बुद्धं शरणम् गच्छामि

01-12-2024

बुद्धं शरणम् गच्छामि

दिलीप कुमार (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

यक़ीन कीजिए अभी-अभी दम लेने बैठा था। आज दो किलोमीटर पैदल मार्च करना पड़ा था। न कोई मोटर साइकिल वाला न ही कोई साइकिल वाला रास्ते में मिला कि बैठाये लिए चलता। कमबख़्त या फ़ुज़ूल में कितना लड़ाते हैं दुनिया भर की बातें, मगर जिस दिन ज़रूरत होती है उस दिन ये फ़ालतू लोग नहीं दिखते। साइकिल से बाज़ार जाओ तो कितने साइकिल वाले मिलते हैं, मगर पैदल चले जाओ तो क्या मजाल कोई रास्ते में लिफ़्ट दे दे! 

घर में हमेशा की भाँति टीवी ज़रूरत से ज़्यादा आवाज़ कर रहा था। टीवी के सामने बैठा तो तलाक़ का कोई सीरियल आ रहा था। बस दिमाग़ उखड़ गया, ‘ये टीवी वाले सारी शर्म-हया घोर कर पी गये हैं क्या? या इनके शायद परिवार नहीं हैं। ये लोग हिंसा और औरत, इसके अलावा किसी और विषय पर फ़ैमलीड्रामा नहीं बना सकते’ यही सब मैं सोच ही रहा था। 

तभी अंदर से मम्मी चिल्लाई, “देवू, गेहूँ पिसवा ला, बदली हो गयी तो खाना नहीं मिलेगा।” 

लंबी साँस छोड़ते हुए मैंने रज़ामंदी दी, “जाता हूँ।” 

तब तक दरवाज़े पर दस्तक हुई पैरों का दुखना अभी ख़त्म नहीं हुआ था। मैंने निशा से कहा, “जाओ देखो कौन है?” 

हालाँकि खिड़की से बादामी रेडीमेड डिज़ाइनदार स्वेटर पहने कोई दिख रहा था, मगर थकान के कारण मैंने निशा को ही भेजा था। छोटी बहन आँखें तरेरते हुए चली गयी और लौटते हुए भुनभुनाई, “जाओ तुम्हारी कटैगरी का कोई आया है।” 

“कौन आ मरा इस वक़्त?” 

झल्लाते-बड़बड़ाते मैंने दरवाज़ा पूरा खोल दिया। 

साक्षात्‌ साधू बाबा खडे़ थे। लम्बा क़द छह फ़ुट से भी ज़्यादा, छरहरा और इकहरा बदन, गठीली मज़बूत काठी, आँखों में एक अजीब स्थायी चमक प्रतीत होती थी, आँखें काफ़ी बड़ी-बड़ी थीं उनमें दर्द और गहराई थी, और चेहरे पर एक विषाद मौजूद था। हाँ, मगर चिंता का कोई नामो-निशान न था। मैंने उन्हें टालने की नियत से पूछा, “क्या बात है बाबा?” 

बाबा तपाक से बोले, “बेटा, बहुत भूख लगी है।” 

मैं सोचने लगा दिन के ढाई बजे खाना, अब तो महरी भी आ के जा चुकी होगी शाम का नाश्ता पाँच बजे बनेगा अब मैं क्या करूँ? 

“बाबा भोजन तो ख़त्म है, और कोई सेवा?” 
यह कहकर मैंने जान छुड़ानी चाही। बाबा बोले, “बेटा भोजन तो यहीं करूँगा, अलग कहीं नहीं, मैं कुलस्थ ब्राह्मण हूँ और आप विसेन क्षत्रीय, मैं भोजन यहीं करूँगा।” 

बाबा बैठ गये। ये बात मम्मी को बताई तो मेरा इरादा समझ में आते ही वे स्पष्ट तौर पर नाराज़ दिखने लगीं। उन्होंने बात शुरू होने से पहले ही अपना अंतिम निर्णय सुना दिया, “नहीं, ये हो नहीं पायेगा।” 

