बालिश्तिया

15-07-2024

बालिश्तिया

दीपक शर्मा (अंक: 257, जुलाई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

सद्गुण प्रसाद का जाना तय हो चुका था। उसे रोडज़ छात्रवृत्ति मिल गयी थी। ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी की ओर से उसकी टिकट भी ख़रीदी जा चुकी थी। पासपोर्ट वीसा सब तैयार था। दो दिन बाद उसे देहली से हवाई जहाज़ पकड़ना था।

और उस दिन नवमी तथा दसवीं जमात की लड़कियाँ उसे विदाई-पार्टी दे रही थीं—फ़ेयरवेल। 

पार्टी में हमारी माँ को नहीं बुलाया गया था क्योंकि वह प्राइमरी सेक्शन में तीसरी जमात की टीचर थीं, माँ की सीनियर स्कूल वाली ख़ास दोस्त मिसिज़ ग्रिफ़िन्ज़ को नहीं बुलाया गया था क्योंकि वह भूगोल लेती थीं, सद्गुण प्रसाद की एकमात्र परिचिता मिस ऐन. दास को नहीं बुलाया गया था क्योंकि वह हिन्दी पढ़ाती थी, कैमिस्ट्री विभाग की मिसिज़ सिन्हा को नहीं आना था क्योंकि उनके घर पर उनके बेटे का जन्मदिन था, नवमी जमात की क्लास टीचर मिसिज़ लाल को नहीं आना था क्योंकि वह अचानक बीमार पड़ गयी थीं और अब अपने विज्ञान विभाग की बाक़ी टीचर्स, प्रिंसिपल तथा वाइस प्रिंसिपल, जो दसवीं जमात की क्लास टीचर भी थी के साथ मुझे उस फ़ेयरवेल पार्टी में शरीक होना नसीब हो गया था, कैमिस्ट्री की टीचर होने के नाते। जो सद्गुण प्रसाद का भी विषय रहा था। छुट्टी होते ही रोज़ की तरह माँ कीर्ति और सुखदा के साथ चार बाग़ वाले बस स्टैण्ड की ओर बढ़ गयी थीं। पारुल और मैं पार्टी के बाद घर जाएँगी, यह पिछले दिन से ही तय हो चुका था। 

“मिस महेन्द्रू, प्लीज़ हमारे साथ हॉल में आइए,” लड़कियों के आग्रह को टालना मुश्किल था। सभी द्रवित लग रही थीं। पारुल बताती रही थी सद्गुण प्रसाद सभी लड़कियों को बहुत पसंद था और उसकी इस फ़ेयरवेल के लिए सभी ने दिल खोल कर चंदा दिया था। 

पारुल और उन लड़कियों के साथ गुब्बारे फुलाती, बंटिंग़ज़ जोड़ती मैं भी तो सामान्य नहीं रह पा रही थी। गले के अंदर ढेर से शब्द अटके, दबे पड़े थे। दिल में सागर सा कोलाहल अलग उमड़ पड़ने को बेचैन हो रहा था . . .

कि इतने में सद्गुण प्रसाद हॉल के अंदर आन दाख़िल हुआ। 

“नहीं, सर, अभी नहीं,” कुछ लड़कियाँ चीखी, “अभी हमारी तैयारी अधूरी है।” 

“नहीं, मुझे कैमिस्ट्री वाली मिसिज़ सिन्हा से मिलना था,” सद्गुण प्रसाद मुस्कुराया। 

“वह तो आज नहीं आएँगी,” मैं साँस रोक कर बोली। 

“प्रिंसिपल साहिबा का आदेश था लैबोरेटेरी का चार्ज आपको या मिसिज़ सिन्हा को आज ही देना बेहतर रहेगा . . .” 

