बिछोह

दीपक शर्मा (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

बहन मुझ से सन् १९५५ में बिछुड़ी। 

उस समय मैं दस वर्ष का था और बहन बारह की। 

“तू आज पिछाड़ी गयी थी?” एक शाम हमारे पिता की आवाज़ हम बहन-भाई के बाल-कक्ष में आन गूँजी। 

बहन को हवेली की अगाड़ी-पिछाड़ी जाने की सख़्त मनाही थी। 

अगाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ अजनबियों की आवाजाही लगी रहती थी। लोकसभा सदस्य, मेरे दादा, के राजनैतिक एवं सरकारी काम-काज अगाड़ी ही देखे-समझे जाते थे। 

और पिछाड़ी, इसलिए क्योंकि वहाँ हमारा अस्तबल था, जहाँ उन दिनों एक लोहार-परिवार घोड़ों के नाल बदल रहा था। 

“मैं ले गया था,” बहन के बचाव के लिए मैं तत्काल उठ खड़ा हुआ। 

“उसे साथ घसीटने की क्या ज़रूरत थी?” पिता ने मेरे कान उमेठे। 

“लड़की ही सयानी होती तो मना नहीं कर देती?” दरवाज़े की ओट सुनाई दे रही चूड़ियों की खनक हमारे पास आन पहुँची। पिछले वर्ष हुई हमारी माँ की मृत्यु के एक माह उपरान्त हमारे पिता ने अपना दूसरा ब्याह रचा डाला था और हमारी सौतेली माँ उस छवि पर खरी उतरती थीं जो छवि हमारी माँ ने हमारे मन में उकेर रखी थी। रामायण की कैकेयी से ले कर परिकथाओं की ‘चुड़ैल-रूपी सौतेली माँ ’के हवाले से। 

“भूल मेरी ही है,” बहन पिता के सामने आ खड़ी हुई, “घोड़ों के पास मैं ही भाई को ले कर गयी थी . . .” 

“घोड़ों के पास या लोहारों के पास?” नई माँ ठुनकीं। 

उस लोहार-परिवार में तीन सदस्य थे: लोहार, लोहारिन और उनका अठारह-उन्नीस वर्षीय बेटा। 

“हमें घोड़ों के नाल बदलते हुए देखने थे,” मैं बोल पड़ा, “और वे नाल वे लोहार-लोग बदल रहे थे . . .” 

“वही तो!” नई माँ ने अपनी चूड़ियाँ खनकायीं, “टुटपुंजिए, बेनाम उन हथौड़ियों के पास जवान लड़की का जाना शोभा देता है क्या?” 

“वे टुटपुंजिए नहीं थे,” मैं उबल लिया, “एक बैलगाड़ी के मालिक थे। कई औज़ारों के मालिक थे। और बेनाम भी नहीं थे। गाडुलिया लोहार थे। हमारी तरह चित्तौरगढ़ के मूल निवासी थे . . .” 

“लो,” नई माँ ने अपनी चूड़ियों को एक घुमावदार चक्कर खिलाया, “उन लोग ने हमारे संग साझेदारी भी निकाल ली। हमारी लड़की को अपने साथ भगा ले जाने की ज़मीन तैयार करने के वास्ते . . .” 

“आप ग़लत सोचती हैं,” मैं फट पड़ा, “वे लोग हम से रिश्ता क्यों जोड़ने लगे? वे हमें देशद्रोही मानते हैं क्योंकि हम लोग ने पहले मुग़लों की ग़ुलामी की और फिर अँगरेज़ों की . . .” 

“ऐसा कहा उन्होंने?” हमारे पिता आगबबूले हो लिए। 

“यह पूछिए ऐसा कैसे सुन लिया इन लोग ने? और यही नहीं, सुनने के बाद इसे हमें भी सुना दिया . . .” 

“यह सच ही तो है,” पहली बार उन दोनों का विरोध करते समय मैं सिकुड़ा नहीं, काँपा नहीं, डरा नहीं, “जभी तो हम लोग के पास यह बड़ी हवेली है। वौक्सवेगन है। दस घोड़े हैं। एम्बैसेडर है। तीन गायें हैं। दो भैंसे हैं . . .” 

