डेड एंड
दिलीप कुमार“मैं उस घर में तुम्हारे साथ वापस कभी नहीं जाउँगी,” दृढ़ता से बोली नित्या।
अनादि देव कसमसाते हुए बोले, “फ़िलहाल दस पंद्रह दिन तुम वहीं रह लो, तब तक कोई न कोई जुगाड़ बन ही जायेगा। कचहरी का काम बस फ़ाइनल होने ही वाला है।”
“वो सब ठीक है लेकिन मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। अब ये तुम पर निर्भर है कि तुम अपनी बीवी और बच्ची को कहाँ रखते हो। चाहो तो पेड़ के नीचे रखो या फिर गाँव लौट चलो वहीं उमरी में ही कोई रोज़ी-रोज़गार कर लेना, वैसे भी हमारा यहाँ रखा ही क्या है?” नित्या निर्णायक स्वर में बोली।
अनादि ने फ़िलहाल चुप रहना ही मुनासिब समझा उसने सोचा कि हफ़्ता दो हफ़्ता तो वो मामा के मकान में बिता ही सकता है। उधर नित्या अनिश्चय की स्थिति में निढाल होकर चारपाई पर गिर पड़ी। उसके सामने ख़ुद का बिताया संघर्षमय अतीत एवं संभावित विकराल भविष्य मुँह बायें खड़ा था। कौन सा सुख उसने जीवन में देखा था कि उन सुखों को याद करके वो दुखी हो। जब से उसने होश सँभाला तब से उसने ख़ुद को इस हालात में पाया कि उसकी माँ तो है ही नहीं। माँ वाले सारे काम दादी ही किया करती थीं कुल ढाई बरस की थी वो जब उसके माँ की एक हादसे में दर्दनाक मौत हुई थी।
तब शायद भादों का महीना रहा होगा, जैसा दादी बताती थीं कि उसकी माँ डेहरी से गेहूँ निकाल रही थी। तभी कई दिनों के बारिश और सीलन से कमज़ोर हो चुकी वो छत डेहरी पर और डेहरी उसकी माँ पर भरभराकर गिर पड़ी थी। चोट कोई बहुत ज़्यादा गंभीर एवं भयानक नहीं थी मगर एक तो मम्मी बहुत ज़्यादा दुबली-पतली थीं दूसरे वे दूसरे बेटे की उम्मीद से थीं।
दादी बताती थीं कि उन दिनों हर औरत पर यह दबाव होता था कि वो कम से कम दो पुत्र पैदा करे क्योंकि लोग-बाग उलाहना देते हुए कहते कि, “एक आँख को आँख नहीं कहते और एक लड़के को लड़का नहीं कहते।”
हालाँकि नित्या की पैदाइश भी काफ़ी मुश्किलों के बाद ही मुमकिन हो पायी थी। नित्या का जन्म ऑपरेशन के ज़रिये हुआ था और कमज़ोर बदन वाली नित्या की माँ को डॉक्टरों ने अगले किसी बच्चे के लिए स्पष्ट तौर से मनाकर दिया था। यहाँ तक कि उन्हें भारी काम करने की भी मनाही थी। मगर पापा को नित्या की माँ से एक और बेटा चाहिये था। चूँकि स्त्री को सेज और संतान का सुख देना ही पड़ता है भले ही वो दुखों की पुतली बनी हो, नित रौंदी जाने से नित्या की माँ को मन मारकर तीसरा गर्भ धारण करना पड़ा था। ऐसा दादी बताती थीं, दादी बतातीं तो सब कुछ भी मगर इस सब कुछ में वे स्वयं के रोल के बारे में तटस्थ रहती थीं और इस बात पर मौन रहती थीं कि क्यों उन्होंने घर में सभी को नहीं समझाया कि बहू अब सिर्फ़ एक ठूठ रोगी है और उसमें न किसी को शारीरिक सुख देने की क़ूवत बची है और न संतान पैदा करने की।
डेहरी गिरने की चोट से बच्चा मर गया था और जच्चा के शरीर में ज़हर फैल गया था, कमज़ोर तो उसकी माँ पहले से ही थी सो उनके प्राण पखेरू जल्द ही उड़ चले थे।
पापा वास्तव में ही पुरातनपंथी निकले थे। उन्होंने माँ की मृत्यु का दोषी शायद ख़ुद को माना था इसी अपराध बोध से उन्होंने दूसरी शादी नहीं की थी। गठिया की मरीज़ दादी ने एक बार जो खाट पकड़ी तो बस खाट की ही होकर रह गईं। सो उन बच्चों को ख़ुद की परवरिश ख़ुद ही करनी पड़ी थी। घिसट-घिसटकर अभावों में ही उनका जीवन किसी तरह गोंडा के मेवातियान मुहल्ले में बीत रहा था। ग़लीज़ गलियों में उनकी ज़िन्दगी गोजर की तरह थी जो सौ तरह के हाथ-पैर मारने के बावजूद तनिक भी न सुधरी थी।
