पहुनाई
दीपक शर्मा
“कौन हो सकता है?” दरवाज़े की घंटी सुन कर हम दोनों चौंके। शोध छात्रों के लिए आरक्षित इस परिसर में वह हमारी पहली रात थी।
“आप?” दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ सौरभ की हैरानी भी चली आई।
अब मुझे भी अपनी रज़ाई छोड़नी पड़ी।
दरवाज़े पर मंजू वशिष्ठ खड़ी थी। अपने रात के कपड़ों में। दिसंबर की उस सर्दी में काँपती-ठिठुरती।
“क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?”
“ज़रूर,” हम दोनों ने उस का स्वागत किया।
अभी आधा घंटा पहले हम उसके फ़्लैट से खाना खा कर लौटे थे।
सातवीं और आख़िरी इस मंज़िल के चार फ़्लैटों में फ़्लैट नंबर 701 उनका था, 702 हमारा और बाक़ी 703 और 704 नंबर वाले अभी ख़ाली थे।
“क्या मैं आपकी बैठक में सो सकती हूँ?” उसने बैठक में बिछी सैट्टी की ओर ललचायी नज़र से देखा।
“मदन आप को इधर सोने की अनुमति देगा ही नहीं!” सौरभ ने अपनी अनिच्छा जतलाई। इन फ़्लैटों में शयन कक्ष एक ही था।
“सच बताऊँ? हमारी बैठक की बालकनी वाला दरवाज़ा उसने खोल रखा है और मुझे बोल रहा है, आओ इस बालकनी से नीचे कूद जाएँ . . .”
“मैं उससे बात करता हूँ,” सौरभ ने कहा।
“तुम उसे जानते नहीं,” मंजू ने कहा, “जब वह शराब पी लेता है तो एकदम बावला हो जाता है। किसी की नहीं सुनता . . .”
उस रात हमारे सामने ही मदन ने ख़ूब पी थी और अकेले पी थी। सौरभ तो शराब छूता भी नहीं।
“ऐसा है?” मैं मंजू की बग़ल में बैठ गई।
हमें खाना भी मदन ही की वजह से साढ़े दस बजे ही मिल पाया था।
मंंजू और मदन को हम कम जानते थे। कारण, सौरभ और मैं संस्थान के बायोकैमिस्ट्री विभाग से सम्बद्ध थे और वे दोनों माइक्रोबायोलॉजी से। बल्कि उन्हें हम एक दम्पत्ति के रूप में अपने इस फ़्लैट के अलॉटमेंट के बाद ही पहली बार मिले थे। और फिर मंजू का उल्लेख हमेशा मंजू वशिष्ठ के नाम ही से होता रहा था। अपने नाम के साथ उसने मदन कुलश्रेष्ठ का कुलश्रेष्ठ अभी जोड़ा न था। और ये फ़्लैट केवल विवाहित जोड़ों ही के लिए आरक्षित रखे गए थे।
“जब से उसके सिविल सर्विसेज़ का नतीजा आया है, वह अपनी असफलता सँभाल नहीं पा रहा। रोज़ शराब पीता है और बोलता है हमें बालकनी से एक साथ नीचे कूद जाना चाहिए। जब मैं अपनी थीसिस और उसकी थीसिस के जल्दी ही ख़त्म हो जाने पर नौकरियाँ हासिल करने की सम्भावना का तर्क देती हूँ तो वह मुझे मार डालने को झपटता है। असल में रिसर्च उसके लिए मात्र एक नीची चौकी थी जब कि उसे अपने लिए शासन की ऊँची कुर्सी की चाहत थी और सिविल सर्विसेज़ में उसके बैठने का यह आख़िरी मौक़ा था . . .”
“आप अपने पिता से बात करो। उसके पिता से बात करो,” सौरभ थोड़ा खीझा।
“मेरे पास पिता कहाँ हैं? स्कूल टीचर एक विधवा माँ हैं—जो मेरी छोटी तीन बहनों के साथ चाचा लोग की दया पर मेरे पिता के पुश्तैनी मकान में बमुश्किल काट रही है। और सच बताऊँ? यहाँ से सदियों कोसों दूर छपरा में एक्को को नहीं मालूम मदन कौन है या यह भी कि मैं विवाहिता हूँ . . .”
