सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर

01-10-2024

सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर

दीपक शर्मा (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

कस्बापुर के कपड़ा बाज़ार का ‘सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर’ बाबूजी का है। 

सन्तान के नाम पर बाबूजी के पास हमीं दो बहनें हैं: जीजी और मैं। 

जीजी मुझ से पाँच साल बड़ी हैं और मुझे उन्हीं ने बड़ा किया है। हमारी माँ मेरे जन्म के साथ ही स्वर्ग सिधार ली थीं। हमारे मैचिन्ग सेन्टर व बाबूजी को भी जीजी ही सँभालती हैं। बाबूजी की एक आँख की ज्योति तो उनके पैंतीसवें साल ही में उन से विदा ले ली थी। 

क्रोनिक ओपन-एंगल ग्लोकोमा के चलते। 

और बाबूजी अभी चालीस पार भी न किए थे कि उनके बढ़ रहे अंधेपन के कारण उस कताई के कारख़ाने से उनकी छंटनी कर दी गयी थी जिस के ब्रेकर पर बाबूजी पूनी की कार्डिंग व कोम्बिंग से धागा बनाने का काम करते रहे थे। पिछले बाइस वर्षों से। 

ऐसे में सीमित अपनी पूँजी दाँव पर लगा कर बाबूजी ने जो दुकान जा खोली तो जीजी ही आगे बढ़ीं। पढ़ाई छोड़ कर। 

दुकान बीच बाज़ार में पड़ती है और घर हमारा गली में है। बाबूजी को घर से बाज़ार तक पहुँचाना जीजी के ज़िम्मे है। छड़ी थामकर बाबूजी जीजी के साथ-साथ चलते हैं। जहाँ उन्हें ज़रूरत महसूस होती है जीजी उनकी छड़ी पकड़ लेती हैं या फिर उनका हाथ। 

दुकान भी जीजी ही खोलती हैं। फ़र्श पर झाड़ू व वाइपर ख़ुद ही फेरती हैं व मेज़ तथा कपड़ों के थानों पर झाड़न भी। जब तक बाबूजी बाहर चहलक़दमी करते करते पास-पड़ोस के दुकानदारों की चहल-पहल व बत-रस का आनन्द ले लेते हैं। 

स्कूल से मैं सीधी वहीं जा निकलती हूँ। 

जीजी का तैयार किया गया टिफ़िन मेरे पहुँचने पर ही खोला जाता है। जीजी पहले बाबूजी को परोसती हैं, फिर मुझे। हमारे साथ नहीं खातीं। नहीं चाहतीं कोई ग्राहक आए और दुकान का कोई कपड़ा-लत्ता बिकने से वंचित रह जाए। 

बल्कि इधर तो कुछ माह से हमारी गाहकतायी पच्चीस-तीस प्रतिशत तक बढ़ आयी है। 

जब से फैन्सी साड़ी स्टोर में एक नया सेल्ज़मैन आ जुड़ा है। बेशक हम दोनों की दुकानें कुल जमा चार गज़ की दूरी पर एक ही सड़क का पता रखती रही हैं, लेकिन यह मानी हुई बात है कि किशोर नाम के इस सेल्ज़मैन के आने से पहले हमारे बीच कोई हेल-मेल न रहा था। पिछले पूरे सभी तीन सालों में। 

मगर अब फैन्सी साड़ी स्टोर की ग्राहिकाएँ वहाँ से हमारे मैचिन्ग सेन्टर ही का रुख़ लेती हैं। 

कभी अकेली तो कभी किशोर की संगति में। 

अकेली हों तो भी आते ही अपनी साड़ी हमें दिखाती हैं और विशेष कपड़े की माँग हमारे सामने रखती हैं: “शिफ़ॉन की इस साड़ी के साथ मुझे साटन का या क्रेप ही का पेटीकोट लेना है और ब्लाउज़ भी डैकरोन या कोडेल का . . . ” 

किशोर साथ में होता है तो सविस्तार कपड़े के बारे में लम्बे व्यौरे भी दे बैठता है, “देखिए सिस्टर, इस औरगैन्ज़ा के साथ तो आप डाएनेल का पेटीकोट और पोलिस्टर का ब्लाउज़ या फिर प्लेन वीव टेबी का पेटीकोट और ट्विल का ब्लाउज़ लीजिए, जिस के ताने की भरनी में एक सूत है और बाने की भरनी में दो सूत . . . ” 

हम बहनें अक्सर हँसती हैं, कस्बापुर निवासिनियों को यह अहसास दिलाने में ज़रूर किशोर ही का हाथ है कि साड़ी की शोभा उसके रंग और डिज़ाइन से मेल खाते सहायक कपड़े पहनने से दुगुना-चौगुना प्रभाव ग्रहण कर लेती है। 

जभी साड़ी वाली कई स्त्रियों के बटुओं की अच्छी ख़ासी रक़म हमारे हाथों में पहुँचने लगी है। 

काउन्टर पर बैठे बाबूजी को रक़म पकड़ाते समय मैं तो कई बार पूछ भी लेती हूँ, “फैन्सी वाला यह सेल्ज़मैन क्या सब सही-सही बोलता है या फिर भोली भाली उन ग्राहिकाओं को बहका लिवा लाता है?” 