यह कहकर लगभग उन्होंने खाने की बात को ख़त्म ही कर दिया। यूँ भी घर वाले मेरी इन कारगुज़ारियों से काफ़ी ख़फ़ा रहते थे। ऐसे कई लोग मुझे मिल जाया करते थे, किसी की जेब कट जाती थी, किसी के पैसे गिर गये होते, तो कोई खाते-पीते घर का है, मगर किसी न किसी कारण से वे लोग आज की तारीख़ में परेशान होते थे। यूँ मैं अपनी जेब से नगद नहीं ख़र्च करता था। मगर मेरी मित्र मण्डली और मेरी बैठकबाज़ी के अड्डे के लोगों की मदद से उन ज़रूरतमंद लोगों की नैया पार लग जाया करती थी। 

क्योंकि मेरी मण्डली से सभी लोग शहरी पृष्ठभूमि के थे और मेरी जडे़ं देहात तक फैली हुई थीं, मेरे लिये किसी को भी भोजन करा देना आसान था, मगर दस-बीस रुपये दे पाना मुश्किल था। क्योंकि खाना घर से मुफ़्त मिलने जैसा था मगर नगदी मेरे लिये इसलिये मुश्किल थी क्योंकि मैं बेरोज़गार था और उन मित्रों के लिये दस-बीस रुपये देना काफ़ी आसान था क्योंकि सब रोज़गारी थे। हाँ, मगर पूरा ख़ुराक खाना देना काफ़ी मुश्किल ही था। 

मम्मी ने कहा, “देखो कुछ बिस्कुट पडे़ होंगे दे दो।” 

दस-बारह बिस्कुट ले आयी निशा। बाबा ने अपने झोले में से थाली निकाली और सारे बिस्कुट लेकर खाने लगे। खाते-खाते वे अचानक रुके और कातर स्वर में बोले, “बेटा पैरों में बहुत ठंड लगती है, मुझे धोती या पैजामा दे दो।” 

मैंने असमर्थता ज़ाहिर की, “बाबा हमारे घर में कोई धोती नहीं पहनता, पैजामे का साइज़ आपको छोटा पड़ेगा।” 

बाबा ने कातर स्वर में कहा, “तो जूते ही दे दो पुत्र।” 

“बाबा आपके पैर कितने चौडे़ और फैले हुए हैं, बाज़ार का कोई भी जूता आपके पैर में नहीं आयेगा,” मैंने अपनी असमर्थता को छुपाने का प्रयास किया। 

मगर बाबा मेरे सवाल का जवाब लिये तैयार बैठे थे, “बनवाया हुआ जूता अट जायेगा बेटा, वही ले दो, बडे़ चौक में उत्तरी तरफ़ बनते हैं। वहीं चले चलो, ख़रीद दो ना पुत्र।” 

मैंने हार मानते हुए कहा, “अरे बाबा, इतनी हैसियत होती तो यहाँ इस तरह रहते, वैसे भी मैं कमाता नहीं हूँ।” 

बाबा सारे विस्कुट खा चुके थे। उन्होंने और भोजन की माँग की। मम्मी समझ गयीं कि मैं मानने वाला नहीं हूँ, वो निशा को मनाने लगीं। वो साफ़ स्वर में बोली, “सीरियल ख़त्म होने के बाद।” 

कुल पाँच मिनट से भी कम बचे थे सीरियल ख़त्म होने में। मैंने इसका रास्ता सोचा क्यों न तब तक बाबा को बातों में उलझाऊँ। मैंने दार्शनिकों जैसा सवाल किया, “बाबा आप क्या हैं?” 

बाबा ने अनवरत बोलना शुरू किया, वे कातर स्वर में मगर स्पष्ट बोलते गये। एक विरह वेदना, एक अनोखा दर्द, एक कशिश उनकी आवाज़ में थी। वे मुझ पर छाते जा रहे थे। मैंने ग़ौर से उनको और उनकी दाढ़ी को देखा। फिर आँखों को, इतनी करूणामयी आँखें मैंने कहीं देखी हैं। अरे हाँ, ओसामा बिन लादेन की आँखें ऐसी ही हैं, मगर वो यहाँ कहाँ; अगर होता भी तो इतनी स्पष्ट हिन्दी को क़तई न बोल पाता। मैंने इन ख़्यालों को दिमाग़ से झटक दिया और बाबा की गहराइयों की थाह लेने के प्रयास में पूछा, “बाबा, क्या ये आपका पुनर्जन्म है?” 