हमारा यह संस्थान महाराष्ट्र में है।
“तुम्हारी शादी कैसे हुई?” मैं चौंक गई।
“कचहरी में,” मंजू थोड़ा झेंपी।
“मदन के भी परिवार के बिना?”
“हाँ। जिन माता-पिता का वह इकलौता बेटा है, उन में उसने माँ का मुँह बरसों से नहीं देखा क्योंकि उसके पिता ने उन्हें गाँव में छोड़ रखा है। और पिता जो हैं उन्हें अपनी ही मौज से फ़ुर्सत नहीं। मदन के लिए यहाँ के एक बैंक में उन्होंने ज़रूर एक अकांउट खोल रखा है जिसमें से वह एक महीने में पच्चीस हज़ार रुपया तक निकाल सकता है . . .”
“तुम उसे छोड़ दो। तलाक़ दे दो उसे,” मुझे मंजू पर दया आई।
“वे पति-पत्नी हैं। साथ रहें या अलग रहें, यह उनका निजी मामला है,” सौरभ ने मुझे रोक दिया। मदन कुलश्रेष्ठ को वह दूरी पर रखना चाहता था।
“मैं उसे छोड़ आई हूँ,” मंजू ने मेरा हाथ थाम लिया, “कल सुबह ही उस वर्किंग विमैन्ज़ होस्टल में लौट लूँगी जिसे मदन के आग्रह पर मैंने छोड़ा था। अब आज रात ही की बात है। क्या मैं यहाँ सो सकती हूँ?”
“क्यों नहीं,” मैंने कहा, “मैं इस सैट्टी पर तुम्हारा बिस्तर लगा देती हूँ।”
उसकी आशा पर पानी फेरना मेरे लिए असंभव था। हमारे पास तीसरी रज़ाई न थी। कंबल ज़रूर तीन थे जिनमें दो हम अपनी रज़ाई के साथ ओढ़ रहे थे। अपनी रज़ाई वाले कंबल के साथ मैं अलग पड़ा तीसरा कंबल बैठक में ले आई और मंजू का बिस्तर लगाने लगी।
सौरभ जब तक अपनी रज़ाई में लौट चुका था।
“सिविल सर्विसेज़ का नतीजा आए तो काफ़ी दिन हो गए। इतने दिन तुम ने कैसे काटे?”
“सच बताऊँ?”
“हाँ।”
“मैं अपने को बाथरूम में बंद कर लेती थी . . .”
“लेकिन वह तो बहुत छोटा है . . .”
“मेरी लंबाई से फिर भी कुछ बड़ा है। नहाने वाली तरफ़ अपना सिर रख लेती थी और टौएलट की तरफ़ अपने पैर . . .”
तभी सौरभ ने ज़ोर से जम्हाई ली, “तुम दोनों भी अब सो जाओ।”
“ठीक है, मैंने मंजू के गाल थपथपाए, “कल सूरज एक बेहतर दिन लाएगा। गुड नाइट . . .”
“थैंक यू। गुड नाइट . . .”
(2)
सुबह जब मैं आठ बजे जागी तो मंजू मुझे पहले से जगी हुई मिली, “मदन अभी देर तक सोएगा। यदि तुम मुझे अपने किसी सलवार-कमीज़ के साथ एक शाल और नया टूथब्रश दे दो तो मैं तैयार होकर अभी निकल लूँगी। मेरे उस वर्किंग विमैन्ज़ की वार्डन सुबह नौ और दस के बीच ही उपलब्ध रहती है . . .”