नित्या के पापा आचार्य थे दिन भर विद्यालय में पढ़ाते, शाम को कुंडलियाँ बनाते। घर में अगर किसी अति आवश्यक चीज़ की कमी नहीं थी तो अधिकता नहीं थी। हाँ मगर ख़्याली पुलाव बहुत थे। चाचा और भैया लगभग उसके हम उम्र ही थे बस पाँच-छह वर्षों का ही फ़ासला था उन तीनों की उम्र में। चाचा जब पैदा हुए थे तब दादी की उम्र काफ़ी ज़्यादा थी। बुढ़ापे की संतान का मोह बहुत ज़्यादा होता है और दादा पहले ही न थे सो उसके चाचा दादी की नज़र में हर तरह से दूध के धुले थे।
मुस्लिम बहुल मेवातियान मोहल्ले में कुछ ही ब्राह्मण परिवार थे, जो थे भी, वे शुक्ला, तिवारी, पाण्डेय और उपाध्याय की श्रेष्ठा के फेर में उलझे हुए थे। इसलिए उनके संपर्कों का दायरा सीमित ही रहा था। पड़ोसियों से भी काफ़ी कम मेलजोल एवं आना-जाना था और खान-पान का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था।
चाचा और भैया के साथ खेलते-कूदते उसका भी बचपन बीता मगर घर की चारदीवारी में ही।
जब नित्या ने किशोरावस्था में प्रवेश किया तो गठिया की बीमारी से त्रस्त दादी का चलना-फिरना बिल्कुल ही ख़त्म हो गया था। सो अब घर की हर छोटी-बड़ी ज़िम्मेदारी नित्या पर ही आ गई थी। घर में मान मर्यादाओं का पूरा ध्यान रखा जाता था। तमाम रूढ़ियों का कट्टरता से पालन किया जाता था। संस्कृत निष्ठ बोलचाल, निर्जला पूजा-पाठ, आरती सांध्य बन्दन, व्रत आदि का कट्टरता से पालन। सबके बर्तन अलग, ब्राह्मणों के अलग, ग़ैर ब्राह्मणों के अलग। इस प्रकार वो तीन पुरुषों (पापा, भैया, चाचा) तथा दादी की माँ बनती जा रही थी। हर ज़रूरत पर बस एक ही पुकार “नित्या” और इन सबकी उसे आदत भी हो गयी थी।
परेशानी तभी आती थी जब मासिक धर्म के दिनों में दादी उसे चौके में नहीं जाने देती थीं और ख़ुद कुछ भी कर पाने में असमर्थ होती थीं।
तब भैया और चाचा की सवालिया नज़रें उस पर उठतीं कि ‘इसे क्या हुआ’?
क्योंकि वो दौर इतना बेशर्म नहीं था कि स्त्री की माहवारी उत्सव की तरह टेलीविज़न एवं अख़बारों में चर्चित हो और बच्चे-बच्चे को बतायी जाये।
और नित्या, वो अभागी किस मुँह से बताती उन्हें कि, क्यों दादी माह के कुछ दिनों में उसे अछूत बना देती हैं? मगर घर के हालात और कामों की आवश्यकता के मद्देनज़र दादी को राजू भैया और धनेश चाचा को ये बताना ही पड़ता था। यों घर में जिन दिनों वो अछूत क़रार दे दी जाती तब उसका मासिकचक्र सार्वजनिक हो जाता। ‘हाय रे नियति’ यही कहकर आह भर के रह जाती नित्या। जो बात एक किशोरी को छुपानी थी वह बात ज़ाहिर हो जाती थी और दुर्भाग्य यह था कि परिवार के सामने। नित्या उन दिनों बड़ी शर्मिंदगी महसूस किया करती थी।
समय बीतने के साथ ही बदलाव की हवा चली। राजू इण्टर करके इलाहाबाद चला गया। हालाँकि राजू बी.एससी. में फ़ेल हो गया था मगर प्रचारित यही किया गया कि वो इम्तिहान छोड़कर इलाहाबाद गया था प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने। घर में बचे थे सिर्फ़ चार प्राणी। पापा सदैव बाहर और दादी सदैव बीमार, बचते सिर्फ़ धनेश और नित्या। दोनों साथ-साथ पढ़ते-लिखते, कैरम खेलते, टी.वी. देखते और गप्पें लड़ाते। मगर राजू के जाने के बाद पहली बार जब नित्या रजस्व्वला हुई तो धनेश ने अकेले ही सारा काम किया घर का। यूँ धनेश ने पहली बार नित्या के ऋतुस्राव के दिनों की गणना की और अजीब सा आकर्षण पहली बार नित्या के लिए महसूस किया। धनेश जानता था कि ये आकर्षण वर्जित था मगर उम्र के इस मोड़ पर अस्वाभाविक नहीं था। लेकिन नित्या यह बात कुछ दिनों बाद ही जान पाई थी। जब बातों-बातों में ही दिनेश ने नित्या के आगामी कठिन दिनों की गणना करके बता दी थी तो वो अवाक् रह गई थी। नित्या वहाँ से पैर पटकते हुए चली गयी और बहुत दिनों तक छुप-छुपकर रोई थी।
