाओं के लिए बँटी रहती है, पर चूँकि वनमाला के पास स्कूल-भर के मैप्स, चार्ट्स, डायग्रैम्स बनाने का ज़िम्मा रहा, इसलिए एक पृथक आलमारी की उसकी माँग मैंने सहर्ष मान रखी थी। 

आलमारी की चाभी वनमाला अपने पास ही रखती रही थी और उसकी व्यवस्था से मुझे कोई आपत्ति अथवा असुविधा नहीं रही थी। 

“आओ देखते हैं,” मैं जगपाल के साथ हो ली, “बैंक में कितनी रक़म है?” 

“हमें मालूम नहीं मैडम,” जगपाल ने कहा, “वनमाला में दुराव-छिपाव बहुत रहा। हमें सही तस्वीर वह कभी दिखलाती ही न थी। एक दिन कहती, सारे पैसे ख़र्च हो गए हैं और फिर अगले ही दिन बाज़ार से अपने लिए कोई क़ीमती चीज़ उठा लाती . . .” 

“अजीब बात है!” मैं हैरान हुई, “मैं तो अपने प्रोफ़ेसर साहब से पूछे बिना एक पाई भी नहीं ख़र्च करती।” 

“आपकी बात और है मैडम। मगर वनमाला के मन में अपनी कमाई को लेकर तगड़ा घमंड रहा, अपने रुपए-पैसे पर किसी दूसरे का क़ब्ज़ा या दख़ल इससे बरदाश्त न होता,” जगपाल ने वनमाला की आलमारी मेरे सामने खोली। 

“यह सब तो स्कूल का सामान है,” मुझे बैंक की चेक-बुक कहीं दिखाई न दी। 

वनमाला की आलमारी ज़्यादा बड़ी न थी। उसमें केवल दो खाने थे। ऊपर वाले खाने में क्रेयॉन चाक, रंगदार पेंसिलें, ज्यामितिक यंत्र व काग़ज़ रहे तथा निचले खाने में ड्राइंग की कुछ पुस्तकों के साथ बच्चों की ढेरों कॉपियाँ। 

“एक मिनट,” जगपाल ने लपककर आलमारी की सभी चीज़ें छानी और बैंक की चेक-बुक ढूँढ़ निकाली। 

“मैं आलमारी ख़ुद बंद कर लूँगी,” मैंने जगपाल को जाने का संकेत दिया, “तुम वेदकांत जी से वनमाला का बकाया बनवाओ।” 

जगपाल के ओझल हो जाने के बाद भी मैंने वनमाला की आलमारी बंद न की। 

आलमारी में रखी कॉपियों के अम्बार को उलटते-पलटते समय, अनजाने में, जगपाल ने मेरे दृष्टि-क्षेत्र के आगे कुछ ऐसी आकृतियाँ उद्घाटित की थीं, जिनका अविलंब निरीक्षण मुझे अनिवार्य लगा। 

कुर्सी खींच कर मैं आलमारी के साथ चिपक ली। 

वनमाला के हाथ की दक्षता से अपरिचित तो मैं कभी न थी, किन्तु उसकी अंतर्दृष्टि व हस्त-लाघव की गहरी पहुँच मुझ पर उस दिन पहली बार प्रकट हुई। 

एक ओर जहाँ अपने फूल-पत्तों को, पेड़-पौधों को, पशु-पक्षियों को, मार्ग-भवनों को, स्त्री-पुरुषों को व बच्चे-बूढ़ों को अनिंद्य समरूपता व सजीवता प्रदान की थी, वहीं दूसरी ओर उसने अपने कई परिचितों के अस्वीकार्य व अपरिवर्तनीय दोषों के साथ विषम प्रयोग व आक्रामक खिलवाड़ किए थे। 

प्रतिशोध भावना के अधीन उसके बने विभिन्न व विरूपित कई चेहरों का कूट खोलना मेरे लिए सुगम रहा, कठिन रहा उन देह मुक्त रेखाचित्रों को निगलना जिनमें उसने मुझे और मेरे पति को अपने उपहास का केंद्र बनाया था। 

