समबडी इज इनसाइड

15-08-2025

समबडी इज इनसाइड

दिलीप कुमार (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

संजीव ने दरवाज़े के भीतर आते ही ख़ुद को चटाई पर निढाल छोड़ दिया। शेखर ने उसे किनारे होने की घुड़की दी। उसने कातर आँखों से शेखर को देखा फिर आँखें बंद कर ली। क़रीब पाँच मिनट ऐसे ही संवादहीनता की स्थिति में बीत गये। शेखर सोच रहा था कि अब संजीव उठे और खाना बनाना शुरू करे, शेखर ज़ोर से खाँसा मगर कमरे में कोई दूसरा स्वर नहीं बोला। शेखर को भूख लग रही थी वक़्त काटना मुश्किल हो रहा था, पाँच, दस, पंद्रह मिनट ऐसे ही बीत गये मगर संजीव ने आँखें नहीं खोली तब शेखर ने हारकर उसे जगाया। 

उसने आँखें खोली मगर पीड़ा मिश्रित स्वर में धीरे से कहा “रुको, अभी हाल ठीक नहीं है।” फिर वो धीरे-धीरे अपने घुटनों को सहलाने और दबाने लगा। बड़ी देर तक वो अपने हाथ के पंजों से अपने पैरों को दबाता रहा फिर मुट्ठियाँ भींच-भींचकर मारता रहा। शेखर जान गया कि ये इतनी जल्दी नहीं उठेगा और खाने में काफ़ी देर लगेगी। शेखर कमरे से निकलकर गली के नुक्कड़ पर आ गया। उसने दूध का एक पैकेट ख़रीदा, पाव लिया और अपना कलेजा फूँकने के लिये सिगरेट। 

मोमेन्ट सिगरेट उसके जैसे स्ट्रगलर के लिये ही बनी थी शायद। बड़ा पाव, कटिंग चाय, मोमेन्ट सिगरेट, शेयरिंग ऑटो, शेयरिंग खोली ये सब उसके मुम्बइया ज़िन्दगी के संघर्ष के हिस्से थे। शेखर भी इन समझौतों से आजिज़ था वरना वो संजीव को क्यों बरदाश्त कर रहा होता। वो उधार की पर्ची और सब सामान लेकर कमरे में लौट आया और संजीव के सामने चाय और पाव रख दिया जिसका मतलब था चाय बना दो। संजीव ने ये सब देखा तो फीकी हँसी से बोला, “रुको, शेखर भाई, खाना बना रहा हूँ। दिन भर में दो बर्गर और रात को चाय के साथ पाव। यही खाएँगे तो वैसे ही मर जायेंगे। फिर हम यहाँ मरने थोडे़ ना आये हैं।” 

शेखर ने रूखाई से कहा, “वैसी मौत तो जब मरेंगे तब मरेंगे, मगर आज कुछ न खाया तो ज़रूर मर जायेंगे।”

संजीव भी शायद भूख से व्याकुल था। वो उठा तो नहीं पर घिसट-घिसट कर मोरी तक गया, हाथ-मुँह धोये फिर उसी तरह घिसट-घिसट कर वापस भी आ गया। तब तक शेखर ने चाय चढ़ा दी थी। संजीव ने सब्ज़ियाँ काटीं, चावल बीना। चाय के साथ दोनों ने एक-एक पाव खाया। 

संजीव ने कहा, “सब्ज़ी-चावल में बहुत देर लगेगी। तहरी बना डालता हूँ। मुझे भी बहुत भूख लगी है, आप भी भूखे होंगे।” 

शेखर ने सहमति दे दी। अब जो कुछ जल्दी मिल जाये वही खा लिया जाये। शेखर चटाई पर पसर गया और संजीव ने उसका मोबाइल उठाकर अपने हाथ में ले लिया और इयर फोन लगाकर गाने सुनने लगा। शेखर का अपना ग़म था “नानक दुखिया सब संसार।” वो एक प्राइवेट स्कूल में टीचर था वो भी बिना ट्यूशन का। संजीव उसके कमरे में पंद्रह सौ रुपये के किराये का पार्टनर था। वो भी सिर्फ़ पाँच सौ रुपये देता था। संजीव के पास मुम्बई में खोली लेने के लिये डिपाजिट की रक़म का इंतज़ाम न था। शेखर ने रूम के डिपाजिट का इंतज़ाम तो कर लिया था। मगर पंद्रह सौ रुपये महीना देना भारी था। 

