घुमड़ी
दीपक शर्मा
आज डॉक्टर बताते हैं पचास के दशक में आएसौनियज़ेड के हुए आविष्कार के साथ तपेदिक का इलाज सम्भव तथा सुगम हो गया है। किन्तु सन् छप्पन की उस जनवरी में जब डॉक्टर ने उनकी पत्नी के रोग का नाम तपेदिक बताया तो वे चकरा गए।
अपने देश के डॉक्टरों के पास वह चमत्कारिक औषधि अभी न पहुँची थी। उनके कस्बापुर के डॉक्टर तक तो कदापि नहीं।
अपने पिता की असामयिक मृत्यु का शोक उन्होंने दोबारा मनाया। यदि उस समय उनके पिता जीवित रहे होते तो तत्काल अपने समधी को बुलाते और उस लमछड़ी को उसके संग विदा कर देते, “अपने बेटे की गृहस्थी अब मैं नए सिरे से जमाऊँगा। बेचारा कहाँ तक इस खाँसी और ज्वर को बरदाश्त करेगा?”
किन्तु पिता के बाद उनके जो दो बड़े भाई रहे वे उनकी माँ और उनकी पैतृक खेती के साथ झूमा-झूमी खेलने में व्यस्त रहा करते थे और उनके क्षोभ के प्रति उन स्वार्थी भाइयों ने उनके संग मौखिक सद्भावना तक न प्रदर्शित की।
हाँ, सूचना मिलते ही उनके बड़े साले ज़रूर उनके पास फ़ौरन पहुँच लिए।
आते ही उनके साले ने दो क़दम उठाए।
पहले क़दम के अन्तर्गत उसने उनका बरगद वाली गली का मकान छुड़वा दिया और उन्हें एक ऊँची हवेली की छत पर लिवा लाया, “इधर बिट्टो को अच्छी धूप और ताज़ी हवा मिलेगी। उधर गली वाले मकान में कितना अँधेरा और कितनी घुटन रही!”
और दूसरे क़दम के फलस्वरूप उनके एकल बेटे को उनका वह साला अपने साथ अपने शहर ले गया, “लड़के के पालन-पोषण की चिन्ता अब आप बिसार दीजिए। केवल बिट्टो को देखिए!”
साले की पीठ लोप होते ही उन्होंने पत्नी को हाथ उठा कर कोसा। एक तो लड़के के बिना घर यों ही वीराना बन गया था तिस पर हवेली की छत की पहुँच-सीढ़ियाँ अलग आफ़त रहीं।
जर्जर अवस्था में उपेक्षित पड़ी वह हवेली एक ज़माने में रजवाड़ा रह चुकी थी और राजोचित उसकी सीढ़ियाँ अगली तरफ़ पड़ती थीं जबकि छत पर पहुँचने के लिए ये सीढ़ियाँ पिछवाड़े रहीं: एकदम सीधी और दुरारोह। छत के ये दो कमरे ज़रूर हवेली के नौकर लोगों के लिए बनवाए गए थे और हवेली के अधम स्वामी ने अपने कारीगर से इनके पहुँच-मार्ग पर तनिक मेहनत न करवायी थी।
गिनती में वे सीढ़ियाँ पैंतालीस रहीं फिर भी उनमें एक विराम भी न था। परिणामस्वरूप जब भी वे उन्हें प्रयोग में लाते एक घुमड़ी उनके साथ हो लेती।
उनके ऊपर चढ़ते समय यदि वह घुमड़ी उन्हें ऐन सामने से पीछे की ओर ठेलती तो उनके नीचे उतरते समय उन्हें ऐन पीछे से आगे की ओर धक्का देने लगती।
ऐसे में सीढ़ियों पर अपना समतोल बनाए रखना उनके लिए टेढ़ी खीर बन जाता।
♦ ♦ ♦
उस दिन लड़के को वे साले के घर से लिवा कर लाए थे।
होली की छुट्टियाँ लड़के के बिना बितानी असम्भव थीं।
रास्ते में वे ख़स्ते की दुकान पर रुक लिए, “तू घर पहुँच, मैं ख़स्ता लेकर पहुँचता हूँ-”
वे जानते रहे लड़के को कस कर भूख लगी थी—वे स्वयं भी भूख से विचलित हो रहे थे।
“लीजिए,” लेकिन जब दुकानदार के बढ़े हुए हाथ के सामने उन्होंने पैसे निकालने के लिए अपनी पतलून की जेब में हाथ डाला तो उनका हाथ छूछा बाहर निकल आया: उनकी पतलून काट ली गयी थी।
उन्हें गहरा धक्का लगा।
ठगे जाना किसे अच्छा लगता है?