और थोड़ा सा ही सही मगर धनेश को भी अपने पापकर्म का एहसास हो गया था और शायद कुल-खानदान के मर्यादा का भी भान हो गया था। वैसे भी धार्मिक व्यक्ति धर्मभीरू भी होता है सो वो नित्या के मन की जानने की कोशिश करने लगा। उसने अपने नज़रिये से वेद-शास्त्रों का अध्ययन किया, उनका मर्म समझने का प्रयास किया तथा तमाम उदाहरणों का सहारा लेकर ये निष्कर्ष निकाला कि मन में प्रेम रखना कोई बुरी बात नहीं है, रिश्ता चाहे वर्जित हो, बशर्ते वह दूषित न हो।
वह ख़ुद को ऐसे तौलता कि कब-कब और कैसे-कैसे और कौन-कौन से देवता, ऋषि डगमगाये हैं। उन्होंने प्रायश्चित भी किया मगर पहले मन में पाप आने को वे भी नहीं रोक सके। वह ख़ुद को एक आदर्श बनाने की कोशिशें करने लगा। कभी बहुत दिनों तक नित्या से बोल-चाल ही नहीं रखता और आजकल के हालात मद्देनज़र नित्या को वेदों के मर्म समझाता।
दूसरी तरफ़ नित्या, धनेश के नाराज़ हो जाने पर व्याकुल हो उठती। उसे मनाती, उसका ख़्याल रखना बढ़ा देती मगर हज़ार बार हिम्मत करके सोचने के बावजूद वह धनेश के उस रूप की कल्पना नहीं कर पाई जैसा धनेश चाहते थे। नित्या काफ़ी पूजा-पाठ करती, घर के कामकाज निपटाती और समय बचता तो पढ़ाई भी करती।
दादी ने चाचा के जीवन की असामान्य अकुलाहट को ताड़ लिया था। उनकी बुज़ुर्ग आँखों ने देख लिया था कि घर में कहीं न कहीं कुछ न कुछ ऐसा पनप रहा है, जो ठीक नहीं है।
दादी नित्या के पापा दिनेश के पीछे ही पड़ गई कि नित्या की शादी उनके आँख मूँदने से पहले यानी जल्द से जल्द हो जाये। क्या बिडंबना थी, चौबीस वर्षीय धनेश की शादी की जल्दी नहीं थी। उसे ऑफ़िसर बनने की जो धुन थी, मगर सत्रह वर्षीय नित्या की शादी की जल्दी थी क्योंकि वो लड़की थी और बिना माँ के थी।
माँ की इच्छा दिनेश को माननी पड़ी थी। मगर शादियाँ जल्दी पटती कहाँ थीं। समान कुल में करें तो दहेज़ का दानव मुँह बायें खड़ा था ओर निम्न ब्राह्मण कुल में करें तो बिरादरी से निकाल दिये जायें।
काफ़ी दौड़-धूप के पश्चात् अपनी पहुँच के अनुरूप दिनेश ने नित्या की शादी अनादि देव से तय कर दी थी। लड़के का गाँव गोंडा शहर से चालीस किलोमीटर दूर था। लड़का अपने मामा के साथ गोंडा में ही महराजगंज मुहल्ले में एक कमरे का क्वार्टर लेकर रह रहा था और आरा मशीन पर लकड़ियाँ बेचता था।
बिन माँ के बेटी लड़कों की मंडली की तैयारियों से ही ब्याह दी गयी। किसी तगड़े लग्न के दिन, ब्यूटी पार्लर से मेकअप हो गया और सीमित अतिथियों के बीच नित्या की शादी संपन्न हो गयी थी। हालाँकि सब कुछ सामान्य ही था मगर इन सबके बीच कुछ और भी पनपा था जो दीन-दुनिया की नज़रों से परे था। नित्या ये बात बख़ूबी जानती थी कि गौना साल भर बाद ही होगा और तभी विदाई होगी। सो विवाह के दौरान उसे कोई विशेष दुख नहीं था अलबत्ता रोमांच ज़रूर था। कहीं न कहीं नित्या को तसल्ली थी कि एक लड़की के जीवन का जो अधूरापन माँ के गुज़र जाने से अभी तक रहा था आगामी जीवन में वो घाव भर जायेंगे।