“क्या बकते हो?” पिता ने एक ज़ोरदार तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा। 

“भाई को कुछ मत कहिए,” बहन रोने लगी, “दंड देना ही है तो मुझे दीजिए . . .” 

“देखिए तो!” नई माँ ने हमारे पिता का बिगड़ा स्वभाव और बिगाड़ देना चाहा, “कहती है, ‘दंड देना ही है तो . . . ’ मानो यह बहुत अबोध हो, निर्दोष हो, दंड की अधिकारी न हो . . .” 

“दंड तो इसे मिलेगा ही मिलेगा,” हमारे पिता की आँखें अंगारे बन लीं, “लेकिन पहले भड़कुए अपने साईस से मैं उन का नाम-पता तो मालूम कर लूँ। वही उन्हें ख़ानाबदोशों की बस्ती से पकड़ कर इधर हवेली में लाया था . . .” 

“उन लोहारों को तो मैं भी देखना चाहती हूँ,” नई माँ ने आह्लादित हो कर अपनी चूड़ियाँ खनका दीं, “जो हमारे बच्चों को ऐसे बहकाए-भटकाए हैं . . .” 

“उन्हें तो अब पुलिस देखेगी, पुलिस धरेगी। बाबूजी के दफ़्तर से मैं एस.पी. को अभी फोन लगवाता हूँ . . .” हमारे पिता हमारे बाल-कक्ष से बाहर लपक लिए। 

बहन और मैं एक दूसरे की ओर देख कर अपनी अपनी मुस्कुराहट नियन्त्रित करने लगे। 

हम जानते थे वह लोहार-परिवार किसी को नहीं मिलने वाला। 

वह चित्तौरगढ़ के लिए रवाना हो चुका था। 

(२) 

उस दोपहर जब मैं पिछली तीन दोपहरों की तरह अस्तबल के लिए निकलने लगा था तो बहन मेरे साथ हो ली थी, “आज साईस काका की छुट्टी है और नई माँ आज बड़े कमरे में सोने गयी हैं . . .” 

बड़ा कमरा मेरे पिता का निजी कमरा था और जब भी दोपहर में नई माँ उधर जातीं, वे दोनों ही लम्बी झपकी लिया करते। अपने पिता और नई माँ की अनभिज्ञता का लाभ जैसे ही बहन को उपलब्ध हुआ था, उसे याद आया था, स्कूल से उसे बग्घी में लिवाते समय साईस ने उस दोपहर की अपनी छुट्टी का उल्लेख किया था। पुराना होने के कारण वह साईस हमारे पिता का मुँह लगा था और हर किसी की ख़बर उन्हें पहुँचा दिया करता। और इसी डर से उस दोपहर से पहले बहन मेरे संग नहीं निकला करती थी। 

वैसे इन पिछली तीन दोपहरों की अपनी झाँकियों का ख़ाका मैं बहन को रोज़ देता रहा था: कैसे अपनी कर्मकारी के बीच लोहार, लोहारिन और लोहार-बेटा गपियाया करते और किस प्रकार कर्मकारी उन तीनों ने आपस में बाँट रखी थी; लोहार-बेटा मोटी अपनी रेती और छुरी से बँधे घोड़े के तलुवे और खुर के किनारे बराबर बनाता, लोहार अपने मिस्त्रीखाने के एक झोले में से अनुमानित नाप का यू-आकृति लिए एक नया नाल चुनता और उसे सुगठित रूप देने के लिए पहले झनझना रही चिनगारियों से भरी भट्टी में झोंकता और फिर ठंडे पानी में। लोहारिन अपनी धौंकनी से भट्टी में आग दहकाए रखती और जब नाल तैयार हो जाता तो उसे बँधे घोड़े के पैर पर ठोंक दिया जाता। हथौड़ों से। पिता-पुत्र द्वारा। बहन यह भी जान ली थी हथौड़ों की टनटनाहट के बीच बँधे घोड़े ख़ूब हिनहिनाया करते। जभी वह भी उस झाँकी को साक्षात् देखना चाहती थी। 

