दास्तान-ए-भूख
दिलीप कुमार
अक्टूबर का महीना, खेतों में धान की खड़ी फ़सल मंगरे को दिलासा देती थी, बस चंद दिनों की बात है, फ़सल कट जाए तो न सिर्फ़ घर में एक छमाही के लिये रसद का जुगाड़ हो जाये बल्कि कुछ पुराने क़र्ज़ चुकता हो जाएँ तो नए क़र्ज़ पाने की कोई उम्मीद बन सके।
मंगरु की फाकाकशी वाली गृहस्थी उधार, माँगे-ताँगे और दुआओं के भरोसे चल रही थी। मंगरु बीमार, कमज़ोर, बेकार और लाचार था। लेकिन फिर भी निवाले उसे ही जुटाने थे। अपनी सयानी होती बेटियों को अपनी डेढ़ बीघे की खेती और पाँच बकरियों को इर्द-गिर्द ही रहने देता था, क्योंकि ग़रीब की फ़सल और ग़रीब की बेटी पर बहुतों की गिद्धदृष्टि लगी रहती है।
जीवन में आमदनी और क़र्ज़ों के भुगतान की उधेड़बुन में वो धान की पकी फ़सल को निहारकर घर लौटा।
हल्की बूँदा-बाँदी से शुरू हुई बारिश की लगातार चार दिनों तक झड़ी नहीं रुकी। पहाड़ों पर हुई बारिश जब उतर कर नीचे आई तो तराई की नदियों और पहाड़ी नालों ने ऐसा उफान मारा कि रातों-रात गाँव के गाँव और शहर के शहर डूब गए।
बाढ़ का पानी इतना अप्रत्याशित तरीक़े से आया कि लोगों ने बमुश्किल अपनी जान बचाई। कोई कहीं नहीं भाग सका, क्योंकि चारों तरफ़ पानी ही पानी था। गाँवों में भी लोगों ने दूसरी मंज़िल पर जाकर पनाह ली या स्कूलों वग़ैरह की छत पर पनाह ली। लेकिन जान बचाने के ये अवसर इंसानों को ही मिल सके, जानवरों को पनाह न मिल सकी जिससे मंगरु की सारी बकरियाँ इस दैवीय आपदा की भेंट चढ़ गयीं।
बाढ़ तो एक हफ़्ते बाद उतर गयी लेकिन अपने पीछे भयंकर बर्बादी छोड़ गयी। खेत में खड़ी फ़सल बर्बाद तो हुई घर में भी रखा अनाज सड़-गल गया। सरकारी गोदामों-दुकानों में भी रखा अनाज सड़-गल गया था।
हर तरफ़ भुखमरी का तांडव था और भूख हाहाकार कर रही थी। छह बेटियों का बाप मंगरु भी इस कठिन विपदा से भयाक्रांत था। तभी पता लगा कि सरकार ने ट्रक में भरकर अनाज भेजा है और हर परिवार को आटे की एक बोरी दी जानी है।
आटा बँटने को आया, बीमार-लाचार मंगरु को भी आटे की बोरी की ज़रूरत थी। वो किसी तरह गाँव से दो मील दूर अपनी पत्नी कर्मावती के साथ पहुँचा।
आटे के ट्रक के पास लगी बेतहाशा भीड़ को देखकर
कर्मावती ने कहा, “तुम इस भीड़ में गिर-पड़ जाओगे तो चोट लग जायेगी। यहीं रुको एक तरफ़, मैं आटे की बोरी वहाँ से लूँगी और यहाँ ले भी आऊँगी।”
मंगरु ने सोचा इस भीड़ और भगदड़ में ज़नाना का जाना ठीक नहीं। लोग भूख से वैसे ही वहशियाना हरकतें कर रहे हैं, कर्मावती को भेजना ठीक नहीं। वैसे भी मरद के रहते औरत का भीड़ में धक्के खाना उसकी मर्दाना ग़ैरत के ख़िलाफ़ था।
उसने कर्मावती की बात को मानने से इंकार कर दिया और अंत में कर्मावती को इस बात के लिये राज़ी भी कर लिया कि भीड़ में घुस कर आटे की बोरी वही लेगा।
पति के आत्मसम्मान का लिहाज़ करके कर्मावती ने सहमति दे दी।
मंगरु ने कहा, “मैं आटा ले लूँगा लेकिन लेकर चल नहीं पाऊँगा शायद। तू यहीं खड़ी रह भीड़ से हटकर। जब भीड़ छँट जाए तब आना, दोनों मिलकर कोई जुगाड़ करेंगे बोरी को घर ले जाने का।”
पति की हालत से आशंकित मगर असमंजस में कर्मावती ने सहमति में सिर हिलाया।
आटे की बोरियाँ कम थीं, और ज़रूरतमंदों की तादाद काफ़ी ज़्यादा। सो थोड़ी देर तक आटा बँटा। तमाम मशक़्क़त के बाद मंगरु को एक आटे बोरी मिल गयी। आटा मिलते ही उसकी आँखों में उम्मीद की चमक लौट आयी।
वो बोरी को पकड़कर एक किनारे खड़े होकर सुस्ताने लगा कि भीड़ छँट जाए तो, या तो वो कर्मावती को आवाज़ दे या फिर कर्मावती उसे देख ले और उसके पास चली आये।
भीड़ बढ़ती गयी, आटे की बोरियाँ घटती गयीं और अंत में जब लोगों को लगा कि उन्हें आटे की बोरी नहीं मिलेगी तो लूट मच गयी। लूट के बाद भगदड़ मच गई। ये सब इतनी तेज़ी से हुआ कि किसी को कुछ समझने का मौक़ा ही नहीं मिला।
थोड़ी देर बाद जब भूख के दावानल का आतिशी नाच समाप्त हुआ तब कर्मावती ने मंगरु को खोजना शुरू किया।
मंगरु मिला तो ख़ून खच्चर था। वो पेट के बल लेटा था। उसने पेट के नीचे आटे की बोरी को छिपा रखा था और सैंकड़ों पैर उसके ऊपर से गुज़र चुके थे।
कर्मावती ने उसे पलटा तो देखा कि उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। हालाँकि आटे की बोरी सलामत थी, मंगरु भूख और दर्द की फ़ानी दुनिया से जा चुका था। उसने चंद रोज़ के लिये भूख से लड़ने का उपाय तो कर लिया था मगर अपने पीछे भूख से जुड़ी लम्बी दास्तानें भी छोड़ गया था।
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