ये राष्ट्रीय क्षितिज पर महेन्द्र सिंह धोनी के उभार का समय था। शेखर ने संजीव को कुछ शर्तों पर रखा था जिसमें से ये था कि संजीव खाना बनायेगा, बरतन धोएगा, कमरे की साफ़-सफ़ाई रखेगा सिर्फ़ शेखर के जूठे बरतन नहीं धोयेगा क्योंकि शेखर ने उसे मना कर रखा था क्योंकि संजीव ब्राह्मण जो था। संजीव के अंदर थोड़ा सा ब्राह्मण बचा हुआ था सिर्फ़ खाने के मामले में। वो ख़ुद मांसाहार नहीं करता था मगर मांस, मछली और मांसाहारियों के बीच में भोजन कर लेने से उसे परहेज़ न था। 

संजीव भी अजीब शै था। साढ़े चार फ़ुट का क़द, रंग गोरा, खडे़ बाल, चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ जमी नहीं, दुबला-पतला शरीर उसे देखकर लोग न जाने क्यों वितृष्णा से भर उठते थे। उसके पैतृक शहर में लोग उसे नाटा और छोटू बुलाते थे। वो इस सम्बोधन से चिढ़ता था मगर ये छोटू शब्द कब उसका पीछा छोड़ने वाला था। उसे इस बात का पहली बार एहसास तब हुआ जब वो बारह-तेरह वर्षों का था तब बाक़ी भाइयों के बनिस्वत उसके हाथ-पैर छोटे-छोटे थे। छोटू, भांटा, नाटा, गूंठे जैसे शब्द उसकी दिनचर्या का हिस्सा थे। उसका असली नाम राजीव तिवारी शायद ही कोई पुकारता था, वो उन विशेषणों से जितना, चिढ़ता था लोग उतना ही उसको उन्हीं नामों से पुकारते थे। हिमालय की तराई के जिस छोटे से क़स्बे नानपारा से उसका त'अल्लुक़ था वो जगह देश के नक़्शे से ऐसे गुम थी जैसे राजीव तिवारी की ज़िन्दगी से सपने। 

राजीव के पिता शंभूनाथ तिवारी ज्योतिष, पत्रकारिता और नेतागीरि से इतना भी नहीं कमा पाते थे कि वो अपने चार बच्चों का ठीक से भरण-पोषण कर सकें। सरकारी स्कूलों की तालीम पर गुज़र-बसर करते राजीव किसी तरह यौवन की दहलीज़ पर पहुँचा। राजीव अपने बौने होने के तानों से इतना आजिज़ था कि कई बार उसने ख़ुदकुशी करने की कोशिश भी की थी। मगर ख़ुदकुशी करने की कोशिश करना और उस कोशिश को अंजाम तक ले जाना दो अलहदा चीज़ें हैं। हताशा और पस्ती के आलम में वो अपने हम उम्र लोगों से भी कटता गया और तालीम से भी। उसका बड़ा भाई संजीव एक ट्राँसपोर्ट कम्पनी में मुंशीगीरी करता था। उसी की कमाई की बदौलत दोनों जून चूल्हे पर अदहन चढ़ा करता था। 

राजीव आठवीं भी ना पास हो पाया था और बहुत हाथ-पाँव मारने के बावजूद अपनी विचित्र देह-दशा के कारण कोई रोज़गार भी न पा सका। जब उसकी उम्र के लड़को की शादियाँ होती थीं तो उसके भी दिल में हूक उठती थी कि मैं भी कुछ करूँ। कुछ करने के चक्कर में उसने नेपाल से डली लाकर बहराइच के बाज़ार में बेचना शुरू किया जो कि ख़ासा मुफ़ीद भी था। क्योंकि एक तो वो जल्दी पकड़ा नहीं जाता था दूसरे अगर वो पकड़ा भी पाता था तो उसकी विशेष-क़द-काठी देखकर लोग उस पर दया करके छोड़ देते थे। 