मेरे चित्रों में वनमाला ने ऊपर निकले हुए मेरे चार साल पहले वाले दाँतों तथा नानाविध चश्मों पर बल दिया था तो मेरे पति के चित्रों में उसने उनकी नेकटाइयों की परतों तथा चेहतों की तहों का आरेखन सुस्पष्ट रखने के साथ-साथ उनके सिर के बाल व नाक-नक्श नदारद कर दिए थे। 

ग्यारह वर्ष पहले इस शहर में हुए अपने स्थानांतरण से भी दो-तीन वर्ष पहले मेरे पति कालपूर्व मिले अपने गंजेपन को गुप्त रखने के लिए प्रामाणिक बालों की टोपी बनवा चुके थे तथा मुझे छोड़कर इस पूरे शहर में किसी को भी उसकी जानकारी न रही थी। 

उन चित्रों में वनमाला ने यदि वे नेकटाइयाँ नहीं रखी होतीं तो मैं भी उन्हें अपने पति के बजाए किसी अन्य के ही चित्र मानती। 

नेकटाई का मेरे पति को सनक की सीमा तक शौक़ है। नेकटाई को वे एक कॉलेज प्रवक्ता के परिधान का अभिन्न अंग मानते हैं। सख़्त गर्मी के दिनों में जब उनके प्रिंसिपल तक बुशर्ट पहना करते हैं, मेरे पति पूरी बाँहों की क़मीज़ के साथ नेकटाई लगा कर ही अपने कॉलेज जाते हैं। मैं हँसती हूँ, तो कहते हैं, “नेकटाई से विद्यार्थियों पर असर ही दूसरा पड़ता है—उन पर हावी रहने के लिए तथा उन्हें उचित दूरी पर रखने के लिए इस छोटे शहर में नेकटाई और भी अधिक अच्छा काम देती है . . .” 

यह संयोग ही था जो उस समय मेरे सभी अध्यापक व अध्यापिकाएँ अपने-अपने काम में रहे और वनमाला के उद्वेजक रेखाचित्र उनकी बारीक़ी बीनी से बच गए। 

सिर झुका कर मैंने भगवान का आभार माना और फ़ुर्ती के साथ उन्हें आलमारी में पुनः बंद कर दिया। 

वनमाला के मामले में मुझ पर भगवान की अनुकंपा शुरू से रही। पाँच वर्ष पहले, अपने पिता के देहांत के बाद वनमाला जब मेरे घर पर आश्रय लेने आयी थी तो, संयोगवश, उस समय मेरे पति अनुपस्थित थे। 

“वनमाला को मैं पढ़ा चुका हूँ,” उन दिनों मेरे पति बार-बार वनमाला की प्रशंसा के पुल बाँधा करते, “मैं जानता हूँ उसकी बुद्धि कुशाग्र है। उसका पिता तो उसे दूर तक पढ़ाने की आकांक्षा भी रखता था। बेचारा ग़रीब था, अनपढ़ रंगसाज था, मगर अपनी बेटी की असामान्य प्रतिभा की उसे ख़ूब ख़बर व समझ थी। आज अगर कहीं वह ज़िंदा होता . . .” 

“तो वनमाला ज़रूर कहीं कलक्टर बन रही होती,” ठी-ठी-ठी, अपनी हँसी छोड़कर हर बार मैं पति की बात हवा में फेंक देती। 

“मुझे अपने घर पर नौकरानी रख लीजिए, मैडम,” वनमाला मेरे घर पर गिड़गिड़ायी थी, “मेरी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए मेरे रिश्तेदार मुझे एक कारख़ाने के फ़िटर से ब्याह रहे हैं। मेरे पिता ने तो मेरे एकांत की ख़ातिर अपनी दूसरी शादी नहीं की, मैं एक साथ इतने सारे लोगों की कुमारवा और काँय-काँय कैसे सहूँगी? . . . बस डेढ़ एक साल की बात है मैडम। इधर मेरी बी.एससी. ख़त्म होगी तो उधर मैं अपने रहने का दूसरा आयोजन कर लूँगी . . .” 

