हाउ डेयर यू 

दिलीप कुमार (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

उस्ताद क़िस्सागो जनाब कृश्न चन्दर साहब की कालजयी रचना “एक गधे की आत्मकथा” में एक इंसान जैसा सोचने वाला गधा कई दिनों तक एक गधी के साथ घास चरने का शग़ल करता रहा था। जब गधे को हद इम्कान इस बात की तस्दीक़ हो गई कि गधी भी मुझमें रुचि रखती है और यह गधी तो जीवन संगिनी बनाई जा सकती है। गधे को वह गधी देसी गधियों से इतर लगी तो उसने गधी से इज़हारे दिल किया कि “तुम मेरी शरीके हयात बनोगी।” गधी ने तो नफ़ासत से सिर्फ़ “हिस्स” कहते हुए सलीक़े से इंकार कर दिया था मगर ये बात गधी की माँ को बेहद नागवार गुज़री कि एक देसी गधा (जो भले ही पंडित नेहरू के बँगले तक हो आया हो और ख़ुद को बुद्धिजीवी गधा समझता हो) और जिसकी परवरिश ख़ालिस देसी गधामय माहौल में हुई हो। वह उनकी एरिस्ट्रोकेट बेटी को सामने से आकर प्रपोज़ करने की हिमाक़त कैसे कर सकता है? भले ही तब सीनियर गधी ने देसी गालियाँ न दी हों पर उस बुद्धिजीवी गधे को प्रणय निवेदन पर इतना लताड़ा था कि बुद्धिजीवी गधे ने इज़हार ए इश्क़ से तौबा कर ली थी। 

इश्क़ से लतियाया हुआ आदमी आगे सलीक़े के काम चुन लेता है। सो उस बुद्धिजीवी गधे ने शराबबन्दी के उस दौर में शराब बेचने जैसे उम्दा काम को चुन लिया था। 

मगर उस्ताद साहब के ज़माने से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और इश्क़ करने के तौर-तरीक्रे भी काफ़ी बदल चुके हैं। ऐसी बात नहीं है कि अब पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी टाइप के गधे नहीं होते। अब तो इफ़रात में बुद्धिजीवी गधे विचरते पाये जाते हैं सोशल मीडिया की चारागाह में। ये और बात है कि अब इज़हार-ए-इश्क़ के रास्ते में मम्मियाँ आम तौर पर आड़े नहीं आतीं। 

“वक़्त पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है” तथा “दिल आ गया गधी पर तो परी क्या चीज़ है” जैसे सांत्वना वाली मिसालें पहले से मौजूद थीं जो इंसान को मौक़े-बे-मौक़े पर ख़ुद को गधा तसलीम करने में मदद फ़राहम किया करती हैं। उस्ताद साहब कृश्न चंदर के रचे क़िस्सों में भी देसी गधा अफ़साने के अंजाम तक आते आते गधा से “डंकी सर” बन ही जाता है। 

वैसे ही अब मनुष्यों को भी लताड़ने के लिए गधा नहीं अपितु “वैसाखनन्दन” जैसे नामों की उपमा दी जाती है। एक बात की अक्सर नज़ीर दी जाती है कि “चोर-चोरी से जाए मगर हेरा-फेरी से न जाये।” उसी तरह मनुष्यों में कितनी भी वीरता का बखान करने वाली शेरों जैसी शेरता, लोमड़ी जैसे दिमाग़ के लिये लोमड़ता की उपमा दी जाती रही हो। सो इसी तरह गधेपन के लिए वैसाख नंदिता जैसी नज़ीर देने पर तवज्जोह दी जानी चाहिये। 

भले ही मैंने तालीमयाफ़्ता और लिखने पढ़ने से राब्ता रखने के बरक्स ख़ुद को बुद्धिजीवी माना हो मगर बचपन से ही मेरे माता-पिता मुझे गधा कहकर धड़ल्ले से पुकारा करते थे। मेरी पत्नी ने न सिर्फ़ अपनी सास से उसका बेटा और गहने लिए बल्कि उनसे परिवार में दी जाने वाली कुछ उपमाएँ भी ले ली थीं। 

