अकड़-भौं

15-05-2025

अकड़-भौं

दीपक शर्मा (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

“पानी मैं निकालती हूँ,” आँगन में लगे हैंड-पंप की हत्थी मैंने माँ के हाथ से ले ली। 

माँ रसोई की बाल्टी धो रही थीं। 

शहर से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस औद्योगिक क्षेत्र में नगर महापालिका की जल-व्यवस्था अभी परिचालित नहीं हुई है तथा अपना सारा काम हम लोग इसी अकेले हैंडपंप से चलाते हैं। 

रसोई की, स्नानघर की, शौचालय की निर्धारित बालटियों में पानी भरते हैं और आवश्यकतानुसार उन्हें जहाँ-तहाँ लिवा ले जाते हैं। 

छत पर पानी के संग्रहन हेतु सीमेंट का एक बड़ा आधान है तथा रसोई, स्नानघर और शौचालय में उस आधान से सम्बद्ध युगत भी तैयार हैं किन्तु भू-तल से पानी को उस आधान तक पहुँचाने की जिस निजी मोटर की आवश्यकता है उस की यंत्रकारी अभी अधूरी है। टोह लगाने की ख़ातिर बाबूजी अपने कारख़ाने से पाँच बार एक मोटर ला चुके हैं पर हर बार मोटर के रचनातंत्र का पुनर्योजन अनिवार्य लगता रहा है। 

इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा प्राप्त, अपने कारख़ाने में बाबूजी एक ओर जहाँ अस्पताल के लिए लोहे की खाटें तैयार करवाते हैं, वहीं दूसरी ओर लोहे व बिजली की तारों के संयुक्त जोड़ से संयोजित यंत्रों के संग अपने प्रयोगगत प्रयास भी अपनी आशान्वित तन्मयता के साथ जारी रखते हैं। अपने हिस्से की पुश्तैनी ज़मीन बेच कर बाबूजी ने यह कारख़ाना दो वर्ष पहले खोला था। 

“काबला क्या घर में है?” आँगन के दरवाज़े पर फूफा जी की आवाज़ व थाप हमेशा की तरह बहुत ऊँची रही। 

टीन के बक्से व आलमारियाँ बनाने वाले फूफा जी का विशालकाय कारख़ाना हमारी गली के सड़क वाले छोर पर ही है तथा वह अक्सर हमारे घर पर हमें तकलीफ़ देने आ धमकते हैं। 

“दरवाज़ा खोलने से पहले मुझे मेरा दुपट्टा देती जाना,” माँ फूफा जी के सम्मान में अपना सिर अवश्य ढकती हैं। 

“काबला क्या घर पर नहीं?” 

फूफा जी ने दरवाज़े पर शोर मचाना आरंभ कर दिया, “क्या आज मुँह-अँधेरे ही अपने मिस्त्रीखाने पर चला गया?” 

“कितनी बार आप से कहा है, फूफा जी, बाबू जी को आप उन के सही नाम से पुकारा करें,” दरवाज़ा खोलते ही मैंने अपना एतराज़ जतलाया। 

“लो, इस लड़की की बात करो,” हाथ जोड़ रही माँ के अभिवादन की प्राप्ति-सूचना फूफा जी ने सिर हिला कर दी, “यह तो बड़े-बूढ़ों की आवाज़ घोंटना चाहती है। भई, काबला हमारा लंगोटिया यार है . . .”

“बाबू जी का नाम श्री क़ाबिल चंद है,” मैंने अपना प्रतिवाद जारी रखा, “और कारख़ाने की तरह वहाँ नया माल बनता है, मिस्त्रीखाने की तरह पुरानी चीज़ों की मरम्मत का काम नहीं होता . . . ” 

“भई, क्या करें?” फूफा जी ज़ोर से हँसे, “हमारी मजबूरी भी तो समझो। जब भी वहाँ जाते हैं, सब तरफ़ काबले ही काबले और मिस्त्री ही मिस्त्री ही नज़र आते हैं। तैयार माल देखें तो जानें—माल पुराना है या नया . . .” 