“विवाह भी तो एक आयोजन है,” उन्नीस वर्षीया, आकर्षक वनमाला की मेरे घर में दख़लदारी मेरे सदाबहार व दिल-फेंक पति की वजह से मेरी वैवाहिक प्रतिष्ठा को संकट में डाल सकती थी तथा मैंने अपनी पूर्व दृष्टि व अंतःप्रज्ञा को अपने उदात्त व सौहार्दपूर्ण स्वभाव पर अभिभावी हो लेने दिया, “आयोजन में आदर्श नहीं ढूँढ़े जाते। तुम्हारे रिश्तेदार वास्तव में तुम्हारी भलाई चाहते हैं। उन्होंने तुमसे ज़्यादा ज़िन्दगी काटी है। वे जानते हैं अंततोगत्वा एक अनाथ लड़की को संपूर्ण सुरक्षा केवल विवाह की छतगीरी ही दे सकती है . . . और फिर तुम घबराओ नहीं, विवाह का पसार ज़िन्दगी से बड़ा नहीं होता . . . तुम अपनी ज़िन्दगी अपनी मूठ में रखना . . . इस पर किसी का दावा या क़र्ज़ा स्वीकार न करना।” 

“वनमाला की पंद्रह दिनों की तनख़्वाह बनाई है। सोलह को इतवार था और इतवार वाले दिन ही तो वह बेचारी मरी थी,” वेदकांत ने अपना रजिस्टर मेरे दफ़्तर की मेज़ पर मेरे सम्मुख टिका दिया। 

“ठीक है,” मैंने रजिस्टर पर अपनी स्वीकृति दर्ज की, “आप यह रक़म जगपाल को यहीं ला दीजिए।” 

“वनमाला की आलमारी से एक चिट्ठी मिली है।” वेदकांत पीछे-पीछे चला आया, जगपाल मेरे दफ़्तर के एक कोने में रखे स्टूल पर बैठ लिया था। 

जगपाल का पक्ष जानने की मेरे अंदर तीव्र जिज्ञासा थी। 

“कैसी चिट्ठी?” जगपाल के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। 

“वनमाला ने लिखा है तुम उसे मार डालना चाहते हो।” 

“इधर जब से कारख़ाने में छँटनी हुई मैडम हम बहुत परेशान चल रहे थे। दिन भर घर में बेकार बैठे रहते थे। हो सकता है कभी ग़ुस्से में आकर ऐसा कुछ बोल दिया हो . . .” 

“वनमाला ने यह भी लिखा है कि तुम्हारी माँ उसके बाँझपन के लिए दिन-रात ताने देती नहीं अघातीं,” मैंने दूसरी गप गढ़ी। 

दूसरी गप मेरे निजी अनुभव पर आधारित थी। अपनी इक्कीस वर्षीया शादी के पहले पाँच वर्ष मैंने घोर यातना एवं प्रताड़ना के संग काटे थे। उन प्रारंभिक वर्षों में बाँझपन के परीक्षण एवं उपड़े आ गई।

“वह पागल थी और तुम अहमक़ हो,” मैं आगबबूला हो उठी, “उसकी बेहूदा हरकतों को क्या तुम सिर्फ़ इसलिए बरदाश्त करते रहे क्योंकि उसकी पढ़ाई व कमाई तुमसे ज़्यादा थी? औरत होकर उसने तुमसे अपना हाथ दस बित्ते ऊँचा रखा और तुम मर्द बनकर तुमने उसे रास्ते पर लाने की एक कोशिश न की . . .” 

“कोशिश में ही तो ज़्यादती हो गई, मैडम।” 

“कैसी ज़्यादती?” अपना ग़ुस्सा थूककर मैंने दया-भाव ओढ़ लिया। 

“बात बहुत मामूली रही, मैडम। दोपहर की नींद से इतवार को हम जागे तो हमें पानी पीने की इच्छा हुई। वनमाला उस टेम भी हमेशा की तरह अपने डराइंग बोरड से चिपकी बैठी थी। हमने तीन बार उसे पानी लाने को बोला। मगर वह हिली नहीं। अपने हाथ परकार से बराबर अपने घेरे बनाती रही। गुस्से के घुमेटे में हमने परकार उसके हाथ से छीन ली . . .” 

