पारगमन
दीपक शर्मायदि सभी ग्रह घूमा करते हैं और हमें घुमाया करते हैं तो मैं ज़रूर इन से बाहर हो लिया हूँ। स्थिर एवं स्थावर!
जब तक धरती का वासी रहा हमेशा गति पकड़े रहा। जागते में तो घूमता ही, सोते में भी घूमा करता। माता-पिता, मित्र-शत्रु, पत्नी-सास, बेटे-बेटी, डॉक्टर-नर्स सभी ने घुमाए रखा मुझे . . . एक सर्वगुण भैया को छोड़कर . . . लेकिन अब कहीं नहीं जाना मुझे . . . न आगे . . . न पीछे . . . न अस्पताल, न अपने उस ढलाईघर में, जहाँ कच्चे लोहे से स्टील तैयार किया जाता था।
जिसे उसके पुराने ‘उत्तम ढलाई-घर’ वाले नाम से मेरी पत्नी ने ‘मॉडर्न फाउन्ड्री’ का नाम देते समय रूपान्तरित करवा डाला था . . .
सन् सत्तासी में . . .
उन दिनों वह हमारे कस्बापुर की ज़िलाधीश थी और डिस्ट्रिक क्लब में रोज़ बैडमिन्टन खेलने आया करती थी। मेरी भेंट उस से वहीं हुई थी। बैडमिंटन का मैं भी शौक़ीन था और अच्छा खेलता था। बैडमिंटन की हमारी मैत्री को विवाह में बाँधने का प्रस्ताव उसकी माँ ने पेश किया था। मेरे बड़े बँगले और छोटे परिवार को देखते हुए। मेरे परिवार में हम केवल तीन पुरुष थे, मेरे पिता, सर्वगुण भाई और मैं। हमारी माँ की मृत्यु के बाद हमारे पिता ने दूसरी शादी तो नहीं की थी किन्तु तीन बेटियों वाली एक अधेड़ विधवा को ज़रूर गाँव की हमारी हवेली में ले आये थे। और अब अपना अधिकतर समय भी वहीं बिताया करते थे जबकि मानसिक संस्तभ से पीड़ित होने के कारण सर्वगुण भाई का सारा समय घर ही में कटता था। उनके विडियो गेम्स एवं संगीत के कैसेट्स के साथ।
हमारा वैवाहिक जीवन और ‘उत्तम ढलाई घर’ का काया पलट लगभग एक साथ सम्पन्न हुए थे। कारण, बिना चेतावनी के उन्हीं दिनों मेरे मज़दूरों ने हड़ताल कर दी थी और टनों का टन लोहा जला जा रहा था। ढल रहे लोहे को जब भी भट्टी की ज़रूरत से ज़्यादा देर तक रखा जाता है तो लोहा तो पूरे का पूरा जल ही जाया करता है और फिर किसी भी काम का नहीं रहता है। ऐसे में अपने पद का लाभ उठा कर कुसुम ने वह हड़ताल समाप्त करवा कर मेरे पिता को भी अपने पक्ष में ले लिया था जो उस विधवा ‘आउटसाइडर’ के कहने पर कुसुम और मेरी आयु के अन्तर को अपनी आपत्ति का आधार बनाए बैठे थे। कुसुम उम्र में मुझ से सात-साल बड़ी तो थी ही। उस समय वह पैंतीस की थी और मैं अट्ठाइस का।
हड़ताल समाप्त हुई थी, कुसुम द्वारा रखी गई दो शर्तों पर।
पहली शर्त के अनुसार मुझे लोहा पिघालने हेतु ‘बेसिक बैसेन्जेर प्रणाली’ की ब्लास्ट फ़रनेस, झोंका-भट्टी के स्थान पर ‘ओपन हार्थ फ़रनेस’, खुले चूल्हे वाली भट्टी, प्रयोग में लानी थी और दूसरी शर्त के अनुसार मज़दूरों का वेतनमान भी बढ़ा देना था।
परिणाम, इधर मैं अपने पुराने चूल्हों, भाँडों, कलछुलों और बेलनों के बीच नयी आयी भट्टियों, सिल्लियों, इनगौटस, मोल्ड्ज़ और रोलर्स के साथ उलझ रहा था, तो उधर कुसुम और उसकी माँ हमारे बँगले को ‘नया जीवन’ प्रदान करने के उपक्रम में फ़र्नीचर से ले कर पर्दों तक की बदलाई में मेरा बैंक बैलेंस घटाने में लगी थीं। कुसुम अपनी माँ की इकलौती सन्तान थी, जो उसके पिता से वर्षों पहले तलाक़ ले चुकी थीं।
विवाह का तीसरा वर्ष मुझे जुड़वाँ जोड़े के रूप में एक बेटा और एक बेटी ज़रूर दे गया था किन्तु उत्तरवर्ती वर्ष मेरे उत्तरदायित्व बढ़ाते चले गये थे। नयी चिन्ताओं एवं परेशानियों के साथ।
बेटी वैलहैम्ज़ और एल.एस.आर. के बाद लन्दन के स्कूल ऑफ़ इकनौमिक्स की अपनी पढ़ाई के मध्य ही में अपने एक सहपाठी के संग लापता हो गयी थी और कुसुम के सम्पर्क सूत्रों के बावजूद लापता ही रही थी। बेटा अपनी आई.एस.सी. में दो बार फ़ेल हो जाने के बाद सन् २०१० में मेरे पास कस्बापुर चला आया था। आते ही उसने अपने लिए एक नयी एस.यू.वी. की माँग की थी और आए दिन उसकी सवारी में कई-कई घंटों तक घर से ग़ायब रहने लगा था। न तो उसने मेरे ढलाई घर ही में कोई रुचि दिखलायी थी और न ही सर्वगुण भैया की सेवा सुश्रुषा में। जिन्हें प्रचण्ड रूप में गुर्दे की बीमारी ने पकड़ रखा था।
