लखनऊ का संत
दिलीप कुमार
बरसों पहले लखनऊ के एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार ने “विश्रामपुर का संत” नामक एक विराट कथा लिखकर ख़ूब प्रसिद्धि बटोरी थी। अब लखनऊ कुछ दूसरी वजहों से चर्चा में है।
“लखनऊ है तो महज़
गुम्बदो मीनार नहीं,
सिर्फ़ एक शहर नहीं
कूच ओ बाज़ार नहीं,
इसके आँचल में मोहब्बत
के फूल खिलते हैं,
इसकी गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं”
अब हम लखनऊ के जिस उपदेशी शख़्सियत का ज़िक्र कर रहे हैं वो ख़ुद को “साहित्य का संत” कहलवाना पसन्द करते हैं। न, न धोती-कुर्ता वाले नहीं हैं बल्कि ब्रांडेड पैंट-शर्ट ही पहनते रहे हैं।
उनके साथ शराब-कबाब के हमप्यालों के लिये वह फ़रिश्ता हैं, क्योंकि मुफ़्त का इफ़रात जुगाड़ हमेशा उनके पास होता है। उनसे साहित्य का वास्ता रखने वालों से वह “साहित्यिक संत” सुनना पसंद करते हैं।
अब वह फ़रिश्ता हैं या संत ये तो शोध का विषय है मगर एक पॉश एरिया के सरकारी सब्सिडी वाले काफ़ी बड़े और आरामदेह मकान में ये संतनुमा कवि पाए जाते हैं। संत कवि के कुछ गुण निम्नवत हैं:
1.
संत कवि फ़ेसबुक पर कविता पोस्ट करने को अनुचित मानते हैं और टैग करने को महापाप। ये अलग बात है कि जब भी कोई कविता संत कवि लिखते हैं तो फ़ेसबुक के अपने पाँच हज़ार मित्रों को टैग कर देते हैं और फिर उसे अपने फ़ेसबुक पर बनाये हुए पेज पर भी डाल देते हैं ताकि इनका कोई भी परिचित इनकी कविता की “आई टॉनिक”से वंचित न रह सके।
2.
संत कवि के एक उस्ताद कवि भी हैं। उस्ताद कवि लोकनिर्माण विभाग से रिटायर्ड महकमे से अरबपति हैं। उनका प्रिय शग़ल है मज़दूरों के लिये कविता लिखना और मज़दूरों को क्रांति के लिये जगाना। संत कवि के उस्ताद कवि की ये समस्या है कि जब तलक स्कॉच के दो पैग उदरस्थ नहीं कर लेते तब तक उनसे मज़दूरों की क्रांति की कविता का सृजन नहीं हो पाता। संत कवि उनके स्कॉच से मज़दूर हितों वाली कविता के जन्म की प्रक्रिया से बेहद प्रभावित हैं और कविता के जन्म हेतु अक्सर ही उस्ताद कवि के कार्यों और लेखन शैली का अनुकरण करते हैं।
3.
संत कवि का मानना है कि उनका काम बजरिये कविता, मज़दूरों की क्रांति के लिये ज़मीन तैयार करना है।
सो संत कवि त्याग करने में नहीं हिचकते, चूँकि इनके स्कॉची उस्ताद से दो पैग पीने के बाद ही कविता का सृजन हो पाता है और उस पर तुर्रा यह कि अकेले उनसे कविता रचते समय स्कॉच पिया नहीं जाता।
इसलिये संत कवि भी मन मारकर दो पैग स्कॉच के घूँट ले ही लेते हैं, ये और बात है कि संत कवि पीना नहीं चाहते, मगर मज़दूरों की क्रांति के हित में उन्हें पीना ही पड़ता है, मन मारकर भी।
संत कवि वैसे तो प्रचार-प्रसार से दूर रहना चाहते हैं परन्तु जब भी कोई अतुकांत बतकही (जिसे वह कविता कहते हैं) करते हैं तो उसे अपने व्हाट्सएप के स्टेटस पर तुरंत लगाते हैं और व्हाट्सअप के सभी ग्रुपों में डालते हैं। सन्त कवि ये बात भी सुनिश्चित करते हैं कि जिसने भी व्हाट्सअप पर उनकी कविता की स्टेटस नहीं देखा, उसको ब्लॉक कर दिया जाये।
4.