फूफा जी के हास्य में परपीड़नशील उपहास का पुट अधिक मुखर था। अकेले हाथ बाबूजी के विपरीत फूफाजी का हाथ बँटाने फूफा जी के पास तीन जवान बेटे हैं तथा जहाँ फूफाजी के कारख़ाने में पैंतीस मिस्त्री काम करते हैं, वहीं बाबूजी के कारख़ाने में केवल आठ। इस के अतिरिक्त फूफाजी को अपने कारख़ाने के उत्पादित माल के लिए तैयार तथा बनी-बनाई साँकलें व रांगे की कलई की हुई लोहे की पतली, चिकनी, निष्कोण चद्दरें मिल जाती हैं, जब कि बाबूजी को खाटों के लिए लचीली कमानी तथा पत्तीदार तीली तैयार करने में ही घंटों तक मोटे-झोटे, रूखे-खुरदुरे व टेढ़े-मेढ़े लोहे के टुकड़ों की पहले झुलाई, गढ़ाई, टंकाई करानी पड़ती है, तब कहीं जाकर वह उसे वांछित व मसृृण आकार दे पाते हैं। 

“आप के लिए क्या लाऊँ?” रसोई की बाल्टी रसोई की ओर ले जा रही माँ ने विषय बदला। 

“तुम्हारे हाथ का जमाया हुआ दही खाने आया हूँ,” फूफा जी चाटुकारी करने में भी पारंगत हैं, “न जाने क्या बात है जो इधर मेरे घर में एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, एक साथ चार-चार औरतें दिन भर रसोई में बरतन टनटनाती रहती हैं और फिर भी मेरी मन-मर्ज़ी और तबीयत का दही नहीं जमा पातीं। और एक तुम हो जो अपना दफ़्तर निपटाने के लिए दिन में नौ घंटे बाहर रहने के बाबजूद मीठा दही जमा लेती हो . . .” 

“आप बैठक में चलिए,” माँ हँसी, “मैं दही ले कर वहीं आती हूँ . . .” 

“केशू कहाँ है?” फूफा जी ने 

बैठक की ओर क़दम बढ़ाए। 

“पड़ोस में गया है,” मैं उन के आगे-आगे चल रही थी। 

“लो, करो बात। जहाँ पड़ोस अपने मतलब और अपनी बराबरी का न हो, वहाँ क़तई नहीं जाना चाहिए।” 

“धीरे बोलिए,” मैं ज़मीन में गड़ गयी, “वहाँ सब सुनाई देता है।” 

पड़ोस का घर हम से लगा हुआ है। बैठक तो उन के मुख्य कमरे के इतनी निकटस्थ है कि बैठक की प्रत्येक असामान्य सरसराहट व फुसफुसाहट उन की श्रवण-सीमा के आवाह-क्षेत्र में सम्मिलित हो ही जाती है। 

“पर मैं सही सोच रहा हूँ,” फूफाजी ने अपनी आवाज़ थोड़ी धीमी कर ली, “वे लोग हमारे बराबर कहीं नहीं ठहरते। हम से बहुत नीचे हैं।” 

“क्यों? उन में क्या ख़राबी है?” मैंने तुरंत अपना विरोध प्रकट किया, “घरवाला सरकारी स्कूल में पढ़ाता है। घरवाली उदारचेता है। बड़ा लड़का कॉलेज में पढ़ता है। दूसरे दोनों बच्चे स्कूल जाते हैं। फ़ुटपाथ पर बैठ कर उन में से कोई भी भीख नहीं माँगता है . . .” 

“तो क्या वह लड़का कॉलेज भी जाता है?” फूफा जी बैठक के तख़्त पर पसर लिए। 

“क्यों? रमेश कॉलेज क्यों नहीं जा सकता?” क्रोध से मैं आग-बबूला हो गयी। 

“ओह!” फूफाजी ने अचरज प्रकट किया, “तुम उस का नाम भी जानती हो?” 