वैसे भी नित्या ने अपने जीवन में कहाँ ज़्यादा उत्सव देखे थे। नित्या ने बारात आ जाने के बाद रात के साढे़ ग्यारह बजे इच्छा व्यक्त की थी कि झूठ-मूठ का ही सही, मगर जब वीडियोग्राफी हो ही रही है तो उसकी शादी भी जयमाल सिस्टम से हो तथा मेंहदी भी उसके हाथों में नहीं लगी थी क्योंकि बाज़ारू मेंहदी से उसे एलर्जी थी। उसकी इस इच्छा पर सभी ने हाथ खडे़ कर दिये थे, मगर धनेश के साथी सुभाष ने सिर्फ़ एक घंटा माँगा था। उसके हिसाब से इतना वक़्त पर्याप्त था नित्या की फ़रमाइश पूरी करने के लिए। अब यह सुभाष के बूते की ही बात थी कि वो इतने तगड़े लग्न के दौरान रात को माली के बीवी बच्चों को जगाकर जयमाल गुँथा लाया था और वहीं से ही पिसी हुई पत्तों वाली मेंहदी भी ले आया था। सुभाष ने पिसी हुई पत्तों वाली मेंहदी में कत्था घोलकर स्वयं नित्या को दी थी। महज़ आधे घंटे में ही चटक रंग चढ़ आया था। शादी की भीड़-भाड़ के कारण किसी की भी नज़र इस छोटी मगर विशेष घटना पर न पड़ सकी थी।
मगर सुभाष की इस गैर-मामूली कोशिश पर कोई तो मुरीद हुआ ही था और वो थी नित्या। वैसे ये सभी कुछ फ़ौरन का मामला नहीं था। मोहब्बत की ये भीनी-भीनी ख़ुश्बू दोनों काफ़ी दिनों से महसूस कर रहे थे, मगर समाज के डर ने उन दोनों को इस मोहब्बत को परवान चढ़ाने का मौक़ा नहीं दिया था।
यों खुलकर तो सुभाष ने भी कभी कुछ नहीं कहा था, मगर मेंहदी का रंग चढ़ जाने के बाद नित्या ने सुभाष की सवालिया नज़रों का मूक समर्थन किया था। आमतौर पर शादी-ब्याह में दुल्हा-दुलहन में प्रेम पनपता है, या वर पक्ष अथवा वधू पक्ष के युवक-युवतियाँ एक दूसरे पर आकर्षित होते हैं। मगर यहाँ तासीर कुछ दूसरी थी, हँस-हँस के शादी की रस्में निभा रही नित्या के मन में आज बिछोह की अनजानी हलचल थी।
वह बिछोह जिसमें उसे इस घर से जाना ही नहीं था लेकिन जिसमें वह किसी की हो चुकी थी। लेकिन अब इस प्रेम के लिए गुंजाइश ही कहाँ बची थी? भारी मन से सुभाष देर रात गये अपने घर लौट गया था।
दिलचस्प बात ये भी कि इन दोनों के प्रेम की इस चिंगारी की आँच कभी धनेश ने भी महसूस नहीं की थी। शादी हो जाने से नित्या के जीवन में कोई विशेष फ़र्क़ नहीं आया था क्योंकि शादी के हफ़्ते भर बाद ही वो अपनी सामान्य दिनचर्या में लौट आई थी। क्योंकि दुलहन की विदाई तो हुई ही नहीं थी बस इतना ही फ़र्क़ पड़ा था कि दादी के सख़्त निर्देश के कारण उसे रोज़ सिंदूर अवश्य लगाना पड़ता था और साज-शृंगार भी करने पड़ते थे।
नित्या के सिंदूर और शृंगार से दिनेश और परेशान होता गया तथा नित्या, धनेश से कटकर रहने लगी मगर उसी घर में ही।
हालाँकि धनेश सब कुछ समझता था और उसने यथार्थ को स्वीकार कर लिया था। सुभाष की आवाजाही घर में बढ़ने लगी थी। दोनों को अपनी मजबूरियों, सीमाओं का भान था मगर लोकलाज का डर नैतिकता से कहीं ज़्यादा था।
वैसे अनादि देव बग़ल की लकड़मण्डी में ही लकड़ी का टाल भी चलाते थे और नित्या के पल-पल की ख़बर रखते थे मगर प्रेम की ये भीनी-भीनी ख़ुश्बू वो भी नहीं सूँघ सका था। अनादि देव का उठना-बैठना नीचे-ऊँचे हर क़िस्म के लोगों से था मगर निकृष्ट क़िस्म के लोग ज़्यादा ही आते थे अनादि के पास।
तभी एक घटना घटी जिससे नित्या विचलित हो उठी। हुआ यों था कि बी.ए. के पहले वर्ष की परीक्षा के दौरान एक लेक्चरर साहब नित्या पर आसक्त हो गये। हालाँकि नित्या प्राइवेट छात्रा थी मगर जिस-जिस कमरे में नित्या की परीक्षा के पर्चे पड़ते, लेक्चरर श्री प्रकाश त्रिपाठी वहाँ अवश्य मौजूद होते थे।
यों तो त्रिपाठीजी फ़्लाइंग स्क्वाड में थे मगर नित्या उन्हें जिस कमरे में दिख जाती, वे अपना दस्ता छोड़कर उसी कमरे में रुक जाते।