आसानी से पैसा आया तो अपने साथ लत भी लाया। उसकी भुखमरी दूर हुई तो उसने लड़कियों को महँगे तोहफ़े देने शुरू कर दिये थे। 

घर में, परिवार में, समाज में “सौ अवगुन लक्ष्मी हरै” वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी राजीव के मामले में। दिन-ब-दिन राजीव का महत्त्व बढ़ रहा था जितना संजीव महीने भर में कमाता उतना राजीव नेपाल के दो चार फेरे लगाकर कमा लेता। लेकिन बार्डर पर एस.एस.बी. की तैनाती ने राजीव को कहीं का नहीं छोड़ा था। रूपईडीहा बार्डर पर जब वो एक बोरी डली के साथ पकड़ा गया तो उसका चालान करके जेल भेज दिया गया। राजीव बमुश्किल छूटा अब वो दाग़ी हो चुका था समाज की नज़रों में। उसे कोई रोज़गार न मिला। रिक्शा चलाना, चाय बेचने में उसका ब्राह्मण होना बाधा था पूँजी घर में थी नहीं सो उसने मुम्बई की राह ली। 

♦    ♦    ♦

मुम्बई क्या उसके लिये पलक पाँवडे़ बिछाये बैठी थी। मुम्बई अब वो शहर था जो अपनी पहचान से जूझ रहा था। कहने को यहाँ या तो अंग्रेज़ी चलती थी या मराठी। मराठी भाषा और मराठी मानुष की एकता ऊपर से जितनी दिखाई दे रही थी उतनी हक़ीक़त में थी नहीं। अंग्रेज़ी और मराठी के वर्चस्व वाले इस शहर में शायद राजीव के लिये भी कुछ था और इसी कुछ की तलाश में राजीव महीनों मुम्बई की ख़ाक छानता रहा। राजीव अपने जिस रिश्तेदार के घर पहुँचा था वो मुम्बा देवी मंदिर के सामने आम बेचते थे। फ़ुटपाथ पर आम बेचना, आम की दुकान सजाने से पहले खाना बनाकर खा लेना। उसी स्थान पर फिर दुबारा दुकान लगाना और रात को उन्हींं पेटियों पर अख़बार बिछाकर सो लेना। नहाना-धोना सब बी.एम.सी. के शेयरिंग शौचालय और नल से। 

कमाल का शहर, दिल-फ़रेब ज़िन्दगी सबके हाथ में एन्ड्रायड और सबके पैरों में एडिडास के जूते मगर पैरों के नीचे जीमन नहीं। ये फतांसियों और ये ख़्वाबों की उम्मीद अब क़त्लगाह में तब्दील हो रहे थे। राजीव अपने घरेलू नाम मिन्टू के ज़रिये बीसियों दिन वहीं पड़ा रहा। उसका नानपारा का पड़ोसी जमील, जिसके आश्वासन पर वो बाउम्मीद था। जमील उन दिनों पिजहट कम्पनी में था। आठ घंटे की जानलेवा नौकरी जो पिजहट में थी वो भी जमील उसे नहीं दिला सका क्योंकि मिंटू के पास कोई डिग्री नहीं थी। जमील के जब सारे प्रयास विफल हो गये उसने राजीव को समझाया, “जो दस-पाँच लोग तुम्हें इस शहर में जानते हैं उनको अपना असली नाम राजीव कभी मत बताना। बस पुकारू नाम मिन्टू ही बताना।” ये ताकीद एक योजना का हिस्सा थी जिसके खुल जाने से खेल की तासीर बिगड़ सकती थी। 

जमील से पैसे लेकर राजीव ने फिर नानपारा की राह ली। घर पहुँचकर उसने अपने भाई संजीव की मार्कशीट ली और उसे अपने इरादे बताये। संजीव का विवाह तय हो रहा था। उसने किसी लफडे़ में फँसने से आशंकित होकर आनाकानी तो की, मगर अपने लघुकाय भाई के लिये उम्मीद देखकर उसका मन द्रवित हो उठा। उसने अपनी मार्कशीट, चंद रुपये और भाई को विजयी भव का आशीष दिया। इंटर की मार्कशीट हाथ लगी तो राजीव को मानो पंख लग गये थे। उसने ख़ुद कई दिनों तक अभ्यास किया था ख़ुद के संजीव होने का। 