“हाँ, मैं थोड़ी झेंप गयी, “मैं तो उन तीनों बच्चों के नाम जानती हूँ। रमेश से छोटी लक्ष्मी है और लक्ष्मी से छोटा, राकेश।” 

“लीजिए, दही लीजिए,” माँ दही ले आयीं। 

“काबले ने सस्ती ज़मीन के चक्कर में इस उजाड़ में यह जो मकान बनाया है, यह उसे बहुत महँगा पड़ेगा,” फूफाजी ने अपने चेहरे पर खोटी व दिखावटी चिंता ओढ़ ली, “मुझे डर है, यहाँ उसे लेने के देने पड़ जाएँगे। बच्चों को ख़राब सोहबत मिलेगी और हाथ-पाँव निकालते ही वे हाथ से निकल जाएँगे। इन्हें हाथ में रखो, उषा। नहीं रखोगी तो तुम्हें और काबले को हाथ मलना पड़ सकता है।” 

“रसोई में धुली भिंडियाँ रखी हैं,” माँ ने मुझे बैठक से उठा दिया, “उन्हें पोंछना है। मगर ध्यान से। भिंडी के अनीदार रोंए कई बार हाथ में चुभ जाया करते हैं . . .” 

♦    ♦    ♦

भिंडी पोंछ लेने के बाद मैं दोस्तोव्स्की का पहला उपन्यास, “पुअर फ़ोक’ पढ़ने लगी। फूफा जी और माँ के पास दोबारा बैठक में न गयी। 

“आज क्या कार्यक्रम है?” सुबह अपने कारख़ाने पर जाने से पहले बाबूजी ने रोज़ की तरह उस दिन भी मुझ से लाड़-भरे स्वर में पूछा था। 

“माँ कहती हैं, आप की तीन कमीज़ों के कॉलर पलटने हैं। सो आज पड़ोस में जाऊँगी,” मैंने कहा था। 

हमारे घर में कपड़ा सीने की मशीन नहीं है तथा पड़ोसिन मुझे अपनी मशीन पर काम कर लेने देती है। 

“न,” बाबूजी ने कठोर स्वर में कहा था, “तुम पड़ोस में बिल्कुल नहीं जाओगी। घर में बैठ कर अपना ‘पुअर फ़ोक’ ख़त्म करोगी। आज शाम मैं पुस्तकालय जा भी रहा हूँ। तुम्हारी यह किताब ख़त्म हुई होगी तो दूसरी लाने का सुयोग रहेगा। मैं चाहता हूँ, दोस्तोव्स्की ख़त्म करने के बाद तुम तोल्स्तोय शुरू कर दो . . .” 

“मगर आप की कमीज़ें?” 

“मेरी कमीज़ें उषा ठीक करेगी। तुम नहीं . . .” 

“क्या यह सही रहेगा? हर काम माँ के ज़िम्मे सौंपना ठीक होगा?” 

“सृष्टि का प्रत्येक प्राणी जीवन के एक विशेष व पृथक प्रयोजन से सम्बन्ध रखता है। किसी के जीवन का प्रयोजन सीमित व संकुचित होता है तो किसी का व्यापक व विस्तृत। तुम्हें अपनी अंतःशक्ति केवल अपने वैयक्तिक प्रयोजन को चरितार्थ करने में प्रयोग करनी चाहिए न कि हर दूसरे-तीसरे निरर्थक अथवा अप्रासंगिक काम करने के लिए . . . ” 

“मुझे आप का कोई भी काम निरर्थक अथवा अप्रासंगिक नहीं लगता,” मशीन के काम के बहाने रमेश के घर पर उस के संग अच्छा समय बिताने की इच्छा भी मेरे अंदर प्रबल रही थी। 

“नहीं,” बाबूजी ने दृढ़ता से अपना सिर हिलाया था, “तुम्हें हर उस काम को निरर्थक और अप्रासंगिक मानना ही चाहिए जो तुम्हें तुम्हारे जीवन प्रयोजन से दूर ले जाए। मैं चाहता हूँ तुम एक ऐसी छलाँग लगाओ जो तुम्हें जीवन-वृत्त के उस वृत्तांश में पहुँचा दे जहाँ के विशिष्ट निवासी अपने जीवन को विस्तार देने में सक्षम रहते हैं . . .” 

“यदि मेरी छलाँग छोटी रही तो?” 