“तुम मेरा एक पर्स भी ले लो और कुछ रुपए भी। साथ ही मेरा मोबाइल भी। ज़रूरत पड़ने पर काम आएँगे।”
“थैंक यू,” मंजू मुझसे लिपट गई।
सौरभ और मैं संस्थान के अपने विभाग में काम कर रहे थे जब हमारे विभागाध्यक्ष ने लगभग साढ़े ग्यारह बजे मुझे कॉन्फ़्रेंस रूम में बुलवा भेजा।
ग्यारह से बारह बजे तक संस्थान के डायरेक्टर सभी विभागाध्यक्षों के साथ कॉन्फ़्रेंस रूम में एक मीटिंग रखा करते थे।
कॉन्फ़्रेंस रूम अभी मुझसे कुछ दूरी पर था कि मदन कुलश्रेष्ठ की चिल्लाहट मुझ तक चली आई। वह डायरेक्टर को अमेरिकन स्लैंग में भद्दी गालियाँ दे रहा था। पिछली रात भी अपने फ़्लैट में अच्छी-भली शिष्ट भाषा प्रयोग में लाने वाला मदन मदोन्मत्त होते ही भद्दे स्लैंग शब्द उच्चारने लगा था। मानो वह अपने पुराने पब्लिक स्कूल के अपने साथियों के साथ था।
उसकी नज़र से स्वयं को बचाती हुई मैं कॉन्फ़्रेंस रूम के दफ़्तर जा पहुँची जहाँ बाबू और चपरासी बैठते थे।
मेरे विभागाध्यक्ष मुझे वहीं मिले, “तुम्हारी मंज़िल वाला मदन कुलश्रेष्ठ ख़ासा उपद्रवी है। अभी हम लोग की मीटिंग में जबरन घुस आया था। नशे में धुत्त। डायरेक्टर साहब से मंजू का पता पूछने लगा। उन्हें धमकाने लगा, उसके पिता आए.पी.एस. सीनियर अफ़सर हैं, उन्हें सलाखों के पीछे फेंक देंगे . . .”
“रुकिए सर, मंजू को मैं अभी फ़ोन करती हूँ।”
“वह कहता है अपना मोबाइल वह जान-बूझकर अपने फ़्लैट में छोड़ गई है। कल रात ही से वह ग़ायब है . . .”
“वह ग़ायब नहीं है, सर। रात उसने हमारे फ़्लैट में बिताई थी। और अब भी वह मेरे मोबाइल पर उपलब्ध है। मैं अभी आप की उससे बात करवाती हूँ।”
नंबर मिलते ही मेरे विभागाध्यक्ष उस पर चिल्लाए, “मदन कुलश्रेष्ठ को यहाँ कॉन्फ्रेंस रूम से तत्काल हटा लो वरना तुम्हें भी आज उसके साथ संस्थान छोड़ना पड़ेगा।”
“वह यहीं संस्थान ही में है सर,” मैंने कहा, “बस अभी इधर पहुँच रही है।”
“मैं अभी अंदर जाकर ख़बर करता हूँ। मंजू हमारे सामने हाज़िर हो रही है,” मेरे विभागाध्यक्ष कॉन्फ्रेंस रूम में लौट लिए।
मदन को मंजू के मिलने की ख़बर के साथ उसे बाहर भेजने।
लिपिक के मोबाइल से मंजू को मैंने दोबारा फ़ोन किया। पूरा ख़ुलासा देने।
(3)
“यह चिट्ठी तुम ने लिखी?” मंजू के आते ही मदन उसकी ओर लपक लिया, “तुमने?”
“हाँ, मैंने लिखी,” मंजू का हाल बेहाल था।
“इसे फाड़ दो,” मदन का स्वर रुआँसा हो चला।
मंजू ने वह पर्ची उसके हाथ से ले ली।
“इसे तभी फाड़ूँगी जब तुम डायरेक्टर से माफ़ी माँगोगे।”
“तुम्हारी पैरवी के साथ,” मदन का स्वर संतुलित हो चला।
“ठीक है।”
चपरासी के हाथ जब अंदर सूचना भेजी गई कि मंजू वशिष्ठ पहुँच चुकी है तो डायरेक्टर ने जवाब भेजा, वह उसे अपने कमरे में मिलेंगे। इस मीटिंग के बाद।
मंजू ने मदन के साथ मुझे भी ले लिया।
“मदन ने इस समय शराब नहीं पी रखी,” अवसर मिलते ही मंजू मेरे कान में फुसफुसाई, “वह केवल नाटक कर रहा था। डायरेक्टर के साथ मेरी साख तोड़ने के वास्ते। मुझे बरबाद करने के इरादे से . . .”