“पैसे बाद में दीजिएगा,” ख़स्ते वाला उन्हें जानता था।
“नहीं,” वे बहुत स्वाभिमानी रहे, “पैसे चुकाए बिना दुकान से मैं कोई सौदा न उठाऊँगा।”
तेज़ी से वे घर की ओर लपक लिए।
आदतन उस दिन भी सीढ़ियों की उस घुमड़ी ने उन्हें पैंतालीस बार थर्राया।
घर के दरवाज़े पर वे साँस लेने के लिए कुछ पल के लिए अभी खड़े ही हुए थे कि पत्नी की खाँसी और हँसी उन तक चली आयी।
“गाजर की फाँक ख़त्म हो गयी हो,” लमछड़ी खाँस रही थी और हँस रही थी और खाँस रही थी, “तो गटागट काँजी पी जाओ . . .”
गाजर की काँजी का वह मटका उन्होंने बड़े यत्न से तैयार किया था: अपने लिए, लड़के के लिए।
“गटागट?” लड़का भी हँसने लगा।
लमछड़ी ने घूँट गटकने की आवाज़ निकाली: सड़ाक, सड़ाक।
वे जान गए बन्दरिया उनकी नक़ल उतार रही थी; कुछ पीते समय उनके मुख-विवर से जब भी उनके घूँट उनकी मुख-ग्रसिका में प्रवेश लेते, सवाक स्वर बनाते: सड़ाक, सड़ाक।
कहते हैं, मृतकों की निन्दा करनी अच्छी बात नहीं, किन्तु लमछड़ी थी बहुत दुष्ट। उधर बरगद वाली गली में तो वह बेलिहाज़ी की हदें भी लाँघ जाती: काग़ज़ के एक टुकड़े को इधर फाड़ती और उधर फाड़ती और उसे चश्मे की तरह नाक पर चढ़ा कर हू-ब-हू उनकी आवाज़ में गरजती: “मेरा रुमाल कहाँ है?” और लड़का जब ठठाता तो वह और शेर हो जाती, “इधर पतलून के पास क्यों नहीं रखा? प्रेस के नीचे धरे रखने का मतलब?”
अपनी दुष्टता की उसे फिर सज़ा भी ख़ूब मिली: ज़िन्दगी ने उसे जल्दी ही पटरी से उतार दिया।
“ख़स्ता नहीं लाए?” उन्हें देखते ही लमछड़ी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी—उनके सामने उसे खाँसने की सख़्त मनाही रही। उनका स्थायी आदेश था: खाँसी आए तो मुँह में कपड़ा ठूँस लो। खाँसी बाहर नहीं आनी चाहिए।
“ख़स्ता नहीं लाए?” लड़के ने दोहराया।
“ख़स्ता ख़त्म हो गया है,” एक तो उस निगोड़े जेबकतरे ने ख़स्ते के प्रति उनका सारा उत्साह हर लिया था, तिस पर दोबारा बाज़ार जाने के लिए उस निगोड़ी घुमड़ी से जो दोबारा उलझना पड़ता सो वह अलग। “यह काँजी कैसी है?” उन्होंने लड़के का ध्यान बाँटना चाहा, “और पिओगे?”
“नहीं,” लड़के का चेहरा उतर गया।
“अच्छी नहीं क्या?”
“अच्छी है,” लड़का रोने लगा।
“रोओ नहीं,” वे हँस पड़े, “ख़स्ता शाम को फिर बनेगा। दुकान तो अब तुमने देख ही ली है। मुझसे पैसे ले लेना और लपक कर ले आना . . .”
