हिंडी

दिलीप कुमार (अंक: 232, जुलाई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

मोहेश कुमारे भारत सरकार को बरसों से दुहते आये हैं, पूरे देश के हर आलीशान हिंदी सम्मेलन में इनकी उपस्थिति उसी तरह अनिवार्य होती है जैसे नाई और पंडित के बिना सनातन विवाह सुचारु रूप से सम्पन्न नहीं हो पाते। बस दोनों के मन में एक टीस रह गयी थी कि कभी विश्व हिंदी सम्मेलन में भारत सरकार के प्रतिनिधि मंडल में नहीं जा पाए थे। साल भर साहबों के घर बुके और मिठाई भेजने के बावजूद अंतिम लिस्ट से उनका नाम नहीं आ पाता था। 

लेकिन बिल्ली के भाग्य का छींका टूटा। हिन्दी के एक बड़े लेखक प्रेमिल प्रथम की पत्नी का देहावसान सम्मेलन के ठीक तीन दिन पहले हो गया था। 

वैसे तो हिंदी के वो विद्वान घोर सनातनी थे और पिछले क़रीब दो दशक से निरन्तर दुनिया भर में होने वाले हर सम्मेलन में भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर जाते रहे थे। वो इस बार का मौक़ा भी नहीं छोड़ने वाले नहीं थे, वो तेरहवीं तक के झंझट में रुकने वाले नहीं थे, तीन दिन में शॉर्ट कट तरीक़े से क्रिया कर्म करके निकल जाना चाहते थे। 

उनका तर्क था कि पत्नी तो जा ही चुकी है सो सम्मेलन में जाना क्यों मिस कर दिया जाए? 

तभी किसी ने उन्हें समझाया कि सरकार में उनकी छवि घोर सनातनी व्यक्ति की है, यदि उनके तीन दिन के शार्ट कट के क्रिया कर्म करने की ख़बर किसी ने वायरल कर दी तो सरकार की फ़ज़ीहत होगी। 

अब अगर सरकार की फ़ज़ीहत हुई तो उनकी क़ायदे से फ़ज़ीहत होनी तय है। अब जब सरकार ही उनसे नाराज़ हो जायेगी तो वो न सिर्फ़ आगामी हिंदी सम्मेलनों से वंचित हो सकते हैं बल्कि अपनी सनातनी और राष्ट्रवादी छवि से जुड़े हर प्रकार के लाभों से हाथ धो सकते हैं। 

काफ़ी सोच-विचार कर उन्होंने विदेश में होने वाले हिंदी सम्मेलन में जाने का विचार त्याग दिया और अपनी पत्नी के क्रिया-कर्म करने के लिये तेरह दिन के विधि-विधान को चुना ताकि उनकी घोर सनातनी और राष्ट्रवादी छवि न सिर्फ़ बनी रहे बल्कि और भी मज़बूत हो जाये। 

काफ़ी सोच-समझ कर बरसों से अपनी चेलाही और चरण वंदना कर रहे मोहेश कुमारे की गोटी फ़िट कर दी। आख़िर मोहेश कुमारे ने जुगाड़ फ़िट कर लिया औऱ वो हिंदी सम्मेलन में भाग लेने के लिये विदेश जाने वालों की लिस्ट में आ ही गए। 

ये ख़बर कन्फ़र्म होते ही व्हाट्सप्प पर उन्होंने स्टेटस लगाया “गोइंग फ़ॉर हिंदी, कॉनक्वयरेरीइंग फ़ॉर हिंदी।” 

जिस तरह सिकन्दर दुनिया जीतने निकला था उसी तरह ये हजरत हिंदी को जीतने निकले थे, पहला स्टेटस अंग्रेज़ी में लगाकर, दरअसल उन्होंने अंग्रेज़ी ब्रांड की नीट स्कॉच लगाकर ही ये स्टेटस लगाई थी। 

मोहेश कुमारे फिजी पहुँचे, वहाँ भारतीय दल के लिए परम्परागत इंतज़ाम किए थे। मोहेश कुमारे ने क़सम खा ली थी कि इस बार वो हिंदी दल में सिर्फ़ अंग्रेज़ी शराब पियेंगे और एरिस्ट्रोकेट कल्चर ही दिखाएँगे। 

क्योंकि उनके दल के जो मुखिया थे वो मन से पूरे अँग्रेज़ थे उनका नाम था मैथ्यू हेलेन मोहन, उनके माँ-बाप दोनों केरल के क्रिस्टानी थे लेकिन वो मोहन सर नेम क्यों लगाते थे ये बात उतनी ही हैरानी की थी जितना कि जूही चावला दुनिया भर के पुरुषों को गंजेपन से नजात पाने के लिये केशकिंग की वकालत करती हैं, जबकि उनके पति को केशकिंग की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। 

