तक़दीर की खोटी

01-03-2022

तक़दीर की खोटी

दीपक शर्मा (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

देहली के एक बड़े हॉल में अगले माह मेरे चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी आयोजित की जा रही थी। 

उस शाम मैं एक महत्त्वपूर्ण चित्र पर काम कर रहा था। एक टूटे दर्पण में एक साबुत मानवी चेहरे के विभिन्न खण्ड उतार कर। 

तत्पर घोड़ों की मानिन्द मेरे हाथ मेरे कैनवस पर दौड़ रहे थे। 

सरपट। 

फिर अचीते ही वह बिदक लिए। 

मैंने उन्हें लाख एड़ी देनी चाही किन्तु उनकी दुलकी ने रफ़्तार पकड़ने से साफ़ इनकार कर दिया। 

बिगड़ैल घोड़ों की मानिन्द। 

क्या उन्हें बाबूजी ने एड़ी लगाई थी? 

अथवा जिज्जी ने? 

काम रोककर मैं अपने स्कूटर पर बैठ लिया। 

साधन सम्पन्न मेरे एक मित्र ने विशाल अपने बँगले के एक कमरे को मुझे मेरे स्टूडियो के लिए दे रखा था और पिछले कुछ महीनों की अपनी अतिव्यस्तता के कारण रात में भी मेरा अपने घर जाना बहुत कम हो गया था। 

अजीब और अटपटा तो ज़रूर लगता था कि एक ही शहर में अरे-परे एक भरी-पूरी रौनक़ी सड़क पर मेरे पास मंगलप्रद एवं सुविधाजनक अपना यह अस्थायी ठौर था और सरासर बोझिल एक संकरी रेलवे कालोनी में रेल की धमक और धुएँ से शापित एवं कष्टप्रद वह स्थायी ठिकाना। एक आवास में प्रतापी और प्रतिष्ठित मेरे मित्र थे, सावकाश और मिलनसार उनकी पत्नी थी प्रफुल्लित और स्फूर्तिगत, उनकी दो बेटियाँ थीं—सलोनी और दूसरे निवास पर व्यग्र और रुग्ण बाबूजी थे तथा विषाद प्रवण और अन्तर्ग्रस्त जिज्जी! 

और यह बात भी कम हैरत की नहीं थी जो इस छोर से गुज़रती हुई हवा उधर मेरे स्टूडियो में अक़्सर आ धमकती थी और इस घर की धड़कनें मुझे अपने स्टूडियो में साफ़ सुनाई दे जाती थीं और बिना किसी दूर-भाष अथवा दूर-संचार के बाबूजी और जिज्जी के दूर-संवेदी संदेश मुझ तक हमेशा पहुँच लेते थे और मैं इधर की तरफ़ उड़ आता था। 

हमेशा की तरह उस शाम भी सोलह सीढ़ियों पर बैठे मेरे घर ने मुझे देखते ही अपना ज्वारनदमुख खोल दिया। 

“किशोरी लाल जी आए हैं?” मेरे स्कूटर की आवाज़ सुनते ही बाबूजी उसके मुहाने पर आ खड़े हुए। 

इधर अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद से मेरे संग बाबूजी अपने व्यवहार में औपचारिक बाह्याचार बरतने लगे थे। 

“हाँ,” यथा नियम मैंने भी हाज़िरी भरी, “मैं, किशोरीलाल।” 

“इन्दु बीमार है,” सीढ़ियाँ पार कर जैसे ही मैं बाबूजी के पास पहुँचा बाबूजी ने मुझे चेताया, “अच्छा किया जो आज आप इधर चले आए . . . बेचारी तीन दिन से मुँह औंधे बिस्तर पर पड़ी है . . . अपने काम पर नहीं जा रही . . .”

