अच्छे हाथों में
दीपक शर्मा“धुआँ।”
क्या मेरे मुँह ने धुआँ उगला था?
हे बजरंगबली!
मैं काँप गया।
नहीं यह सच नहीं था।
यह सच नहीं हो सकता था।
मेरी भक्ति में खोट? वह ज़रूर सपना रहा होगा।
मैंने अपनी बाँह पर चुटकी काटी।
नहीं, मेरे पास सिगरेट नहीं थी। सिगरेट मैं सपने में ही पी रहा था, सचमुच में नहीं।
जय बजरंगबली। मैंने दोहराया। मेरे इष्ट ने मुझे उबार लिया। मुझे प्रलोभन से बचा लिया।
6 महीने पहले दशहरे के शुभ दिन में मैंने सिगरेट की एक नई डिबिया ख़रीदी थी और बेसन के लड्डू के प्रसाद के साथ अपने बजरंगबली को चढ़ा दी थी।
इस वचन के साथ कि सब मैं कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।
मैंने अपनी आँखें खोली। कमरे में मैं अकेला था। मेरे बेटे की चारपाई नहीं बिछी थी।
मैं पीछे वाले बरामदे में चला आया। अपने मकान में मैं अपनी बैठक में सोता हूँ पत्नी पिछले बरामदे में। और दोनों लड़कियाँ दूसरे भंडार कमरे में। दो दिन पहले तक अपनी चार साल की उम्र से मेरा बेटा मेरे पास सोता रहा था। नैनीताल के अपने सरकारी स्कूल में दाख़िल होने से पहले। आठवीं जमात में।
पिछले बरामदे में पत्नी अपनी चारपायी पर पालथी मारे बैठी रो रही थी।
“रोती क्यों हो? पहले कुछ पैसा जोड़ लें फिर तुम्हें उस के पास नैनीताल घुमा लाऊँगा।”
“कब पैसे जुड़ेगे?” पत्नी की सिसकियाँ तेज़ हो गयी, “और कब हम जा पाएँगे? तब तक मैं मर न जाऊँगी?”
“शुभ-शुभ बोल,” मैं ने पत्नी की पीठ बाँहों से घेर ली, “बजरंगबली हमारे रखवाले हैं। यह भी तो बजरंगबली ही का चमत्कार है कि दो लाख लड़के उस आवासी छात्रवृत्ति के लिए परीक्षा दिए, मगर आख़िर चुने कितने गए? कुल साठ। बजरंगबली की लीला देख—हमारा माणिक उन में से एक था।”
अपने तीनों बच्चों के नाम मैंने नगीनों पर रखे हैं। लड़के का नाम माणिक है, बड़ी लड़की का नाम नीलमणि और छोटी का नाम मुक्ता है।
“मगर मैं क्या करूँ? उसका ध्यान मेरे मन से उतरता ही नहीं। मेरा नन्हा, मेरा चिलबिल्ला।”
“तुम से धीरज धरे नहीं बनता, तो बाद में न सही, तुम कहोगी तो कल चले चलेंगे। अपने महेशी से थोड़ा उधार और ले लेंगे।”
महेशी हमारे मुहल्ले का हलवाई था। उसे हम अपनी गाय का दूध बेचते हैं। अच्छे वक़्तों में मेरे पिता जी दो अच्छी ख़रीदारी कर गए। उन से एक तो यह मकान है और दूसरी हमारी जर्सी गाय।
“फेंकिए नहीं,” पत्नी का रोष दूर न हुआ, “बात-बेबात पर, दिन-धौले ख़्वाब दिखाना कोई आप से सीखे।”
“तुम रात को अगर दिन कहती हो तो मैं वही मान लेता हूँ।”
“क्या मैं उस महेशी को नहीं जानती? या फिर आपको?”
“अच्छा! तुम मुझे जानती हो?”