गोंददानी मेज़ पर रखकर मैं सद्गुण प्रसाद के साथ हो ली। 

कैमिस्ट्री विभाग की प्रयोगशाला ख़ाली थी। “बिन्दादीन नहीं है क्या?” मैंने पूछा। वह वहाँ लैब असिस्टैंट था। “दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा मेरे सामने है,” सद्गुण प्रसाद की आवाज़ में गुदगुदाने जैसा कोई भाव था। 

“क्या?” मैं अपनी ज़ुबान और दिल-ओ-दिमाग़ पर अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहती थी। 

“तुम्हें अकेले पाना मेरी ज़िन्दगी की सब से बड़ी तमन्ना थी,” उसका स्वर काँप रहा था। 

“मेरी भी,” मैंने कहना चाहा पर मैंने कहा नहीं। कैसे बताती उसे छह बहनों में तीसरे नम्बर पर रही होने के कारण मैं कभी सड़क पर, कभी स्कूल में, कभी कॉलेज में, कभी सिनेमाघर में, कभी लाइब्रेरी में और कभी घर पर भी कहीं भी नितांत अकेली नहीं हो पाई हूँ, जो कभी मैं उसे कोई पत्र ही लिख पाती या उससे उसका मोबाइल नम्बर ले कर कभी उसे कोई एस.एम.एस. भेजती और फिर डिलीट कर देती। 

“तुम कल चले जाओगे,” मेरी आवाज़ की सपाटता उसे धरातल पर लौटा लाना चाहती थी। 

“बालिश्त-भर अपनी इच्छा पूरी किए बिना . . .” 

“कैसी इच्छा?” 

“तुम्हें अपना एकांत देने की इच्छा . . .” 

“मतलब?” मैं अजान बन गयी। कैसे जान लिया था उसने पल-पल दूसरों की साँसों में साँस लेना, क़दम क़दम पर दूसरों के पैरों से बचना बचाना, जगह-जगह पर झुरमुटों में चलना-फिरना मेरे लिए कितना असहनीय था। बचपन में स्कूल टीचर माँ और बड़ी दो-दो बहनों की टोली में शामिल होना जितना स्वाभाविक लगता था उतना कॉलेज लेक्चरर पापा और उन्हीं दो बहनों की टोली में कॉलेज जाना अखरता था। और फिर बी.एससी. का मेरा परिणाम निकलते ही नौकरी भी मिली तो माँ ही के स्कूल में, जब छोटी तीन बहनें फिर साथ हो लीं . . .

“मतलब यह कि स्कूल की लड़कियों की भीड़, बाज़ार की भीड़, तुम्हारी माँ-बहनों की भीड़, स्‍टाफ रूम की भीड़, एक भीड़ के बाद दूसरी भीड़ में तुम्हें खोजना और फिर खो देना, यही कुछ तो पिछले छह महीनों से हो रहा है . . .” 

“चाबियाँ कहाँ हैं?” मैं कैमिस्ट्री की कबर्ड की ओर बढ़ चली। नियंत्रण नहीं खोना था मुझे। सद्गुण प्रसाद ने अपने बाएँ हाथ से अपनी पैंट की बायीं जेब से चाबियों का एक गुच्छा निकाला और ताले पर उसे बजाने लगा। 

“ताला मैं खोलती हूँ,” मैं उस के पास लपक ली। 

वैसे भी ताला वह कभी नहीं खोलता था और न ही कोई उसे खोलने देता था। उसकी दाईं बाँह असल में प्रयोग कम ही आ पाती। शायद वह कुहनी पर आकर ही ख़त्म हो जाती थी, जभी उसकी पूरी बाँहों की क़मीज़ उसकी दाईं कुहनी की ओर से हमेशा एक सेफ़्टी पिन के सहारे ऊपर टँगी रहती थी और अपनी उस विकलांग बाँह को छिपाने की ख़ातिर ही वह सख़्त गर्मियों में भी बुश्शर्ट नहीं पहन पाता था। 

“पारुल बता रही थी कि मैट्रिक की सभी लड़कियाँ आज सुबह से बार-बार रो रही हैं,” जब से मैंने उससे चाबियाँ ली थीं, वह तभी एकदम बुझ गया था। शायद उसने मेरी आँखों को अपनी दाहिनी बाँह के सेफ़्टी पिन पर महसूस कर लिया था और मेरे प्रति उसका सारा उत्साह अपने प्रति दयाभाव में बदल आया था। 

