1971

दिलीप कुमार (अंक: 205, मई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

 (फ़िल्म समीक्षा) 

 

“जो रुके तो कोह-ए-गिरां थे हम 
जो चले तो जां से गुज़र गये
रहे यार हमने क़दम-क़दम
तुझे यादगार बना दिया“

कहीं किसी सफ़र में एक क़ैदी ने दूसरे से पूछा, “एक बात बताओ, ये पाकिस्तान में अपने पंजाबी भाई रहते हैं?” 

“हाँ, रहते हैं,” दूसरे ने कहा। 

“और सिंधी भी रहते हैं पाकिस्तान में?” पहले ने फिर पूछा? 

“हाँ, सिंधी भी रहते हैं पाकिस्तान में,” दूसरे ने फिर उत्तर दिया। 

“और अपने मुसलमान बिरादर तो पाकिस्तान में रहते ही हैं,” पहले ने फिर पूछा। 

“हाँ, मुसलमान बिरादर भी पाकिस्तान में रहते हैं क्यों?” दूसरे ने झल्लाते हुए फिर जवाब दिया। 

“अरे सब तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं, फिर पाकिस्तान बनाने की ज़रूरत ही क्या थी?” पहले ने ठंडी साँस लेते हुए फिर सवाल किया। 

“ग़लती हो गयी, अब नहीं बनाएँगे दुबारा पाकिस्तान,” दूसरे ने फिर झल्लाते हुए उत्तर दिया। 

लेकिन ये ग़लती हमेशा से दोनों मुल्कों की रियाया पर बड़ी भारी पड़ी है। लेकिन फ़िल्म में सबसे बड़ी ग़लती भारत की बॉर्डर की पोस्ट पर तैनात हिन्दुस्तानी सेना की एक यूनिट का अफ़सर भी करता है जो लाइन ऑफ़ कन्ट्रोल पर पहुँचे मेजर सूरज सिंह के बारे में पाकिस्तान के फ़ौजी अफ़सर की बात को मान लेता है। 

लेकिन बेहोश हिंदुस्तानी प्रिज़नर ऑफ़ वार (मेजर सूरज सिंह) के बदन पर पाकिस्तान की सेना की वर्दी और फ़ौजी अफ़सर का परिचय पत्र भी होता है। 

जिससे पाकिस्तानी वर्दी और पाक की सेना के परिचय पत्र के बदौलत मेजर सूरज सिंह पाकिस्तानी फ़ौज के क़हर से पाकिस्तान में बचने में क़ामयाब हो जाते हैं लाइन ऑफ़ कन्ट्रोल पर वही चीज़ उनके ख़िलाफ़ हो जाती है। 

किसी ने सत्य ही कहा कि आँखों देखा सच भी कभी-कभी सच नहीं होता है। 

“अश्वत्थामा हतो, नरो या कुंजरो” वाली बात इस फ़िल्म में लाइन ऑफ़ कन्ट्रोल पर चरितार्थ होती है जहाँ एक भारतीय फ़ौजी के अदम्य साहस और जिजीविषा पर उसका भाग्य हावी हो जाता है। 

पिछले बहुत वर्षों से पाकिस्तान में क़ैद भारतीय युद्धबंन्दियों पर बनी फ़िल्मों में ये फ़िल्म अनूठी है। फ़िल्म का समय 1977 का दिखाया गया है यानी कि जब भारत का भी राजनैतिक परिवेश अस्थिर था। क्योंकि हाल के वर्षों में अभिनन्दन शर्मा को पाकिस्तान में पकड़ा गया लेकिन राजनीति, कूटनीति की बदौलत उनको सकुशल छुड़वा लिया गया। ये एक मज़बूत होते भारत का परिचायक है, अतीत में हमने युद्धबन्दी कैप्टन सौरभ कालिया के साथ हुई पाकिस्तान की बर्बरता याद है। 

