प्रयोगशाला से प्रेमपत्र
दिलीप कुमार
तो देवियो और सज्जनो। मसला-ए-ख़ास यह है कि हिंदी माध्यम से पढ़े विद्यार्थी को विज्ञान संकाय में साथ पढ़ रही एक लड़की से प्रयोगशाला में ही प्रेम हो जाता है। प्रेम जाति-धर्म, स्थान और भाषा की वर्जनाएँ नहीं मानता। तो प्रेम में आतुर विज्ञान के होनहार छात्र ने अपनी प्रेयसी को पत्र लिखा जो कि यूँ शाया हुआ है।
“हे मेरे हृदय के प्रयोगशाला की मैडम क्यूरी . . . मेरे मन और जीवन का सबसे बड़ा नोबेल पुरस्कार तो तुम्हीं हो। तुमसे मिलना मेरे लिये ‘रॉयल साइंटिफ़िक सोसाइटी’ की मानद सदस्यता प्राप्त करने जैसा है। ये प्रेम पत्र नहीं बल्कि मेरे बरसों की कठिन अध्ययन, अन्वेषण एवं विज्ञान साधना के पश्चात लिखी प्रेम की पीएच.डी. के थीसिस के समान है। जिस प्रकार मरुस्थलीय भूमि पर कहीं-कहीं हरियाली पाए जाने पर वह जगह नख़लिस्तान कही जाती है उसी प्रकार तुम्हारी एंज़ाइम की भाँति उपस्थिति से मेरे नीरस और न्यूट्रॉन की भाँति उदासीन जीवन में आइंस्टीन का सापेक्षवाद प्रेम बनकर भर गया है और तुम्हारे आकर्षण के जाइलम से मैं प्रेम वेदना से भर गया हूँ। तुम्हारे सापेक्ष मैं उसी भाँति आकर्षित हूँ जिस प्रकार चुम्बक सदैव लौह धातु पर आकर्षित रहता है। डार्विन की खोज की तरह अगणित वर्षों से जिस मृगनयनी का मैं अन्वेषण कर रहा था वह मुझे मिली भी तो प्रयोगशाला में। मेरे डीएनए में मौजूद एक्स गुणसूत्र ने कितने वाई गुणसूत्र पर प्रेम विकिरण प्रसारित करने के अगणित प्रयास किये। परन्तु केकुले के बेंजीन संरचना की स्वप्न वाली सर्पनुमा परिकल्पना मेरे जीवन में यथार्थ रूप से तब उतरी जब तुम्हारे नागिन जैसे केशों ने अनजाने में मेरे वस्त्रों को छुआ। जिस तरह पेड़ से गिरते हुए सेब को देखकर न्यूटन को कालजयी विचार सूझे थे उसी तरह कंधे से नीचे झूल कर गिर रहे केशों ने जब मेरे क़मीज़ को स्पर्श किया तो मेरे आवेश रहित न्यूट्रॉन टाइप जीवन में अल्फ़ा, बीटा एवं गामा के विकिरण का संचार हो उठा। तब मेरे शरीर के क़रीब 6 लीटर ख़ून में तुम्हारे सौंदर्य का आकर्षण शिराओं से होकर मन मस्तिष्क में विराजमान हो गया। हे चित्तहरणी, बस तभी से ही तुम्हारे लंबे केशों, मोहक नेत्रों के सम्मोहक विकिरण से मेरे रक्त का चाप बहुत बढ़ा रहता है। मेरे नेत्र तुम्हारी हरियाली भरी उपस्थिति को तब तक अवशोषित करते रहते हैं जब तक मेरे मन में प्रेम के प्रकाश संश्लेषण से सब हरा-भरा और बाग़-बाग़ यानी ग्रीन और गार्डन-गार्डन नहीं हो जाता। यह मन के मिलन की उर्वरा भूमि पर प्रेम के संश्लेषण की प्रक्रिया तब से शुरू हुई जबसे मैंने रसायन शास्त्र की वास्तविक प्रयोगशाला में स्वतः स्फूर्ति शारीरिक क्रिया की असली प्रयोगशाला में अनजाने में तुम्हारी परखनली जैसी पतली नाज़ुक उँगलियों को स्पर्श भी कर लिया था परखनली माँगने के बहाने। बस तभी से तुम्हारे दी गई ख़ाली परखनली को अपने किताबों के बीच गुलाब के फूलों की तरह सहेज कर रखा है। उसी ख़ाली और सूनी