एक-एक करके मैं सभी चाबियाँ उस ताले में लगाती जा रही थी। ताले का नम्बर चाहने पर भी मेरी डबडबाई आँखें पढ़ नहीं पा रही थीं। सुंदर सजल आँखें और एक कातर मुस्कान लिए सद्गुण प्रसाद मेरे सामने, बिल्कुल सामने खड़ा था! 

ईश्वर का यह कैसा मज़ाक़ था जो उसे रूप और बुद्धि की अपार सम्पदा तो दे दी मगर उसे आपादमस्तक एक सम्पूर्ण इकाई की समग्रता से वंचित कर दिया! 

“टीचर्स भी कह रही हैं तुम्हारे चले जाने से स्कूल एक हीरा गँवा देगा,” मैंने जोड़ा! 

“और तुम? तुम्हें कुछ नहीं कहना? कुछ नहीं सुनना?” वह अधीर हो उठा। 

“मैंने ताला खोलना है और यह खुलना नहीं चाह रहा . . .” अपने कथन में मैंने गहरे अर्थ भर दिए।

“ताला तो मैं खोल ही दूँ मगर क्या करूँ कमबख़्त मेरी यह दूसरी बाँह सम्पन्न नहीं . . . बालिश्तिया भी है . . . और अशक्त भी . . .” 

“बालिश्तिया?” मैं हैरान हुई।

“ढाई साल की उम्र में मुझे जो पोलियो हुआ सो यह मेरे शरीर के साथ बढ़ नहीं पायी और इसीलिए मैं इसे छिपाए रखता हूँ . . .” 

“क्या मैं इसे देख सकती हूँ?” एक बिजली मेरे शरीर को झकझोर गयी। 

“देखना चाहो तो ज़रूर देख सकती हो,” उसकी आँखें मुझ पर जम गयीं। 

दूसरे पल सेफ़्टी पिन मेरे हाथों में था और उसकी क़मीज़ की बाँह नीचे झूल आयी थी। उसको हल्के से समेटते हुए मैंने उस के ख़ाली कफ़ को चूम लिया। 

“लो देखो,” उसने मेरा गाल हल्के से थपथपाया और अपनी क़मीज़ की बाँह ऊपर उठा दी। जैसे ही उसकी नंगी बाँह मेरे सामने प्रकट हुई, एक अजीब सा आतंक मेरी नसों में समा गया और मुझे लगा मैं ठीक से खड़ी नहीं हो पा रही हूँ। 

मैंने अपना चेहरा उसके बाएँ कंधे पर पर टिका दिया। 

“मैं जानता हूँ मेरे सिवा इस के साथ कोई और नहीं रह सकता . . .”

“नहीं, ऐसा क़तई नहीं है,” नन्ही-नन्ही उँगलियाँ लिए उसका नन्हा सा हाथ मैंने अपने दोनों हाथों से ढाँप लिया। 

“तुम्हारी उपस्थिति मुझे अपने विकलांग होने का अहसास हर बार और मज़बूत करा जाती है,” उसने मेरे हाथों पर अपना बायाँ हाथ आन धरा। 

“सर, एक्सक्यूज़ अस” तभी पारुल की आवाज़ कैमिस्ट्री की उस लैब में तैर आयी। 

अपनी चर क्लास मेट्स के साथ वह हमारी ओर देख रही थी। सद्गुण प्रसाद ने अपनी क़मीज़ तत्काल नीचे कर ली और मैं कबर्ड की तरफ़ मुँह कर अपनी गीली आँखें सुखाने लगी। 

“क्या तुम लड़कियाँ मुझ पर एक अहसान कर पाओगी?” सद्गुण प्रसाद उनकी ओर मुड़ लिया। 

“कुछ भी सर। कुछ भी कहिए, सर। आपके लिए हम कुछ भी कर सकती हैं,” नवमी क्लास की रीटा सक्सेना ने कहा। 

“यह बात अपने तक रखना, कल मैं जा रहा हूँ और मैं नहीं चाहता मेरे पीछे प्रिंसिपल साहिबा आप की इन मिस महेन्द्रू को फिर स्कूल में न रहने दें . . .”

