ब्लैक स्वान इवेंट
दिलीप कुमार"तुलसी बुरा ना मानिए
जौ गँवार कहि जाय
जैसे घर का नरदहा
भला बुरा बहि जाय"
अर्थात बाबा तुलसीदास कहते हैं कि गँवार व्यक्ति की कही गयी कड़वी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए, जिस प्रकार घर की नाली में घर के कूड़े के साथ अच्छी चीज़ें भी बह जाती हैं गंदगी के साथ-साथ, वैसे ही गँवार की उज्जडता को बहुत मन पे नहीं लेना चाहिए। गँवार पर तो आप अपने मन को समझाकर तसल्ली दे लेते हैं, मगर उनका क्या जो सब कुछ जानते-बूझते हुए अपने ज़िद और ऐंठन छोड़ने को तैयार नहीं। बात-बात पर लोगों से कहते हैं कि संविधान में ये नहीं लिखा है, संविधान में वो नहीं लिखा है, लेकिन जो लिखा है वो भी तो मानें। संविधान में तो ये भी लिखा है कि आपके अधिकारों की सीमा वहीं ख़त्म हो जाती है, जहाँ आप दूसरों के अधिकारों के हनन के मुहाने पर खड़े होने की कगार पर पहुँच जाते हैं। दूसरों के अधिकारों का हनन करना, कहाँ तक जायज़ है एक कपोल कल्पित प्रक्रिया को लेकर, जो अभी तक हुआ नहीं वो आगे होगा, ये कैसा डर है, ये तो आईडिया ऑफ़ ब्लैक स्वान है साहब। ये होगा तो वो होगा, इस मुगालते का तो कोई अंत ही नहीं, जिसका जिक्र नहीं उस पर नुक्ताचीनी।
"वो बात जिसका पूरे फ़साने में कोई ज़िक्र ना था,
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है"।
फ़िलहाल देश की आम सहनशील जनता आजकल एक दूसरे को समझाते हुये यही कहती है कि देखते जाओ, सब्र से। जो बहुत बोल रहे हैं, बोलते ही जा रहे हैं, लगातार बोलते रहने से उन्हें ये इल्हाम हो रहा है कि जब सुनेंगे ही नहीं तो बोलेंगे क्या, सो इस तरह से अपने वक़्त पर ना बोलने की जवाबदेही से बच जाएँगे। लोग-बाग हैरान हैं कि ये हो क्या रहा है, शहर -दर-शहर जो ज़बर्दस्ती के प्रदर्शन हो रहे हैं, और उस पर तुर्रा ये कि हम ये बचाने निकले हैं वो बचाने निकले हैं। एक ऐसी कृतिम भयावहता दिखाई जा रही है मानो सड़कों पर निकले मुट्ठी भर लोग ही देश के असली हमदर्द हों। वो जो चाहेंगे, ग़ालिबन वही होगा। मगर ऐसा होगा नहीं, ऐसी स्थिति कभी आयेगी नहीं। एक ऐसी ही अकल्पनीय स्थिति को ही ब्लैक स्वान इवेंट कहा जाता है जो जिसके होने की संभावना ना के बराबर होती है। नसेम तालेब की थ्योरी "आइडिया ऑफ़ ब्लैक स्वान" बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों को बहुत लुभाती है, जो एक अकल्पनीय स्थिति को ख़ारिज भी करते हैं और हमेशा कंसीडर करके भी चलते हैं। इसी से मिलती-जुलती स्थिति को अँग्रेज़ों ने "वाइल्ड गूज़ चेस" भी कहा है। ना जाने अँग्रेज़ों ने इन निष्फलताओं की थ्योरी को हंसों से क्यों जोड़ा है। हमारे यहाँ हंस बहुत ही प्रिय और पवित्र भी माने जाते हैं। भारतवर्ष में तो आदिकवि का आगाज़ हंसों की क्रीड़ा में पैदा हुए वियोग से हुआ है, हमारे सौंदर्य की कई उपमाएँ हंसों और हंसनियों के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। भारत की मशहूर सिद्धार्थ और देवदत्त के बीच हुई विवाद की कहानी में ये आइडियोलॉजी निकल कर आयी कि थी हँस पर अधिकार उसी का है, जो बचाने वाला है, ना कि मारने वाला, तो फिर जो जान बचाकर पड़ोसी मुल्कों के अल्पसंख्यक इस सोने की चिड़िया कहे जाने वाले मुल्क में आये हैं, उनको लेकर उहापोह क्यों? जो पात्र हैं, सताए गये हैं, जलावतनी की मार से आज शरणागत हैं, उनके बारे में कुछ उदारता से विचार करने में कैसी बाधा?
