इंटरनेशनल हिंदी
दिलीप कुमार
साहित्यकारों की एक जमात थाने को घेरे हुए थी। एक थाने से थानेदार दूसरे थाने को फोन करके दरयाफ़्त कर रहे थे कि आख़िर ये चौर्य विद्या के बाण इतने पढ़े-लिखे लोगों पर किसने चला दिए। इतने पढ़े-लिखे, विश्व शान्ति के संवाहक, प्रगतिशीलता के पुरोधाओं और सरकार को उलट-पलट देने का माद्दा रखने की बात करके ताल ठोंकने वाले साहित्यकारों के साथ ऐसा कैसा हो गया? पानी भी छान और फूँक कर पीने वाले लोग ऐसे कैसे झाँसे में आ गए।
थानेदार आमतौर पर जनता की फ़रियाद कम ही सुनते हैं और पढ़ने-लिखने वालों को तो बिल्कुल नहीं सुनते। उनसे अपनी दरख़्वास्त लिखकर देने को कहते हैं और फिर लिखा-पढ़ी ही होती रहती है। मगर कोतवाल साहब साहित्यकारों की इस जमात की पीड़ा की रामकथा सुनने को विवश थे क्योंकि साहित्यकारों ने एक डीआईजी से पैरवी करवाई थी थाने पर। डीआईजी साहब रिटायर्ड थे पर अपने रोब-दाब से अभी भी टायर्ड नहीं हुए थे। उनकी फिलॉसफी थी “वन्स ए कॉप आलवेज़ ए कॉप।” सो वह थानेदार को निर्देश दे चुके थे कि मामला देख लिया जाए। क्योंकि जो साहित्यकार लोग ठगे गए थे वो सभी लोग कवि-शायर थे और रिटायर्ड डीआईजी साहब स्वयं भी अग्रिम पंक्ति के अतुकांत कवि थे।
हालाँकि ये मामला पहले भी उस थाने और उसके आसपास के कई थानों में आया था पर तब उन्होंने रफ़ा-दफ़ा कर दिया था। पर अब डीआईजी के रोब-दाब को नज़रअंदाज़ करना मुमकिन नहीं था। भले ही डीआईजी साहब रिटायर्ड और दूसरे प्रदेश को हों तो भी, वही मिसाल थी ना “वन्स ए साहब, आलवेज़ ए साहब।”
थानेदार ने पूछा, “मसला पहले विस्तार से बताएँ। फिर लिखा-पढ़ी में कम्प्लेन ली जाएगी।”
तब एक्साइज़ डिपार्टमेंट से रिटायर्ड कर्मी एवं कविवर नरेश त्रिकालदर्शी जी बोले, “देखिये मैं बरसों से कविता लिख रहा हूँ। मुझे कविता लिखते हुए क़रीब तीन दशक से अधिक समय हो गया। देश-विदेश में मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं और हर जगह मेरे प्रशंसक हैं।”
थानेदार झल्लाते हुए बोला, “तो अब अपनी प्रसिद्धि का मुक़द्दमा थाने में लिखवाएँगे। यही सब यशोगान लिपिबद्ध करने के लिये हम थाने में बैठे हैं क्या?”