उस दोपहर जब हम बहन-भाई वहाँ पहुँचे तो लोहार-परिवार को हमने तत्कालीन प्रधान-मंत्री, जवाहर लाल नेहरु के चित्तौरगढ़ की एक सभा में दिए गए भाषण पर चर्चा करते हुए पाया। 

“सुनते तो यही हैं, उस दिन क्रोंक्रोली-सिंगोली, कचनारा-नीमच, नीमबहरा-नाथद्वारा, भानपुरा-शाहपुरा, तोड़गढ़-देवगढ़ सभी दूर-पड़ोस के गाडुलिया लोहार हजारों की संख्या में वहाँ जमे थे,” लोहार कह रहा था। 

“आप कौन हो बिटिया?” लोहारिन ने बहन से पूछा। संकोचवश उन पिता-पुत्र ने बहन को अनदेखा कर दिया था। 

“यह मेरी बहन है। सातवीं जमात में पढ़ती है . . .” 

“पढ़ती होगी। जरूर पढ़ती होगी,” लोहारिन ने बहन को सिर से पैर तक निहारा। 

हड़बड़ा कर बहन लोहार की ओर मुड़ ली, “ये गाडुलिया लोहार कौन होते हैं?” 

“जो लोग हमें मात्र धौंकिए या हथौड़िए समझते हैं वे नहीं जानते हम गाडुलिया लोहार हैं। गाड़ी वाले लोहार। चित्तौरगढ़ के राजपूत। राजा-लोग के हथियार बनाया करते थे लेकिन जब अकबर ने चित्तौर जीत लिया तो हमें हमलावर के हथियार बनाने मंज़ूर नहीं रहे और हम वहाँ से निकल पड़े,” लोहार-बेटे ने अनुबद्ध अपने घोड़े के खुर की दिशा से बहन की दिशा में अपनी गरदन उठा कर उसे एक बल खिलाया। 

“उस हमले के बाद चित्तौर में कुछ बचा भी नहीं था,” बहन ने कहा, “हमारी माँ बताया करती थीं ३०,००० तो नागरिक ही मार डाले गए थे, फिर जिनकी राजपुतानियों ने सामूहिक जौहर में अपने प्राण त्याग दिए थे। शहर के भव्य प्रवेश-द्वार उनके कब्ज़ों से उखाड़ कर आगरे भेज दिए गए थे और वे बड़े बड़े नक्कारे जिन के बजाने पर जनता को राजा लोग के आने जाने की ख़बर दी जाती थी, वे नक्कारे चित्तौर से उठा कर अकबर के दरबार में पहुँचा दिए गए थे . . .” 

“हाँ, सुना तो हम ने भी है,” लोहारिन ने अपना मुँह धौंकनी से हटाया, “कि चित्तौर फिर साल-दर-साल ऐसे उजाड़ में बदल गया था कि उसमें जंगली जानवर और चीते अपना अड्डा बनाने लगे थे . . .” 

सन् १५६८ में अकबर ने महाराणा प्रताप के पिता, महाराणा उदय सिंह (द्वितीय) से उन के राज्य मेवाड़ की राजधानी, चित्तौर, जीत ली थी और महाराणा उदय सिंह अरावली पर्वतमाला की गिरिपीठ में अपना नया नगर, उदयपुर, बसा लिए थे। 

“मगर हम गाडुलिया लोहार जब चित्तौर छोड़े तो एक सौगन्ध के साथ छोड़े,” लोहार-बेटे ने अपनी गरदन को फिर एक बल खिला दिया। 