पहले नाम, पता और विषय पूछे और परीक्षा के पाँचवें पर्चे तक सम्पर्क बढ़ाने की कोशिशें करते रहे और फिर अचानक परीक्षा के अन्तिम पर्चे के दिन उन्होंने नित्या का हाथ पकड़ लिया और उसकी पीठ सहलाने की कोशिश की।
नित्या हाथ झिटककर उनकी पहुँच से आज़ाद हुई तथा सीधे घर पहुँचकर सारा हाल सुनाया था। वो पहले पर्चे के दिन से घरवालों को सारी बातें बता रही थी। राजू, धनेश, दिनेश किसी ने कुछ नहीं कहा सब ने यही सीख दी कि किसी तरह पर्चे पूरे कर लो, बाद में देखेंगे। अलबत्ता सभी ने उलाहना ही दिया नित्या को कि तुम्हें उससे क्या मतलब?
क्यों त्रिपाठी ने सिर्फ़ तुममें दिलचस्पी दिखाई, तुमने पहले तो कोई ग़लती नहीं की थी। सवाल ऐसे थे छूरी ने तरबूजे को क्यों काटा बल्कि ग़लती तरबूजे की थी कि वो क्यों कटा?
जब बात हद से आगे बढ़ गई थी तब ये बात अनादि देव तक पहुँचाई गयी थी। घर में कई दौर की मीटिंगे हुई थीं। श्री प्रकाश त्रिपाठी के ख़िलाफ़ एफ.आई.आर. से लेकर प्रिंसिपल से लिखित शिकायत करने तक के प्लान बने थे। मगर काहिली और संभावित परेशानियों के कारण तीनों ने नित्या को मामला दबा लेने की सीख दी थी। पहली बार ही नित्या ने अनादि से खुलकर बात की थी डॉ. त्रिपाठी के बाबत, मगर अनादि के टालमटोल के रवैये के कारण उसे ख़ुद पर बड़ी कोफ़्त हुई थी कैसे आदमी से उसका पाला पड़ा है जो अपनी पत्नी के पीठ सहलाने वाले के प्रति ज़रा भी आवेशित न था।
ये उसके वैवाहिक रिश्ते के उस प्रेम की मृत्यु थी जो प्रेम पैदा ही नहीं हुआ था।
इधर सुभाष काफ़ी दिनों बाद आया था पूरी घटना उसने भी जानी। नित्या से उसने घरवालों के सामने ही पूरा प्रकरण पूछा तो नित्या ने रुआँसे स्वर में पूरा वृतान्त कह सुनाया। उसके घरवालों ने भी सुभाष के सामने यही एकमत से कहा—“जो हुआ सो हुआ, अब मामला दब जाये तो ही बेहतर है।”
चेहरे पर बिना कोई भाव लाये ‘ठीक है’ कहते हुए सुभाष वहाँ से चला गया था।
नित्या ये बात जानती थी कि सुभाष डॉ. त्रिपाठी के ही डिपार्टमेन्ट में शोध की तैयारियाँ कर रहा था। दस दिनों बाद ही नित्या तक ये ख़बर पहुँची कि श्री प्रकाश त्रिपाठी की काफ़ी पिटाई हुई है। उनके हाथ की हड्डी तक टूट गयी है। चर्चा है कि हमलावर नयी उम्र के लड़के थे रिपोर्ट अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस में दर्ज कराई गयी है। नित्या जानती थी कि हमला चाहे जिसने भी किया था मगर इस सबके पीछे सुभाष ही था।
काफ़ी दिनों बाद जब सुभाष घर आया तो नित्या ने उसे ताने देते हुए कहा, “क्यों सुभाष सिंह, तुम्हें अपने कैरियर की परवाह नहीं है क्या, दूसरे की पत्नी के लिए तुमने त्रिपाठी पर हमला क्यों किया।”
सुभाष गंभीर ही बना रहा और दृढ़ स्वर में उसने सिर्फ़ इतना ही कहा, “इस हरकत के लिए त्रिपाठी सज़ा का ही पात्र था और तुम्हारे लिए मैं त्रिपाठी तो क्या देवताओं से भी भिड़ जाऊँ। मगर ये बात मुझे बड़ी देर में समझ आयी जब तक तुमने मुझे इशारा दिया तब तक तुम्हारे फेरे हो चुके थे। अब कोई मतलब नहीं बचा इन बातों का, और न इस रिश्ते का कोई भविष्य है।”
यह कहते हुए वहाँ से निकल गया था सुभाष। नित्या ने तब एक ब्याहता होने की वर्जनाओं को तोड़कर एक लम्बा चौड़ा प्रेमपत्र अपनी मजबूरियों को समेटे हुए सुभाष को लिखा था।
देश में ये सौरव गांगुली की कप्तानी के शुरूआती साल थे। क्रिकेट की शौक़ीन नित्या ने काफ़ी दिनों तक इन्तज़ार किया। मगर सुभाष उसके घर नहीं आया उसने तो मानो उस घर का रास्ता ही छोड़ दिया था। नित्या व्याकुल हो उठी। धर्म, प्रेम, बंदिश, वर्जना . . . किसको छोडे़-किसको पकड़े?