जमील ने अपने प्रयासों से उसे नौकरी तो दिला दी मगर न तो उसे अँधेरी उपनगर की ब्राँच मिली और न किचन, न ही काउन्टर। उसे हाउसकीपिंग में रखा गया था। हाउसकीपिंग अपने आप में जितना फ़ैंसी नाम था, वो काम उतना ही भयावाह था। पिज़्ज़ा, बर्गर, काफ़ी की इस दुकान में ग्राहक ख़ुदा था। मुम्बा देवी की फ़ुटपाथ पर रात बिताकर भयंदर की नौकरी आसान न थी। वेस्टर्न लाइन से सेंट्रल लाइन आना फिर ट्रेन पकड़ना और फिर ऑटो या बस से पिजहट। लगातार तीन दिन की देरी से खिन्न मैनेजर ने उसे चौथे दिन नौकरी छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया। राजीव को फिर ज़मीन सूँघ गया उसने जमील के पैर पकड़े। 

जमील ने उस ब्राँच के मैनेजर से मिन्नतें की तो राजीव को एक मोहलत और मिल गयी मगर ये मोहलत कब तक रहनी थी। हारकर जमील ने उसे मालवणी में ठहरने को कहा। मालवणी से भयंदर वेस्टर्न लाइन पर ही था, फिर सीधी बस भी जाती थी वहाँ तक, मगर बस ख़ासी महँगी थी। ये विश्वव्यापी मंदी के शुरूआती साल थे जिसमें महेन्द्र सिंह धोनी टी-2. विश्वकप जीत चुके थे और तब राजीव की तनख़्वाह पाँच हज़ार रुपये थी। मालवणी से मलाड की बस, मलाड स्टेशन से भयंदर लोकल ट्रेन से। मगर मालवाणी भी अब उतनी आसान नहीं रही थी। जमील ने राजीव के रहने का इंतज़ाम एक सिलाई के कारख़ाने में कर दिया था सिर्फ़ पाँच सौ रुपये महीने पर। 

सारे कारीगर मुसलमान थे, रोज़ मांस, मछली, अंडा बनाते थे सो साथ खाने-पीने का सवाल ही नहीं था। कारीगर दिन भर नात सुनते और हिन्दुओं की खिल्ली उड़ाते। हिन्दू देवी-देवताओं पर होने वाले तंज़ से राजीव बहुत आहत होता। वो जमील को सब बताता, बहुत मिन्नतें करता कि वो उसे अपने कमरे में रख ले मगर जमील असमर्थता जता देता। 

दिन ऐसे ही बमुश्किल बीतते गये और एक दिन रात को कारख़ाने में भयंकर झगड़ा हुआ। तो एक कारीगर ने उस पर कैंची से हमला किया वो रोता हुआ खून-खच्चड़ खोजते-खोजते जमील के कमरे तक पहुँचा। वहाँ उस कमरे पर एक लड़की मिली जिसने अपना नाम हलीमा बताया। उस युवती ने राजीव की मल्हम-पट्टी की और जमील को ड्यूटी से भी बुला लिया। जमील जब कमरे पर लौटा तो उसे अपना ये राज़ बताना पड़ा राजीव को कि वो इस लड़की के साथ बिना शादी के रह रहा है इसे लिव-इन कहते हैं और ये मुम्बई शहर में बहुत आम बात है। जमील, राजीव को लेकर सिलाई के कारख़ाने पर पहुँचा। 

दरयाफ़्त की तो पता चला कि राजीव ने कारख़ाने के एक कोने में गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति लगा रखी है, जहाँ रोज़ सुबह वो धूप-अगरबत्ती सुलगाकर चालीसा पढ़ता था। यही बात मुस्लिम कारीगरों को गवारा न हुई तो नात और चालीसा की बहस मारपीट में बदल गयी। राजीव शरीर से लघुकाय था लोगों ने उसे मिलकर बहुत बुरी तरह से पीटा था और फिर आगे पीटने की फ़िराक़ में भी थे। रज्जू मियाँ और उनके कारीगरों को ये हरगिज़ गवारा न था कि उनके कारख़ाने में पूजा-पाठ हो। 