बाबा अपनी ओजमयी वाणी से पुनः मुझ पर छाते चले गये और मुझे निरुत्तर कर दिया। 

बाबा की बातों का सार ये था कि वे प्रतापगढ़ के देहात थाने के पीछे एक गिरे मकान में फ़िलहाल पिछले चार-पाँच दिनों से हैं। वे कभी बेती रियासत में पैदा हुए थे। बहुत वर्षों पहले उनकी किसी चाची ने उनको मार डाला था, हाँ ज़हर दे दिया था शायद। उनके हज़ारों बीघे खेत, उनके सैनिक, उनका राजसी ठाठ-बाट और बाद में उनके पुत्रों द्वारा उनका बहिष्कार, और न जाने क्या-क्या रजवाड़ों से जुड़ी बातें। हाँ, इस जन्म में किसी तिवारी जी के यहाँ जन्म। उनकी बातें सुनते-सुनते और उन्हें ध्यान से देखते-देखते मेरा सर दर्द करने लगा था। 
बाबा की कुछ बातें मम्मी ने भी सुन लीं थीं। उन्होंने मुझे अन्दर बुलाया और कहा, “बेटा खाना बन रहा है, पता नहीं कौन महापुरुष हैं, इसी बहाने परीक्षा लेने आयें हों।” मैं मम्मी से सहमत होकर फिर बाबा के पास पहुँचा। बाबा फिर अपनी दुनिया में लौटने लगे थे। इस बार विश्वासघात की बातें कर रहे थे। अचानक बाबा के आँखों से आँसू बहने लगे। 

मैं अवाक्‌, बाबा ने कहा, “अपना क़र्ज़ा चुकाओ बेटा।” 

मेरे सर का दर्द बढ़ता जा रहा था। मैं पास पड़ी चारपाई पर लेट गया। मैंने आँखें बन्द कर लीं। मानो मैं कोई फ़्लैश बैक देख रहा हूँ किसी फ़िल्म का। जिसमें बाबा मानो कह रहें हों कि—
“मैं सिद्धार्थ हूँ, मैं तुमसे मिलने आया हूँ, देवदत्त तुम भटक गये हो।” 

मुझे अचानक वह दृश्य भी दिखने लगा जब देवदत्त ने हंस को मारा था और सिद्धार्थ ने हंस को बचाया था। बचपन में पढ़ी वो कविता याद आ रही थी कि हंस और देवदत्त दोनों के उद्धारक सिद्धार्थ ही थे। 

सहसा मैंने आँखें खोल दीं। बाबा दयामयी कृपादृष्टि से नहीं शायद कातर दृष्टि से मुझे ही निहार रहे थे। मानो वे देवदत्त द्वारा हंस को मारे गये तीर की पीड़ा को बयान कर रहे थे। हाँ, शायद वही दर्द ही उनके चेहरे पर उतर आया था और वे मानो मुझी से कह रहे हों, “देवदत्त, कुछ करो।” 

“ओह!” अचानक मेरे दिमाग़ ने पलटा खाया इसलिए इस जन्म में मेरा नाम शायद देवदत्त रखा गया थ। बाबा अपने उस गंदे रूप में भी मुझे तेजवान दिखने लगे। तब तक रोटियाँ आ गयीं। बाबा बोलते जा रहे थे। मैंने कहा, “बाबा बोलिये मत, भोजन कीजिये।” 

बाबा ने भोजन को ग़ौर से देखा, रोटी और अचार। मैं आत्म-ग्लानि से भर उठा। बेती रियासत के राजपुरुष या शायद सिद्धार्थ स्वयं भेष बदलकर आयें हों, अपने देवदत्त से मिलने, और ये भोजन। बाबा ज़मीन पर बैठे थे मेरी हिम्मत न हुई कि मैं उन्हें चारपाई पर बैठने को कहूँ। घरवाले चीख पड़ते ऐसे लोग अगर चारपाई पर बैठते। बाबा की मजबूरी समझते हुए मैंने विनती की, “बाबा भोजन रूखा-सूखा है, ग्रहण कीजिये।” 

बाबा भोजन ग्रहण करने लगे, मैंने आँखें बंद कर लीं। तब तक मम्मी आ गयीं। 

उन्होंने बताया, “बेटा रोटियाँ बढ़वा दी हैं, और बँधवा भी दूँगी।” 