“महाराणा प्रताप जैसी सौगन्ध?” मैं ने पूछा। अपने राज्याभिषेक के सम्पादित होते ही महाराणा प्रताप ने सौगन्ध ली थी, जब तक वे चित्तौर को अकबर से वापस जीत नहीं लेते, वे राजसी बिस्तर पर नहीं, झोंपड़ी में रहेंगे; राजसी भोज नहीं, जंगली सरस-फल, आखेट, मछवाही एवं घास की रोटी से पेट भरेंगे। और उन्होंने जीवन-पर्यन्त यह सौगन्ध निभायी भी। हालाँकि अकबर के संग तीस वर्ष के निरन्तर संघर्ष के अंतिम दस वर्षों में वे अपने मेवाड़ राज्य का अधिकांश भाग वापस जीत लेने में सफल भी हो चुके थे और केवल चित्तौर और मंडलगढ़ जीतने ही बाक़ी थे जब ५६ वर्ष की आयु में मृत्यु ने उन्हें प्राप्त कर लिया। वरना ये दो भी जीत ही लेते। 

“हमारी सौगन्ध भी कम मुश्किल नहीं थी,” लोहार अपने हाथ के नाल से खेलने लगा। 

“आपकी सौगन्ध क्या थी?” बहन ने पूछा। अनजानी, हर नयी बात जानने की उस में उत्कट इच्छा रहा करती। 

“अँधेरा हो जाने पर हम दिया नहीं जलाएँगे,” लोहार बोला, “किसी भी गाँव या शहर की आबादी के अन्दर रात नहीं बिताएँगे। कुँए से पानी भरेंगे तो रस्सी का सहारा नहीं लेंगे। सोएँगे तो चारपाई औंधी रखेंगे . . .” 

“जभी तो उस भाषण के दिन प्रधान-मंत्री ने सब से पहले हमारी उस सौगन्ध की निशानी के रूप में औंधी रखी गयी एक चारपाई ही को सीधी दिशा में पलटा था,” लोहार-बेटा अपने मौज के ज्वार पर सवार हो लिया, “फिर वहाँ जमा हुए हम लोहार लोग को उस पुल पार करने का न्यौता दिया था जहाँ हम लोग के स्वागत में गुलाब की पंखुड़ियाँ बिछायी गयी थीं . . .” 

“और भाषण में कहा क्या?” मैं भी उस की मौज में बह लिया। 

“दूर-पड़ोस के सभी गाडुलिया लोहारों को चित्तौर लौट आने को बोला। वहाँ सरकार अब हमें छत देगी, नौकरी देगी, छात्रावास देगी, वोट का अधिकार देगी, अपना नेता बनने-बनाने का अवसर देगी . . .” 

“तो आप भी चित्तौरगढ़ चले जाओगे?” मैं ने पूछा। 

“आप के अस्तबल का बस यह आख़िरी घोड़ा है,” लोहार ने कहा, “इस की नाल ठोकेंगे, अपनी मज़दूरी उठाएँगे और चित्तौरगढ़ के लिए निकल लेंगे . . .” 

“वहाँ पहुँचेंगे कब?” 

“अब बैलगाड़ी से जा रहे हैं, ” लोहार-बेटा तिक्त हो लिया, “किसी मोटर-गाड़ी या चील गाड़ी से तो जा नहीं रहे . . .” 

“चील गाड़ी?” मैं ने उसे सहज करना चाहा। 

“अरे, वही आप नेता लोग का हवाई जहाज़। चील की तरह आसमान में उड़ान लेता है न!” वह थोड़ा मुस्कराया। 

“आप लोग की वह छोटी मोटर-गाड़ी तो ख़ूब गोल-मटोल है। भृंग जैसी सूरत है उसकी,” पति की ओर देख कर लोहारिन हँसने लगी। 

यह मैं ने बहुत बाद में जाना कि वोक्सवेगन को सब से पहले नाज़ियों की जर्मन लेबर फ्रन्ट ने सन् १९३७ में कम दाम की ‘पीपल्ज़ कार’ के रूप में तैयार किया था और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उसी कारण उसकी बिक्री बहुत नीचे चली गयी थी जो फिर १९६० में जा कर सुधरी थी। 

“ख़ालिस विलायती गाड़ी है, अम्मा,” लोहार-बेटे ने हाथ की छुरी को हवा में लहराया, “ज़रूर किसी अँगरेज़ ने इन्हें इनाम में दी होगी . . .” 