"कभी कहा न किसी से, तिरे फ़साने को
न जाने कैसे ख़बर हो गयी ज़माने को
अब आगे इसमें तुम्हारा भी नाम आयेगा
जो हुक्म हो तो यहीं छोड़ दूँ फ़साने को"
इधर तो हम विश्वगुरु और सोने की चिड़िया बनने की ओर अग्रसर हैं, वहीं दूसरी तरफ़ हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सोन चिरैया को मारने का परमिट जारी किया जा रहा है। तिलोर यानी सोन चिरैया को ख़ैबर पख़्तूनवा में मारने का परमिट जारी किया गया है। एक सोन चिरैया को मारने के लिये दो करोड़ रुपये का परमिट जारी किया गया है, एक परमिट पर सौ तिलोर। पैंतीस परमिट पर पाकिस्तान को उम्मीद है उनकी शिक्षा के पूरे बजट का जुगाड़ हो जाएगा। इमरान खान ने एक और जुगाड़ लगाया है कि सोन चिरैया के शिकार के लिये बाज़ की ज़रूरत पड़ेगी और डेढ़ लाख रुपये की दर से बाज़ बेचेंगे सोन चिरैया के शिकार में मदद के लिये। उस पर तुर्रा ये कि ये परमिट सिर्फ़ अरबों के लिये ही है। वैसे सही बात है कि जिस मुल्क में रोटी के लाले हों वहाँ ऐसे शौक़ अरबों के लिये ही महदूद किये जा सकते हैं। जिस मुल्क का समूचा शिक्षा का बजट एक चिड़िया को मारने की कमाई पर टिका हो, वहाँ के तालीमी इदारों से मरने-मारने की आइडियोलॉजी लिए विद्यार्थी नहीं निकलेंगे तो और क्या निकलेंगे, इसीलिये पाकिस्तान को "एक्सपोर्टर ऑफ़ किलर्स" की कुख्यात ख़िताब दिया गया है। शायद यही वज़ह है कि दुनिया भर के जेहादी तंज़ीमों के सदर पाकिस्तानी ही होते हैं। एक तरफ़ हम अपने बच्चों "अहिंसा परमो धर्मः" सिखाते हैं तो दुनिया के टॉप संस्थानों में भारतीय ही दिखाई पड़ते हैं फिर वो गूगल हो या माइक्रोसॉफ्ट। मियाँ इमरान खान नियाजी का मुल्क कभी सिविल सर्वेन्ट के लिए स्वर्ग हुआ करता था। अब नया फ़रमान दिया है उन्होंने कि सरकारी मीटिंगों में सिर्फ़ एक बार चाय आया करेगी, सिर्फ़ एक बार हाई प्रोफ़ाइल मीटिंग में सरकारी ख़र्च पर बिस्कुट खा सकेंगे। हर ऑफ़िस में सिर्फ़ एक अख़बार आयेगा, और हर ऑफ़िस में सिर्फ़ एक टेलीफोन होगा। वाह रे न्यू पाकिस्तान, लोग सोशल मीडिया पर चुटकी ले रहे हैं कि वो दिन दूर नहीं जब पाकिस्तान के सरकारी अमले कार या जीप से दौरे करने के बजाय गधों पर बैठ कर दौरे करेंगे। इसके फ़ायदे भी सोशल मीडिया गिना रहा है कि जब अवाम गधा गाड़ी पर चल सकता है तो हुक्काम क्यों नहीं? इससे पैसा बचेगा, वातावरण शुद्ध रहेगा,और अवाम-हुक्काम के बीच की दूरियाँ घटेंगी और पशुपालन को भी बढ़ावा मिलेगा। वैसे भी मियाँ नियाजी पशुपालन पर बहुत ध्यान देते हैं। लाहौर की सड़कों पर 42 हज़ार गधे उतारने के बाद, अब गाँव की महिलाओं को एक भैंस, एक बकरी, एक मुर्गी देने की परियोजना पर काम कर रहे हैं। अवाम ने पूछा है कि जिस मुल्क के सात करोड़ बाशिंदों के पास छत नसीब ना हो, उस मुल्क में लोग मुर्गियों को पालने के लिये छत का इंतज़ाम कैसे करेंगे। यानी अपने लिए छत का जुगाड़ भले ही ना कर सको, सरकार की दी गयी मुर्गियों के लिए छत का इंतज़ाम ज़रूर करो। सरकारी मुर्गियाँ अगर मर गयीं तो फिर जुर्माना भरो या फिर जेल भुगतो। यानी ये रोज़गार देने की नहीं बल्कि जुर्माना के ज़रिये कमाने की एक परफ़ेक्ट योजना है। वाजे तौर पर ये एक ब्लैक स्वान इवेंट ही होगा, गर ऐसा हुआ तो।
नियाजी के न्यू पाकिस्तान के नारे पर अवाम ने जवाब दिया है कि -
"हिफ़्ज़ कैसे हो अगर पासवां ही क़ातिल हो
ग़ैर से ज़्यादा निगाहबानों से डर लगता है"
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