त्रिकालदर्शी जी बोले, “मामला पहले पूरा सुन लीजिए तभी समझ पाएँगे। यह मामला प्रसिद्धि से ही जुड़ा हुआ है। तो हुआ यह कि जब मैं इतना मशहूर हो गया था तो साहित्य में मेरी प्रसिद्धि को देखकर दिल्ली की एक संस्था ‘अखिल हिंदी विश्व विकास न्यास’ ने मुझसे संपर्क किया। उस संस्था के चेयरमैन प्रसिद्ध देवांश ने कुछ महीने पहले एक दिन मुझे फोन किया। उन्होंने औपचारिक दुआ-सलाम के बाद न सिर्फ़ मेरी रचनाओं की ख़ूब तारीफ़ की बल्कि मेरे साहित्यिक कार्यों के शान में भी क़सीदे गढ़े। उसके बाद वह ऐसा हर दूसरे-तीसरे दिन करने लगे। हमारे सम्बन्ध जब प्रगाढ़ हो गए तो एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि आप एक विलक्षण टैलेंट हैं। आपने साहित्य की बहुत सेवा की है। देश के हर कोने में तो आपकी कीर्ति पहुँच ही गई है अब समय आ गया कि ऐसे दुर्लभ हिंदी सेवक के कार्यों को विदेश के लोग भी जानें आपकी प्रसिद्धि के बारे में विदेशी भी जानें। इसलिये मेरी संस्था आपकी प्रसिद्धि को विदेशों में प्रचारित-प्रसारित करेगी।”
“तो ई पीआर का मामला है। उसने आपका पीआर करने का ठेका लिया होगा और फिर रुपया-पैसा लेकर मुकर गया होगा पीआर करने से। आप लेखक लोग फ़िल्म स्टार बनना चाहते हैं क्या? जो रुपया देकर पीआर कराते हैं,” ये कहते हुए थानेदार हो-हो करके हँसने लगा।
थानेदार के खिल्ली उड़ाकर हँसने से बाक़ी लोग भी मुस्कुरा ऊठे। इससे त्रिकालदर्शी जी झेंप गए। उन्होंने बात को सँभालते हुए कहा, “नहीं-नहीं सर, यह पीआर का मामला नहीं है। मामला थोड़ा बड़ा है। यह एक कुख्यात रैकेट है जो बड़े स्तर पर ठगी करता है। मैंने आपसे पहले ही कहा था कि एक बार मामला पूरा सुन लें तभी समझेंगे और कुछ कर पाएँगे।”
समझने की बात सुनकर थानेदार हत्थे से उखड़ कर बोला, “हमारे ही थाने में हमको समझा रहे हैं। रिटायर्ड डीआजी साहब की सिफ़ारिश लेकर आये हैं तो क्या कुछ भी अनाप-शनाप बकेंगे। मत भूलिए कि आप मेरे ही थाने में बैठे हैं और मैं रिटायर्ड नहीं बल्कि मौक़े पर थाने का इंचार्ज हूँ।”
थानेदार का कुपित हुआ चेहरा देखकर और रोबीली आवाज़ सुनकर थाने में बैठे साहित्यकारों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई।
थोड़ी देर तक निशब्द शान्ति छाई रही सब एक दूसरे का चेहरा ताड़ते रहे कि क्या करना है और पहल कौन करे?
कुछ मिनट यूँ ही बीत गए तो थानेदार बोला, “अब बोलिये भी महाराज मामला अपना। पूरा दिन नहीं है हमारे पास कि आपके पास बैठकर आपके पीआर की रामकथा सुनें। बहुत से केस निपटाने हैं मुझे।”
त्रिकालदर्शी जी ने सहमते हुए बोलना शुरू किया, “जी मेरे पीआर का मामला नहीं है। यह उनके झूठे पीआर और ठगी का मामला है। प्रसिद्ध देवांश ने कहा था कि हिंदी के प्रचार-प्रसार और उन्नयन के लिये वह विदेश में भी हिंदी का प्रचार-प्रसार करना चाहता है। इसलिए उसने सिंगापुर और मलेशिया को चुना। उसने बताया कि सिंगापुर और मलेशिया में बहुत बड़ी संख्या में अहिन्दी भाषी भारतीय बसते हैं। उनके बीच में हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाने और हिंदी के उन्नयन के लिये गोष्ठियाँ और सम्मान समारोह करना चाहते हैं। वहीं दोनों जगहों पर हमें यानी मैं और थाने में आए हुए बाक़ी साहित्यकारों को सम्मानित भी करना चाहते हैं।”
“ई तो अच्छी बात है। वो फोकट में आपको विदेश घुमा रहा है और सम्मानित भी कर रहा है। यहाँ हम लोग पुलिस की नौकरी में तो गोली खाता है तो ही कोई सम्मान मिलता है। वो भी स्टेट कैपिटल या ज़्यादा से ज़्यादा दिल्ली तक। और आप लोग तो क़लम चलाकर ही दूसरे के ख़र्चे पर विदेश में सम्मानित हो लिये। ये क़लम घिसाई का काम बढ़िया है, हमको भी करना चाहिये था,” थानेदार ने व्यंग्य से कहा।
“यही तो रोना है सर। न तो फोकट में विदेश ले गया और न ही सम्मान-वम्मान किया। सिर्फ़ झाँसा देकर उसने ठगी कर ली,” त्रिकालदर्शी जी ने कलपते हुए कहा।
“मतलब, वो तो सब दे ही रहा था दिल्ली वाला। विदेश यात्रा भी और सम्मान भी। फिर ठगी कैसे और कब हो गई?” थानेदार ने हैरानी से पूछा?