“जानती हूँ। ख़ूब जानती हूँ। बेटे को वह बनाना चाहते हो जो ख़ुद नहीं बन पाए।”
“सच कहती हो, भागमती,” आत्मीयता के क्षणों में मैं उसे भागमती ही कहा करता हूँ, “मैं कुछ नहीं बन पाया लेकिन उसे कुछ बनाने की साध ज़रूर पाले हूँ। शुरू ही से। पैदल रास्ते वाले अपने स्कूल की जगह जभी उसे स्कूल बस वाले स्कूल में दाख़िला दिलवाया।”
“वहीं से दसवीं तक पढ़ता रहता तो हर्ज क्या था?”
“नहीं। उस का कस्बापुर से, इस मुहल्ले से दूर जाना बहुत ज़रूरी था।”
“किस लिए भला?” पत्नी सकते में आ गयी।
“उधर बैठक में चलो। वहाँ बताता हूँ।”
-2-
6 महीने पहले का वह दशहरा मेरी आँखों के सामने सजीव हो उठा। उस दशहरे की सुबह भी रोज़ की तरह माणिक घड़ी का अलार्म बजते ही चार बजे उठ बैठा था।
मेरे तख़्त के साथ बिछी मुड़वां अपनी चारपाई उसने समेटी थी। हर रात कोने में टिकायी जानेवाली अपनी कुर्सी और मेज़ चारपाई की जगह लगायी थी और पढ़ने लगा था।
उस के जागने से एकाध घंटा पहले ही से मैं भी निवृत हो कर अपने तख़्त पर अपना काम बिछाए बैठा था। मोटे काग़ज़ पर या दबीज कपड़े पर तस्वीर उतारने में मेरा हाथ निपुण है। शहर की एक आर्ट गैलरी का काम मैं अक़्सर पकड़े रहता हूँ। मेरे हाथ के तैयार किए हुए मेरे बजरंगबली तो उस गैलरी के मालिक को ख़ास पसन्द हैं ही, साथ ही मेरे बने प्राकृतिक दृश्य भी उसके ग्राहक बड़ी संख्या में खरीदते हैं।
“आज दशहरा है,” अभी कुछ ही पल बीते होंगे कि वह बोल पड़ा था।
“है तो। क्यों?” मैं चौंका था।
“लाला के ट्रक में मुझे आज ज़रूर जाना है,” अपनी ज़िद माणिक हमेशा उसी दबंग स्वर में सामने रखा करता।
“तुम क्या कह रहे हो?” मेरी त्योरी चढ़ गयी थी।
माणिक जानता था लाले के साथ मेरा मनमुटाव चल रहा था।
मेरे मकान को लेकर जिसे वह ख़रीदना चाहता है और मैं बेचना नहीं।
तीन साल पहले वह हमारे वार्ड से महापालिका का चुनाव जब जीता तो हमारे मुहल्ले को मिटा कर उस पर एक होटल बनाने की योजना बना बैठा। हालाँकि तिमंज़िला उसका पुश्तैनी मकान भी यहीं स्थित है। मुहल्ले की आधी इमारतें अपने नाम करने में उसे सफलता मिली भी है किन्तु अभी भी मुझ जैसे कुछ मुहल्लेदार ऐसे भी हैं जो उसे सहयोग न देने पर अड़े हैं।
इन्हीं वर्षों में उस ने अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लोभ में मुहल्ले वालों को दशहरा मैदान ले जाने व लौटा लाने का बीड़ा उठा लिया है।
दशहरे के दिन गली के मुहाने पर एक ट्रक साढ़े तीन बजे तक लगवा दिया जाता है। एक घंटे के अन्दर वह ठसाठस भर भी जाता है, इतना कि उसमें तिल धरने की जगह भी नहीं बचती। ठीक साढ़े चार बजे लाला, ललाइन और उनकी इकलौती बेटी अपने तिमंज़िले की सीढ़ियों से नीचे उतरते हैं और ट्रक की ओर बढ़ लेते हैं। ट्रक डाइवर उन्हें अपनी बग़ल में बिठला कर ट्रक स्टार्ट करता है और पीछे की सवारियों में धक्कामुक्की चालू हो जाती है।
“उस ट्रक में पहले तो तुम ने जाने की ज़िद कभी नहीं की, जो अब जाना चाहते हो? क्यों? क्या बात है?