“नहीं सर, इतमीनान रखिए। हम कभी भी मिस महेन्द्रू को एम्बैरेस नहीं होने देंगी,” पारुल को छोड़कर वे चारों क्लास मेट्स चिल्लायीं।

“हम यहाँ से बड़ी मेज़ लेने आयीं थीं,” पारुल ने मुझे घूरा। 

“बिन्दादीन को बुला लाओ। वह किसी चपरासी को साथ लेकर यह मेज़ उधर पहुँचा देगा। तुम लड़कियों से यह नहीं ले जाया जाएगा . . .” सद्गुण प्रसाद प्रकृतिस्थ हो लिया। 

“जी, सर . . .” 

जैसे ही लड़कियाँ गय़ीं, सद्गुण प्रसाद मेरे और पास खिसक आया, “ईश्वर की कृपा रही जो किसी टीचर ने हमें नहीं देखा . . . इस तरह अकेले में, एक दूसरे के संग, अंतरंग उस पल में . . .”

“नहीं तो क्या हो जाता?” मेरे स्वर में ललकार स्पष्ट थी। 

“तुम्हारा यही द्रवित मन कठोर पड़ जाता और यह सुन्दर क्षण एक कुरूप दुर्घटना का रूप धर लेते और इन्हीं क्षणों को लेकर तुम मुझे कितनी बार बुरा-भला कहती . . .” 

“ज़रूर कहती अगर तुम्हारी बातें किसी उड़ती बौछार की बूँदें रही होतीं। मगर नहीं। मुझे उन में सच दिखायी दिया, सच्चा प्यार दिखायी दिया और ‘ऑल यू नीड इज़ लव’,” सन् १९६७ के उस बीटल गीत का शीर्षक मैंने दुहरा दिया जिसे जॉन लेनन तथा पॉल मकार्टनी ने गाया था। 

“हाँ और वह हम दोनों में हमेशा जीवित रहने वाला है . . .” 

“एक्सक्यूज़ अस, सर,” पारुल के साथ वही चारों लड़कियाँ दरवाज़े पर खड़ी थीं। आँखें फाड़े। 

“बताओ,” सद्गुण प्रसाद ने मुझ पर टिकी अपनी निगाहें तत्काल दरवाज़े की ओर मोड़ लीं। 

“बिन्दादीन और सभी चपरासी इस समय अपनी रिसेस पर हैं,” उनमें से सुमन बग्गा ने हमारे लाल पड़ आए चेहरों से नज़रें बचाते हुए कहा, “और हमें बार-बार आना पड़ रहा है क्योंकि सीनियर प्रीफ़ैक्ट का कहना है इस मेज़ के बिना काम नहीं चलेगा . . .” 

“और अगर हम न आतीं तो दूसरी लड़कियाँ आतीं,” नरगिस बोहरा उन सब में सब से ज़्यादा शैतान थी, “और वह शायद मिस महेन्द्रू को हमारी तरह छूट न देतीं . . .” 