“और उसकी नोक वनमाला की गर्दन चुभोकर उसके प्राण हर लिए!” एक भयंकर सिहरन मेरी समूची देह में झकझोर गई। 

“नहीं, मैडम, नहीं। उसने अपने प्राण खुद लिए। अपने बक्से से कोई अला-बला चीज खाकर जो उसने कै की तो फिर उस कै के साथ ही चल बसी . . .” 

“तुम उसे अस्पताल ले जाते, घर में डॉक्टर बुला लेते . . .” 

“नहीं, मैडम। वहीं हम चूक गए। उस समय हम बहुत गुस्से में रहे, सो उसकी दिशा में हमने अपनी नजर ही न घुमायी . . .” 

“तुम्हारे घरवालों ने भी उसकी ख़बर न ली? उसकी फ़िक्र न की?” 

“हम सब उससे बहुत चिढ़ते थे, मैडम। हमारी ही छत के नीचे रहती थी और हमीं से अपनी रूह परे रखती थी . . . घर का सेरे काम माँ और बहनें निबटातीं, बाजार से सौदा-सुलफ हम मर्द लाते-फिर भी वह हर वक़्त खिंची-खिंची रहती, न किसी के साथ कभी हँसती-गाती, न तबियत से बैठती-बतियाती। कभी एक बात पर झल्लाती तो कभी दूसरी पर। हर बात की उसे तकलीफ रहती: ‘यह चारपाई बहुत छोटी है यहाँ करवट लेते नहीं बनता’, ‘यह खिड़की गलत जगह पर लगी है, बंद रखो तो दम घुटता है, खुली रखो तो लोग ताक-झाँक करते हैं‘, ‘यह दीवार बहुत पतली है, उस पार सब सुनाई देता है’, ‘यह दरवाज़ा बहुत तंग है . . .’” 

“लो गिन लो,” वेदकांत ने कुछ रुपए जगपाल की ओर बढ़ाए। 

“वेदकांत जी,” अपने स्वर में मैंने अपनी सत्ता उँडेल दी, “बुखार की वजह से यहाँ बैठ नहीं पा रही। मैं घर जाऊँगी।” 

“जी हाँ,” स्कूल के सभी अध्यापकों की भाँति वेदकांत भी मुझसे अभित्रस्त रहते, “आप बेफ़िक्र होकर जाइए। छुट्टी होने पर मैं सभी क्लास रूम्ज़ में ताले भी अपनी निगरानी में लगवा दूँगा। चाभियाँ भी ख़ुद देने चला आऊँगा।” 

“धन्यवाद,” मैंने कहा और अपने दफ़्तर से बाहर निकल ली। 

“जो कुछ आपसे कहा, मैडम,” जगपाल मेरे पीछे दौड़ा आया, “उसे अपने तक ही रखियेगा। अपने प्रोफेसर साहब से कुछ मत कहिएगा। वह वनमाला की बुराई बरदाश्त न कर पाएँगे।” 

“क्यों?” मेरी साँसें फिर अनियमित हो चली। 

“वनमाला की जगह पर कॉलेज में हम अपनी नौकरी पक्की करवा रहे हैं, मैडम। आपके प्रोफ़ेसर साहब वहाँ डिपार्टमेंट के हैड हैं। वनमाला की खातिर हमारा लिहाज रखेंगे।” 

“वनमाला की ख़ातिर?” 

“हम पूरी बात तो नहीं जानते, मैडम,” जगपाल ने दाँत निकाले, “मगर कॉलेज के लोग बताते हैं कि प्रोफेसर साहब वनमाला को बहुत पूछते थे . . .” 

“हम लोग बड़े शहर के हैं,” मर्यादा बनाए रखना मुझे बहुत ज़रूरी लगता है, “लड़के-लड़की में भेद नहीं मानते तुम क्या नहीं जानते उम्र में प्रोफ़ेसर साहब वनमाला के पिता से भी बड़े हैं?” 

“हाँ, मैडम,” जगपाल ने अभिवादन में अपने हाथ जोड़े, “आप दोनों ही हमारे माई-बाप हैं। आप हमारा ख्याल रखियेगा।” 

“ठीक है,” मैं अकस्मात्‌ ही मुस्कुरा दी, “प्रोफ़ेसर साहब को कुछ नहीं बताऊँगी। वैसे भी वनमाला की कहानी वनमाला के साथ ख़त्म हो गई है।” 

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