पूजा-पाठ न भी हो तो एक लघुकाय हिन्दू के सामने वे ज़ब्त होकर क्यों रहें ये उनकी अपनी सीमित दुनिया थी जहाँ वे सामूहिक रूप से अपना ग़ुस्सा और भड़ास निकाल सकें। जमील बहुत दुखी हुआ वो अगर राजीव को मुम्बा देवी भेजता है तो नौकरी जाती है और अगर मालवणी के इस कारख़ाने में रखता है तो मारपीट की आशंका बनी रहती है। 

हारकर जमील, राजीव को अपने घर ले आया। घर क्या था एक आठ बाई आठ की खोली थी जिसमें दो लोग गुज़ारा कर रहे थे। कहते हैं दिल में जगह हो तो हर जगह गुंजाइश बनी रहती है। राजीव न जमील का दोस्त था न रिश्तेदार बस उसके शहर का था। राजीव के कमज़ोर शरीर के कारण जमील के दिल में उसके लिये सहानुभूति थी। अजब-ग़ज़ब रंग ज़िन्दगी के चलते रहे। कभी राजीव की नाइट शिफ़्ट तो कभी जमील की नाइट शिफ़्ट और उन सबके बीच पिसती रही हलीमा। एक औरत को वो कमरा कभी अकेले नसीब न हुआ, इस महानगर में, जबकि नारीवादियों ने शी-टाइम का एक बहुत बड़ा अभियान छेड़ रखा था। कमरा साझा था, दुख साझा था, रोटियाँ साझी थीं बस साझे नहीं थे तो उनके सपने। 

♦    ♦    ♦

इसी बीच जमील ने पिजहट वाली नौकरी छोड़ दी उसे जुहू के एक होटल में दूसरी अच्छी नौकरी मिल गयी थी। जमील को एक स्टाफ़ क्वार्टर भी मिल गया था जो बम्बई की इस कहावत को चरितार्थ कर रहा था कि “बम्बई में भगवान का मिलना आसान है, मकान का मिलना मुश्किल है”। अपने नये रोज़गार पर जमील ने हलीमा को अपनी ब्याहता पत्नी बताया था सो वो अब रहने के लिये जुहू जाने वाला था। जमील मुसलमान था और राजीव हिन्दू, वरना वहाँ भी राजीव को वो अपना भाई बनाकर घर में रख लेता, मगर जमील को राजीव के रहने की बड़ी फ़िक्र थी। इसी फ़िक्रमंदी और तलाश के दौरान जमील की मुलाक़ात शेखर से हुई जो घर से तुनककर भाग आया था और वो भी नानपारा से था। 

शेखर अब इस शहर में प्राइवेट टीचिंग और कोचिंग से अपना गुज़ारा कर रहा था। वो एक बेहतरीन बाँसुरीवादक था मगर महानगर के शोर में उसकी बाँसुरी कहीं दब गयी थी। कभी ज़िन्दगी ने मोहलत दी और पैरों के तले ज़मीन आयी तो वो भी दुबारा बाँसुरी की धुनें इस शहर को सुनायेगा और भी पैसे लेकर। जमील उसका पुराना परिचित था मगर ये परिचय फिर से नया हो गया था। शेखर भी इधर-उधर टहलकर दिन काट रहा था। जमील ने शेखर को खोली खोजने, एग्रीमेन्ट बनाने और धनी से मोलभाव करने में ख़ासी मदद की ख़ुद एग्रीमेन्ट में गवाही भी बना। शेखर जमील की इस मदद का थोड़ा मुरीद था। 

जुहू शिफ़्ट होने से पहले जमील ने शेखर को ये प्रस्ताव दिया और इल्तजा भी की कि वो संजीव को अपनी खोली में रख ले। जमील ने राजीव को संजीव बनाकर ही मिलवाया था शेखर से ताकि कल को कोई शक-शुबहा की नौबत न आये। शेखर भी ज़रूरतमन्द था उसने संजीव को अपनी खोली में पनाह दे दी। 

राजीव अब पूरी तरह से संजीव था। जब भी संजीव को लगता उसकी ज़िन्दगी पटरी पर लौट आई है तभी कोई न कोई बखेड़ा खड़ा हो जाता था। 