घटनाक्रम में तेज़ी आयी थी सन् २०१२ में। जिस वर्ष कुसुम अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद, कस्बापुर आन टिकी थीं। अपनी माँ के साथ। स्थायी रूप में। बीच में बेशक़ वह प्रदेश के एक शहर से दूसरे शहर में जब-जब स्थानान्तरित होती रही थी, नियमित रूप से अपनी नियुक्ति वाले नए स्थान पर मुझे और बच्चों को आमन्त्रित करती रही थी। कस्बापुर में भी जब-तब अपनी टिकान उसने जारी रखी थी। और हर बार कमरों की साज-सज्जा में भी परिवर्तन लाती रही थी।
किन्तु इस बार माँ-बेटी पूरे बँगले ही को ‘पुनरुज्जीवित’ करने के इरादे से आयी थीं। उनकी ओर से आने वाला उच्चतम सीमा तक आपत्तिजनक प्रस्ताव था: बँगले के पिछले भाग में नौकरों के लिए बने क्वार्टरों में से दो को जोड़ कर एक नया कक्ष तैयार किया जाए ताकि सर्वगुण भाई बँगले के उस पिछले भाग में अपने गेम्स और संगीत के साथ जा रहें। इधर वाले अपने तीनों कमरे छोड़ दें।
सुनते ही मैं कुसुम पर चिल्ला पड़ा था, “ऐसा सोचना ही पाप है . . . जानती भी हो? हमारी माँ कहा करती थीं, ’सर्वगुण के रूप में ईश्वर ने हमारे घर में एक पवित्रात्मा उतारी है। उसे इसी रूप में बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है’–
"वैसे भी पूरी दुनिया में सर्वगुण भाई मुझे सब से प्यारे थे। वह मुस्कुराते तो मुझे लगता भगवान मुझ से प्रसन्न हैं। उदास दिखते तो लगता उनकी मुस्कुराहट तुरन्त लौट आनी चाहिए।"
“तो ज़िन्दगी भर तुम वही एक ज़िम्मेदारी निभाओगे?” कुसुम चमकी थी, “हमारी तरफ़ तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?”
“मुझे अपनी हर ज़िम्मेदारी का पूरा ध्यान है,” मैं फिर तिलमिलाया था, “तुम्हीं असम्भव हो . . . यू आर इम्पॉसिबल . . . ”
“असम्भव तुम हो। तुम्हारा वह ईडियट भाई है। नरकदूत वह बाप है। व्यभिचारिणी उसकी पलटन है असम्भव।” मेरे पिता की उस टहलनी और उस के परिवार को कुसुम ने ‘पलटन’ का नाम दे रखा था।
“मैं कुछ नहीं सुन रहा,” मुझे जो कहना था, मैंने कहा था और उसके पास से चला आया था।
आगामी दिन गहन परीक्षा के रहे थे। सर्वगुण भाई के गुर्दों का रोग बढ़ लिया था और हर दूसरे तीसरे दिन दिया जाने वाला डायलिसिस भी निष्प्रभावी सिद्ध हो रहा था।
ऐसे में एक ही रास्ता बचा था: उनके शरीर में एक स्वस्थ गुर्दे का प्रत्यारोपण।
और बिना एक भी पलक झपकाए मैंने अपना गुर्दा पेश कर दिया था।
कुसुम से इस बात का उल्लेख करने की मैंने कोई ज़रूरत नहीं समझी थी।
उस दिन के बाद ही से हम पति-पत्नी ने एक दूसरे से बातचीत करनी एकदम बंद कर दी थी। कुसुम की माँ ज़रूर मुझसे इधर-उधर की ख़बर लेती-देती रहती थी और जवाब में मैं भी हूँ-हाँ कर दिया करता था। शिष्टाचार वश।
ऑपरेशन के ठीक एक दिन पहले मैंने अपने पिता को फोन पर सब कह सुनाया था और वह अस्पताल आन पहुँचे थे। कुसुम के साथ।
मैं नहीं जानता वह गाँव से अकेले आये थे या उन लोगों के साथ।
यह भी नहीं जानता कुसुम को उन्होंने क्या और कितना बताया था।
यह ज़रूर जानता हूँ डॉक्टर से मिलने के बाद ही कुसुम मेरे पास आयी थी।
आते ही बोली थी, “तुम अव्वल दर्जे के अहमक हो। एक ऐसे बंदे के लिये अपनी जान जोखिम में डाल रहे हो जिसके ज़िन्दा रहने न रहने से किसी को कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला।”
मेरे लिये कुसुम के वे बोल अंतिम बोल रहे थे। जिन्हें मैं सुन रहा था।
उत्तर में मैंने अपनी आँखें मूँद ली थीं और चुप बना रहा था।
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