परखनली की तरह मेरे दिन और रात सूनेपन से भर गए हैं। मेरे हृदय के दो आलिंद और एक निलय में लगातार बहुत सी रासायनिक और भौतिक प्रक्रियाएँ हो रही हैं। बस तभी से तुम्हारे प्रेम के सृजन का रसायन निरन्तर द्रवित होता रहता है। तुम्हारे प्रेम से जुड़ी मेरी भौतिक क्रियाएँ यह हैं कि मैं जीवित हूँ और रासायनिक क्रिया यह है कि मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। यानी मेरी क़रीब1600 क्यूबिक सेमी के क्षमता और 130 आईक्यू वाले दिमाग़ ने प्रेम के रसायन के स्थायी परिवर्तन को ग्रहण कर लिया है। तुमसे प्रेम एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें मेरा मन पूर्व की भाँति भौतिक अवस्था में वापस नहीं आ सकता। तुम्हारी कार्बन जैसी काली आँखें, लाल लिटमस पत्र जैसे होंठ, शंकू के आकार के नाक और कैल्शियम जैसे दाँतों के चुम्बकीय प्रभाव से मेरे आसपास प्रेम व आकर्षण का एक वृहत विद्युत क्षेत्र बन गया है जिससे मेरे शरीर की इश्क़ रूपी कोशिकायें तुम्हारे प्रति ज़बरदस्त रूप से आवेशित हो गई हैं।
सो हे प्राणप्रिये! विपरीत ध्रुव तो वैसे भी एक दूसरे को आकर्षित करते ही रहे हैं। इसीलिये तुम्हारे शरीर से निकलने वाली सुगंधित असमांगी मिश्रण वाली गैसें मेरे मन मस्तिष्क में प्रेम रूपी द्रव्य का संचार करती हैं और यही एक ठोस वजह है जिससे मेरे हृदय की धमनियों में प्यार की ध्वनि तरंगें प्रवाहित होकर द्रव के समान तरल हो रही हैं। तथापि कभी-कभार तुम्हारे विरह की वेदना मेरी आँखों के रेटिना से सोडियम के साल्ट युक्त द्रव का भी रिसाव करती है। जो प्रेम की विरह वेदना के मेरे मस्तिष्क में संघनित होने के परिणामस्वरूप होती है। न्यूटन का तीसरा नियम जो क्रिया के प्रतिक्रिया पर आधारित है। क्या वह मेरे एक्शन पर बराबर रिएक्शन नहीं कर रहा है? क्या तुम्हारे मन की पीरीयोडिक टेबल में मेरे नाम का कोई भी रासायनिक पदार्थ नहीं है। हे प्राणप्रिये! प्रत्येक क्रिया के बराबर एक विपरीत प्रतिक्रिया तो होती ही है। फिर आर्कमिडीज़ के सिद्धांत की भाँति मेरे प्रेम की नाव आगे क्यों नहीं बढ़ रही है?
मेरा मतलब है कि एक दिन तुम्हारे इन न्यूट्रॉन की भाँति उदासीन प्रेम के अणुओं को मेरे प्रेम से आवेशित परमाणु अवश्य ही प्रेम का बल लगाकर अल्प समय में ही हमारे तुम्हारे बीच की लंबी प्रकाश वर्ष के भाँति की दूरी को कम कर लेंगे। मेरा यही प्रेम तुम्हें कठोरता से द्रव्यता की ओर विस्थापित करेगा और हम एक दिन हम अवश्य ही दो जिप्सम एक सॉलिड जान बनेंगें।
विज्ञान की छात्रा, मैं हर हाल में तुम्हारे मन मस्तिष्क के सफ़ेद लिटमस पत्र को अपने प्रेम के प्रकाश के परावर्तन से नीला करके ही दम लूँगा भले ही मेरे जीवन की प्रकाश संश्लेषण क्रिया बंद हो जाए। सिर्फ़ तुम्हारे दिल के केन्द्रक का ऊर्जा का केंद्र तुम्हारा . . .
आइंस्टीन प्रसाद
(कक्षा में तुम्हारी सीट के ठीक दो सीट पीछे बैठने वाला)
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