उस प्रेमपत्र को वो हमेशा अपने अण्डर गार्मेन्टस में छुपाये रखे। नित्या एक दिन अपने कॉलेज मार्कशीट लेने गयी तो पूछते-पूछते बॉटनी डिपार्टमेन्ट चली गयी। सुभाष की दरयाफ़्त की तो पता लगा कि वो अकेले फिजियालोजी की लैब में प्रेक्टिकल कर रहा था।
उसने नित्या को देखा तो हैरान, अवाक् और परेशान हो गया। उसे इस बात का डर था कि अगर किसी ने उसके और नित्या के बारे में जान लिया तो नित्या का जीवन तबाह हो सकता है। जो वह हरगिज़ नहीं होने देगा।
फिर यह सम्बन्ध राजू के साथ एक क़िस्म का विश्वासघात भी होता कि राजू जिसे मित्र समझकर घर में लाया था उसने ही घर की अस्मत पर बुरी नज़र डाली। नित्या कुछ कहती इससे पहले ही सुभाष ने सख़्त स्वर में कहा, “जाओ यहाँ से, तुरन्त जाओ, अभी जाओ वरना ग़ज़ब हो जायेगा।”
नित्या ने कुछ कहने की कोशिश की तो उसने नित्या का हाथ पकड़कर उसे फिजियालोजी लैब के बरामदे में ले आया। इत्तिफ़ाक़ से उस वक़्त वहाँ कोई नहीं था। नित्या ने उसे गले से लगा लिया और धीरे से बोली, “आई लव यू।”
सुभाष हत्बुद्धि हो गया कि ये विवाहित स्त्री अपना जीवन तबाह कर लेगी और उसका भी। वह छिटककर दूर खड़ा हो गया और सख़्ती से बोला, “जाओ, अभी जाओ, फिर ना कभी मिलना और न ही मुझसे कान्टेक्ट करने की कोशिश करना। अब कुछ नहीं है मेरे-तुम्हारे बीच। तुम समझती क्यों नहीं? अब कुछ भी नहीं हो सकता। ख़त्म है सब। अनर्थ हो जायेगा, ना अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करो ना मेरी। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ मेरा पिंड छोड़ दो नहीं तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा।”
ये सुनते ही चौंक पड़ी नित्या कि वो ब्याहता स्त्री होने के बावजूद लाज की तमाम मर्यादायें लाँघकर अपना प्रेम निवेदन लेकर आयी है और ये कायर, डरपोक हट्टा-कट्टा राजपूत कहता है कि मेरा पिंड छोड़ दो नहीं तो मैं बर्बाद हो जाऊँगा। संसार में पुरुषों की भीरूता उनकी वीरता से ज़्यादा होती है ये बात स्त्री से बेहतर और कौन समझ सकता है?