मेरे लेखक होने का लिहाज़ करते हुए उसने मेरी माँ के तर्ज़ पर गधा तो नहीं मगर कभी-कभार वैसाखनन्दन उर्फ़ बीयन कहना जारी रखा था। वैसे भी मैं वैसाख जैसे महत्त्वपूर्ण मास में पैदा हुआ था फिर भी मेरी ज़िन्दगी में ढेर सारा गधापन भरा हुआ था। बिना ऊपरी कमाई वाले महकमे में दिन भर दफ़्तर में गधों की तरह काम करता था और शाम को थक कर चूर हो जाता था। उसके बाद किसी तिरस्कृत पशु की तरह खर्राटे लेकर सोता था। पत्नी और बच्चे मुझसे खार खाये रहते थे कि एक तो मैं एक्स्ट्रा कमाई उन्हें नहीं दे पाता था दूसरे काम से थक जाता था तो उन्हें मेला, मॉल्स, होटल वग़ैरह नहीं ले जा पाता था। वो सब मुझसे ख़फ़ा भी रहते थे। पत्नी तो क़ायदे से मुझसे ख़फ़ा और निस्पृह रहा करती थी। उसके हिसाब से उसके जीवन के सारे दुखों का कारण मैं ही हूँ बिजली जाने से लेकर और सब्ज़ी में नमक ज़्यादा हो जाने तक सारे गुनाह मेरे बरक्स थे। मुझ पर कुढ़ते रहने के बावजूद वह महल्ले के व्हाट्सएप ग्रुप, फ़ेसबुक आदि में उलझी रहा करती थी इससे उसके जीवन का ताप एवं संताप नियंत्रित रहा करता था। 

दफ़्तर में कमाऊ पटल नहीं तो तवज्जोह नहीं और घर में ऊपरी कमाई नहीं तो तवज्जोह नहीं सो कुछ कुछ ख़ास बचता नहीं था अपनी इज़्ज़त अफ़ज़ाई करने का साधन। हिंदी का आम लेखक बेचारा दीन दुनिया से ठुकराया हुआ बंदा होता है। सो अपनी चलाने के लिए उसने फ़ेसबुक की क़ायदे से पनाह ली। 

फ़ेसबुक के अनंत आभासी अंतरिक्ष पर विचरण करते हुए काफ़ी तजबीज के बाद एक कवयित्री मिलीं। कवयित्रियाँ तो पहले भी बहुत मिलीं और बिछड़ी थीं मुझसे पर इनकी बात ही अहलदा थी। मैंने उनकी पाँच इंच की फोटो के साथ चेपी गई डेढ़ इंच की कविता की तारीफ़ कर दी। तुरन्त ही उनकी फ़्रेंड रिक्वेस्ट आई। मैं तो निहाल हो उठा। मैंने फ़्रेंड रिक्वेस्ट को प्रेम रिक्वेस्ट मानते हुए स्वीकार किया और बल्लियों उछलते हुए अपने दिल का नज़राना लेकर उनके मैसेंजर में पहुँचा और अपनी ख़ुशी को न छिपाते हुए कहा, “आपका शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। मैं आपको फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजने को सोच ही रहा था कि आपने पहले ही फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी आपने। काफ़ी रौशन ख़्याल की और मॉडर्न हैं आप।” 

“ऐसी बात नहीं है। मैं अपने फ़ॉलोवर्स को ऐड कर लिया करती हूँ,” उधर से टका सा जवाब आया। 

“सिर मुँड़ाते ही ओले” मैं मन मसोस कर रह गया। “हाय-हाय” मेरी आशनाई की इब्तिदा में ही काम तमाम होने के अंजाम नज़र आ गए। मैंने अपनी हरकतों पर सर धुना, कोसा और ख़ुद को फटकारते हुए अहद ली कि अब किसी सुंदरी के रूपजाल में नहीं फँसूँगा भले ही आभासी दुनिया की ही क्यों न हो। ये और बात थी कि वास्तविक रूप से मिलने वाली किसी सुंदरी तो क्या बदसूरत महिला ने भी मुझे कभी घास नहीं डाली थी। 
मेरे जैसा मरियल एवं पिलपिला आदमी रियल में तो किसी सुंदरी को आकर्षित करने में विफल रहा था वर्चुअल में ज़रूर किसी को रिझाने का प्रयत्न कर सकता था। मेरे जीवन में तिरिया का साथ ही बदा न होता अगर कुछ पुश्तैनी माल-असबाब का सहारा न होता। शहर में वालिद साहब की तिमंज़िला कोठी और गाँव की ज़मीन बेचकर घूस देकर लगवाई गई सरकारी मुलाजमत के बरक्स मेरा विवाह तो हो गया था। गो कि बाल बच्चेदार था पर दिल में कहीं ये अज़ीम हसरत टीसती रहती थी कि मैं भी किसी को पसन्द करके इज़हार ए दिल करूँ। 

