भागी हुई लड़की
दिलीप कुमार
पकड़ कर लाई गई थी वह . . . चुपके से . . . रेलवे स्टेशन से,
उतर गई थी वह लड़की न जाने क्यों सबके मन से!
सवालिया नज़रों से बिंधी जा रही थी उसकी देह,
किसी को न रह गया था उससे कोई भी मोह-नेह,
सबकी आँखों में उसको लेकर थे तरह-तरह के सवाल,
हर नज़र उतार लेना चाहती थी उसके जिस्म से खाल,
यही सवाल कि लड़की क्या कुछ घर से भी लेकर भागी थी?
वह अकेली ही भागी थी या किसी लड़के के साथ भागी थी?
रह-रह कर अंदेशाओं के बादल फूट रहे थे,
मन ही मन लोग उसकी छीछालेदर के मज़े लूट रहे थे,
उसकी चुप्पी से बढ़ रही थी लोगों की तल्ख़ियाँ,
वैसे उस लड़की ने बटोर रखी थीं ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ,
फिर भी वह ठहरी एक लड़की ही तो आख़िर,
ऐसे-कैसे वह इस द्वंद्व में गई इतना गिर?
पहले वह उलझी रहती थी अपने कैरियर के सपनों में,
उसकी दुनिया भी सीमित थी उसके अपनों में,
न जाने कैसे फिर उसके भी दिन फिरे,
जिस उम्र में युवतियाँ दिखाती हैं नख़रे,
पालती हैं सपने रहती हैं जैसे बनफूल,
करती हैं विद्रोही बातें फूँकती हैं क्रांति का बिगुल,
उसी उम्र में न जाने कैसे अचानक यह लड़की बदल गई,
उसमें आये हुए बदलावों की बातें गली-मोहल्ले को खल गई।
कभी-कभी उसके घरवाले उस लड़की पर गुर्राते थे,
फिर उस लड़की से घिघियाते हुए,
उसके विदा हो जाने की ख़ैर मनाते थे,
ऐसे ही मुक्त आकाश की विचरणी वह अल्हड़ युवती,
सबकी सुनती रहती थी पर अपनी किसी से न कहती,
कहाँ उलझ गई लड़की अध्यात्म के जाल में,
क्यों खो बैठी वो साम्य अपना, इस लोक-परलोक के बवाल में?
लोग मुस्कुरा कर दबी ज़ुबान में बताते हैं,
कि उसे अक़्सर ही न जाने क्यों चक्कर आते थे,
नौजवान लड़के उसके पेट दर्द से मनमाफिक अंदाज़ा लगाते थे,
औरतें कहती थीं ये तो सिर्फ़ माहवारी की तकलीफ़ है,
बड़े-बुज़ुर्ग कहा करते थे कि कोई अनहोनी क़रीब है,
इन्हीं आशाओं, सरोकारों से वह चकरघिन्नी बनी,
उसके और घरवालों के बीच में थी कोई रार ठनी।
दुआ करने के लिए कुछ दिन उसने,
बाबा की संगत में बिताये थे,
ऐसा भी लोग बताते हैं कि बाबा ने,
देवी-देवताओं के फोटो घर से हटवाए थे,
जब तक बाबा की साधना चली,
वो रही ख़ुशमिज़ाज और चंगी-भली,
अचानक बाबा के चले जाने से टूट गया था उसका मन,
क्योंकि बाबा को जुटाना था किसी नई साधना का साधन।
वो बहुत व्याकुल हुई, परेशान रही,
उसने दीन-दुनिया की बहुत सही,
लोगों के तानों ने उसे बहुत रुलाया था,
कहीं भाग जाने का विचार तब उसके मन में आया था,
ख़ुद से लड़कर मजबूरी में उसने ये क़दम उठाया था,
यूँ तो भागी थी वह घर में सबसे लड़कर,
बहुत बुरे हाल में कोई स्टेशन से पकड़कर,
चुपके से उसको कोई घर लाया था।
लोग कहते हैं कि उसके सिर पर,
किसी भूत या प्रेत का साया था,
वह किसके लिए भागी थी, उसके घर में कोई भी ये,
अब तक न जान पाया था?
फ़िलहाल उसे दवा दे दी गई है,
वह शायद बेसुध सी है, या आराम कर रही है,
ताकि भागने के प्रश्नों से कुछ और देर तक बच सके,
लेकिन अपने सपनों में वह निरन्तर भाग ही रही है,
और एक अनजान कस्तूरी की, उसकी तलाश जारी है।
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