संत कवि एक अनियतकालीन पत्रिका भी निकालते हैं, ये पत्रिका मलाईदार विभागों से रिटायर्ड कुछ उच्च अधिकारियों द्वारा प्रमुखतया पोषित-पल्लवित है।
ये उन रिटायर्ड अफ़सरों के मानिसक सुख का साधन है जो जीवन भर तारीफ़, तवज्जोह, जी-हुज़ूरी सुनने के आदी रहे हैं मगर कुर्सी से रिटायर्ड होने के बाद अब सिर्फ़ एक धनवान व्यक्ति बन कर रह गए हैं, संत कवि की पत्रिका उन्हें सतत कालजयी कवि घोषित करती रहती है, जिसके एवज़ में संत कवि को लखनऊ के कुछ अति विशिष्ट क्लब के पास अक्सर मुहैया हो जाया करते हैं, जो उन रिटायर्ड उच्चाधिकारियों की वीआईपी स्टेटस को ही प्राप्त रही थी।
5.
संत कवि की अनियतकालीन पत्रिका के दरवाज़े ऊपर की कमाई वाले कवि हृदय अफ़सरों के लिये सदैव खुले रहते हैं। कोई भी कमाऊ और कवि हृदय अफ़सर विभाग के विज्ञापन देकर या होली/दीपावली की व्यक्तिगत शुभकामनाएँ पत्रिका में छपवा कर उत्कृष्ट कवि बन सकता है।
वैसे भी कुछ रिटायर्ड और कुछ कार्यरत अफ़सर तो पत्रिका को अनियतकालीन रहने ही नहीं देते। जैसे-जैसे अफ़सरनुमा कवियों की फ़ेहरिस्त बढ़ती गयी वैसे-वैसे पत्रिका की निरंतरता। कभी-कभी तो पत्रिका के महीने में ही दो अंक आ जाते हैं
“मरीजे इश्क़ पर लानत ख़ुदा की
मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।
6.
संत कवि प्रचार-प्रसार में बिल्कुल यक़ीन नहीं रखते, लेकिन यदि लखनऊ में किसी पुस्तक के लोकार्पण में उनको बुला लिया जाए, भले ही उपन्यास का लोकार्पण हो तो भी अपनी ताज़ा लिखी हुई न्यूनतम पाँच कविताएँ तो सुना ही देते हैं और कविता सुनाने के बाद तुरंत वहाँ से चल देते हैं; किसी अन्य की कविता नहीं सुनते। उनका मानना है कि उनके जैसे संत कवि को दूसरे की कविता पर सरे आम वाह-वाह करना न तो आवश्यक है और न ही उचित।
7.
संत कवि के उस्ताद कवि बाढ़ महकमे से रिटायर हुए हैं। लखनऊ में उनकी कविता से ज़्यादा चर्चा उनके अनगिनत प्लाटों और आवासों की होती है। मज़दूरों की क्रांति के लिये अक्सर वे बिहार, बंगाल अपने प्राइवेट जेट से जाते रहते हैं कम्यूनिस्ट मित्रों के चुनावों के प्रचार प्रसार में और कभी-कभार धरना प्रदर्शन में भी। संत कवि भी अपने उस्ताद कवि के साथ अक्सर प्राइवेट जेट में कविता से क्रांति के लिये बिहार, बंगाल आदि प्रांतों में जाते रहते हैं, आख़िर मज़दूरों के हित का सवाल जो रहता है।
8.
संत कवि का भी मानना है कि मज़दूरों की क्रांति के बीज मज़दूरों से ही लिये जाएँ तो ही बेहतर। इसलिये वो जब भी महीने में एक-आध बार अपने घर पर मज़दूरों के लिये कोई कविता या लेख लिखते हैं तो अपने घर में काम करने वाली नौकरानी, महरी की पगार का कुछ हिस्सा काट कर स्कॉच को समर्पित कर देते हैं। ताकि दुनिया भर के मज़दूरों के संघर्ष में उनके घर से भी क्रांति के कुछ बीज जा सकें।
9.