ये निर्णय की घड़ी थी। उसने अपनी भर आयी आँखों को दुपट्टे से पोंछा, कपड़ों के भीतर से छिपाई हुई चिट्ठी निकाली और वहीं पर उसे चिन्दी-चिन्दी फाड़ दिया। रोते हुए मगर सख़्त स्वर में नित्या बोली, “हाँ सब ख़त्म हो गया इस लव लेटर की तरह हमारा रिश्ता भी ख़त्म हो गया। बस एक बात कहनी थी कि ज़िन्दगी में कभी किसी से राजपूत और पुरुष होने की पुरुषार्थ की दुहाई मत देना। छिः . . .” यह कहते हुए नित्या वहाँ से चली गयी।
कुछ दिनों तक नित्या ने सुभाष का इंतज़ार किया उसके लिए परेशान रही मगर उसने धीरे-धीरे सुभाष को भुलाने की कोशिशें शुरू कर दीं थीं। उन दिनों की प्रेम कहानी का परिणाम भी यही था शायद, अतः किसी ने दुबारा उस प्यार की जगाने का प्रयास नहीं किया।
कई माह बाद नित्या का गौना हुआ तो वो अपनी ससुराल उमरी बेगमगंज गई। शहर में पढ़ी-बढ़ी नित्या को बाढ़ से घिरे उस निपट देहाती गाँव को देखकर अपनी तक़दीर पर रोना आया था। मगर ग़नीमत यही थी कि उसके ससुर ने कह दिया था कि जो भी हो, नित्या और अनादि गोण्डा में ही रहेंगे। यानी नित्या के लिए ये जेल अस्थायी ही थी।
हफ़्ते भर बाद ही अनादि नित्या को गाँव से लाकर लकड़मण्डी के एक कमरे के मकान में आ गया था। दूसरी तरफ़ नित्या के चले जाने से उसके मायके में खाने-पीने तथा घर के अन्य कामों के लिए काफ़ी परेशानियाँ खड़ी हो गयी थीं।
दोनों घरों की परेशानियों को देखते हुए धनेश ने प्रस्ताव रखा क्यों ना नित्या-अनादि के साथ आकर मायके में ही रहें। हालाँकि नित्या इस बात की क़ायल न थी मगर अनादि की विकट इच्छा एवं उमरी गाँव में रहने की परेशानियों के मद्देनज़र वह तैयार हो ही गयी और अनादि सहित नित्या अपने मायके में आ गयी।
घर में सब कुछ पहले जैसा ही था, बस दामादजी रहने आ गये थे मगर आबादी भी नहीं बढ़ी थी क्योंकि राजू इलाहाबाद में ही रहता था।
समय पंख लगाकर उड़ता गया और नित्या ने एक बच्ची को जन्म दिया। बच्ची धीरे-धीरे बड़ी होने लगी तथा घर के ख़र्चे भी बढ़ने लगे थे। दूसरी तरफ़ अनादि की कमाई ठप थी। दरअसल लकड़ी का व्यापार अनादि के मामा का ही था, वो सिर्फ़ देखभाल करता था, तब उसका ख़र्चा-पानी निकल आता था।
मगर ससुराल में बसने के बाद उसने लकड़ी का व्यापार पर जाना बन्द कर दिया था। घर जमाई होने के लाभ ही लाभ थे। काम सबसे कम, भोजन सबसे उम्दा। उधर लकड़मण्डी के एक कमरे के मकान में मामा-मामी को भी ले आये थे। अनादि अब अपना जेब ख़र्च भी नित्या से ही माँगता था। घर की झंझटें रोज़-रोज़ बढ़ती ही जा रही थीं। साथ ही साथ नित्या की परेशानियाँ भी बढ़ती जा रही थीं।
धनेश ये सब ध्यान से देख रहा था। मौक़ा ताड़कर तथा लोहा गर्म देखकर उसने फिर वहीं सहमति-असहमति का राग अलापा। इस बार नित्या से रहा न गया तो उसने धनेश को उन दोनों के रिश्ते की पवित्रता तथा धनेश के सरजूपारी ब्राह्मण होने का एहसास दिलाया।
धनेश ने इसे अपना अपमान समझा और वो सबक़ सिखाने के लिए उचित मौक़े का इन्तज़ार करने लगा था।
मौक़ा जल्द ही मिला, एक दिन अनादि ने दूसरे धर्म वाले लड़के को जो एक बैण्ड-बाजे के ग्रुप में था, जूते सहित चौके में बिठाकर भोजन कराया तो धनेश ने तमाशा खड़ा कर दिया था। धनेश ने न सिर्फ़ बैण्ड वाले उस लड़के को ज़लील करके घर से निकाल दिया बल्कि अनादि को भी काफ़ी खरी-खोटी सुनायी।
अनादि भी तड़क उठा। धनेश और अनादि के बीच मार पीट भी हुई।
बाद में नित्या भी अपने पापा से अनादि को लेकर अड़ गयी।
अल्प बुद्धि अनादि ने तत्काल कहा, “पापा आप घर में बँटवारा कर लीजिए।”
इस बात ने झगडे़ में आग में घी की तरह काम किया। इतना काफ़ी था। दादी और धनेश की शह पर दिनेश ने अनादि को नोटिस दे दिया, “बेटा, एक दो दिन में कहीं रहने का इतंजाम कर लो, कल ही ठिकाना देख लो, कहीं इतंजाम हो जाये तो नित्या को भी ले जाना। ब्याही बेटी कब तक मेरे घर में रहेगी। मैं तुम्हारे लिए अपने भाई और माँ को नहीं छोड़ सकता। वैसे ही ब्याही बेटी को अपने मायके पर बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए। अपना कोई जतन कर लो।”
नित्या के फ़ैसले से अनादि डर रहा था। किसी तरह उसने रात बिताई, सुबह वो तैयार होने में काफ़ी देर लगा रहा था। क्या पता, कोई शायद फिर रुकने को कह ही दे। यही तो वो चाहता था।
उसे अपने अपमान की फ़िक्र न थी। फ़िक्र थी तो बस नरम भोजन की जो अब आसानी से मिलने की सम्भावना कम लग रही थी। अनादि यह सब सोच ही रहा था तब तक नित्या सामान लेकर बाहर निकलने को उद्धत हुई।
दिनेश चौंक उठे उन्होंने आश्चर्य से पूछा, “नित्या, तुम भी?”