“उसके नाटक में फिर तुम क्यों शामिल हो रही हो?” मैं उस का मुँह ताकने लगी।
“अपने भविष्य की ख़ातिर,” वह किंचित मुस्कुराई, “डायरेक्टर ने मेरा थीसिस आगे न किया तो पिछले पूरे तीन साल की मेरी मेहनत बेकार हो जाएगी।”
डायरेक्टर के अपने कमरे में प्रवेश करते ही हम तीनों उनके पीछे हो लिए।
“सर, प्लीज़ मदन को माफ़ कर दीजिए,” अपने अभिवादन के साथ मंजू ने बात शुरू की।
“मुझे बहुत अफ़सोस है, सर,” मदन ने अपने स्वर का संतुलन फिर बिगाड़ लिया। नौबती अपने शराबीपन की शुशकार और शिथिलन की शुमारी के साथ।
“तुम्हें तो मुझे ज़रूर दंड देना है,” डायरेक्टर ने अपने दाँत पीसे, “तुम्हें मेरा संस्थान छोड़ना होगा। एक उद्दंड शराबी यहाँ नहीं रह सकता। तुम्हारे विभागाध्यक्ष को भी तुम से ढेरों शिकायतें हैं . . .”
“सर, क्या में इस दीवार-घड़ी के साठ सैकेंड ले सकती हूँ?” मंजू ने नाटकीयता से पूछा।
“कहो।”
“मदन ने यह सब मेरे प्रेम में किया। उसी प्रेम के रहते, सर, इसने मुझसे बिना किसी दहेज़ से शादी की थी। यह पर्ची देखिए जो मैं कल रात छोड़ आई थी। इसीके दबाव में इस ने अपनी पीएच. डी. दाँव पर लगा दी। आप के सामने इस लिए ऊधम मचाया ताकि अपनी छिपने की जगह से मैं बाहर आ जाऊँ . . .”
“इस पर्ची में क्या लिखा है?” डायरेक्टर ने मंजू को अवमानित करते हुए उस पर्ची को अपने हाथ में नहीं लिया।
“मैंने लिखा था मैं उसको छोड़ रही हूँ और अब उसकी तरफ़ देखूँगी भी नहीं . . .”
“यस सर,” मैंने जोड़ा, “अपराधिनी मैं भी हूँ। मंजू को मैंने ही सलाह दी थी, वह मदन को छोड़ दे,” मुझे लगा उनके नाटक में मेरी उपस्थिति ज़रूरी हो गई थी।
“मदन बहुत घबरा गया था, सर,” मंजू ने कहा, “वह मेरे बिना नहीं रह सकता। मेरे बिना नहीं जी सकता।”
“लेकिन अपनी हताशा उसे मेरी मीटिंग में नहीं लानी चाही थी,” डायरेक्टर कुपित बने रहे।
“यह उसकी आख़िरी भूल थी, सर,” मंजू ने आग्रह किया, “उसे माफ़ कर दीजिए, प्लीज़।”
“मैं तुम्हारे काम की बहुत क़द्र करता हूँ, मंजू,” डायरेक्टर थोड़े नर्म पड़ गए।
“थैंक यू, सर,” मंजू उनके सम्मान में झुक ली, “आप बहुत दयालु हैं, सर। बहुत उदार।”
“अपने संस्थान में तुम्हारा भविष्य मैं शुरू ही से एक महत्त्वपूर्ण सदस्य के रूप में देखता रहा हूँ,” डायरेक्टर पिघल गए।
“मैं भी,” मंजू रो पड़ी।
“थैंक यू, सर . . .” डायरेक्टर को उस असुविधाजनक स्थिति से उबारने के लिए मैंने समापक मुद्रा ग्रहण कर ली।
“यस, सर। थैंक यू, सर,” मदन फुसफुसाया।
“थैंक्स अगेन, सर,” मंजू ने अपने को प्रकृतिस्थ कर लिया।
और हम तीनों डायरेक्टर के कमरे से बाहर निकल आए।
अकस्मात् मेरी नज़र मदन के चेहरे पर पड़ी। वह मलिन था।
“यह पर्ची अब मैं फाड़ रही हूँ,” मंजू ने वह काग़ज़ मदन के सामने लहराया।