संत कवि का मानना है कि व्यक्ति को अपनी कविता के प्रचार-प्रसार का काम हरगिज़ नहीं करना चाहिए। वो प्रायः कवियों को नसीहत देते रहते हैं कि दमदार रचना लिखने पर फ़ोकस करो। प्रचार-प्रसार पर नहीं, सुर-कबीर, तुलसी को देखो। उनकी रचना अच्छी थी इसलिये उनकी रचना रह गई भले ही वो लोग चले गए।
उनका ब्रम्हवाक्य है कि “कवि नश्वर है, रचना अजर-अमर है।”
उन्होंने निजी तौर से अनथक प्रयास करके केरल के पाठ्यक्रम में अपनी एक कविता लगवा भी ली थी। उन्हें अपने सभी परिचितों को बताते-बताते एक बरस लग गया कि उनकी रचना केरल के पाठ्यक्रम में लगा दी गई है मगर साल बीतते केरल से उनकी रचना न जाने क्यों हटा दी गई। उन्होंने दरयाफ़्त की तो पता चला कि पटना के एक संत कवि को भी उन्हीं की तरह क्रांति के लिये अवसर देना लाज़िमी था।
उन्हें इस बात का बेहद मलाल था कि इतनी मुश्किल से वो सुर, कबीर, तुलसी के बग़ल में पहुँचे थे और पाठ्यक्रम से हटा दिए गए।
उनके स्कॉची उस्ताद कवि ने उन्हें आश्वासन दिया है कि जिन-जिन राज्यों में वो अपने कम्युनिस्ट साथियों के चुनाव के प्रचार-प्रसार हेतु गए हैं, उन राज्यों में वो सन्त कवि की रचनाएँ लगवाने का प्रयास करेंगे। कम से कम तीन राज्यों के पाठ्यक्रम में उनकी कविता लगवाने की गारंटी सन्त कवि के स्कॉची उस्ताद कवि ने स्कॉच की गवाही में दी है, बंगाल में शासन बदलने का इंतज़ार करने का भी सीख दी है, सन्त कवि के उस्ताद कवि ने कहा है कि बंगाल में मनमाफ़िक सरकार आते ही उन्हें किसी न किसी हिंदी विद्यापीठ का अध्यक्ष उन्हें ज़रूर बनवा देंगे।
10.
सन्त कवि का मानना है कि कवि तो लोक विधायक होता है उसे सिर्फ़ दबे-कुचले शोषित लोगों की बात करनी चाहिये। उन्हीं के साथ खड़े होना चाहिये, शोषण या बुरा करने वालों के साथ नहीं रहना चाहिये . . . पर न जाने क्यों छाजूमल वैद्यनाथ के लिये उनके दिल में एक सॉफ़्ट कार्नर है। छाजूमल वैद्यनाथ वही हैं जो कि नक़ली मावा बनाने के जुर्म में जो तीन साल जेल काट चुके हैं और कोर्ट ने उनके खाने-पीने के सामान बेचने पर पाबंदी लगा दी है।
सन्त कवि ने उस सज़ायाफ़्ता को न जाने क्यों समाज सेवी घोषित कर दिया। उन्हें समाजसेवी बनाने की सन्त कवि ने हर स्तर पर एक लम्बी लड़ाई लड़ी।
कहते हैं कि कपूरथला से छाजूमल के कपड़ों के शो रूम से सर्दी और गर्मी के कपड़े सीज़न शुरू होते ही आ जाया करते थे और लोक विधायक सदृश सन्त कवि पूरे साल सज़ायाफ़्ता को लखनऊ के अख़बारों में समाज सेवी घोषित करते रहते हैं।
एक यश प्रार्थी युवा कवि ने उनसे पूछा कि “आप एक सज़ायाफ़्ता को समाजसेवी घोषित करने पर क्यों तुले हुए हैं?”
सन्त कवि ने डनहिल के सिगरेट सुलगाई, लंबा कश लिया और युवा कवि के मुँह पर ढेर सारा धुआँ उड़ेलते हुए कहा:
“संत न छोड़ें संतई, कितनौ मिले असंत।”
युवा कवि संत कवि की बातों को समझा तो नहीं मगर अभिभूत अवश्य हो गया।
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