लेकिन 1977 का भारत न तो राजनैतिक रूप से इतना स्थिर था और ना ही इतना मज़बूत। वरना 1977 के इन पाँच पांडवों (5 प्रिज़नर्स ऑफ़ वार” को समूची कौरव सेना (पाकिस्तानी सेना) से कुरुक्षेत्र में महाभारत ना करनी पड़ती। 

फ़िल्म मोतीलाल सागर की लिखी एक वास्तविक कहानी पर आधारित है—जैसा कि बताया जा रहा है। फ़िल्म की कहानी शुरू होती है जिसमें आर्मी और एयरफ़ोर्स के कुछ प्रिज़नर्स ऑफ़ वार पाकिस्तान ने पकड़ रखे हैं, जिनकी संख्या पचास से ज़्यादा है जो पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद हैं। ये 1965 और 1971 की जंग के प्रिज़नर्स ऑफ़ वार हैं। 

बांग्लादेश की जंग एक सच्चाई है और उस हार से पाकिस्तान अभी तक उबर नहीं पाया है। और 1977 में तो पाकिस्तान के घाव और भी ताज़ा थे इसलिये हमने जंग के बाद उनके 93000 हज़ार सैनिक छोड़ दिये थे और वो पचास भी नहीं छोड़ सके। 

जंग कितनी भयानक होती है ये सिपाही से बेहतर कौन जानता है, लेकिन फिर भी वो लड़ता है क्योंकि ये उसका धर्म है। 

“जंग रहमत है लानत
ये सवाल अब ना उठा 
जंग सब सर पे आ ही गयी
तो रहमत होगी 
दूर से देख ना भड़के हुए 
शोलों का जलाल 
इसी दोजख के किसी 
कोने में जन्नत होगी” 

दोजख जैसी ज़िन्दगी जी रहे बैरक नम्बर छह के छह क़ैदी इसी जन्नत यानी हिंदुस्तान की तरफ़ जाने की कोशिश करते हैं। जिसमें से एक फ़ौजी बेस कैंप पर ही शहीद हो जाता है और बाक़ी पाँच समर के लिये निकल पड़ते हैं। 

उन सभी क़ैदियों को जिनेवा कन्वेंशन के तहत प्रिज़नर्स ऑफ़ वार माना जाता है और प्रिज़नर्स ऑफ़ वार को कुछ मूलभूत मानवीय अधिकार प्राप्त हैं जिनमें से एक है उनकी सकुशल घर वापसी। 

लेकिन पाकिस्तान उन क़ैदियों को छोड़ना नहीं चाहता और भविष्य में की जा सकने वाली अपनी किसी सम्भावित ब्लैकमेलिंग के लिये इनको बचाकर रखना चाहता है। इसलिये पाकिस्तान ऑफ़िशयली इस बात से इंकार करता है कि उसके पास कोई हिंदुस्तानी प्रिज़नर्स ऑफ़ वार हैं। बकौल पाक उस समयकाल में पाकिस्तान के पास कोई प्रिज़नर्स ऑफ़ वार नहीं थे जबकि ये थे और पचास से ज़्यादा थे 1977 में। 

भारत में किसी तरह वहाँ के युद्धबन्दी ख़त भेज देते हैं और उसी ख़त को आधार मानते हुए रेडक्रॉस की मदद से युद्धबन्दियों के परिवार उनकी तलाश में पाकिस्तान जाते हैं। 

पाकिस्तान को दुनिया की नज़र में गुड बोआय भी बने रहना है, जिनेवा कनवेंशन की इज़्ज़त रखने का दिखावा भी करना है और भारतीय युद्धबन्दियों  को लौटाना भी नहीं है। 

इसलिये पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में बंद भारतीय क़ैदी रेडक्रॉस और पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की नज़रों से बचाने के लिये चकलाला नामक जगह पर एक इकट्ठे किये जाते हैं ताकि रेडक्रॉस और पाकिस्तान ह्यूमन राइट्स कमीशन की जेलों में जाँच पूरी होने के बाद उन्हें फिर से वापस पाकिस्तान की विभन्न जेलों में वापस भेजा जा सके भविष्य में हिंदुस्तान से होने वाली किसी ब्लैकमेलिंग में उनका इस्तेमाल किया जा सके। 