इसके बाद मम्मी बेती के राजा रघुबर दयाल सिंह के पुनर्जन्म के क़िस्से सुनाने लगीं। बाबा फिर अपनी राजसी बातों में उलझ गये। बाबा और दुखी नज़र आने लगे। मैंने मम्मी को मना कर दिया, “मम्मी बाबा को बकाओ मत, खाने दो।” 

बाबा ने और रोटियाँ माँगी, बाबा बँधवाई गई रोटी भी खा गये थे। बाबा ने और भोजन की माँग की। मम्मी ने कहीं से थोडे़ चावल का प्रबन्ध किया, रात का था शायद। चावल काफ़ी ठंडे और सूखे हुए थे, कैसे खाते बाबा। मैंने तेज़ अवाज लगाई, “भरा मिर्चा दे देना।” 

अन्दर से कोई प्रतिक्रिया न हुई। अन्दर मैं स्वयं गया तो निशा भरा मिर्चा निकाल रही थी। मगर वहाँ कुछ अँधेरा था। मैंने लाईट जलाई तो भाभी जग गयीं, पूरा प्रकरण सुना और समझाते हुए बोलीं, “ऐसे ही किसी आतंकवादी को घर में घुसा लो, पता नहीं कौन है?” 

मैं उन्हें अनसुना करके चला आया। बाबा ने चावल और भरा मिर्चा मिलाकर खाया। वे थाली में पानी पीने लगे तो मुझे स्कूल में पढ़ाई गयी वो बात याद आ रह थी, “तीन लोगों पर दया करनी चाहिये बालक, भूखा और पागल।” 

यही सोचकर मैंने ख़ुद को तसल्ली दी। तब तक बाबा ने अपनी थाली धोकर झोले में रख ली। बाबा के बारे में मुझे सोच-सोचकर दुख हो रहा था, और मेरे सर का दर्द बढ़ता ही जा रहा था। अन्त में बाबा से मैंने वो यक्ष प्रश्न किया, “बाबा, इस जन्म में कहाँ पैदा हुए आप?” 

“बेती के जो विधायक पिछली बार मंत्री बने थे उन्हीं के गाँव के पास है अमीरदास पुरवा, वहीं पर।”

 बाबा ने अपना पक्ष रखा। 

“वहीं पास में ही तो मेरा गाँव भी है, किरपापुर।” 

मैंने उन्हें सूचित करना चाहा। 
“हाँ बेटा तभी तो मैं सिर्फ़ क्षत्रियों के घर आता हूँ,” बाबा ने अपना विकल्प बताया। 

मेरा सर दर्द बढ़ रहा था। मैंने बाबा से कहा, “बाबा आज्ञा दीजिये।” 

बाबा ने जाने का उपक्रम न किया। मैंने फिर कहा, “बाबा आज्ञा दीजिए, अब कहाँ प्रस्थान है?” 

“अयोध्या जाऊँगा,” बाबा शून्य में ताकते हुए बोले। 

“रुकिये मैं आता हूँ,” घर में जाकर भाभी से दस रुपये माँगे तो वे भुनभुना उठीं रुपयों के लिये नहीं, नींद ख़राब हो जाने के कारण। 

लौटकर बाबा को दस रुपये दिये और फिर हाथ जोड़़ लिये, “आज्ञा दीजिये।” 

बाबा ने दस रुपये सँभाल कर रखे और चल पडे़। मैं उनके चौडे़ पैरों को देखता रहा। मैंने अपने दरवाज़े की मिट्टी को धन्य माना, महापुरुष के चरण जो पडे़ थे। नुक्कड़ पर चाय बेचने वाली औरत ने लकड़ियाँ जला रखी थीं। बाबा जगह घेर कर तापने बैठ गये। चाय वाली औरत सब कुछ जान चुकी थी। घुड़कते हुए बाबा से बोली, “खा लिया उनके यहाँ, अब पूरी आग अकेले न ताप लो, क्या चाहिये ले लो, और आगे बढ़ो।”

“पान खिला दो,” बाबा ने कहा। 

बाबा ने तम्बाकू वाला पान खाया तो मुझे अचरज न हुआ, अलबत्ता मुझे उनके राजवंशी होने की अनुभूति हुई। सर दर्द बढ़ रहा था, मैं घर में लौटा और सो गया। 

साढ़े पाँच बजे नाश्ता करके बाज़ार चला गया। पूरी मित्र मण्डली को यह बात बताई। अपने मन के विचित्र संतोष का बयान किया। बाबा की हालत पर दुख भी प्रकट किया। सभी मुझसे प्रभावित थे। सभी ने मेरी प्रशंसा की। 