त्रिकालदर्शी जी ने कहा, “शुरूआत में तो सब ठीक था। उसने एक व्हाट्सप्प ग्रुप बनाया था ऐसे साहित्यकारों का, जिन्हें विदेश ले जाना था और गोष्ठी कराके सम्मनित करना था। उसने कहा कि वीसा, रजिस्ट्रेशन के लिये दस हज़ार रुपये चाहियें। जो कि बाद में वापस हो जाएगा। फिर उसने कहा कि फ़्लाइट का टिकट-होटल के लिये डेढ़ लाख रुपये लगेंगे। यह भी कहा कि ये पैसे वापस हो जाएँगे। क्योंकि उसकी संस्था को सेंट्रल गवर्नमेंट से ग्रांट मिलती है। वो पैसा हवाई जहाज़ का टिकट और होटल का बिल लगाने पर साहित्यकार के ही एकाउन्ट में आएगा। उसकी बात पर भरोसा करके हम लोगों ने वो पैसे दे दिए। फिर वह हम लोगों को सिंगापुर और मलेशिया ले जाने के बजाय नेपाल और भूटान ले गया। वहाँ न तो कोई गोष्ठी और न ही कोई सम्मान समारोह किया। वापस वह दिल्ली आया और हवाई अड्डे से ही ग़ायब हो गया। तबसे हम लोग परेशान हैं। नेपाल भूटान के नाम पर हमसे डेढ़ लाख रुपया ले लिया। मुश्किल से तीस चालीस हज़ार भी पर पर्सन नहीं ख़र्चा हुआ और डेढ़ लाख ठग लिया। अब आप हम सभी के बाक़ी पैसे हमको वापस दिला दीजिये। हम पेंशनर लोग हैं एक-एक रुपया हमारे लिये क़ीमती है। मैंने तो इस घटना पर एक कविता भी लिखी है। आपको सुनाता हूँ अपनी पीड़ा, सुनियेगा . . .”
थानेदार उनकी बात काटते हुए बोला, “इतना ज़ुल्म न कीजिये कविवर हम पर। हम आपकी तरह इंटरनेशनल हिंदी सेवी नहीं हैं बल्कि साधारण पुलिसवाले हैं। कविता मत सुनाइये, एहसान होगा हम पर। आप सब अपनी एप्लिकेशन थाने के मुंशी को दे दें और घर जाएँ। हमसे जो बन पड़ेगा हम करेंगे। और रोज़-रोज़ डीआईजी साहब से फोन मत कराइयेगा। जाइये अब आप लोग।”
साहित्यकारों का जत्था जब थाने से बाहर निकलने लगा तो पीछे से आवाज़ लगाते हुए थानेदार ने कहा, “सुनिए त्रिकालदर्शी जी। सम्मान वग़ैरह तो आपको और आपके साथियों को मिलते ही रहते हैं। उसमें क्या नेशनल और क्या इंटरनेशनल! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप नेपाल और भूटान की यात्रा को सिंगापुर और मलेशिया की यात्रा समझ लें। तब तो सब झगड़ा ही मिट जाए। वो दोनों देश भी तो विदेश ही हैं। आख़िर आप गए तो विदेश ही। सब मन का फेर है। और मन के तो आप कवि लोग राजा हैं ही। मेरी बात पर विचार कीजियेगा,” यह कहकर थानेदार हँसने लगा।
साहित्यकारों का कुनबा यह सुनकर हैरान रह गया।
नेपथ्य में कहीं आँखें फ़िल्म का एक गीत बज रहा था:
“दे दे, दे दे तेरे शहर में इंटरनेशनल फ़क़ीर आये हैं। दे दाता के नाम तुझको अल्ला रखे।”
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