लेकिन पहले ही भागने की नाकाम कोशिश कर चुके भारतीय सिपाही फिर भागने की फ़िराक़ में जुट जाते हैं। फ़िल्म का शुरूआती दृश्य ही मेजर सूरज सिंह राजपूताना रेजीमेंट के भागने के निष्फल प्रयास से टॉर्चर किये जाने की कहानी कहती है। 

14 अगस्त को पाकिस्तान की आज़ादी के दिन पाँच युद्धबन्दी पाकिस्तान कश्मीर के मुज़फ्फराबाद से सौ किलोमीटर की दूरी पर बनायी गए आर्मी के बेस कैम्प से पाकिस्तनी सिपाहियों की वर्दी पहनकर उन्हीं की गाड़ी लेकर भागते हैं हिंदुस्तान के लिये। और उसके बाद समूचे पाकिस्तान की सेना और उन पाँच युद्धबन्दियों  के पीछे पड़ जाती है ताकि ना तो वो पाकिस्तान ह्यूमन राइट कमीशन की नज़रों में आ सकें और ना ही रेडक्रॉस के और हिंदुस्तान बॉर्डर तक तो हर्गिज़ ही ना पहुँच सकें। 

पाकिस्तानियों के बेस कैंप पर बम विस्फोट करके भारत के बॉर्डर की तरफ़ भागे पाँच युद्ध बंदी ना सिर्फ़ उनका वाहन लेकर फ़रार होते हैं लेकिन हथियार भी साथ ले जाते हैं और यहीं से शुरू होता है सशस्त्र विद्रोह। पाँच पांडव की तरह ये पाँच युद्धबन्दी हिंदुस्तान के बॉर्डर की तरफ़ भागते हुए पाक सेना से तो लड़ते ही हैं बल्कि मौसम और दुरूह रास्तों से भी जूझते हैं। आम क़ैदी और फ़ौज के युद्धबन्दियों  के भागने के मक़सद और तौर-तरीक़ों को भी फ़िल्म में दिखाया गया है। 

फ़िल्म में भारत की फ़ौज की कोर्ट मार्शल प्रकिया को बेहद बचकाने ढंग से दिखाया गया जो गैरज़रूरी था। 

फ़िल्म को दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। अभिनय लगभग सभी का बढ़िया है। मनोज वाजपेयी का अभिनय बेहद उम्दा है, कुमुद मिश्रा, रवि किशन ने भी अच्छा अभिनय किया है, दीपक डोबरियाल अपनी पहली फ़िल्म में ही बेजोड़ रहे हैं और मानव कौल के साथ उनकी केमेस्ट्री अच्छी जमी है। पीयूष मिश्रा अपनी छोटी सी भूमिका में छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। 

फ़िल्म में गीत-संगीत ना के बराबर है और उसकी गुंजाइश भी कम ही थी। सिनेमेटोग्राफी अच्छी है, पहाड़ों और बर्फ़ के सीन अच्छे बन पड़े हैं। कहानी थोड़ा और बेहतर हो सकती थी क्योंकि उम्मीदों और संघर्षो से जूझती हुई कहानियों के अंत ऐसे प्रत्याशित नहीं होते जैसा इस फ़िल्म में है। 

फ़िल्म में पाकिस्तान के लोगों का हिंदी बोलना काफ़ी अखरता है और पंजाबी मिश्रित उर्दू की कमी भी खटकती है जो कि पाकिस्तान की प्रमुख भाषा है। युद्धबन्दियों  के भयानक टॉर्चर का ज़िक्र पूरी फ़िल्म में है लेकिन उसको दिखाया कहीं नहीं गया है। पाकिस्तान में ह्यूमन राइट्स कमीशन के लोगों को बेहद पॉवरफ़ुल दिखाया गया है जो सेना के टॉप कमांडरों से उलझते दिख़ती हैं जबकि फ़िल्म में पाकिस्तान उस समय मिलट्री शासन था। मिलिट्री शासन में ह्यूमन राइट्स कमीशन वालों का पाक फ़ौज के अफ़सरों को हड़काना काफ़ी हास्यास्पद लगता है। 
लेखकद्वय अमृत सागर और पीयूष मिश्रा ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि दक्षिण एशिया में ह्यूमन राइट्स की संस्थाएँ बिना नाखून की शेर हैं और पाकिस्तान ने कभी भी जिनेवा कन्वेंशन का आदर नहीं किया है। 