“क्या मतलब?” बहन तमकी। 

“मतलब यह कि आप के दादा अँगरेज़ों के ज़माने में उन के साथ थे . . .” 

“आप को मालूम होना चाहिए वे कांग्रेस की टिकट से चुनाव जीते हैं . . .” 

“मालूम है। सब मालूम है। पहले वे अँगरेज़ों के साथ थे, कांग्रेसियों के साथ नहीं . . .” 

“कैसे?” 

“कांग्रेसियों के साथ होते तो गलियों-बाज़ारों में ‘भारत छोड़ो’ का नारा लगाते। अपनी हवेली में अँगरेज़ों को दावतें न खिलाते। खद्दर पहनते। विलायती नहीं। विलायती जलाते। लाठी खाते, जेल काटते . . .” 

“आप हम लोग का इतिहास नहीं जानते, इसलिए ऐसा कह रहे हैं,” बहन का अन्तर्वेग उस के स्वर में छलक आया, “पीछे से हम महाराणा प्रताप के उस रक्षक दल के वेश से हैं जो हल्दीघाटी की लड़ाई में झाला सरदार के साथ कंधे से कंधा मिला कर अकबर की मुग़ल सेना का सामना किए थे . . .” 

“यह झाला सरदार कौन था?” लोहारिन ने पूछा। 

“मानसिहन नाम था उसका,” मैं बोला। 

“मगर मानसिंह तो उस समय मुग़लों का सेनापति था जिस के हाथी के मरदाने से चेतक घायल हुआ था जब उस ने उसकी सूँड़ पर अपने पैर जा टिकाए थे . . .” लोहार-बेटा हल्दी-घाटी का इतिहास शायद पूरा नहीं जानता था। 

“आप उलझो नहीं,” बहन झल्लायी, “वह मानसिंह था और यह मानसिहन। झाला लोग का सरदार। जैसे भील लोग का राजा भामा शाह था। और दोनों ही अपने आदमियों के साथ महाराणा प्रताप के सहचर रहे थे। भीलों ने जहाँ अपने तीरों के ज़ोर से ढेरों दुश्मन गिराए वहीं झाला लोग ने अपनी तलवारों के ज़ोर से। फिर और साथ में एक अफ़गान सरदार भी था, हाकिम खांसूर . . .” 

“और झाला सरदार के साथ एक बड़ी दिलचस्प कहानी भी जुड़ी है,” मैं उत्साहित हो उठा, “हुआ यूँ कि महाराणा प्रताप ने जैसे ही मुग़ल सेनापति मान सिंह पर अपना बल्लम छोड़ा वह झुक लिया और उस का महावत मर गया। उधर महाराणा प्रताप को बन्दूक की एक गोली आ लगी। तलवार और बरछी से तीन घाव उन्हें पहले ही लग चुके थे। ऐसे में उनके सेनापतियों ने उनके कपड़े और मुकुट झाला सरदार मानसिहन को पहना दिए ताकि घायल महाराणा अपने चेतक के साथ दूर निकल लें . . .” 

यहाँ आप को यह बताता चलूँ २१ जून १५७६ के दिन हुई हल्दी-घाटी की यह लड़ाई केवल चार घंटे ही चली थी किन्तु वह महाराणा प्रताप और उनके सहचरों की एक अमर गाथा बन गयी। अचरज नहीं जो उन के सम्मान में २१ अगस्त २००७ के दिन हमारे पार्लिमेन्ट हाउस के सामने चेतक पर सवार महाराणा प्रताप के साथ साथ झाला मान सिहन, भामा शाह, हाकिम खां सुर तथा एक अनुवर्ती प्यादे की मूर्तियाँ अधिष्ठापित की गयी हैं। 

“मगर देखने वाली बात यह है कि झाला सरदार और भील राजा तो अपनी पूरी बिरादरी के साथ वहाँ मौजूद थे मगर महाराणा प्रताप की पूरी बिरादरी उनके साथ नहीं थी। उनके अपने ही दो भाई मुग़ल सेना में भरती हो लिए थे . . .” 