“तुम किस छूट की बात कर रही हो, नरगिस बोहरा?” मैं तमकी। 

“सर को हम से चुराने की,” उसने ठीं-ठीं छोड़ी। 

बाक़ी लड़कियों ने उसकी ठीं-ठीं का पीछा किया, पारुल को छोड़कर। 

“तुम क्या कह रही हो, नरगिस बोहरा?” सद्गुण प्रसाद गिलबिलाया। 

“तुम इन्हें कह लेने दो जो इन्हें कहना है,” मैंने नरगिस बोहरा की चुनौती स्वीकारी और एक कुर्सी पर बैठ ली। पिछले पन्द्रह मिनट से मैं कैमिस्ट्री कबर्ड वाले कोने में सद्गुण प्रसाद के साथ जो खड़ी रही थी, घिर आए जिस अंतरंग सानिध्य के संग, वह सब उन पन्द्रह-सोलह साल की लड़कियों के लिए ज़रूर एक सनसनीखेज़ ख़बर थी, जिसे निश्चित ही वह अपने तक सीमित नहीं रखने वाली थीं यह मैं जानती थी परन्तु अब कोई भय अथवा संकोच मुझे छू नहीं पा रहा था। अपने पूरे उन्नीस वर्षों की सभी कुण्ठाओं से, सभी हीन ग्रन्थियों से, सभी सामाजिक परिधियों से उस क्षण मैं मुक्त हो ली थी और अलौकिक एक नई जीवनी-शक्ति मेरी शिराओं में चुनचुनाने लगी थी। 

“कोशिश करके हम यह मेज़ उठा ही ले जाएँगी,” सुमन बग्गा लड़कियों को लेकर मेज़ की ओर बढ़ ली। बेशऊर नहीं थी वह। 

वे लड़कियाँ मेज़ लेकर जैसे ही गयीं, सद्गुण प्रसाद मेरी ओर बढ़ आया, “यह कैसी चुभकी थी?” 

“चुभकी नहीं थी। स्वीकृति थी। घोषणा थी। उस विरले आनन्द की जो इन क्षणों में मैंने पाया था—पाब्लो नारुदा की एक कविता है, सन् १९२४ की ‘टुनाइट आए कैन राइट’ (आज मैं लिख सकता हूँ) . . .” 

“और क्या लिखा फिर?” सब सुनने को तैयार थी मैं।

“उस में एक पंक्ति है ‘लव इज़ सो शॉर्ट, फॉरगेटिंग इज़ सो लाँग’ (प्रेम का काल इतना छोटा है और उसे भुलाने का इतना लम्बा)।” 

“क्या तुम मुझे अपने जीवन से बाहर रखने का इरादा रखते हो?” मैंने दुःसाहस दिखाया। 

“पर क्या तुम पाँच साल बाद या दस साल बाद भी मेरी इस बालिश्तिया बाँह को स्वीकार कर सकोगी?” 

“क्यों नहीं?” कुर्सी से उठकर मैंने उसकी अंगधाती बाँह को अपनी दोनों बाँहों में भर लिया, अगले ही पल उससे अलग हो जाने हेतु। 

“एक्सक्यूज़ अस सर, सर एंड मिस, हमें यहाँ से कुर्सियाँ लेकर जानी हैं,” इस बार दसवीं जमात की लड़कियाँ आ धमकी थीं, पारुल समेत। 

सभी एक अजीब रोमांच से भरी हुई थीं मानो कोई परी-कथा उनके सामने घटने वाली हो। 

“ऑटोग्राफ सर,” सीनियर प्रीफ़ेक्ट नीलम जुनेजा परी-कथा को अंत तक देखने का इरादा लेकर आयी लगती थी। 

“आप फिर कब आएँगे सर?” सोनिया ढिल्लन की आवाज़ में शरारत साफ़ झलक रही थी। 

“मैं अब नहीं जा रहा हूँ,” सद्गुण प्रसाद ने अपनी बायीं बाँह से मेरे कंधे घेर लिए। 

“मिस महेन्द्रू आप को ढेर से बधाई दे दें न!” लीना सैमुअल के विस्फारित नेत्र कुतूहल से भरे थे। 

कुतूहल तो वैसे सभी लड़कियों की आँखों से टपक रहा था . . .

पारुल को छोड़कर . . .

जो जानती थी हमारी माँ या मिसिज़ लाल या मिसिज़ सिन्हा में से एक भी यदि सद्गुण प्रसाद की इस फ़ेयरवेल पार्टी में सम्मिलित होने के लिए रुकी रहती तो इस परी-कथा का घटना असंभव रहता। 

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