“मुहल्ले के लड़कों में इस बार मनोज के साथ शर्त लगायी है, इस साल भी आप मुझे घर पर रोक लेंगे। लाले के ट्रक में जाने नहीं देंगे।”
हमारे परिवार में मनोज एक धमकी का नाम है। है तो माणिक का सहपाठी ही—दोनों एक साथ स्कूल बस में आते-जाते भी हैं—किन्तु पड़ोसी, उस के पिता, इस वर्ष उन की कक्षा के क्लास टीचर हैं—और मनोज जानता है अपनी हर कक्षा में प्रथम स्थान पाने वाला माणिक वह स्थान इस इस बार तभी पा सकेगा जब वह मनोज के संग अपने सम्बन्ध बिगड़ने नहीं देगा।
‘हे बजरंगबली,’ मैं ने मन ही मन प्रार्थना की, ‘मेरे इष्टदेव, मुझे मार्ग दिखाओ। इस लड़के को मैं वहाँ जाने से रोक सकूँ।’
“तुम जानते हो, मेरे बेटे,” माणिक के कंधों पर मैं ने अपने हाथ जा टिकाए, ट्रक में धक्कामुक्की होगी। मनोज से शर्त हार जाने का बदला वे दूसरे लड़के तुम्हीं से लेंगे। तुम्हारी पीठ को, तुम्हारे पैरों को ख़तरा रहेगा। ऐसा जोखिम उठाना सही रहेगा क्या?”
‘हे बजरंगबली’ मैं ने फिर से प्रार्थना की, ‘मेरी सहायता करो। यह लड़का वहाँ जाने की ज़िद छोड़ दे। इस के बदले मैं आज से सिगरेट पीना छोड़ दूँगा|’
“और सब से बड़ी बात, मेरे बेटे,” अपने हाथ मैं ने उसके कंधों से अलग किए और उसकी गालों पर ला जमाए, “मनोज के साथ तुम्हें ज़्यादा दिन तो अब रहना भी नहीं, तुम्हें तो यह स्कूल, यह मोहल्ला, यह शहर छोड़ देना है। वह आवासी छात्रवृत्ति लेनी है—दूसरे बड़े शहर में रहना है।”
बजरंगबली की कृपा रही जो माणिक ने मेरे हाथ अपनी गालों से हटाए नहीं।
“वह न मिली तो?” माणिक की आँखों में आँसू चले आए।
“मिलेगी कैसे नहीं? तुम्हारा दिमाग़ तेज़ है। तुम मेहनती हो। तुम में पढ़ाई की लगन है। ललक है। आगे बढ़ने की। ऊँची नौकरी पाने की। नाम कमाने की।”
“आप को ऐसा विश्वास है?” वह हँस पड़ा। अपने आँसुओं के बीच।
“पूरा विश्वास। तुम्हें बहुत कुछ मिलने वाला है। बस इन मुहल्ले वालों को मन से उतार दो। ये आपस में जो कहें, जो सुनें, तुम्हें उनसे क्या लेना-देना? तुम्हें तो नैनीताल जाना है—वहाँ रहना है—अच्छे हाथों में।”
-3-
“हाँ, अब बताइए, बैठक में पहुँचते ही पत्नी ने मुझ से आग्रह किया,” जल्दी बताइए इस का कस्बापुर से, इस मुहल्ले से दूर जाना क्यों ज़रूरी था?”
“माणिक को अपने क़ब्ज़े में लाने के लिए,” मेरा गला रुँध गया।
“वह कैसे?”
“वह यहाँ रहता तो आए दिन हम सभी दिल थामे फिरते। मनोज उसे अपने क़ब्ज़े में ले लेता और वह उसके लिए भी मुश्किल होता और हमारे लिए भी।”
अपनी सिगरेट छोड़ने वाली बात मैं ने छिपा ली थी।
वह बात बजरंगबली तक ही सीमित रखनी ज़रूरी थी।
पत्नी पुनः रोने लगी।
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