फिर वो मेरी लाजवंती मेरे इसरार पर शर्माए, मुस्काये और चंद रोज़ बाद आकर मुझसे कहे–“मैं आपकी बेहद इंप्रेसिव पर्सनालिटी से बहुत प्रभावित हूँ। आपके लेखन और रौशन ख़्याली से मेरे दिल का कमरा-कमरा रौशन है। अब तक कहाँ थे आप मेरे सरताज। उम्र के इस मोड़ पर हम मिले हैं रियल में हम इश्क़ नहीं कर सकते मगर वर्चुअल में प्रेम की पींगे तो बढ़ा ही सकते हैं।” ये सब सोचता तो मेरे मन में गुदगुदी और जिस्म में सनसनी होने लगती थी। 

मैं ऐसे ही किसी दिल-फ़रेब मौक़े की तलाश में मुद्दतों से वर्चुअल दुनिया में अपनी क़िस्मत को आज़मा रहा था। 

उस कमलनयनी कवयित्री ने भले ही मुझे अपना फ़ॉलोवर बनाकर फ़ेसबुक पर ऐड किया था मगर अब मैं उसका दोस्त था और दोस्ती का अगला क़दम क्या होता है ये सोच कर ही मन में गुदगुदी होने लगती थी। 

उनकी हर फ़ेसबुक हर पोस्ट पर मैं टैग होता था। यदि उनके पोस्ट पर आने पर मुझे कुछ देर हो जाये तो मैसेंजर में मैसेज देती थीं। कभी-कभी उनकी कविताओं पर मैसेंजर पर बात भी होती थी। फिर मैसेंजर काल पर क़रीब-क़रीब रोज़ बात होने लगी। हमारे सम्बन्ध बेहद प्रगाढ़ होते गए। एक दिन मैंने उस सम्मोहक कवयित्री से उसका व्हाट्सअप नम्बर माँगा। तो उसने मैसेंजर काल पर बताया कि “मेरे हसबैंड ने मुझे क़सम दी है कि सोशल मीडिया पर किसी से अपना नम्बर शेयर नहीं करूँ। मैं वह क़सम तोड़ नहीं सकती। मगर आप भी मेरे बेहद क़रीबी मित्र अब हो गए हैं। इसलिए आप मुझे मैसेंजर पर ही काल कर लिया कीजिये, अब मैसेंजर, व्हाट्सअप में कोई फ़र्क़ नहीं रहा। हम इसी पर बात कर लिया करेंगे।” 

उस मोहिनी स्त्री का विकल्प मुझे बढ़िया लगा। फिर हम मैसेंजर पर आडियो/वीडियो कॉल भी करने लगे। हम दोनों एक दूसरे को बहुत हद तक जान चुके थे। मुझे लगा यही वक़्त है। लोहा गर्म है, हथौड़े से प्रहार करना चाहिये। ऐसे ही एक दिन मैसेंजर पर वीडियो कॉल करते हुए मैंने अपनी हसरत उजागर करते हुए कहा,  “आई लव यू।” 
उसने पहले हैरानी से फिर ग़ुस्से से मुझे देखा और फिर दाँत किटकिटाते हुए बोली, “अबे बिल्कुल बेवुक़ूफ़ है क्या तू? मैं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हूँ और तू तीन बच्चों का बाप। नाशपीटे, नाश हो तेरा। ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई। गधा कहीं का। यू ब्लडी डंकी हाउ डेयर यू?”

ये कहकर उसने मुझे वीडियो कॉल पर सैंडिल दिखाते हुए ब्लॉक कर दिया। 

मैंने फ़ेसबुक डीएक्टिवेट कर दिया है और घर के पीछे के मैदान में घूमने आया हूँ। मैदान में बहुत से गधे विचरण करते हुए घास चर रहे हैं। गधा चराने वाले के मोबाइल पर अताउल्लाह खान का गाना बज रहा था तो उसमें एक शेर यूँ नश्र हुआ—
“नज़रें मिली और प्यार कर गया, 
पूछा जो मैंने उससे इंकार कर गया।” 

गीत के बोल अच्छे हैं मगर मेरा मन उसमें रम नहीं रहा है। सामने मैदान में घास चर रहे गधों को देख रहा हूँ मगर मेरे ज़ेहन में उस मनमोहिनी कवयित्री की बातें गूँज रही हैं। 

“यू डंकी, हाउ डेयर यू?” 

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