ससुराल गेंदा फूल
दिलीप कुमार
बड़े बुज़ुर्ग फ़रमाते रहे हैं कि कलजुग में सार (साला), बार (बाल) और ससुरार (ससुराल) काफ़ी महत्त्वपूर्ण हुआ करेगा। जिस बहनोई को देखकर साला नामक प्राणी की घिग्घी बँध जाया करती थी वह प्राणी न जाने कब चुपके से ब्रदर-इन-ला हो गया। इसका तो पता ही नहीं चला। बालों का विकल्प विग हो गया। अब तो जिस रंग के सूट पहने जाते हैं उसी रंग की विग भी लगाई जाती है। पर बालों की दुनिया में एक पक्ष यह भी है कि जिस तेज़ी से पुरुष गंजे हो रहे हैं और स्त्रियों के बालों की चोटी पतली और छोटी होती जा रही है उसमें केश विन्यास और केश का न होना कोई ख़ास समस्या नहीं रह गई है।
कलजुग की तीसरी नियामत ससुराल मानी गई थी। स्त्री-पुरूष के लिये ससुराल के अलग-अलग मायने हैं। जहाँ स्त्रियों के लिये ससुराल का मतलब ज़िम्मेदारी एवं कर्त्तव्य हुआ करता था वहीं पुरुषों के लिये ससुराल जाना मतलब आंनद की यात्रा पर जाना होता था।
विवाह के बाद एक युवक अपने ससुराल के गाँव गया। वहाँ पर उसका बहुत ही ज़ोरदार स्वागत हुआ। खेती-किसानी की एक-रसा ज़िन्दगी बरसों से बिता रहे उस युवक को सपने में भी गुमान नहीं था कि ससुराल जाने पर ज़िन्दगी इतनी सुखद एवं स्वादिष्ट भी हो सकती है। उसने इतने सुख देखे कि अपने मन के उद्गार कहने को व्याकुल हो उठा।
जब कहीं उसे अपनी बात को कहने का सही विकल्प नहीं मिला तो उसने ख़ुशी एवं उत्साह में ससुराल वाले घर के दरवाज़े पर रात को चुपके से लिख दिया:
“ससुराल है सुख का द्वार।”
अगले दिन सुबह जब वह उठा तो देखा कि उसकी लिखी हुई इबारत के नीचे लिखा हुआ था:
“जब रहे दिन दो-चार।”
युवक ने ससुराल को स्वर्ग का द्वार समझ लिया था मगर उसे जो तंज़ भरी बात कही गई उससे उसका मन थोड़ा ख़राब हो गया। परन्तु वह ससुराल के सुखों को छोड़कर तुरंत अपनी मेहनतकश ज़िन्दगी में लौटना नहीं चाहता था। ‘ये दिल माँगे मोर’ की सोच वाला वह युवक सुख और आत्मसम्मान के संघर्ष में दिन भर ससुराल में अपने धर्मसंकट से जूझता रहा। अंत में उसने तय किया उसके पसोपेश का उत्तर वहीं से माँगा जाए जहाँ से उसकी पहली बात का उत्तर आया था।
रात को उसने चुपके से उसी स्थान पर लिखा:
“जो रहे मास-मसवारा।”
अगली सुबह जब युवक उठा उसने देखा कि उसकी इबारत के नीचे जवाब लिखा हुआ था:
“तो पकड़े तसला-थारा।”
युवक को उसका उत्तर मिल गया था। उसने सोचा कि जब तसला-थारा और कुदाल ही पकड़ना है तो ससुराल में क्यों पकड़ा जाए? बल्कि अपने घर ही जाकर मेहनत वाले काम किये जायें। उसे यह भी समझ में आ गया कि पुरुषों के लिये ससुराल के सुख बस चार दिनों तक सीमित है। चार दिन से अधिक ससुराल में रहने वाला पुरुष विशेष मेहमान नहीं बल्कि सामान्य परिवार के सदस्य की तरह हो जाता है। उसकी कोई विशिष्टता नहीं रह जाती है।
जीजा की इबारत के नीचे उनके प्रश्नों के उत्तर लिखने वाली साली इस प्रकरण से बख़ूबी वाक़िफ़ थीं। जीजा के चार दिनों के स्वागत सम्मान को देखकर उनके मन में कई विचार दिन-रात, उथल-पुथल कर रहे थे। स्वागत की विशिष्टता देखकर अभिभूत हुई लेडी समानता की पैरोकार और इंक़िलाब की हिमायती हुआ करती थी। उसी युवक की साली ने सोचा कि काश ऐसा हो कि पुरुष को जो चार दिन का विशिष्ट सुख ससुराल में मिला है वैसा ही सुख अगर उसकी ससुराल में मिले तो?