“तुम्हारी छलाँग छोटी नहीं हो सकती। मैं जानता हूँ सीढ़ी पर तुम्हारे पैर अपना स्थान अवश्य ग्रहण करेंगे . . . ” 

“अपना स्थान? क्या वहाँ मेरा कोई स्थान निश्चित है?” 

“हाँ,” बाबूजी ने अपने हाथ हवा में लहराए थे, “वहाँ ऊपर, बहुत ऊपर मुझे तुम्हारा स्थान स्पष्ट दिखाई दे रहा है . . . ” 

“सच?” उल्लसित हो कर मैं हँस पड़ी थी। 

“बिल्कुल सच,” बाबूजी ने मेरी पीठ ठोंकी थी, “अब अपनी किताब ज़रूर ख़त्म कर लेना।” 

“भिंडी पोंछ दी क्या?” फूफा जी के जाते ही माँ मेरे पास चली आईं। 

“हाँ,” हाथ का उपन्यास छोड़ कर मैंने टेबल फ़ैन माँ की ओर घुमा दिया, “भिंडी की थाली और छुरी मैं यहीं ला देती हूँ। आप भिंडी यहीं बैठ कर काट लो। रसोई में बहुत गर्मी है . . . ” 

“ठीक है,” माँ टेबल फ़ैन के सामने रखे मेरे बिस्तर पर बैठ गयीं। 

“फूफा जी ने आज हद कर दी,” माँ के हाथ में थाली व छुरी पकड़ाते समय मैंने कहा, “बैठक की खिड़की के सामने खड़े होकर बाबूजी के बारे में, हमारे बारे में, पड़ोसिओं के बारे में इतना उलटा-सीधा और ग़लत-सल्त बोले हैं कि बस . . . पड़ोसी भी सोचते होंगे हमारे रिश्तेदार कितने घटिया हैं . . .  बाबूजी को मैं आज सब बताऊँगी . . .” 

“नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं करना,” माँ ने भिंडिओं के छोटे-छोटे टुकड़े नहीं किए। कटाव के नाम पर प्रत्येक इकाई को एकल काट ही दी, “पहले ही बेचारे अकेले कंधों पर दस आदमिओं का बोझ लादे हैं, तिस पर ये करारी बातें सुनेंगे तो उन का हौसला टूट जाएगा . . . ” 

माँ सच कह रही थीं। बाबूजी अति कोमल भी हैं और दुर्बोध भी! 

धुँधले से धुँधला आक्षेप भी उन का संतुलन बिगाड़ देता है। और वह यदि परास्त भाव से अभिभूत होकर विषादग्रस्त नहीं होते तो अपना स्पष्टीकरण देते समय अपने विरोधी पर आक्रामक शब्दों की ऐसी झड़ी लगा देते हैं कि वह विरोधी फिर उन का आजीवन शत्रु बन जाता है। 

प्रत्येक स्थिति माँ के लिए कष्टकर व असह्य रहती है। 

“पर फूफाजी अपने-आप को समझते क्या हैं?” फूफा जी पर आया मेरा क्रोध शांत न हुआ, “क्या जेब में रुपए रहने से ही कोई दूसरों से ऊँचा हो जाता है? चरित्रबल व आचरण कोई महत्त्व नहीं रखते? स्वभाव और आचार-व्यवहार कुछ नहीं होते?” 

“चलो, छोड़ो,” माँ ने मुझे शांत करने का प्रयास किया, “जो वह समझते-बूझते हैं, वह उन्हें मुबारक और जो हम समझते-बूझते हैं, वह हमें मुबारक।” 

“हम क्या समझते-बूझते हैं, माँ?” 

“यही कि अपने भाग्य में आयी कड़ी मेहनत-मज़दूरी से हम घबराएँगे नहीं। ज़िन्दगी की धक्कम-धक्का का डट कर मुक़ाबला करेंगे। अपने लिए, अपने बच्चों के लिए रास्ता निकालेंगे। नया मार्ग बनाएँगे . . .” 

“उस मार्ग पर पहुँच कर फिर हम भी फूफाजी की तरह अपने से कम अमीर लोगों को नीची निगाह से देखेंगे? अपने पड़ोसियों से नफ़रत करने लगेंगे?” 

