हे प्राणप्रिये

15-04-2025

हे प्राणप्रिये

दिलीप कुमार (अंक: 275, अप्रैल द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

हे प्राणप्रिये, 
अब तो तुम हो गई विदा, 
अब रहोगी मुझसे दूर सदा, 
थोड़ा मान था तुमपे थोड़ा अभिमान, 
मैं हमेशा तुम पर छिड़कता रहा जान, 
माना जीवन फूलों की सेज तो नहीं है, 
पर मुट्ठी से फिसलती रेत भी तो नहीं है, 
जब प्रेम का ये घरौंदा है तुमने बनाया, 
क्या कभी तुम्हें तब मेरा ख़्याल न आया? 
तुमने इतनी राहें आख़िर क्यों बदली? 
क्या संवेदनाएँ हो चली हैं छिछली? 
जब चुनना ही था तुम्हें दूजा प्रेम का पथ, 
फिर हमसे क्यों किये इतने कौतुक-करतब? 
इक नया पासवां जो तुमने है चुना, 
अब चैन से उसके ही संग रहना, 
कितने हिस्सों में यूँ बँटकर रहोगी? 
कब तक यूँ ही ख़ुद से जूझोगी? 
माना जीवन में आगे बढ़ना भी है इक मजबूरी, 
पर जो कुछ किया था तुमने, क्या था वो ज़रूरी? 
आज क़लम में कलेजे का है लहू, 
मैं तुमसे और कुछ क्या ही कहूँ? 
नियति ने ही मेरी नियति बिगाड़ी, 
तभी तो उजड़ी स्वप्नों की खेती-बाड़ी, 
कहने को कुछ न अब रहा बाक़ी, 
‘हे प्राणप्रिये’ तुम ख़ुश रहना साथी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
स्मृति लेख
कहानी
लघुकथा
बाल साहित्य कविता
सिनेमा चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में