सागर पिक्चर्स के बैनर तले बनी इस फ़िल्म की कहानी मोतीलाल सागर ने लिखी थी जिस पर उनके सुपुत्र अमृत सागर ने फ़िल्म बनायी। इसके पहले भी इस विषय पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं लेकिन ये शायद सबसे ज़्यादा प्रेक्टिकल फ़िल्म है इंडो-पाक के प्रिज़नर्स ऑफ़ वार पर। 

फ़िल्म 2007 में रिलीज़ हुई थी लेकिन ढंग से रिलीज़ भी नहीं हो पायी थी, फ़िल्म को पर्याप्त थियटर नहीं मिले थे और कुछ ही हफ़्तों में ना सिर्फ़ सिनेमाघरों से उतर गई बल्कि भुला भी दी गयी। मनोज वाजपेई के इसरार पर अमृत सागर ने फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए भेज दिया। चमत्कार ये हुआ कि फ़िल्म को 2009 में दो नेशनल अवार्ड मिल गए। जिसमें से एक अवार्ड उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फ़िल्म का था और दूसरा सर्वश्रेष्ठ आडियोग्राफी का। 

अवार्ड पाने के बाद भी फ़िल्म गुमनाम ही रही। लॉकडाउन के दौरान किसी ने मनोज वाजपेयी से 1971 फ़िल्म को देखने की इच्छा ज़ाहिर की, उन्होंने अमृत सागर को टैग कर दिया और अमृत सागर ने इस फ़िल्म को यूट्यूब पर डाल दिया। पाँच पांडवों के वनवास की तरह इस फ़िल्म ने अपना बारह वर्षों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास काटते हुए यूट्यूब पर आते ही इतिहास रच दिया और अब तक क़रीब पौने पाँच करोड़ लोग इस फ़िल्म को देख चुके हैं। 

इसे फ़िल्म को मनोज वाजपेयी के जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम माना जा रहा है। फ़िल्म आप भी देखें और इस बात पर अपना सिर धुनें कि सागर पिक्चर्स जैसे बड़े बैनर के तले बनी ऐसी बेहतरीन फ़िल्मों को अगर रिलीज़ होने के लिये पर्याप्त थियेटर नहीं मिलते तो हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री यानी बॉलीवुड कितने गहरे दलदल में है। 

अब समय आ गया कि नेपोटिज़्म और मूवी माफ़िया से हिंदी फ़िल्म उद्योग को मुक्त कराया जाए तथा हिंदी सिनेमा के कुत्सित चक्रव्यूह से ऐसी फ़िल्में निकलें और आम दर्शकों को तभी देखने को मिल सकें जब ये बनी हों। 
लेकिन फिर भी आप ये फ़िल्म देखें क्योंकि अच्छा सिनेमा और साहित्य कभी बासी नहीं होता है। 
फ़िल्म इस यूट्यूब लिंक पर उपलब्ध है। 

https://youtu.be/gp3otKG7o6g

1 टिप्पणियाँ

  • 17 May, 2022 08:33 AM

    आपने सच कहा महोदय सब मूवी माफ़िया की कुत्सित चालें है जिस फ़िल्म को चलाना चाहे चला दिया जाता है । बेहतरीन फ़िल्म , जिसके बारे में पता ही नहीं था, आपकी समीक्षा से जाना और लिंक भी देने के लिए शुक्रिया । अब तो देखना आवश्यक हो गया है । आपका प्रयास सराहनीय ।

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