“अभी चला जाऊँ?” लड़के के आँसू थम गए, “ख़स्ता न सही, कुछ और ले आऊँगा . . .”
“नहीं, अभी नहीं। अभी तो तुम मुझे काँजी पिलाओ और मेरे पास बैठो . . .”
काँजी का गिलास उनके हाथ में थमा कर लड़का फिर रोने लगा, “मुझे भूख लगी है|”
“उधर लड़कियों के बीच रहते हो,” वे फिर हँसे; सन् छप्पन तक उनके बड़े साले के घर पर बेटियाँ ही बेटियाँ रहीं—उसका बेटा सन् इकसठ में छह लड़कियों के बाद पैदा हुआ था, “और लड़कियों की तरह बात-बात पर रोते हो?”
“मैं वहाँ न रहूँगा,” लड़के की रुलाई बढ़ गयी, “मुझे वहाँ अच्छा नहीं लगता।”
“और तुम्हारे बिना मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगता,” उनकी आँखें भी गीली हो लीं, “अब तुम कहीं न जाओगे। यहीं रहोगे . . . मेरे पास।”
“सच?” लड़का रोना भूल गया।
“हाँ, सच, बिल्कुल सच,” उन्होंने एक ही साँस में अपनी काँजी का गिलास ख़त्म कर दिया, “और हम यह मकान भी छोड़ देंगे। ये सीढ़ियाँ ठीक नहीं—एकदम सीधी हैं—खड़ी चट्टान की मानिंद . . .”
“सीढ़ियाँ ठीक हैं, एकदम ठीक हैं . . . और फिर माँ को छत पर रहना ज़रूरी भी है।”
“इन्हें कभी गिना तुमने?” गिनती सीखे हुए लड़के को दो साल हो चले थे।
“नहीं तो! गिन कर आऊँ क्या?” लड़का मचला, “साथ में बाज़ार भी हो आऊँगा। खाने की कोई दूसरी चीज़ ले आऊँगा। मुझे भूख लगी है . . .।”
“नहीं,” तख़्त से वे उठ खड़े हुए, “शाम को जाना। इस समय हम खिचड़ी बनाएँगे। पापड़ सेंकेंगे . . . आलू भूनेंगे . . .। उस लमछड़ी से कहो चूल्हा जला दे . . . जब तक वह चूल्हा जलाएगी मैं निवृत्त हो लूँगा . . .।”
साले के घर से वे सुबह अँधेरे ही निकल पड़े थे तथा अभी तक शौच न जा पाए थे। यों तो जब से वे इधर छत पर खिसके थे उन्हें लगातार कब्ज़ियत की शिकायत रहने लगी थी। डॉक्टर ने साफ़ बताया था: आपके मलबन्ध का कारण अत्यधिक चावल का सेवन है। किन्तु निरन्तर चावल लेने की उन्हें मजबूरी रही। छूत के डर से पत्नी के हाथ का पका वे खा नहीं सकते थे और दो-एक बार चपाती बनाने की जो उन्होंने चेष्टा की थी तो आटा सानते समय वे ठीक अनुपात में पानी न मिला पाए थे। तीसरा प्रयास करना उनके स्वभाव के विरुद्ध था।
पाखाने में पूरे पन्द्रह मिनट तक जब उनके पेट ने एक भी हरकत करने से इन्कार कर दिया तो लाचार होकर वे उठ खड़े हुए। दालान के हैंडपम्प पर उन्होंने हाथ धोए, मुँह धोया, कुल्ला किया।
कमरे की ओर जब वे लौटे तो चूल्हे की सभी लकड़ियाँ आग पकड़ चुकी थीं किन्तु कमरे से लड़का नदारद था।
“लड़का कहीं भेजा क्या?” लड़का इस पड़ोस में कभी रहा तो था नहीं सो यहाँ जाने के लिए उसके पास एक भी ठिकाना न रहा।
“हाँ,” मुँह में ठूँसा कपड़ा निकाल कर लमछड़ी खाँसी के बीच बोली, “बहुत भूखा था सो अपने लिए ख़स्ता लेने चला गया . . .।”
“मेरी अलमारी खोली क्या?” ग़ुस्से में वे काँप गए।
पत्नी कहीं आती-जाती तो थी नहीं, उसके हाथ में बेवजह पैसे वे क्यों धरते? इसीलिए अपनी तनख़्वाह की पूरी रक़म वे अपनी अलमारी में ही टिकाते और उसमें हरदम ताला लटका कर रखते। चाभी हमेशा उन्हीं की जेब में रहती-प्रतिदिन की निश्चित क़मीज़ की जेब में।
“नहीं,” दुष्टा हँसी और खाँसी, खाँसी और हँसी, “लड़के के हाथ में भैया ने मेरे लिए पाँच रुपये भेजे थे सो उसी नोट के साथ मैंने उसे ख़स्ता लिवाने भेज दिया . . . ।”
उसकी हँसी उनके कलेजे में तीर के समान जा लगी और अकस्मात् दुष्टा की कुटिलता उन पर प्रकट हुई—झन्न से। लड़के की निगाहों में वह उन्हें झूठा साबित करना चाहती थी—चुड़ैल!