जमील ने नौकरी क्या छोड़ी उस पिजहट में उसका इक़बाल भी जाता रहा था। जब तक जमील था तब तक लघुकाय संजीव से कोई विशेष मेहनत वाला काम मैनेजर नहीं लेता था। मगर जमील के जाते ही सबके तेवर बदल गये। ग़ालिबन अब भी वो हाउसकीपिंग में ही था। मगर नये मैनेजर को लगता था कि उसके जैसे लघुकाय व्यक्ति को सामने देखकर ग्राहकों के मन में खिन्नता पैदा होती है कि कम्पनी के पास चमचमाते चेहरे और अच्छे डील-डौल के व्यक्ति नहीं हैं क्या। फिर अंग्रेज़ी भाषा का अपना रूआब था। अंग्रेज़ी न बोल पाने वालों को मुख्य काउंटर से हटा दिया गया जिनमें संजीव भी था। मज़े की बात ये थी कि रिक्शेवाला, खोमचेवाला भी बीस रुपये में ही पिजहट में जा सकता था मगर उसके सेवक अंग्रेज़ीदार हों। 

संजीव की ड्यूटी वाशरूम में लगा दी गयी। वाश रूम एक बहुत छोटी सी जगह जिसमें बमुश्किल सात-आठ लोग एक वक़्त में रह सकते थे। जिसमें तीन यूरिनल थे दो वाश बेसिन थे और चार शौचालय कक्ष थे दो महिला दो पुरुष। मगर वाश रूम सबका कॉमन ही था, एक बड़ा-सा आईना भी था जिसमें लोग आते कपड़े बदलते, बनाव-शृंगार करते कुछ चूमा-चाटी का भी प्रयास करते हैं। संजीव की ड्यूटी अब वहीं थी। लोग वाशरूम में गंदगी न करें इसलिये हाउसकीपिंग का एक बन्दा उनको सब बताता-समझाता रहता। संजीव अब रूम फ़्रेशनर, हैंडवाश, टायलेट क्लीनर का रखवाला था। शौचालय के बाहर इंतज़ार कर रहे और कोने के दो महिला शौचालय की तरफ़ कोई जाने की कोशिश करता तो संजीव उसको टोकता “समबडी इज इनसाइड” यही बताना उसका काम था। 

पिजहट में वाशरूम ही एक ऐसी जगह थी जहाँ सी.सी.टी.वी. कैमरे की पहुँच न थी। पिजहट आने वाली अधिकांश महिलायें वाशरूम का प्रयोग करतीं अपना मेकअप दुरुस्त करतीं, पुरुष जाते तो ख़ुद को सजाते-सँवारते और अगर महिला-पुरुष इकट्ठे जाते तो प्रेमालाप करते थे। 

बेसिन पर लोग इधर-उधर थूक या उल्टी कर जाते तो संजीव उन्हें साफ़ करता। शौचालयों की टोटी खुली रह जाती तो उन्हें बन्द करता। तमाम महिलायें अपने अतिरिक्त कपडे़, पर्स और दूसरे सामान शौचालय जाने से पहले संजीव को तका कर जातीं तो संजीव उनको पकडे़ खड़ा रहता, बड़ी हसरत से उन ज़नाना सामानों को निहारता, सहलाता। कुछ महिलायें कमोड में सेनेटरी पैड फेंक जातीं जिससे कमोड चोक हो जाता संजीव स्वीपर की मदद से उसको साफ़ करवाता। सभी ज़रूरतमंदों को साबुन, टायलेट क्लीनर, रूम फ़्रेशनर उपलब्ध करवाता और फिर उन्हें क़रीने से सजाकर रखता। खडे़-खडे़ उसकी टाँगें दुखने लगती थीं। पिजहट में उसे ख़ुद कुछ भी खाने-पीने की छूट न थी, मगर पेट की आग तो बुझानी ही थी। पिज़्ज़ा बेचो, पर पिज़्ज़ा मुफ़्त में खा नहीं सकते। सिर्फ़ दो बर्गर दोपहर को खाने को मिलते थे। नथुनों से लेकर फेफड़ों तक पूरे शरीर में शौचालय की बू भरी रहती थी। टायलेट क्लीनर से रूम फ़्रेशनर और दूसरों की जिस्मानी इल्लत झेलने का एहसास। उसकी दादी कहा करती थीं कि “ब्राह्मण विद्या से जाये तो क्या-क्या दुख न पाये।” 