पिछले पाँच वर्षों से जिज्जी रेलवे स्टेशन पर उद्घोषक का काम कर रही थीं। 

अपनी सेवा-निवृत्ति से एक साल पहले ही जिज्जी को बाबूजी ने यह नौकरी दिला दी थी। अपने रेलवे क्वार्टर को अपने अधिकार में रखने हेतु। 

“मलेरिया न हो?” दो कमरों के उस मकान में रसोई की बग़ल वाले कमरे में जिज्जी अपनी चारपाई पर लेटी रहीं। 

“हो सकता है,” बाबूजी की आवाज़ उनके हाथों के संग-संग काँपी–इधर कुछ समय से वे पारकिनसनज़ डिज़ीज़ के तेज़ी से शिकार हो रहे थे। “बुखार के साथ-साथ कँपकँपी रहती है . . .”

“क्या बात है जिज्जी?” मैंने जिज्जी का कंधा हिलाया, “डॉक्टर बुलाऊँ क्या?” 

जिज्जी ने सिर हिलाया। 

तिरछी दिशा में। 

किसी कठपुतली की ऐंठन के साथ। 

अल्पभाषी जिज्जी बीमारी में अपनी ज़ुबान पर ताला लगा लिया करतीं। 

“मैं डॉक्टर ला रहा हूँ,” मैंने कहा। 

जिज्जी की आँखों में आँसू तैर आए। 

इस रेलवे कालोनी का दूसरा सिरा गोटे बाज़ार में खुलता था। 

उधर गए मुझे एक अरसा बीत चला था और उस शाम मैंने उसी तरफ़ अपना स्कूटर बढ़ाया। 

गोटे बाज़ार के बाद की गली चूड़ियों की रही और उससे अगली ज़ेवरात की। उसके बाद एक तिराहा आया जिसका एक रास्ता प्लास्टिक की बालटियों से भरा रहा और दूसरा स्टोव आदि की मरम्मत करने वाली दुकानों से। 

तीसरी दुकान परचून की थी, दूसरी अचार-मुरब्बे की और तीसरी एक डॉक्टर की। 

बोर्ड पर डॉक्टर का नाम सूर्यपाल वशिष्ठ लिखा था और नीचे मिलने के घंटे दर्ज थे, सुबह आठ से दोपहर एक बजे तथा शाम पाँच से आठ बजे। 

उस समय मेरी घड़ी पौने छह बजा रही थी। 

मैंने अपना स्कूटर उसी दुकान पर रोक लिया। 

“आप रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं क्या?” डॉक्टर की कुरसी पर बैठा युवक मुश्किल से चौबीस का रहा होगा। लगभग मेरी ही उम्र का। 

“नहीं मैं अभी पढ़ रहा हूँ। मेडिकल कॉलेज के फ़ोर्थ ईयर में। यह दुकान मेरे पिता की है। इधर कुछ महीनों से वे अस्वस्थ चल रहे हैं और मैं उनके मरीज़ों को देखने चला जाता हूँ।” 

“आपको अपने घर ले जाना चाहता हूँ,”  मैंने कहा, “मेरी बहन बीमार है . . .”

“घर जाने की हम दुगुनी फ़ीस लेते हैं, अस्सी रुपया . . .”

“आइए, मेरे पास स्कूटर है . . .” 

युवक ने मेज़ की दराज से स्टेथोस्कोप निकाला, आलमारी से कुछ दवाइयाँ लीं और अचार-मुरब्बे वाली दुकान के काउंटर पर बैठे अधेड़ व्यक्ति को आवाज़ दी, “चाचा कोई आए तो उसे बैठा लीजिएगा, मैं जल्दी ही लौट आऊँगा।” 

“ठीक है,” अधेड़ ने मुँह छिपाकर अपनी हँसी दबाने का प्रयत्न किया, “बिल्कुल ठीक।” 

“ये आपकी बहन हैं?” जिज्जी पर आँख पड़ते ही युवक ने अपनी आँखेंं फैला लीं। 

निस्संदेह जिज्जी की दयनीय अवस्था न्यायतः किसी भी अजनबी की आँखों में चुभ सकती थी। जिस पर उस समय की उनकी रोगजनक अस्तव्यस्तता मेरे बढ़िया परिधान के कारण हमारे बीच के अन्यत्व को कुछ ज़्यादा ही उजागर कर रही थीं। 