“और मैंने जो कहा था ख़स्ता ख़त्म हो गया?” उन्होंने चूल्हे से जलती हुई एक लकड़ी निकाली, दूसरी लकड़ी निकाली, तीसरी लकड़ी निकाली और एक के बाद एक कर उस पर दे मारी।
मूर्खा पीछे हटने की बजाय वहीं सिकुड़ कर झूलने लगी।
जब तक लड़का ख़स्ता लेकर लौटा, तीनों लकड़ियाँ चूल्हे के अंदर पहुँच चुकी थीं।
“माँ को क्या हुआ?” निगोड़ी की निश्चल अवस्था ने लड़के को चिन्ता में डाल दिया।
“हम क्या कह सकते हैं?” वे बोले, “डॉक्टर ही देख कर बता सकता है यह क्या है? मूर्च्छावस्था है अथवा . . .”
“अथवा क्या?” लड़का एकदम चीख दिया।
“जान पड़ता है चूल्हा जलाते समय इसके कपड़ों ने आग पकड़ ली और अकेली होने के कारण यह अपनी रक्षा न कर सकी . . .”
“मामा से कहूँगा मैं आप माँ से अभी भी चूल्हा जलवाते हैं . . . कहा था उन्होंने अपनी माँ को धुएँ से बचा कर रखना . . .”
“डॉक्टर को लेकर मैं अभी आ रहा हूँ,” लड़के से जिरह करना व्यर्थ था।
अगली घटना की अवधि इतनी कम रही कि उसका सही क्रम बैठाना आज भी मुश्किल है।
तथ्यों के आधार पर यह निश्चित है कि सीढ़ियों पर पग धरते ही वे नीचे लुढ़क लिए थे।
पिछले चालीस सालों में कई डॉक्टरों ने उन्हें बताया है वह वरटाइगो था, जिसके अन्तर्गत रोगी का पृथ्वी से आपेक्षिक सम्पर्क अक्सर टूट जाता है तथा वह स्थिति भ्रान्ति के अधीन होकर अपनिदेशन का शिकार हो जाता है। विशेषकर ऊँचाई पर।
किन्तु क्या है कि स्थानान्तरण के बाद भी उनकी घुमड़ी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा है और आज भी उनके लिए यह रहस्य ही है कि सीढ़ियों की वह चिरपरिचित उनकी साथिन, उस घुमड़ी ने उस लमछड़ी का आकार उनके गिरने से पहले ग्रहण किया था अथवा उनके गिरने के बाद।
आकारगत वह घुमड़ी आज भी उनके अन्दर घिनावनी मतली पैदा करती है और खर्र खर्र खर्र करती हुई उस लमछड़ी की अन्तिम खाँसी, सरकंडे-सी क्षीण उसकी काया की अन्तिम कँपकँपी, स्याह काले गड्ढों के बीच कोयले-सी लाल और बेडौल उसकी आँखों की वह अन्तिम टिमटिमाहट उनके मन-मस्तिष्क से दूर खिसकती ही नहीं, बस खिसकती ही नहीं!
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