जवाब में बाबूजी मुस्कुरा दिया करते हैं, “नहीं जानकार तो वह है। बताया करता है यहाँ आने से पहले वह एक ड्राइक्लीनिंग की दुकान पर ब्लीचिंग का काम करता था और लगभग सभी तरह के कपड़ों के ट्रेडमार्क और ब्रैन्ड पहचान लेता है . . .” 

कपड़े की पहचान तो बाबूजी को भी ख़ूब है। दुकान के लिए सारा कपड़ा वही ख़रीदते हैं। हाथ में लेते हैं और जान जाते हैं, “यह मर्सिराइज़्ड कॉटन है। इसे कास्टिक सोडा से ट्रीट किया गया है। इसका रंग फेड होने वाला नहीं . . .” 

या फिर, “यह रेयौन है। असली रेशम नहीं। इसमें सिन्थेटिक मिला है, नायलोन या टेरिलीन . . .”

या फिर, “यह एक्रीलीन बड़ी जल्दी सिकुड़ जाता है या फिर ताने से पसर जाता है . . .”

“क्यों किशोरीलाल?” बाबूजी किशोर को इसी सम्बोधन से पुकारते हैं, “तुम यहाँ बैठना चाहोगे? हमारे साथ?” 

उस दिन किशोर ने अपने फैन्सी साड़ी स्टोर से दहेज़ स्वरूप ख़रीदी गयी एक ग्राहिका की सात साड़ियों के पेटीकोट और ब्लाउज़ एक साथ हमारे मैचिन्ग सेन्टर से बिकवाए हैं और बाबूजी ख़ूब प्रसन्न एवं उत्साहित हैं। 

“किस नाते?” जीजी दुकान के अन्तिम सिरे पर स्टॉक रजिस्टर की कॉस्ट प्राइस और लिस्ट प्राइस में उलझे होने के बावजूद बोल उठी हैं, “हमारी हैसियत अभी नौकर रखने की नहीं . . .” 

“तुम अपना काम देखो,” बाबूजी ने जीजी को डाँट दिया है, “हम आपस में बात कर रहे हैं . . .” 
थान समेट रहे मेरे हाथ भी रुक गए हैं। 

जीजी के स्वर की कठोरता मुझे भी अप्रिय लगी है। 

“किशोरीलाल,” जीजी से दूरी हासिल करने हेतु बाबूजी किशोर को मेरे पास खिसका लाए हैं, “उषा की बात का बुरा न मानना। वह शील-संकोच कुछ जानती ही नहीं। माँ इनकी इन बच्चियों की जल्दी ही गुज़र गयी रही . . .” 

“जीजी मुझ से भी बहुत कड़वा बोल जाती हैं,” किशोर को मैं ढाढ़स बँधाना चाहती हूँ। 

उसका बातूनीपन तो मुझे बेहद पसन्द है ही, साथ ही उसकी तीव्र बुद्धि व भद्र सौजन्य भी मुझे लुभाता है। 

“उषा मूर्ख है,” बाबूजी अपना स्वर धीमा कर लिए हैं, “उसे जब ब्याह दूँगा तो ज़रूर समझदारी से बोलना सीख जाएगी। उसकी बात का तुम बुरा मत मानना . . . कहो तो उस का हाथ तुम्हारे हाथ में . . .” 

“बुरा क्यों मानूँगा, अंकल?” हुलस कर किशोर ने बाबूजी को अपने अंक में भर लिया है, “अपनी माँ से मैं रोज़ कहता हूँ, मेरी अब आठ सिस्टर्ज़ हैं, इधर छह घर पर हैं और उधर दो सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर पर . . .” 