ऐसे लोग जो रंगत में भारतीय थे मगर मन से पूरे अँग्रेज़। उनके दादा अँग्रेज़ों के ज़माने में न तो जेलर थे और न ही टेलर, फिर भी उन्हें भी अँग्रेज़ियत की विरासत का जदीद गुमान था। वो ख़ुद को अँग्रेज़ समझते हैं और अँग्रेज़ उनको खाँटी हिंदुस्तानी। 

तो फिर मोहेश कुमारे ने फ़ेसबुक पर रोमन में स्टेटस लगाया: 

“हमारी चलती है, सबकी जलती है” 

विदेश के हिंदी सम्मेलन सत्तर की फ़िल्मों के कुंभ के भाइयों के बिछड़ने फिर उनके मिलने की तरह स्थायी हैं। जैसे सबको पहले से पता होता है कि आख़िर में कुंभ के मेले में बिछड़े भाई मिलेंगे ही, उसी तरह सबको पता है कि सरकार किसी की हो, हिन्दी सम्मेलन कहीं भी हो रहा हो, जाएँगे वही दस-बीस चुनिंदा लोग। वही लोग तब तक विदेश के हिंदी सम्मेलनों में जाते रहेंगे जब तक भगवान को प्यारे न हो जायें। इस बार एक सज्जन की पत्नी भगवान को प्यारी हो गयीं तो एक स्थान रिक्त हो गया तो उन्हीं की तरह उनके चेले मोहेश कुमारे का नम्बर लग गया। 

प्रेमिल प्रथम जी अपनी बैठकों में सीना ठोक कर कहा करते थे कि सरकार किसी की भी हो सिस्टम तो अपना ही है, और हम या हमारे लोग ही विदेशों में होने वाले हिंदी सम्मेलनों में जाते रहेंगे। 

विदेश में आयोजित हिंदी सम्मेलनों में भारत से गए हुए अहिन्दी भाषी प्रान्तों के अधिकांश लोग हिंदी बोलने वाले प्रान्तों से गये लोगों से अंग्रेज़ी में बात करते हैं। इनके लिये हिंदी का मतलब हिंदी फ़िल्में हैं और उसके कुछ लोकप्रिय गाने बजा या चला देने से इनकी हिंदी सेवाओं की इतिश्री हो जाती है। 

इन सम्मेलनों में आम तौर पर भारतीय और शाकाहारी भोजन ही परोसे जाते हैं जिन्हें देखकर मोहेश कुमारे की त्यौरियां चढ़ गयीं। वो तो इस समुद्री देश में जी भर के सी-फ़ूड खाने आये थे, प्रान और फ्रॉग खाकर तृप्त होना चाहते थे लेकिन यहाँ तो मंदिर के भंडारे की तरह उन्हें शुद्ध-सात्विक भोज ग्रहण करना पड़ रहा है। 

उन्होंने सोचा कि पता नहीं सरकारें साहित्यिक आयोजनों में नान-वेज और शराब क्यों नहीं देतीं, एक बार जब सरस्वती वंदना हो जाती है तो वो नान-वेज क्यों नहीं खा सकते? उन्हें अपनी सोच पर गर्व हुआ और आयोजकों के नान-वेज न परोसे जाने पर खिन्नता। 

हिंदी सम्मेलन में सबसे पहले राम की शक्ति पूजा का पाठ रखा गया। इतनी लम्बी कविता सुनकर उनका मन खिन्न हो गया। 

मन ही मन कुढ़ते हुए बोले–

“भले ही इस गवर्नमेंट ने मुझे यहाँ हिंडी को रिप्रजेंट करने को भेजा है, लेकिन ये प्रो-सनातनी गवर्नमेंट में मुझे ये ओल्ड पोइट्री भी झेलनी पड़ेगी ये नहीं सोचा था।”

उन्हें हिंदी के साहित्यकारों की शुद्ध हिंदी सुनकर बहुत उलझन हो रही थी, उन्होंने एक फ़ाइल उठा ली और उस फ़ाइल की आड़ में पेन घुमाने लगे, जिससे देखने वालों को लगे कि वह कोई कविता के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर फ़ाइल में कोई ज़रूरी नोट लिख रहे हैं। 

थोड़ी देर तक ऐसा करने के बाद उनको लगा कि सभी की तवज्जोह अब उनकी उँगलियों की तरफ़ से हट गयी है और लोगों को तस्कीन हो गयी है कि वो कविता के महत्त्वपूर्ण बिंदु नोट कर रहे हैं जबकि वो प्रान, फ्रॉग और स्कॉच के बारे में सोच रहे थे। 