साढे़ आठ बजे घर में घुसते ही पापा चिल्लाते हुए बरस पडे़, मानो मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। वे चीखते हुए बोले, “देवदत्त, नालायक़ मेरा घर लुटा देगा क्या? तुझे एम.ए. तक पढ़ाया, मगर तुझे अक़्ल न आई।” 

“क्या बेवुक़ूफ़ी कर दी मैंने अब?” मैंने सहमते हुए प्रतिवाद किया। 

“अरे बेहूदे, वो पाटा पुरवा का बेईमान राजकरन था, खेत-वेत सब बेच कर खा गया, अब लोगों को ठगता है, और भीख माँगता है.” पापा चिल्लाते हुए बोले। 

मैंने अपने बचाव की अन्तिम बात उन्हें बताई, “पापा वो तो बताता था कि वह अमीर दास पुरवा का है, और दूसरी बात वह सिर्फ़ ठाकुरों के यहाँ खाता-पीता है।” 

पापा इस बार थोड़ा धीरे से बोले, “चूतिये, वो गाय का गोश्त भी खा सकता है।” 

मैंने सख़्ती से निर्णयात्मक स्वर में कहा, “जो हुआ सो हुआ, वैसे भी मुझे इन चीज़ों से बड़ी तसल्ली मिलती है, और हाँ, वो तीन दिन से भूखा था।” 

तब तक निशा ने पापा को मेरी और एक कृत्य की सूचना दी, “दस रुपये भी दिये हैं।” 

लेकिन इस बार पापा नाराज़ होने के बजाय हँस पडे़ बोले, “बेटा, तुझमें अभी बचपना है, लेकिन अगर वो किसी दिन मिल गया, तो उसे बहुत बेइज़्ज़त करूँगा। और पैसे उस कमीने से वसूल लूँगा, वह जान-बूझकर दिन के ऐसे वक़्त आया था कि मैं उसे न मिलूँ, वो मुझे बहुत क़ायदे से जानता है। घर भी, इसलिये वह ऐसे हिसाब बनाकर आया था कि पकड़ न जाये।” 

मेरे सिर में फिर दर्द बढ़ रहा था। मैंने अपने आप दस रुपये नगद और बाज़ार जाते वक़्त एक रुपया पान के भी दे दिया था ताकि सिद्धार्थ का सारा आर्शीवाद मुझको ही मिले। मुझे ख़ुद पर बड़ी कोफ़्त हो रही थी इसलिये नहीं कि वो ठग मेरे रुपये ठग ले गया था बल्कि वो मुझे बेवुक़ूफ़ बना गया था। 

मैं वहाँ से निकला और नुक्क्ड़ पर आकर खड़ा हो गया। ख़ुद पर क्रोध आने लगा था मुझे। वहाँ खडे़ दो-चार लोगों से मैंने उस व्यक्ति के बारे में पूछा। तो उन सबने कुछ बताने से पहले मुझी से पूछना शुरू कर दिया। 

अपनी बेवुक़ूफ़ियाँ छिपाते हुए मैंने उन्हें सिर्फ़ इतना बताना उचित समझा कि बस उससे बहुत ज़रूरी काम है। साथ ही यह भी कहा एक दो दिन में जो उसे ढूँढ़ देगा उसे मैं दस-बीस रुपये भी दे दूँगा। बस पता मिल जाये उसका। 

उनमें से कुछ लोग मुस्कुरा रहे थे। क्या उन्हें मेरे ठगे जाने की जानकारी हो गयी थी। कैसे पता लगा उन्हें, शायद मेरे बर्ताव से, मेरी व्यग्रता से या उसे तलाश करने की ललक से। मैं वहाँ से लौटा तो सोच रहा था कि भगवान की कृपा से भगवान के छद्म रूप वाला वो आदमी मुझे मिल जाये तो मैं उसका क्या करूँगा, बताने की ज़रूरत नहीं। थोड़ा निश्चिन्त होते हुए मैं घर पहुँचा तो टीवी, पर फिर से एक सुरीली ध्वनि गुंजायमान्‌ थी “बुद्धम शरणम् गच्छामि” ये संगीतमयी आवाज़ सुनते ही मेरी निश्चितंता बेचैनी में बदल रही थी।

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