“छह बहनें हैं तुम्हारी?” बाबूजी की फुसफुसाहट चीख में बदल ली है। 

“क्या बात है बाबूजी?” जीजी हमारे पास तत्काल चली आयी हैं। 

“मैं अपने स्टोर से फिर किसी कस्टमर को इधर लिवा लाने का यत्न करता हूँ,” अप्रतिम किशोर जीजी को देखते ही लोप हो लिया है। 

“तुम जानती थीं? उषा? किशोरीलाल की छह बहनें हैं?” बाबूजी अपनी आँख मिचकाते हैं। पिछले वर्ष तक आते-आते उनकी दूसरी आँख भी अपनी ज्योति पूरी तरह गँवा चुकी है। रेटिना और ऑप्टिक नर्व की कोशिकाओं के निरन्तर ह्रास से उनकी आँखों में सम्पूर्ण रिक्तता भर तो दी है, लेकिन उत्तेजना में उनकी आँखों के गोलक पक्ष्म और पपोटे अजीब फुरतीलापन ग्रहण कर लेते हैं। 

“हाँ जानती थी,” जीजी बाबूजी का हाथ अपने हाथ में ले लेती है, “तो?” 

“तुमने मुझे कभी बताया क्यों नहीं?” बाबूजी की उत्तेजना बनी हुई है। 

“उसकी अगर कोई बहन न भी होती तो भी मैं उसके संग शादी कभी न करती,” जीजी तुनकती हैं। 

“क्यों?” 

“सेल्ज़ के इलावा उसका कोई लक्ष्य नहीं कोई इष्ट नहीं . . .” 

“हमारा है?” मैं भी तुनक ली हूँ। 

“हाँ। हमारा है। हमें तुम्हें डॉक्टर बनाना है। छोटी दुकानदारी में नहीं लगाना, अपनी तरह . . . ” 

मैं हथियार डाल देती हूँ। इसी साल मैं बारहवीं जमात के अपने इम्तिहान के साथ साथ सी.पी.एम.टी. की तैयारी में भी जुटी जो हूँ। 

रात में हम बहनें जब सोने लगी हैं तो मैं जीजी के पास खिसक आती हूँ, “आप जानती थीं किशोरीलाल की छह बहनें हैं?” 

“बाबूजी को टालने के वास्ते वह झूठ बोल गया। वरना, उसकी दो बहनें हैं, छह नहीं . . .” 

“बाबूजी को उसने टाला क्यों?” मैं हैरान हूँ, जीजी से अच्छी पत्नी उसे और कहीं नहीं मिलने वाली है। 

“क्योंकि वह तुम से शादी करना चाहता था। मुझे एक दिन अकेली रास्ते में पा कर बोला, मैं निशा को चाहता हूँ। उस से मेरी शादी करवा दीजिए। मैं ने उसे ख़ूब डाँटा, निशा तुम जैसे छोटे आदमी से क़तई शादी नहीं करेगी। उसे तो अभी कई ऊँचे पहाड़ चढ़ने हैं, गहरे कई समुद्र पार करने हैं . . .” 

“आप ने सही कहा, जीजी, ” मैं जीजी के कंधे पर अपना सिर टिका देती हूँ, “मुझे डॉक्टर बनना है, उस सेल्ज़मैन की पत्नी नहीं . . .” 

अगली सुबह अवसर मिलते ही मैं बाबूजी को जा घेरती हूँ, “उस सेल्ज़मैन से बात करने से पहले आपने जीजी से पूछा क्यों नहीं?” 

“उषा से मुझे कुछ भी पूछना-जानना नहीं था। जो पूछना-जानना था, उसी लड़के से पूछना-जानना था। उस के संग एक साँझे भविष्य की ओर जा रहे उषा के क़दम पलट क्यों रहे थे? विपरीत दिशा क्यों पकड़ लिए थे?” 

“साँझा भविष्य?” मैं हँस पड़ती हूँ, “आप ग़लत समझ रहे हैं, बाबूजी। जीजी के मन में किशोर के लिए कोई जगह नहीं। वह तो उसे बहुत ही तुच्छ, बहुत ही छोटा आदमी मानती हैं . . .” 

“क़तई नहीं, ” बाबूजी के जबड़े कस लिए हैं और स्वर दृढ़ हो आया है, “मैं तुम से ज़्यादा समझ रखता हूँ। ज़्यादा जानता-बूझता हूँ। आँखें नहीं तो क्या? कान जो हैं। और वह भी तुम आँखों वालियों से दुगुने तेज़, चौगुने ग्रहणशील। मैं तो हवा तक में तैर रहे हर लहराव, हर कम्पन, हर स्पंदन पकड़ लेता हूँ और फिर उषा तो मेरी अपनी बच्ची है। किशोरीलाल के लिए उसका उत्साह भी मेरे पास पहुँचा है और उसका निरुत्साह भी . . . और पीछे का सच मुझे किशोरीलाल ही बता सकता था, उषा नहीं . . .” 

“जी बाबूजी, ” मैं चौकस हो ली हूँ। बाबूजी को पूरा सच बतलाना मेरे लिए असम्भव है। 

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