द मोनू ट्रायल
दिलीप कुमारहमारे देश में लीगल ट्रायल, मीडिया जैसे शब्द अक़्सर ट्रायल में सुनाई पड़ते हैं। इधर एक नया शब्द सुनायी पड़ रहा है ‘द मोनू ट्रायल’।
ये एक नए क़िस्म का ट्रायल है जो गिद्ध पत्रकारिता से उपजा है। ये ट्रायल उसी तरह होता है जैसे राखी सांवत से भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी पर उनके विचार लेना। मतलब इसमें वो प्रश्न पूछे जाते हैं जो बन्दे ने पहली बार सुने हों और फिर पलटकर उनसे विस्मयकारी जवाब प्राप्त करना।
हमारे भी गाँव में एक मोनू था। अति वाचाल और अति महत्वाकांक्षी। मोनू स्कूल जाता था कभी-कभार। उसका एक ही चस्का था दिन भर चटर-पटर चुगते रहने के बावजूद गले से ऊपर भरपेट भोजन और मोबाइल पर यूट्यूब देखना। ना स्कूल जाना और ना छोटे भाई–बहनों की देखभाल-पढ़ाई में मदद। इसके अलावा घर के ना किसी भी काम में मदद ना ही बकरी-गाय की देखभाल करना। गाँव में कब तक कोई चाट खिलाता चटपटी बातों पर।
“मन रहा बढ़िया
करम रहा गड़िहा”
इसी अवधी कहावत जैसी थी मोनू की ज़िन्दगी।
बाप बेचारा बकरी पालकर, दो बीघे की खेती करके मोनू और परिवार को पाल रहा था। लेकिन मोनू को तो यूट्यूब और फ़ेसबुक रील पर आना था, मटरगश्ती और चटपटे भोजन के साथ। मोनू वैसे तो सोलह साल का था लेकिन क़द ना बढ़ने और शरीर में रोयाँ-बाल ना निकलने की वजह से वो ख़ुद को बारह साल का ही बताता रहा है।
तो मोनू को किसी ने बताया कि नरम निवाले का जुगाड़ करना हो तो मीडिया में आ जाओ। अगर मीडिया में आना है तो मंत्री जी के पास पहुँचो। वहाँ मीडिया ही मीडिया रहता है।
अगर मीडिया में बात बन गयी तो फिर ‘मौजाँ ही मौजाँ’।
मोनू ने मंत्री जी से रोते हुए कहा, “हम पढ़ना चाहते हैं सर लेकिन ग़रीब हैं।”
मीडिया था सो मोनू की तालीम का इंतज़ाम तुरन्त हो गया।
कुछ दिन बाद गाँव में मोनू से ऑन द कैमरा पूछा गया, “आप क्यों पढ़ना चाहते हैं ?”
“आईएयएस बनकर देश की सेवा करना चाहते हैं,” मोनू ने हाथ लहराते हुए कहा।
“आप किस क्लास में हैं अभी और क्या-क्या करते हैं?” माइक ने पूछा।
“मैं क्लास पाँच में हूँ अभी। दिन रात पढ़ाई करता हूँ, अपने भाई-बहनों को पढ़ाता हूँ। उससे समय बचता है तो अपने टोले भर के बच्चों को बटोरकर पढ़ाता-लिखाता हूँ। उसी से मेरा पढ़ाई का ख़र्चा निकल जाता है। लेकिन अब अच्छी पढ़ाई में ज़्यादा ख़र्चा लगता है और मेरी कमाई का पूरा पैसा मेरा बापू ताड़ी पीने में उड़ा देता है,” ये कहते हुए मोनू बहुत ग़मगीन हो गया।
माइक और कैमरा मोनू के ग़रीब बाप की तरफ़ घूम जाता है। वो बाप जो लौंग-इलायची तक नहीं खाता। उसकी तरफ़ माइक घूमता है और पीछे से आवाज़ आती है, “ये देखिये, इस ख़ूँख़ार बाप को इस विलेन बाप को जो मासूम बच्चे की कमाई ताड़ी पीने में उड़ा देता है।”
ग़रीब बाप डरा-सहमा चुपचाप खड़ा रहता है और सोचता है कि बड़े-बड़े लोग आए हैं, हो सकता है मेरे मोनू को ले जाएँ तो उसकी अच्छी पढ़ाई-लिखाई हो जाये। ये सब सुनकर भी औलाद का हित सोचकर वो चुप ही रहता है।
दूसरा माइक मोनू से पूछता है, “लेकिन गाँव में तो पढ़ाई मुफ़्त है, फिर आपको क्या दिक़्क़त है?”
“गाँव में इंग्लिश वाले शुक्ला सर और गणित वाली जरीना मैडम अपना विषय नहीं पढ़ा पातीं, इसलिये हमको किसी बड़े स्कूल में सरकार भेजे,” मोनू कहता है।
“वैसे ये बात तुम कैसे कह सकते हो कि सरकारी स्कूल के सर और मैडम अपना विषय ठीक से नहीं जानते? अच्छा अपने गाँव की अँग्रेज़ी में स्पेलिंग बताओ और ग्यारह का पहाड़ा सुनाओ तो?”