“आप अपनी सिगरेट बन्द कीजिए,” अपने स्टेथोस्कोप से जिज्जी की जाँच करने के बाद युवक ने मुझसे कहा, “मरीज़ की हालत अच्छी नहीं। इनके नाक से लहू टपक रहा है। चमड़ी के नीचे गाँठें बँध रही हैं, बुखार बहुत तेज़ है और इनका दिल ज़ोर से कलकला रहा है।” 

“अब क्या करना होगा?” मैंने अपनी सिगरेट तत्काल बुझा दी। 

“मुझे बर्फ़ ला दीजिए। मरीज़ का बुखार उतरना बेहद ज़रूरी है।” 

बर्फ़ की सभी पट्टियों का हिसाब युवक ने स्वयं रखा। 

माथे की पट्टियाँ . . . 
पेट की पट्टियाँ . . . 
पैर की पट्टियाँ . . . 

सभी पट्टियाँ युवक ने स्वयं भिगोयीं, लगाईं और हटायीं। बाबूजी और मैं पेशेवर उसकी ऊर्जस्विता को ताक़ते रहे। 

निःशब्द। 

बीच में दो एक बार जब भी मैंने अपनी सिगरेट सुलगाने की चेष्टा की तो युवक ने इशारे से मुझे रोक दिया। 

अंततः जिज्जी ने अपनी आँखें खोलीं। 

युवक उस समय उनके पेट की पट्टियाँ बदल डाली। 

तब एक उत्सुकता ने अनवरत उनकी टकटकी को विराम देकर उनकी आँखेंं मिचका दीं . . . 

बारहमासी उनकी त्यौरी के बल उनके माथे से उतार दिए . . . 

और दबी हुई एक हँसी उनकी गालों के गड्ढों को गुदगुदा गई। 

मानो उनकी तरुणाई के मूक आवेग ने चिहुँक कर उन्हें अन्दर तक झकझोर दिया। 

“हाँ,” युवक प्रेमभाव से मुस्कुराया। 

“आप जिज्जी को जानते हैं?” 

“ये मेरी दुकान पर आ चुकी हैं . . .”

युवक मुझे बाहर सीढ़ियों पर ले आया। 

“ये बीमार हैं . . . ज़्यादा बीमार हैं . . . बहुत ज़्यादा बीमार है . . .”

“ऐसी क्या बीमार है?” 

“इनके दिल के अन्दर लहू रिसता रहता है। बराबर। लगातार। डॉक्टरी भाषा में इसे रिगरजिटेशन कहते हैं। इन्हें आपरेशन की सख़्त ज़रूरत है . . .”

“दिल के आपरेशन की?” 

“हाँ। इनके दिल की जो वाल्व इनके लहू को इनके दिल के अन्दर उल्टा बहा रहा है, आपरेशन से वह वाल्व दुरूस्त की जा सकती है।” 

“महँगा आपरेशन है?” मैंने अपनी अपनी सिगरेट सुलगा ली। 

“शहर के एक बड़े सर्जन मेरे गुरु हैं,” युवक ने अपनी थूक निगली, ”मेरा कहना वे टाल नहीं सकते। मैं उन्हें कहूँगा तो वे इस आपरेशन की फ़ीस न लेंगे . . .”

जिज्जी के साथ इतनी रियायत? 

यह रियायत आनुषंगिक थी अथवा दैवकृत? 

जिज्जी उसकी सहानुभूति का पात्र थीं? अथवा कौतूहल का विषय? 

“आपरेशन के लिए दो एक महीने रुका जा सकता है क्या? इधर मैं बहुत वयस्त हूँ . . .”

“रुकना चाहिए तो नहीं . . .”

“ठीक है। आप आपरेशन की व्यवस्था कीजिए। जो भी बाबूजी से बन पड़ेगा वे आप को ज़रूर दे देंगे . . .”