“अभी क्या कहा जा सकता है? हमारी हाथा-बाँही तो अभी बीच अवस्था में है। पर तुम उन पड़ोसियों पर क्यों बार-बार पलट आती हो? तुम्हारे फूफाजी ने उन के बारे में जो कहा है, वह एकदम ग़लत भी नहीं है। हमारी तुलना में वे निश्चित रूप से बहुत नीचे हैं . . . ” 

“फूफाजी उनकी निंदा क्या कर गए आप भी उन्हें ग़लत आँकने लगीं?” लाख न चाहते हुए भी मैं ताव खा गयी, “उन्हें फूफाजी की नज़र से परखेंगी तो ग़लत फ़ैसला तो देंगी ही . . . ” 

“तुम उनकी इतनी तरफ़दारी क्यों कर रही हो?” अपना हाथ रोक कर माँ मेरी ओर देखने लगीं, “क्या कोई ख़ास बात है?” 

“हाँ, ख़ास बात है,” निस्संकोच हो कर माँ से मैं सब कुछ कह सकती हूँ, “रमेश मुझे बहुत अच्छा लगता है।” 

“मुझ से ऐसा कह दिया तो कोई बात नहीं,” माँ गंभीर हो गयीं, “मगर किसी दूसरे से ऐसा न कहना। अपने बाबू जी से भी नहीं। वह तुम्हें ग़लत समझ लेंगे।” 

“ग़लत क्या समझेंगे?” 

“शायद वह सोचने लगें, तुम रमेश से प्यार करती हो . . . ” 

“कभी-कभी मुझे भी ऐसा लगता है, मैं रमेश से प्यार ही करती हूँ,” मेरा चेहरा लज्जारुण हो चला। 

“तुम अभी बहुत छोटी हो,” भिंडियों की थाली एक ओर धकेल कर माँ मेरे समीप, बहुत समीप खिसक आयीं, “तुम्हारा विवेक अभी कच्चा है। तुम अभी जानती नहीं प्यार क्या होता है? तुम्हें ज़रूर ग़लतफ़हमी हुई है। रमेश से तुम कैसे प्यार कर सकती हो? जीवन में किसी ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने की उस में कोई ललक नहीं, कोई चिंगारी नहीं . . .” 

“आप के अनुमान मुझे हैरान कर रहे हैं,” मैं अड़ गयी, “आप और बाबूजी यदि मेरे और केशू के बारे में ऊँची परिकल्पनाएँ रखें तो सब उचित और उपयुक्त है और यदि कोई दूसरा अपने . . .” 

“कोई दूसरा?” माँ उत्तेजित हो गयीं, “कोई दूसरा कौन? हमारे ये पड़ोसी? जिन माँ-बाप के पास कोई साधन नहीं? कोई ताक़त नहीं? कोई कोशिश नहीं? जिन बच्चों के पास कोई उपाय नहीं? कोई हिम्मत नहीं? कोई ओज नहीं?” 

“अपनी व केशू की महिमा और आप और बाबूजी के आत्मबखान सुन-सुन कर मैं तंग आ गयी हूँ,” मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, “मेरा तो यहाँ दम घुटता है . . .  मैं यहाँ से भाग जाऊँगी।” 

“यही बातें तुम ने किसी और लड़की के मुँह से सुनी होतीं तो बताओ तुम क्या कहतीं?” माँ नरम पड़ गयीं, “तुम्हें कैसा लगता? असल में अपनी दसवीं की परीक्षा के बाद की इन लंबी छुट्टियों में तुम्हारा अपनी पढ़ाई से, अपनी सहेलियों से, अपनी अध्यापिकायों से और अपने स्कूल से जो संपर्क टूटा है तो तुम भूल गयी हो होनहार लड़कियाँ अपने माँ-बाप के बारे कैसे सोचती हैं और उन से किस तरह बात करती हैं और अजनबियों के साथ किस तरह पेश आती हैं और उन्हें कितनी दूरी पर रखती हैं . . . ” 

मेरे रोने की आवाज़ शायद पड़ोस में खेल रहे केशू तक जा पहुँची थी और वह पड़ोस से लौट आया। 