ये सुनते ही मोनू अचकचा जाता है। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। उसे ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी।
उसे जब कुछ समझ में नहीं आया तो वो फूट-फूट कर रोने लगा।
इस रोने पर देश द्रवित हो उठा।
मुम्बई से अभिनेता के एनजीओ से आये पैसों से कुछ दिन मज़े से बीते।
मुम्बई के पैसों का मधुमास ख़त्म हुआ तो भोजपुरी सिनेमा के अभिनेताओं की मदद ने कुछ दिन बिरयानी और यूट्यूब के ख़र्चे निकलवाये।
माइक ने फिर मोनू को और मोनू ने फिर माइक को याद किया।
माइक ने पूछा, “सरकार और सेलेब्रिटी लोगों ने आपकी क्या मदद की? अब आपकी पढ़ाई कैसी चल रही है?”
मोनू ने कहा, “प्रधानमंत्री को हमको फ़ोन करके आश्वासन देना चाहिये कि वो हमारे बड़े होने तक हमारी पढ़ाई का पूरा ख़र्चा उठाएँगे। कल वो पीएम नहीं रह गए तो हमारी पढ़ाई अधूरी रह सकती है।”
“और सेलिब्रिटी लोग ने क्या दिया?” माइक ने पूछा।
“वो लोग हमको ख़ाली किताब, बैग वग़ैरह भेजे थे। भोजपुरी के स्टार ने कहा था कि हमको अर्टिगा गाड़ी भेज देंगे, और ड्राइवर का भी ख़र्चा देंगे। अब आप बताइये गाड़ी नहीं होगा तो हम स्कूल कैसे जाएँगे। मुम्बई के हीरो लोग कहे थे कि हमारा पक्का घर बनवा कर उसमें एसी लगवा देंगे। अब आप ही बताइए कि इतना गर्मी में हम कैसे पढ़े। ये भोजपुरी और मुंबई वाले हीरो सब झूठे हैं ये सब नहीं चाहते कि मेरे जैसा ग़रीब का बच्चा पढ़े और आईएयस बने, ये सरकार का भी जिमेदारी है कि हमको ये सब चीज का मदद करे ताकि मैं आइएयस बनकर देश को आगे ले जा सकूँ।”
माईक ने कहा, “बाईट ओके, कैमरा बंद करो, जॉब डन।”
कैमरा रख दिया गया।
मोनू ने अब मेकअप उतार दिया।
माइक नीचे रखकर माइक वाले ने पूछा, “आपका दाख़िला सैनिक स्कूल में हुआ था, वहाँ रहने-खाने की दिक़्क़त थी क्या? आख़िर आप क्यों वापस आ गए?”
मोनू ने सतर्क नज़रों से माइक और कैमरा दोनों को देखा और पूछा, “ये सब बंद है ना, कुछ रिकार्ड तो नहीं होगा अब?”
मीडिया वालों ने सहमति में सिर हिला दिए। तसल्ली पाने के बाद मोनू ने कहा, “देखिये वहाँ खाने-पीने का तो बहुत आराम था। चिकन-मटन, अंडा, फल सब था। लेकिन कुछ चीज का पाबंदी था एक तो हमको मोबाईल नहीं चलाने देते थे, ना यूट्यूब और ना कोई रील। रात को दो-तीन घण्टा हम ये सब ना चलाएँ तो हमको नींद ही नहीं आता। दूसरा हमको सबेरे-सबेरे जगा देते थे। ये बात हमको बहुत खलता था, हम सबेरे उठ जाते तो गाँव के स्कूल ही ना पढ़ने चले जाते। मीडिया वालों से भी हमको मिलने नहीं देते थे, इसी सब पाबंदी की वजह से हम वहाँ से चले आये। यहीं कुछ ना कुछ जुगाड़ होता रहेगा आप मीडिया वालों की कृपा से।”
ये कहकर मोनू हँसने लगा।
कैमरा और माइक रखा तो था मगर ऑफ़ नहीं था। मीडिया तो ऐसी जगह है कि जहाँ शिकारी ख़ुद शिकार हो जाता है कभी-कभी।
ये ऑफ़ द स्क्रीन ख़बर वायरल कर दी गयी। मोनू की बड़ी लानत-मलानत हुई। इस एक्सक्लुसिव ख़बर की टीआरपी बढ़ती गई और कुछ दिनों में मोनू को मीडिया ने विक्टिम से विलेन बना दिया।
लेकिन मोनू और मीडिया का खेला चलता रहता है। वैसे तो वो सामान्य रहता है लेकिन जैसे ही मीडिया के कैमरे की जद में वो आता है वो चीखने-चिल्लाने लगता है और अपना सर पीटने लगता है और ज़ार-ज़ार रोता है।
मीडिया के लोग ये देखकर असमंजस में पड़ गए। उन्होंने दरयाफ़्त की तो किसी गाँव वाले ने बताया कि—देहरादून में दिमाग़ के मरीज़ों का एक अस्पताल है, सुना है वहाँ पर रहने-खाने का बहुत अच्छा इतंज़ाम है, एक स्मार्ट टीवी भी लगा है जिसमें यूट्यूब और फ़ेसबुक रील भी आता है, यही बात गाँव में फैली है ।”
मीडिया ने उस आदमी से पूछा, “इस सबसे उस लड़के के रोने-चीखने से क्या मल्लब?”
गाँव का आदमी ये सुनकर मीडिया वाला पर खीं खीं करके हँसता है।
ये सब पढ़कर आप क्यों हँसने लगे?
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