ये तो वही मिसाल हो गयी थी:

“वो इश्क़ पर कर रहे हैं संजीदा गुफ़्तुगू 
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।” 

कविता सत्र ख़त्म हुआ तो भरनाट्यम का एक छोटा सा सत्र रखा गया। जिस होटल में वो रुके थे रात को उस होटल के नाईट क्लब में एक डांसर ने शकीरा का प्रसिद्ध डांस “हिप्स डोंट लाई” करके दिखाया था बल्कि वो ख़ुद भी डॉन्स स्टेप और ताल पर ताल मिलाते रहे थे। 

उनके दिमाग़ में तो शकीरा और उनका लाउड म्यूज़िक चल रहा था और यहाँ पर उन्हें भरतनाट्यम झेलना पड़ रहा था। मरता क्या न करता की तर्ज़ पर उन्हें न सिर्फ़ भरनाट्यम देखना पड़ रहा था बल्कि सम्मेलन में उपस्थित जन समूह को भरतनाट्यम पर ताली बजाते देख कर बीच-बीच में उनको भी ताली बजानी पड़ती थी। 

उन्हें परदेस में हिंदी कविता का इतना लंबा सत्र और भरतनाट्यम का नृत्य देखने को बाध्य होने पर बेहद ग्लानि हुई, ये सब देखने-सुनने की विवशता पर उनके आँसू निकल पड़े। लोगों ने उनके आँसू देखे तो वाह-वाह कहना शुरू कर दिया। नृत्य-संगीत की इतनी समझ, इतना गहन रसास्वादन, इतनी आत्मीयता से डूबकर सुनना, लोगों ने उनकी समझ-संवेदना की मिसाल दी। 

उन्हें मुल्ला नसीरूद्दीन याद आ गए, जो किसी शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम में गए थे, गायक ने जब लंबे-लंबे आलाप भरने शुरू किए, तो थोड़ी देर बाद मुल्ला नसीरुद्दीन की आँखों से आँसू बहने लगे। लोगों ने शास्त्रीय संगीत की रंगत में डूब जाने और उस पर आँसू निकल आने पर मुल्ला की ख़ूब तारीफ़ की। 

मुल्ला से संगीत से आत्मसात होने के कारण रोने-सुबकने की वजह पूछी तो मुल्ला नसीरुद्दीन ने कहा, “गायकी नहीं मैं तो ये सोचकर रो रहा था कि अब ये गायक मर जायेगा तो उसके बीवी-बच्चों का क्या होगा, क्योंकि जिस तरह से ये आलाप भर रहा था उसी तरह पिछले महीने मेरा बकरा भी लंबे-लंबे आलाप भर रहा था और वो चल बसा। उसी तरह ये गायक भी ठीक मेरे बकरे की तरह आलाप भर रहा है, सो अब ये भी नहीं बचेगा।” 

मुल्ला की सच्चाई सुनते ही लोग उनकी लानत-मलानत करने लगे। लेकिन यहाँ सच्चाई इसके उलट थी, इनसे किसी ने पूछा नहीं बस अनुमान लगा लिया। जिस तरह हमारा मीडिया किसी शादी-शुदा हीरोइन के बच्चों की दुकान में घुसते ही आयडिया लगा लेता है कि वो प्रेग्नेंट है। उसी तरह और फ्रॉग-स्कॉच मिलने में हो रही देरी और ग्लानि से सुबकते मोहेश कुमारे के आँसू देखकर किसी ने वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया। भारत का मीडिया विदेश से आयी हुई ख़बरों को वेरीफ़ाई किये बिना तिल का ताड़ बनाता ही है, सो ख़बर उड़ गई कि हिंदी की दशा और दिशा से दुखी होकर फूट-फूट कर रोये विदेश में हो रहे हिंदी सम्मेलन में अहिन्दी भाषी, हिंदी प्रेमी साहित्यकार मोहेश कुमारे। 

रातों-रात उनकी प्रसिद्धि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ी। मंत्रालय में उन्हें प्रमोशन देकर किसी बड़े पद पर बैठाने को लेकर विचार-विमर्श चल रहा है। 

उन्होंने ये सब सुनकर ख़ुद को शाबासी दी कि अच्छा हुआ वो कि कविता और भरतनाट्यम का पूरा प्रोग्राम वो झेल गए और अपने ग्लानि के आँसुओं की सच्चाई किसी को नहीं बताई वरना उनकी समझ की भी क़ायदे से लानत-मलानत होती मुल्ला नसीरुद्दीन की तरह ही। 

अपने अभिनय और भाग्य पर इतराते हुए उन्होंने फ्रॉग-फ़्राई को मुँह में डाला और स्कॉच को चूमते हुए बोले “आई लव हिंडी।” 

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