“सूट यौरसैल्फ़ (तुम्हारी मर्ज़ी),” उस पर्ची में मदन की रुचि समाप्त हो गई मालूम देती थी।
“अपने विभाग जा रही हो?” मंजू ने मुझसे विदा लेेनी चाही।
“हाँ,” मैं जान रही थी नाटक के अगले अंक के लिए उसे मदन के साथ एकांत चाहिए था।
“अपना मोबाइल ले लो।”
“फिर मिलेंगे,” मैंने कहा और सुबह उसे उधार दिया गया अपना मोबाइल अपने हाथ में सँभाल लिया।
“आज ही। रात को,” मंजू मुस्कुरा दी।
(4)
पिछली ही रात खाना खाते समय सौरभ और मैं मंजू और मदन को निमंत्रण दे चुके थे, अगले दिन वे दोनों हमारी इस रसोई में बने पहले ‘डिनर’ का उत्सव मनाने आएँगे।
दोपहर में हम चारों ही उधर संस्थान में व्यस्त रहा करते। भूख लगती भी तो उसे भुलावा देने के लिए यथासंभव वहीं कैंटीन से नाश्ते के अंतर्गत कभी कुछ हल्का तो कभी कुछ गरिष्ठ चुन लिया करते और हमारे पेट बहल जाया करते।
रात में हम साढ़े सात पर मिले।
सौरभ और मैं निश्चय कर चुके थे नौ बजे तक हम मदन और मंजू को एक साथ हम उनके फ़्लैट में नहीं भेज पाए तो हम बहाना बना कर हम स्वयं सरक लेंगे।
ट्रे में उनके आने के कुछ ही पल बाद मैं चार जगह टमाटर का सूप ले कर पहुँची ही थी कि मदन उठ खड़ा हुआ, “मैं अभी आया . . .”
लौटा तो उसके हाथ में रम की एक बोतल थी। नई।
“अगर तुम ने आज पी तो कल तुम्हें फिर वैसी ही पर्ची पढ़ने को मिलेगी,” मंजू ने चेतावनी दी।
“मिल जाए। कोई परवाह नहीं,” मदन ने बोतल खोली और एक गिलास में उँडेलनी शुरू कर दी, “अद्धा है। अद्धा। अब इस पर भी हल्ला करोगी तो बैठी करती रहो . . .”
“और इस बार अपनी पर्ची मैं फाड़ूँगी नहीं,” मंजू और गंभीर हो गई।
“मत फाड़ना,” मदन ने पीना आरंभ किया।
“तुम खाना लगाओ,” सौरभ ने मेरी ओर देखा, “फिर नौ बजे हमें वहाँ पहुँचना होगा . . .”
“कहाँ?” मदन हँसा।
“मेरे एक अंकल हैं। वह आज यहाँ दिल्ली से आए हुए हैं। कल सुबह लौट भी रहे हैं। उन्हें हमें मिलना है।”
“हं. .हं। दिल्ली ही से तो आए हैं। फिर आ जाएँगे। या फिर तुम ही उन्हें कभी दिल्ली जा कर मिल लेना,” मदन ने अपना गिलास फिर भर लिया, “तुम दोनों के परिवार वही तो हैं . . .”
“कल वह दिल्ली छोड़ रहे हैं। रात तीन बजे की फ़्लाइट से लंदन जा रहे हैं,” सौरभ ने कहा।
“मैकगफ़िन?” मदन ने फिर हँसी छोड़ी, “नहीं समझे? एल्फ़्रेड हिच्चकौक ने अपने एक साक्षात्कार में एक पुराना जोक सुनाया था—दो आदमी रेलगाड़ी में सवार थे। उनमें एक दूसरे से पूछता है, ‘तुम्हारे सिर के ऊपर वाले रैक में वह कैसा संदूक रखा है?’ इस पर दूसरा कहता है, ‘वह एक मैकगफ़िन है।’ पहला पूछता है, ‘मैकगफ़िन क्या होता है?’ दूसरा जवाब देता है, ‘मैकगफ़िन एक यंत्र है जो एडीरौनडेक्स में शेरों को पिंजरे में क़ैद करने में इस्तेमाल होता है . . .’” मदन ठहाका और अपना तीसरा गिलास बनाने लगा, “अब तुम बूझो, सौरभ, पहले ने इस के उत्तर में क्या कहा होगा?”
