पैदल सेना

01-09-2022

पैदल सेना

दीपक शर्मा (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

सितम्बर का दूसरा शनिवार है। माँ और बाबूजी के कमरे में बिस्तर के बग़ल में बैठी बहन, माँ से कह रही है, ”इस मालिश और व्यायाम से आप बहुत जल्दी फिर से पहले की तरह नहाने लगेंगी, खाना बनाने लगेंगी।”

इस वर्ष की जनवरी माँ को बिस्तर पकड़ा गई है, बाबूजी को नया जीवन-लक्ष्य तथा बहन को पुत्री-सुलभ अपने मातृ-प्रेम का प्रदर्शन करने का नया माध्यम। 

अपने इस नए जीवन-लक्ष्य के अन्तर्गत बाबूजी रोज़ की तरह माँ के रोग-ग्रस्त बाएँ भाग में औषधीय उस तेल की मालिश कर रहे हैं जिसे माँ के फ़िज़ियोथैरपिस्ट ने कुछ विशिष्ट व्यायाम के साथ करने को प्रदिष्ट किया है। उच्च रक्तचाप के कारण निष्क्रिय हो चुके माँ के बाएँ भाग में फिर से उनकी पुरानी सक्रियता लौटाने की उतावली है उन्हें। 

”सच?” मूर्खा माँ बहन की सान्त्वना गटगट गटक लेती हैं। जलबुझ बनीं अपनी असंमजस-भरी आँखों के साथ। पूछती नहीं, अनिर्धार्य को निर्धारित करने वाली बहन कौन है? क्या है? 

”क्यों नहीं?” मन्त्रमुग्ध मुद्रा में बाबूजी कभी माँ की ओर देखकर मुस्कुराते हैं तो कभी बहन की ओर। दो वर्ष पहले वे उसी डिग्री कॉलेज के अँग्रेज़ी विभाग से सेवा-निवृत्त हुए हैं जिसमें पिछले सात वर्षों से मैं दर्शन-शास्त्र पढ़ा रहा हूँ। 

”सोमवार की अपनी टिकट तो आप साथ लाई होगी?” अन्तरंग उस दृश्य को भंग करते हुए मैं बहन से पूछता हूँ। 

माँ की ’शुभ-चिन्ता’ को सामने रखते हुए प्रत्येक माह के दूसरे शुक्रवार बहन मुम्बई से रेलगाड़ी पकड़ती है और शनिवार की दोपहर यहाँ, कस्बापुर, पहुँच लेती है। सोमवार की शाम फिर से उसमें सवार होने हेतु। 

”हाँ। सोमवार की टिकट है।”

”सोचता हूँ, उस टिकट को आगे बढ़ा लाऊँ। बुध की ले आऊँ।”

”बुध को रंजन का जन्मदिन है और मैं वह दिन रेलगाड़ी में बिताना नहीं चाहती।”

रंजन मेरा तथाकथित ’बहनोई’ है। ‘तथाकथित’ इसलिए क्योंकि बहन से उसकी विधिवत शादी होनी अभी बाक़ी है। किन्तु यह भेद हम चारों के अतिरिक्त कस्बापुर में कोई नहीं जानता। मेरी पाँच वर्ष पुरानी पत्नी, उर्वशी भी नहीं। दूसरे परिवारजन एवं मित्रों-परिचितों की भाँति वह भी यह मानती है बारह वर्ष पहले बहन ने मुम्बई पहुँचते ही हम तीनों की उपस्थिति में रंजन से शादी की थी। 

”मगर उसका प्रोग्राम तुम बदलना क्यों चाहते हो?” बाबूजी हथियार-बन्द हो जाते हैं। बहन के पक्ष में। बहन के सामने वे मेरे संग एक खेल शुरू कर ही देते हैं। खेल उस मायने में जिसका उल्लेख रोलां बार्थ ने आन्द्रे यीद के सन्दर्भ में किया था। डन फॉर नथिंग (अकारण)। 

”क्योंकि मैं उर्वशी को थोड़ा घुमा लाना चाहता हूँ। बेचारी जनवरी से इधर पिस रही है।”

”पिस रही है? या पीस रही है?” माँ बोल उठती हैं। 

”मृत्यु की धार से लौटकर भी कड़वा बोलेंगी? ग़लत बोलेंगी?” मैं चीख पड़ता हूँ। 

”तुम्हें शर्म आनी चाहिए” बाबूजी चिनगते हैं, ”बीमार को भी बोलने की छूट नहीं दे सकते।”

”कुछ नहीं जी,” माँ फिर बोल उठती हैं, ”जो कुछ मैं पहले देखती-सुनती थी, वही अब भी देख-सुन रही हूँ। कोई लिहाज़ नहीं।”