जिज्जी के आपरेशन के दिन मैं देहली में था। 

मेरी एकल प्रदर्शनी सफल रही थी और आज-कल-परसों की मेरी वापसी यात्रा डेढ़ महीने तक निरन्तर टलती चली गई थी। 

अपनी वापसी पर स्टेशन से मैं सीधा अपने स्टूडियो ही गया। 

कमरा खोलते ही सामने लगे कैलेन्डर के एक पुराने महीने की किसी एक तारीख़ पर मेरे हाथ से बने गोले के अन्दर ’जिज्जी’ लिखा देखकर मुझे ध्यान आया उनका आपरेशन हो चुका होगा। 

मगर अभी मैं थोड़ा आराम करना चाहता था। देहली से लाई क़ीमती सिगरेट के ज़ायक़े का लुत्फ़ उठाना चाहता था। 

निर्विघ्न। 

“ठक,” मेरी तीसरी सिगरेट पर मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। 

“ठक . . . ठक . . .”

“आइए,” दरवाज़े पर मेरे मित्र की पत्नी रहीं। 

“कैसे कहूँ?” अपनी किशोर बेटियों की तरह बात करते समय अपना नाक सिकोड़ने की उन्हें आदत रही, “अच्छा ठीक है। पहले तो आपको बधाई ही दे दूँ। पिछले दिनों की कई अख़बारों में आप की पेंटिंग्ज की समीक्षाएँ देखने को मिलीं . . . बहुत अच्छा लगा . . .” 

“जी हाँ,” मैं हँसा, ” इक्कीस में से मेरी अठारह पेंटिंग्ज़ तो बिक ही गई हैं . . . और वे भी अच्छी क़ीमत पर।” 

“अब दूसरी बात पर आती हूँ,” वे गम्भीर हो गईं, “आपको शायद मालूम नहीं आपकी बहन बहुत बुरी क़िस्मत लेकर आई रहीं . . .”

“कैसे?” मैं काँपने लगा। 

“आप एकदम कुछ नहीं जानते क्या? आपके पिता आपको ढूँढ़ते हुए तीन बार यहाँ आए। पहली बार वे आपकी बहन के आपरेशन के परचे के साथ आए। फिर दूसरी बार उनकी मृत्यु की सूचना के साथ और फिर तीसरी बार किसी मकान के ऋणपत्र के साथ . . .” 

“हँ . . . हँ . . .” मेरा गला सूखने लगा। 

“आप कलाकार लोग भी अजीब मिट्टी के बने होते हैं। आप देहली जा रहे हैं यह तो आप बताकर गए लेकिन आप देहली में कहाँ मिलेंगे यह आपने बताया ही नहीं . . .”

“ऊँह, “मैंने आह भरी। 

“मैं आपको फिर बाद में मिलती हूँ।” 

“ठीक है, धन्यवाद,” दरवाज़े की सिटकिनी चढ़ाते समय सहसा मेरी। रुलाई छूट गई। 

जिज्जी। 

बेचारी जिज्जी। 

मेरी प्यारी जिज्जी। 

अट्ठाइस साल क्या किसी के मरने की उम्र है? 

लपक कर अपने पुराने सामान से मैं वे कापियाँ खोजने लगा जिनमें मैंने अपने बचपन और कैशोर्य की जिज्जी दर्ज कर रखी थी। मृदुल और चंचल। हँसमुख और तन्दुरुस्त। 

कब और कैसे और क्यों जिज्जी का लवण शोरे के तेज़ाब की मानिन्द खारा हो गया था और जिज्जी की मिठास कास्टिक सोडे की मानिन्द खट्टी? 

कब और कैसे और क्यों जिज्जी के दिल के कपाट उनके रिसते लहू को सम्भालने में असमर्थ रहे थे? 

कारण क्या माँ की कैन्सर से मृत्यु रही? बाबूजी का बिगड़ता स्वास्थ्य रहा? अथवा मेरा यह नया ठिकाना? 

या फिर जिज्जी को दई लग गई? 

दई की दंड-संहिता? 

असमय और अकारण! 

यादृच्छिक, मगर अनर्जित!! 

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