“क्या हुआ?” केशू ने आते ही पूछा। 

“आशा के बोर्ड का परिणाम आजकल में आने वाला है,” माँ ने केशू के सम्मुख मेरी प्रतिष्ठा बनाए रखी, “आशा घबरा रही है। यदि इसे पचानवे प्रतिशत से कम नंबर मिले तो इस के स्कूल वाले इसे प्रतिभाशाली छात्राओं की अपनी विशिष्ट कक्षा में शामिल न होने देंगे . . . ” 

“लूडो खेलोगी?” केशू ने मेरी गर्दन गुदगुदायी। 

मेरी रुलाई वहीं रुक ली और हम दोनों बैठक में चले आए। 

घर के दूसरे कमरों की तुलना में बैठक ठंडी है। उस के पर्दे बाहर की चमचमाती व तरेरती धूप की चौंध व तिलमिली को रोकने में सक्षम हैं तथा उस की पंखा भी छत वाला है। आजकल छुट्टियों में केशू और मैं अपना अधिकतम समय यहीं बैठक ही में बिताते हैं। 

आराम-कुर्सियों और तख़्त के बीच वाले हिस्से में रखे गोल मेज़ को दीवार के साथ एक कोने में टिका कर फ़र्श पर चटाई बिछा लेते हैं। जिस पर कभी हमारी लूडो लगती है तो कभी हमारी कैरम जमती है और कभी-कभी मेरे आग्रह पर शब्द बनाने वाली स्पेल-ओ-फ़न भी खुल जाती है। हालाँकि सातवीं कक्षा में पढ़ रहे केशू को शब्द बनाने और सीखने में तनिक रुचि नहीं, जब कि मुझे जहाँ कहीं भी अक्षर दिखाई दे जाते हैं, मैं वहीं पर उन्हें काग़ज़ से उठा कर निगलने लगती हूँ। 

केशू ने आगे बढ़ कर जैसे ही लूडो खोली और जैसे ही लूडो की तरंग-भरी मौज में अगले दो घंटे कैसे निकल गए हमें कोई ख़बर ही न रही। 

“लो, खाना खा लो,” माँ हमारी थालियाँ वहीं बैठक में ले आयीं। 

भरवां भिंडी और पराँठों से उठ रही भुने, गर्म मसालों व देसी घी की सुगंध हमारे मुँह में पानी ले आयी और हम दोनों लूडो छोड़ कर तुरंत अपनी-अपनी थाली पर टूट पड़े। 

माँ टेलिफ़ोन के दफ़्तर में काम करती हैं, जहाँ उन के काम के घंटे अनियमित व दीर्घकालीन रहते हैं। फलतः नियमित रूप से ताज़ा व गर्म खाना उपलब्ध न रहने के कारण जब भी हमें सुअवसर हाथ लगता है हमारी ख़ुराक पेट-भर मात्रा से कहीं अधिक हो जाती है। 

उस दिन भी ऐसा ही हुआ। 

थाली में रखे भोजन को समाप्त कर लेने के बाद भी हम दोनों को रसोई में जा कर माँ से और खाना परोसने के लिए कहना पड़ा। 

खाना खाते ही केशू का उनींदापन उस पर हावी हो गया और वह वहीं तख़्त पर सो गया। और मैं अपने उपन्यास लिए लिए चटाई पर लेट ली।

♦    ♦    ♦

“इतनी धूप में जाओगी?” माँ अपने कमरे में तैयार हो रहीं थीं। 

 माँ ने मेरी बात का उत्तर न दिया। 

“मैंने जो वह सब कहा,” साड़ी पहन रही माँ का हाथ रोक कर मैंने अपने हाथ में लेना चाहा, “वह सब झूठ था। मैं केवल आप लोग से प्यार करती हूँ। किसी और से नहीं . . .” 