”आप उर्वशी के साथ अन्याय कर रही हो, माँ,” बहन समझती है, वह सन्धिकर्त्री नहीं बनेगी तो यहाँ अग्निगोले दग जाएँगे। 

”तो आप न्याय कर दो। अपनी मुम्बई की टिकट आगे की ले लो। यहाँ तीन दिन और रुक जाओ। आलोक और वृन्दा भी ख़ुश हो जायँगे,” आलोक मेरा चार वर्षीय बेटा है और वृन्दा, एक वर्षीया बेटी। 

”मुझे बहुत बुरा लग रहा है। अगर रंजन का जन्मदिन आड़े न आया होता तो मैं ज़रूर रुक जाती।”

”यह अगर-मगर क्या होता है?” मैं भड़क जाता हूँ, ”सच तो यह है कि आप उसके बाट पर अपने को लगातार बनाए रखना चाहती हैं क्योंकि आप जानती हैं वह कभी भी आपको बारह बाट करके कोई नया रिश्ता गाँठ सकता है।”

”तुम बड़ी बहन से कैसे बोल रहे हो?” बाबूजी माँ की बाँह छोड़कर मेरी ओर मुड़ लेते हैं। 

दुर्जेय भाव से। 

”क्योंकि आप उससे सच नहीं बोल पाते।”

”तुम्हें सच सुनना ही है तो मुझसे सुनो। मुम्बई मैं अपनी कला के लिए गई थी और अब भी वहाँ अपनी कला ही के लिए रह रही हूँ। बुनियादी तौर पर मैं एक कलाकार हूँ और अपनी कला को बन्द नहीं रख सकती। उधर रहती हूँ तो यह पहचान भी पाती है और अभिव्यक्ति भी।” बहन का टीवी की दुनिया में ऊँचा नाम है। उसे इस दुनिया में रंजन ही लाया था। उस समय बहन लखनऊ में एम.ए. कर रही थी और वह बतौर निर्देशक अपना टीवी सीरियल बना रहा था। और फिर जैसे ही उसे मुम्बई में काम मिला था वह बहन को साथ ले गया था। इधर बहन तीन-तीन लोकप्रिय टीवी सीरियलों में ‘माँ’ की भूमिका में दिखाई भी दे रही है। 

”मतलब?” मैं ताव खाता हूँ, ”हम लोग के लिए तुम्हारी कोई ज़िम्मदारी नहीं? जवाबदेही नहीं? तुम्हें अपनी अभिव्यक्ति चाहिए? पहचान चाहिए? स्वतन्त्रता चाहिए? और मुझे? दंडाज्ञा? माँ और बाबूजी के बने बाड़े में बने रहने की?”

”तुम्हें ऐसी कोई मजबूरी नहीं, ” बाबूजी उठ खड़े होते हैं, ”तुम चाहो तो आज अलग हो जाओ। अभी अलग हो जाओ . . . ”

”ऐसा न कहिए, बाबूजी।” बहन रोने लगती है, ”आपको अलग तो मुझे करना चाहिए। अलग तो मुझे होना चाहिए।”

”जो बात आपको बारह साल पहले समझनी चाहिए थी वह आज समझीं आप?” मैं चिल्लाता हूँ। 

”बस भी करो, ” अपनी पूरी ताक़त के साथ माँ अपना दायाँ हाथ अपने बिस्तर पर पटकती हैं, ”बहुत हो गया।”

”बहुत तो हुआ ही है। क़हर तो बरपा ही है। पूरे शहर में न हमारे बाबूजी जैसे पिता ढूँढ़े से मिलेंगे और न उनकी बेटी जैसी कोई बेटी।” इधर बेटी बोली, ”मैं कलाकार हूँ अभिनय करूँगी।” उधर बाबूजी बोले, ”तुम सच में बहुत बड़ी कलाकार हो, बहुत अभिनय कर सकती हो।” इधर बेटी बोली, ”रंजन मेरा क़द्रदान है। मैं उसके साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहूँगी।” उधर बाबूजी बोले, ”हाँ वह तुम्हारी बहुत क़द्र करता है। तुम उसके साथ जैसे भी चाहो रहने के लिए ’आज़ाद’ हो।”

”हम सभी आज़ाद नहीं हैं क्या?” बहन मेरे समीप आकर मेरी पीठ घेर लेती है। पुराने दिनों की तरह। 