“मैं नहीं बूझ सकता,” सौरभ ने अनुत्सुक स्वर में उत्तर दिया, “क्योंकि मेरा दिमाग़ इस समय अपने अंकल में उलझा हुआ है। साढ़े नौ बजे तक वह सो जाते हैं . . .”
“तुम बूझो,” मदन ने गिलास अपने मुँह की ओर बढ़ाया और मेरी ओर देखा।
“वह कैसे बूझेगी?” मंजू चिल्लाई, “उस का दिमाग़ अपनी बिरियानी में उलझा हुआ है। प्रेशर कुकर में वह ज़्यादा देर तक रहेगी तो एकदम ख़राब हो जाएगी . . .”
“यू आर अ डेड ऐस (तुम मूर्खा हो),” मदन ने ही-ही छोड़ी, “नहीं जानती मेहमानदारी में खाना ही सब कुछ नहीं होता। मेहमान की दिलजोई उसकी पेट-पूजा से ऊपर रखी जाती है। कैसे जानोगे? छोटे शहर की हो। छोटे घर की हो।”
“अब हम पड़ोसी हैं,” सौरभ ने मदन का कंधा घेर लिया, “मेहमानदारी के हमें अनेक अवसर मिलेंगे। लेकिन आज हम ज़रूर माफ़ी चाहते हैं। खाना अब हमें खा ही लेना होगा। मेरे अंकल उधर . . .”
“पहले सूप तो पी ही लिया जाए,” सौरभ के रूखेपन को मैंने ढक लेना चाहा, “और वह जोक . . .”
“जोक तो मैं ज़रूर ही सुनाऊँगा . . .” मदन हँसा।
“क्योंकि तुम डेड ऐस हो,” मंजू ने उसे फिर लताड़ा।
“यू डेड डक (तुम मरने जा रही हो)! यू आर डेड (तुम मर चुकी हो)!” मदन ज़ोर से चिल्लाया।
“हम सूप पी रहे हैं,” सौरभ ने मुझसे कहा, “तुम खाना लगाओ . . .”
“मैं सूप अभी नहीं पियूँगा,” मदन ने कहा।
“मैं अपना सूप मदन के साथ पिऊँगी,” मैंने कहा, “और खाना भी मदन का मैकगफ़िन वाला जोक सुनने के बाद लगाऊँगी . . .”
पहुनाई के अंतर्गत मदन को वियुक्त रखना अनुचित था। आपत्तिजनक था।
“कहाँ तक सुना चुका था?” मदन ने अपना चौथा गिलास बनाया।
सौरभ और मंजू अपनी चुप्पी बनाए रहे। अपने अपने सूप के बोउल की आड़ में।
“जहाँ मैकगफ़िन की बात हो रही थी,” मैंने कहा।
“हाँ, तो जब पहला रेल सवार कहता है, मैकगफ़िन वह यंत्र है जो एडीरौनडेक्स के शेरों को पिंजरे में डालने के काम आता है तो दूसरा कहता है, मगर एडीरौनडेक्स में तो शेर हैं नहीं। तिस पर पहला बोलता है, फिर उस संदूक में भी मैकगफ़िन नहीं। अब पूछो, मैकगफ़िन की बात मैंने क्यों चलाई?”
“मैं नहीं जानती। तुम बताओ,” मैं जबरन मुस्कुराई।
“मंजू मेरी पत्नी नहीं है। मैकगफ़िन है . . .”
“तुम नशे में हो,” मंजू चिल्ला पड़ी, “अ ड्रंक टैंक। इसीलिए अंड-शंड बक रहे हो . . .”