तो ऐसी ख़्वाबों वाली ससुराल होने के लिये ऐसे अतरंगी पति भी तो मिलने चाहिये। तो ऐसे पति की तलाश में एक क्रांति की पक्षधर टाइप महिला ने सोचना शुरू किया। भारत में दहेज़ से लेकर विवाह से जुड़ी हर्ष फ़ायरिंग तक अपराध है तो पति कैसे ख़रीदे जा सकते हैं। यहाँ पर “दूल्हा बिकता है” जैसी फ़िल्में तो बनती हैं पर वास्तव में दूल्हे की ख़रीद ग़ैर क़ानूनी है।
मगर दुनिया बाज़ार में सब कुछ बिकता है। जिस चीज़ की एक देश में पाबंदी होती है वही चीज़ दूसरे देश में आसानी से मिल जाती है। तो इस निराली दुनिया के एक अलबेले शहर में किसी दुकान पर यह इश्तिहार चमक रहा था “यहाँ पति ख़रीद सकती हैं।”
पतियों वाली दुकान तो मिल गई मगर वहाँ पर “वापसी नहीं होगी” और “शर्तें लागू” की शर्त भी लगी थी।
काफ़ी दिनों से ऐसी किसी अजूबे की तलाश कर रही वह महिला उस दुकान पर पहुँच ही गई। उसने इश्तिहारों को बग़ौर पढ़ा और मुआयना करने के लिए स्टोर में घुस गई। जिसके तलों की बानगी कुछ यूँ थी।
पहला तल:
“इस मंज़िल के पति बारोज़गार और नेकबख़्त हैं”।
महिला कंधे उचकाकर आगे बढ़ती हुई बोली, “इसमें क्या ख़ास बात है?”
दूसरा तल:
“इस मंज़िल के पति बारोज़गार, मृदुभाषी और बच्चों के प्रेमी हैं।”
महिला ने तुनककर कहा, “इनको झेलो औऱ इनके बच्चों को भी,” यह कहकर आगे बढ़ गई।
तीसरा तल:
“इस मंज़िल के पति अच्छे रोज़गार वाले हैं। नेक तो हैं ही और ख़ूबसूरत भी हैं।”
महिला बुदबुदाई कि आजकल पैसा हो तो सब पुरुष ख़ूबसूरत हो ही जाते हैं। इसमें ऐसी क्या बड़ी बात हो गई?
चौथा तल:
“इस मंज़िल के पति अच्छी कमाई वाले हैं। सरल स्वभाव के हैं ख़ूबसूरत भी हैं। यह घर के कामों में मदद भी करते हैं।”
महिला को पुरुषों की यह केटेगरी पसंद आई। उसने सोचा यही सही रहेगा। उसने सोचा कि कुछ और भी विकल्प हों तो उन्हें भी देख लेने में क्या हर्ज है।
पाँचवाँ तल:
“इस तल के पति में वो सारी ख़ूबियाँ हैं जो पहले चार तलों के पतियों में मिलती हैं। इसके अलावा इस तल के पति न सिर्फ़ अपनी बीबियों से प्यार करते है बल्कि जीवन भर उनके प्रति वफ़ादार भी रहते हैं।”
महिला यह पढ़कर ख़ुश हो गई। वह कुछ देर तक खड़ी सोचती रही फिर उसने आगे की सीढ़ियाँ तलाशनी चाहीं तो उसे एक बोर्ड लिखा हुआ मिला:
“आगे और कोई तल आबाद नहीं है। आप इससे आगे का तल तलाशने वाली न तो पहली औरत हैं और न ही अंतिम। जो भी महिला इस स्टोर में घुसती है वह ये दिल माँगे मोर की तर्ज़ पर इस अंतिम मंज़िल तक आ ही जाती है। इससे ज़्यादा गुणों वाला पति सिर्फ़ मन का वहम होता है। कृपया दाईं ओर की सीढ़ियों का प्रयोग करके स्टोर से बाहर चली जाएँ क्योंकि वापसी की मनाही है।”
महिला इस व्यवहार से तिलमिला गई उसने दीवार पर लिखी इमारत पर खींच कर सैंडिल मारी और ज़ोर से चीखी।
किसी ने किवाड़ पर दस्तक दी तो उसकी आँख खुली। बाहर से आवाज़ आई, “क्या हुआ दीदी, कोई बुरा सपना देखा क्या”?
महिला अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी और सोच रही थी कि यह बुरा सपना था या ख़ुशनुमा सपना था। नेपथ्य में कहीं एक सुमधुर गीत बज रहा था “ससुराल गेंदा फूल।”
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