“हम जानते हैं,” मैं ने कहा, “मगर उन में जो शक्ति सिंह था उस ने उसी लड़ाई के दौरान महाराणा प्रताप की जान भी बचायी। जैसे ही उसने एक मुग़ल सिपाही को अपने घायल भाई पर वार करते हुए देखा, उस ने बढ़ कर उसे मार गिराया . . .” 

“मगर उनकी पूरी बिरादरी ने उन का साथ निभाया क्या? उन्हें क्या कहेंगे जो मुग़लों के सूबेदार बने? सेनापति बने? जागीरदार बने? पहले मुग़लों को, फिर अँगरेज़ों को कभी खुले-आम तो कभी अपने तहख़ानों में बनी सुरंगों से हथियार भेजते रहे? घोड़े भेजते रहे? रसद भेजते रहे?” लोहार-बेटा अपनी मौज में बोला। 

जभी मुझे ध्यान आया हमारी हवेली में भी एक तहख़ाना है जहाँ हमेशा ताला पड़ा रहता है और हमारे पूछने पर माँ ने बताया था वह एक ऐसी अंधी सुरंग में खुलता है जहाँ साँप और छिपकली वास करते हैं। 

बहन का चेहरा कुम्हलाया तो मेरा भी उतर लिया। क्यों हमारे पूर्वजों में दृढ़ता की, धैर्य की, सहन-शक्ति की कमी रही? 

“यह लड़का अपनी मुरली बजाया करता है,” लोहार ने हमें हँसाना चाहा, “आप इस की क्यों सुनते हो? हर कोई त्याग नहीं कर सकता। हर कोई मुश्किल नहीं झेल सकता . . .” 

“क्यों? हम गाडुलिया लोहारों में हर किसी ने त्याग नहीं किया?” लोहार-बेटा उत्तेजित हो लिया, “हर किसी ने मुश्किल नहीं झेली? हर किसी ने अपने बाप-दादा की चार सौ साल पुरानी सौगन्ध नहीं निभायी? हथियार गढ़ने की अपनी कारीगरी नहीं पिछेली? बदले में खेती के औज़ार पकड़ने को? रसोई के भाँड़े बनाने को? घोड़ों के नाल ठोंकने को? लेकिन दुश्मन का काम कभी नहीं किया, न अँगरेज़ों का, न मुग़लों का . . .” 

“तू किस बिरते पर इन अबोध बच्चों को घेर रहा है?” लोहारिन ने बेटे को टोका, “ये तो अपने बाप-दादा जैसे नहीं . . .” 

“आज नहीं हैं तो कल हो जाएँगे,” लोहार-बेटा अपने घोड़े के खुर पर लौट लिया। 

अपना सा मुँह ले कर हम बहन-भाई पिछाड़ी से निकल पड़े। 

“तुम दोनों यहाँ क्या कर रहे हो?” कुतूहली साईस ने हमें रास्ते में रोक लिया, “बिटिया, क्या बात है?” 

“कुछ नहीं,” बहन घबरा गयी। 

“क्या अस्तबल से हो कर आ रहे हो?” साईस को शायद अपनी चुग़ली को अभिनिश्चयन देना रहा। 

“तुम्हें इस से मतलब?” मैं गुर्राया। अपने पिता के अन्दाज़ में। बदस्तूर। टहुलवों के साथ उन का अन्दाज़ हमेशा कारगर सिद्ध होता था। निजता की रक्षा हेतु। 

बहन का हाथ थाम कर मैं आगे बढ़ लिया। 

साईस अपना मुँह नीचा कर के अस्तबल का रास्ता नापने लगा। 

(३) 

ख़ानाबदोशों की बस्ती से पुलिस जीप ख़ाली लौटी तो हमारे पिता ने बहन का दंड घोषित कर दिया। 
जो अकल्पनीय था। 

उसे अब मीलों दूर रह रही हमारी बुआ के शहर के एक स्कूल के छात्रावास में रहना था। 

और तीसरे दिन बहन चली गयी। 
हवेली में मैं रह गया . . . 

अकेले दम . . . 

अकेली कहानी के साथ . . . 

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