“यू थिंक आए हैव अ लोड औन (तुम सोचते हो मैं मदोन्मत्त हूँ)?” मदन ने अपना ख़ाली हाथ सौरभ के कंधे पर जा टिकाया, “माए लैड (मेरे प्यारे)?”
“नहीं। मैं कुछ नहीं सोच रहा,” सौरभ ने अपना कंधा मदन के हाथ से छुड़ा लिया, “सिर्फ़ जानता हूँ तुम मंजू को नाराज़ कर रहे हो और यह उचित नहीं है . . .”
“मैं तुम्हें सच कह रहा हूँ, मेरे दोस्त,” मदन ने एक ज़ोरदार ठहाका छोड़ा, “आवर मैरिज इज़ अ मैकगफ़िन। हमारी शादी कभी हुई ही नहीं। सच तो यह है जिन दिनों ये फ़्लैट अलौट हो रहे थे, मंजू अपने वर्किंग विमेन्ज़ का ख़र्चा नहीं उठा पा रही थी और मैं अपने पिता का घर छोड़ने का हीला ढूँढ़ रहा था। ऐसे में हम दोनों ने यह मैकगफ़िन तैयार कर लिया। सोचता हूँ कल सुबह डायरेक्टर साहब को भी उनकी चहेती की असलियत बता ही दूँ . . .”
मंजू एकाएक उठी। उसने बैठक का दरवाज़ा जा खोला जिसके बाहर वह छोटी बालकनी बनी थी। और बिना कोई चेतावनी दिए वह बालकनी से नीचे कूद गई।
मैं चीख़ पड़ी।
सौरभ बालकनी की ओर लपका।
मदन के हाथ से उस का गिलास छूट गया और वह रोने लगा।
एक बच्चे की मानिंद।
(5)
मंजू की माँ जब छपरा से बुलाई गई तो उनके स्थान पर मंजू के बड़े चाचा ही आए। सहज स्वभाव मंजू का सामान बाँध लिए।
मदन के पिता ने अपनी पुलिसिया वर्दी में उन्हें अपने अंक में भरा और मंजू की अस्थियाँ उनके हवाले कर दीं।
डायरेक्टर ने भी मंजू की मृत्यु को एक आकस्मिक दुर्घटना की भाँति सहज ही स्वीकार कर लिया और फ़्लैट नंबर 701 की चाभी संस्थान के केयरटेकर के हाथ में सौंप दी।
मदन का सामान तो उसी रात उसके साथ फ़्लैट छोड़ चुका था। उस पुलिस जीप में जो उसके पिता ने उसे लिवाने के लिए भेजी थी।
तदनंतर मदन ने हमारा संस्थान भी छोड़ दिया।
किन्तु हमने नहीं।
कारण, मंजू की छलाँग के बाद उसे दिया गया हमारा वचन और हमारे द्वारा उस वचन की रक्षा।
उस रात मंजू का अनुसरण करने को मदन ने भी बालकनी से नीचे कूद जाने की चेष्टा की थी और वहाँ खड़े सौरभ ने उसे रोक दिया था, “तुम ऐसा नहीं कर सकते . . .”
“मेरे जीने में अब रखा क्या है?” उस का प्रलाप प्रचंड हो लिया था, “मुझे रोको नहीं . . .”
“क्यों नहीं?” सौरभ ने उसे अपनी बाँहों में जकड़ लिया था।
“डायरेक्टर और पुलिस की पूछताछ के दौरान तुम पति-पत्नी सब उगल दोगे, मंजू की मौत का ज़िम्मेदार मैं हूँ, मेरी शराब है . . .”
“नहीं। हम ऐसा कुछ नहीं बोलेंगे . . .”
“फिर क्या बोलोगे?”
“जो तुम कहोगे . . .”
“तुम दोनों वचन देते हो? कभी हिचकोगे नहीं?”
“हाँ। वचन देते हैं। कभी हिचकगें नहीं . . .”
और मंजू की आत्महत्या मात्र एक दुर्घटना मान कर भुला दी गई।
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