”तुम्हीं ने मुझे हेडेगर की बात बताई थी, अपने माँ-बाप चुनने की आज़ादी से वंचित इस सृष्टि में हम सभी ’फेंके’ जाते हैं, वी आर ’थ्रोन’ हियर और हमारे जीवन में बहुत कुछ ’गिवन’ होता है। मगर . . . ”

”मतलब? रंजन तुम्हें ’गिवन’ था? या मुम्बई तुम्हारे पास चली आई थी। तुम्हारी ’गिवन’ मंज़िल? या फिर मैं ही तुम्हें वहाँ ’फेंकने गया’ था?” बहन की बाँह मैं अपनी पीठ से नीचे झटक देता हूँ। जानता हूँ ’मगर’ के बाद वह हेडेगर की अगली बात किकियाने वाली है, हमारा भविष्य ज़रूर हमारे लिए अपने को नए सिरे से स्थापित करने की सम्भावना रखता है लेकिन इस समय मैं कुछ नहीं उससे सुनना चाहता। गोटी उसके साथ में नहीं देना चाहता। 

”अपनी बहन से तुम ऐसे नहीं बोल सकते,” बाबूजी अपने स्वर में रोदन ले आते हैं। उनकी चित्त प्रकृति तर्क स्वीकारती नहीं, अश्रुमुख से गला भर लेती है, ”उसकी ख़ुशी मेरे लिए बहुत महत्त्व रखती है।”

”और मेरी ख़ुशी का कोई महत्त्व नहीं?”

”अगर तुम्हारी ख़ुशी उसकी ख़ुशी में हस्तक्षेप नहीं करती तो वह महत्त्व रखती है, वरना नहीं,” आत्यन्तिक वीरोचित अपने मंच की ओर बाबूजी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। 

”आप कभी तो मर्द बनकर बात कर लिया करें,” मैं चिल्ला उठता हूँ। “क्यों आप रंजन से छाती तानकर उसे शादी कि लिए तैयार नहीं करा सकते?”

”उर्वशी को सुना रहे हो?” उर्वशी के साथ माँ बहुत भेदभाव रखती हैं। 

”ठीक है, उसे ही जा सुनाता हूँ,” मैं दरवाज़े की ओर क़दम बढ़ाता हूँ। 

”सुनो तो!” बहन पीछे से मुझे पुकारती है किन्तु मेरे ग़ुस्से की हड़बड़ी मुझे कमरे से बाहर निकाल ले आती है। 

”क्या सुनाना है मुझे?” उर्वशी मुझे दरवाज़े के बाहर ही मिल जाती है। 

”बुध को जीजाजी का जन्मदिन पड़ रहा है और जीजी का इस सोमवार ही को जाना ज़रूरी है।”

”बस, इतना ही सुनाना है या कुछ और भी?” उर्वशी अपनी गोटी बिठाना चाहती है। 

”और क्या होगा?” मैं सतर्क हो लेता हूँ। 

”अन्दर बातचीत तो आपकी देर तक चली है और ख़ूब हो-हल्ले के बीच चली है,” उर्वशी अपना बाण फिर बाँधती है। 

”जीजी अपने नए टीवी सीरियल की बात कर रही थीं।” मैं टाल जाता हूँ। उर्वशी के संग बहन को संवाद का विषय बनाने से मैं हमेशा बचता रहा हूँ। 

”लेकिन कोई उनसे पूछे कि यहाँ वे किसी रिएलिटी शो में अपनी स्टार वैल्यू बाँटने आती हैं या फिर हमारे परिवार में अपनी साझेदारी मज़बूत बनाने?”

”मतलब?” मैं थोड़ा चौंकता हूँ। 

”मतलब यह कि वह यहाँ ऐसे आती हैं जैसे स्टार लोग किसी रिएलिटी शो में जाया करते हैं। ताली बजाकर वाहवाही लूटने और शाबाशी देकर जय-जयकार करवाने।”

टीवी देखने का उर्वशी को सनक की सीमा तक शौक़ है। हालाँकि माँ उसे शौक़ नहीं, उसकी युक्ति मानती हैं। टीवी की ओट में अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने की युक्ति। 

”छोड़ो . . . ”

 

बहन की आत्महत्या की सूचना मुझे अपने दफ़्तर में मिलती है। उसी दिन देर, दोपहर। उर्वशी से, ”फौरन घर पहुँचिए। जीजी छत से नीचे कूद गई हैं।”

घर पहुँचकर मालूम पड़ता है उर्वशी के कानों में मोबाइल पर बात कर रही बहन के जो वाक्य बार-बार आन टकराए थे उनमें एक शब्द बारम्बार दोहराया जाता रहा था: शादी। 

बहन के मोबाइल की अन्तिम डायल्ड कॉल रंजन के नाम दर्ज थी। 

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