“मेरा हाथ छोड़ो। मुझे देर हो रही है . . . ” 

“आप बाबूजी से कुछ कहेंगी तो नहीं?” मेरी आँखों में आँसू भर आए। 

“नहीं कहूँगी,” माँ अकस्मात्‌ हँसने लगीं। 

बाबूजी और माँ मेरे दिल में साझा मर्म-स्थान रखते हैं, फिर भी बाबूजी की तुलना में माँ की मोर्चाबंदी मेरे लिए भेद्य रहती है। माँ को घाव लगा सकती हूँ तो माँ का घाव भरना भी जानती हूँ। 

“गली के बाहर यदि आपको पाँच नंबर बस न मिले तो ग्यारह नंबर वाले चौराहे तक आप रिक्शा ज़रूर ले लेना,” मैंने माँ को अपने अंक में भर लिया, “आज धूप बहुत तेज़ है।” 

“जून का महीना है,” माँ ने मेरा माथा चूमा और मेरे अंक से विलग हो कर बोलीं, “हाँ, धूप तो तेज़ होगी ही!” 

♦    ♦    ♦

तैयार होकर जैसे ही माँ दफ़्तर के लिए निकलीं, मैं उन्हें देखने छत पर चली आयी। 

गली में घर होने के कारण सड़क की सरगरमी केवल छत से ही दिखाई देती है। 

रमेश मुझे छत पर देख कर तत्क्षण अपनी छत पर आ गया। 

“आज तुम हमारे घर पर आ रही हो न?” रमेश अपनी छत से बोला, “माँ ने बताया, तुम्हें मशीन का कोई काम है।” 

“नहीं, मैं नहीं आ पाऊँगी,” रमेश की ओर देख कर मैं पहले की तरह मुस्करायी नहीं, “मुझे दूसरा काम है।” 

“फूफाजी काम दे गए हैं?” रमेश ने मुझे हँसाना चाहा। 

“नहीं, मेरा अपना काम है,” मैं गंभीर बनी रही। 

“फूफा से काम नहीं लिया, फूफा की अकड़-भौं ले ली?” रमेश ने दोबारा मुझे हँसाने की चेष्टा की। 

“नहीं, यह अकड़-भौं भी मेरी अपनी है,” मैंने कहा। रमेश के पर कट गए। 

“क्या यही बताने छत पर आयी थी?” 

“छत पर मैं माँ को देखने आयी हूँ,” मैंने रमेश की ओर पीठ कर ली। 

मेरी आँखें सड़क पर स्थिर हो लीं और कुहनियाँ छत की चौहद्दी दीवार पर। 

गली के सड़क वाले छोर पर बना फूफाजी का कारख़ाना गली से सड़क पर पग धर रहे लोगों को उनकी गति के अनुपात से उन्हें कुछ पलों तक हमारी छत से ओझल रखता है तथा माँ को सड़क की सरगरमी में सम्मिलित होते हुए मैं दो मिनट बाद ही देख पायी। 

बस नंबर पाँच हमारी गली के सड़क वाले छोर पर ही रुकती है तथा माँ को उन के दफ़्तर वाले चौक तक छोड़ती है। परन्तु वह बस समय की पाबंद नहीं है तथा उसका मिलना केवल एक सुखद संयोग रहता है। 

पैदल सेना के किसी सतत सिपाही की मुद्रा व ठवन लिए माँ सड़क पर साथ चल रहे कई पैदल-यात्रियों को आसानी से पिछेल कर आगे चौराहे वाली सड़क की दिशा से आ रही ग्यारह नंबर बस पकड़ने के लिए आगे बढ़ रही थीं। 

छत से दिखाई दे रही सड़क के शुरू के सिरे से लेकर सड़क के अतिंम छोर तक मेरी आँखों ने माँ का पीछा किया। जैसे ही वह मेरी आँखों से ओझल हुईं मेरी रुलाई छूट गयी। जी-भर रो लेने के बाद जब मैंने पड़ोस की छत पर नज़र दौड़ाई तो रमेश मुझे कहीं नज़र न आया। 

वह कब छत से नीचे उतर लिया था, मुझे कोई सुराग़रसानी न रही थी। 

1 टिप्पणियाँ

  • 31 May, 2025 07:47 AM

    हर अकड़ भौं को ज़ीरो कर रही- माँ-बेटी संबंधों में समाई एक संवेदनशील मनोवैज्ञानिक, शालीन समझ- बधाई

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में