नित्या ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, “हाँ पापा, अगर आप अपने भाई और अपनी माँ को नहीं छोड़ सकते। तो मेरा भी यही धर्म कि मैं अपने पति का अपमान बर्दाश्त न करूँ। मैं यहाँ नहीं रह सकती। दूसरी बात अपने बीवी-बच्चे को पालने की ज़िम्मेदारी इनकी है, आपकी नहीं। झगड़ा न भी हो तो भी इनके ससुराल में रहने से मैं ख़ुद ही अपने आप को अपमानित महसूस करती हूँ।”
घर में सभी अवाक् थे, धनेश को भी नित्या के इस सख़्त फ़ैसले की उम्मीद न थी। दिनेश बेटी को लेकर चिंतित थे और दादी किंकर्तव्यविमूढ़। अलबत्ता अनादि मन ही मन नित्या के इस क़दम पर बहुत नाराज़ था।
तब तक बाहर से किसी ने पुकारा, “अनादि बाउ, रिक्शा आ गया है, जल्दी कीजिए।”
नित्या जानती थी कि भविष्य की राह काफ़ी कठिन है मगर फ़ैसला हो चुका था।
1 टिप्पणियाँ
-
सामाजिक मर्यादाओं की रक्षा करती हुई एक अच्छी कहानी
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- 'हैप्पी बर्थ डे'
- अँधेर नगरी प्लेब्वॉय राजा
- आपको क्या तकलीफ़ है
- इंग्लिश पप्पू
- उस्ताद और शागिर्द
- और क्या चाहिए
- कबिरा खड़ा बाजार में
- कुविता में कविता
- कूल बनाये फ़ूल
- खेला होबे
- गोली नेकी वाली
- घर बैठे-बैठे
- चाँद और रोटियाँ
- चीनी कम
- जूता संहिता
- जैसा आप चाहें
- टू इन वन
- डर दा मामला है
- तब्दीली आयी रे
- तुमको याद रखेंगे गुरु
- तो क्यों धन संचय
- तो छोड़ दूँगा
- द मोनू ट्रायल
- दिले नादान तुझे हुआ क्या है
- देहाती कहीं के
- नेपोकिडनी
- नॉट आउट @हंड्रेड
- नज़र लागी राजा
- पंडी ऑन द वे
- पबजी–लव जी
- फिजेरिया
- बार्टर सिस्टम
- बोलो ज़ुबाँ केसरी
- ब्लैक स्वान इवेंट
- माया महाठगिनी हम जानी
- मीटू बनाम शीटू
- मेरा वो मतलब नहीं था
- मेहँदी लगा कर रखना
- लखनऊ का संत
- लोग सड़क पर
- वर्क फ़्रॉम होम
- वादा तेरा वादा
- विनोद बावफ़ा है
- व्यंग्य लंका
- व्यंग्य समय
- शाह का चमचा
- सदी की शादी
- सबसे बड़ा है पईसा पीर
- सैंया भये कोतवाल
- हाउ डेयर यू
- हिंडी
- हैप्पी हिन्दी डे
- क़ुदरत का निज़ाम
- कहानी
- कविता
-
- अब कौन सा रंग बचा साथी
- उस वक़्त अगर मैं तेरे संग होता
- कभी-कभार
- कुछ तुमको भी तो कहना होगा
- गुमशुदा हँसी
- जब आज तुम्हें जी भर देखा
- जब साँझ ढले तुम आती हो
- जय हनुमंत
- तब तुम क्यों चल देती हो
- तब तुमने कविता लिखी बाबूजी
- तुम वापस कब आओगे?
- दिन का गाँव
- दुख की यात्रा
- पापा, तुम बिन जीवन रीता है
- पेट्रोल पंप
- प्रेम मेरा कुछ कम तो नहीं है
- बस तुम कुछ कह तो दो
- भागी हुई लड़की
- मेरे प्रियतम
- यहाँ से सफ़र अकेले होगा
- ये दिन जो इतने उदास हैं
- ये प्रेम कोई बाधा तो नहीं
- ये बहुत देर से जाना
- रोज़गार
- सबसे उदास दिन
- लघुकथा
- बाल साहित्य कविता
- सिनेमा चर्चा
- विडियो
-
- ऑडियो
-