स्नान-ध्यान, तन-मन की शुद्धता पूजा-पाठ और दुराचारियों से दूर रहने की ताकीद सुनते उसका बचपन बीता था अब उतनी ही तन-मन की बू में डूबा उसका आज था। खाना खाने बैठता तो थूक, खंखार और उल्टी याद आती। ये याद आते ही खाने से उसका मन खिन्न हो जाता था। खाना खाते-खाते अचानक उसका मन घिन्ना जाता तो वो खाना छोड़ देता था शेखर उसे इस खाने की बर्बादी पर बहुत भला-बुरा कहता था। 

दोनों का दुख साझा था मगर धीरे-धीरे दुख घट भी रहा था। मगर संजीव की ज़िन्दगी इतनी आसान कहाँ रहने वाली थी तभी आया पैनकार्ड का लफड़ा। पिजहट का निर्देश, पैनकार्ड के बिना सभी भुगतान रोक दिये जायेंगे। इसके पीछे भी इस अति आधुनिक शहर में जातिगत कुंठा थी। 

पिजहट के ब्राँच मैंनेजर विवके कायसे जो कि दलित था उस तक संजीव-राजीव वाली बात किसी ने चुग़ली की थी। विवेक कायसे ने अपनी कुंठा निकालने के लिये संजीव को शौचालय में लगाया था और फिर जब कानाफूसी, शक-शुबहा की नौबत आयी तो इस लघुकाय युवक की वो नौकरी ले लेने पर आमादा था। 

इसका कारण ये था कि तमाम पर्व और त्योहारों पर पिजहट के कर्मचारी विवके कायसे के पैर छूते थे लेकिन संजीव ने अपनी जातिगत श्रेष्ठता वाली सोच के कारण मैनेजर के कभी पाँव न छुये। उसे ये बात खटक गयी थी। 

अब जाति वाली सोच दोनों तरफ़ काम कर रही थी। ये बात जब संजीव की समझ में आयी तो वो जान गया कि ये नौकरी अब न बचेगी क्योंकि संजीव के असली फोटो वाला पैनकार्ड तो नानपारा की ट्रांसपोर्ट कम्पनी में पहले से लगा हुआ था जब वो राजीव था संजीव नहीं। मुम्बई में अब उसके लिये शायद कुछ न बचा था। सिक्योरिटी एजेंसी में उसे लघुकाया के कारण नहीं रखा गया। कोरियर में उसे अंग्रेज़ी पढ़ न पाने के कारण और मराठी बोल न पाने के कारण नहीं रखा गया। बाक़ी सारी नौकरियाँ जी-तोड़ शारीरिक मेहनत वाली थीं जो उसका शरीर देखकर ही उसको नहीं मिली थीं। पिजहट की सत्रह रुपये घंटे वाली नौकरी भी महीने में उसे पाँच हज़ार से ऊपर न कमवा पाती थी। फिर पैनकार्ड का अड़ंगा आया तो ये भी जाने वाली थी। तीन महीने तक तनख़्वाह नहीं मिली तो संजीव ने फिर जमील की शरण ली। 

जमील भी अब काफ़ी हद तक बेबस था। उसने संजीव को नानपारा वापस लौट जाने की सलाह दी और तीन महीने की बकाया तनख़्वाह दिला देने का आश्वासन दिया। जमील ने अपने पुराने संपर्कों के बलबूते संजीव को उसकी तनख़्वाह दिला दी। कंपनी के अपने संगी-साथियों को उसने माँ की बीमारी का हवाला दिया और चल दिया अपने वतन। ट्रेन तक उसे शेखर विदा करने आया था। बड़ी तेज़ी से स्टेशन पीछे छूटते जा रहे थे और बड़ी हसरत से वो सपनों की नगरी को निहार रहा था। वो चिंतामग्न था कि आगे क्या होगा मगर फ़िलहाल मुम्बई की रंगीनी को निहार रहा था क्योंकि आधी रात को मुम्बई झिलमिला रही थी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
स्मृति लेख
लघुकथा
बाल साहित्य कविता
सिनेमा चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में