पेट्रोल पंप
दिलीप कुमार
उसे पेट्रोल पम्प मिल गया है ये सुना अभी,
कैसे हुआ ये चमत्कार अवाक् हैं सभी,
अब और भी लघु लगने लगी है मेरी लघुता,
इस पेट्रोल पंप से उसकी कितनी बढ़ेगी प्रभुता
अब सालेगी न उसे कोई बात चिंता की,
भले ही बाबूजी की पेंशन रहे जब-तब रुकती,
क्योंकि पेट्रोल पंप को होना होता है एक वरदान सरीखा,
यह मैंने भी जाना और सीखा,
कोई देवत्व ज़रूर ही होता होगा
इन पेट्रोल पंपों में शायद,
नेता, अधिकारी, धर्माचार्य से
लेकर वेश्या तक,
सभी तो इस मृग मरीचिका के पीछे दौड़े-भागे फिरते हैं,
इनको लेकर सरकारों के भी, अपने-अपने सब्ज़-बाग़ हैं,
इस पेट्रोल पम्प से जुड़ी, हसरतों की एक दुनिया आबाद है,
विधवा विकलांग, छोड़ी हुई औरत से लेकर,
ऊँची जाति, जनजाति और
अगड़े-पिछड़े, कमतर-बेहतर,
जिनको हैं रहने और खाने के लाले,
वो भी हैं पेट्रोल पंप का ख़्वाब पाले,
वैसे तो तरक़्क़ी पाने के और भी रास्ते हैं
मगर पेट्रोल पंप पाने के फ़ॉर्म काफ़ी सस्ते हैं,
अब मैं और मेरा दोस्त एक जैसे न रहें शायद,
वैसे मेरी और उसकी कभी लम्म-सम्म एक जैसी थी हैसियत
अभी कुछ वर्षों पहले तक ही तो सब कुछ एक जैसा ही था,
खाना पीना स्कूल, ट्यूशन,
घर की कलह झगड़े तमाशे और सिर फुटव्वल भी,
अलबत्ता हमारे घर में शान्ति ज़्यादा थी,
और उसके घर में संयम ज़्यादा था,
उससे थोड़ा इक्कीस ही सही,
मगर हमारा वैभव था,
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था उसके, बाप की नौकरी सरकारी थी,
और मेरे पिता प्राइवेट नौकरी में बारह घण्टे खटा करते थे,
फिर सरकारों की तरह ही
बदला उनका रंग-ढंग,
दिन-ब-दिन वह होते गये धनवान,
पहले कारें आईं फिर उनका तिमंज़िला होता गया मकान,
मैं सरकारी कॉलेज में पढ़ा और जूझा,
वह इंजीनियरिंग पढ़ने गया और बिन पढ़े छोड़ भी आया,
वो रात-रात घूमा करता था,
और मैं रात-रात भर पढ़ता और खटता रहता था,
वह ऐश पर ऐश ही करता रहा,
मैं मेहनत से पढ़ता-खटता रहा,
ये और बात थी कि तब लोगों को,
उसके बजाय मेरा भविष्य कहीं ज़्यादा सुरक्षित लगता था,
वह हज़ार कामों में उलझा,
मैं राह बनाकर चलता गया,
अचानक एक दिन में ही, फिर हम में इतना फ़र्क़ कैसे हो गया?
सुनते हैं जब बहुत वर्षों बाद धरा पर कहीं पेट्रोल न होगा,
तब तक शायद मैं भी जीवित न रहूँ,
तब शायद मेरी और उसकी हैसियत फिर एक जैसी हो जाये,
उम्मीद तो नहीं है मगर फिर भी,
कितना अच्छा होता अगर?
मेरे भी ख़ानदान में काश,
कोई एक पेट्रोल पंप पा जाए?
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