भागे हुए लड़के
दिलीप कुमार(संस्मरणात्मक कहानी)
कविवर आलोक धन्वा अपनी प्रसिद्ध कविता “भागी हुई लड़कियाँ” में फ़रमाते हैं कि:
“ज़रूरी नहीं कि जब एक लड़की घर से भागी हो तो
किसी लड़के के साथ ही भागी हो।”
ऐसे ही ज़रूरी नहीं कि जब एक लड़का घर से भागे तो सिर्फ़ हीरो बनने या अपने शौक़ पूरे करने के लिये भागे।
कभी-कभी अपने इस घर से उस घर तक भी लड़के भाग कर जाते हैं।
ये शायद 1991 की घटना है, मैं सातवीं क्लास में पढ़ता था। मेरे पापा और उनके भाइयों के बीच गाँव और शहर की सम्पति का बँटवारा हो चुका था, लेकिन परिवार में सब कुछ यथावत था। जो कुछ पहले से चलता आ रहा था वैसा ही था। यानी सिर्फ़ चूल्हे अलग जलने शुरू हो गए थे लेकिन फिर भी परिवार में सभी एक दूसरे के खाना खा लेने की पुष्टि कर लेने के बाद ही खाना खाते थे। परिवार नहीं बँटा था, सम्पत्ति ही बँटी थी लेकिन सभी लोग सभी की धन-संपदा और वस्तुओं का उपभोग करते थे और एक दूसरे का ख़्याल रखते थे।
ये दिसम्बर के आख़िरी महीने थे, कड़ाके की शीत-लहर शुरू होने का वक़्त तो आ गया था लेकिन सूर्य देव इस वर्ष कृपानिधान बने हुए थे। दिन में धूप खिली रहती थी और रात को इतना ही कोहरा होता था कि जन-जीवन पर कोई ख़ास असर ना पड़े। गन्ने की पेड़ी की फ़सल कट चुकी थी और बोआस की पर्ची आना शुरू हो गयी थी। पापा की आजीविका यूँ तो वकालत थी और हम लोग शहर में रहते थे, लेकिन मेरे बाबा (दादाजी) और दोनों चाचा गाँव में रहते थे सो पापा गाँव से ख़ासा लगाव रखते थे।
मेरी दादी और बड़ी ताई के स्वर्गवासी हो जाने के कारण मेरी माँ ही हमारे परिवार की सबसे बड़ी महिला थीं। सो उनको भी फ़सल कटान से लेकर जन्म-मरण के सभी आयोजनों में गाँव जाना पड़ता था। खेती अच्छी तो नहीं होती थी मगर जोत ज़्यादा होने के कारण फ़सलों की कटान-रख-रखाव में समय काफ़ी लगता था।
माँ गाँव चली जातीं तो शहर के पुश्तैनी घर में हम भाई ही रहते थे, हम ख़ुद खाना बनाते थे, और किशोर वय के तीन लड़के उस घर में रहा करते थे। मम्मी-पापा की अनुपस्थिति में पड़ोसी ही हमारे अभिभावक हुआ करते थे। वो समय दूसरा था; सभी सबसे मतलब रखा करते थे—आज के दौर की तरह नहीं था कि पड़ोसी ना तो एक दूसरे को जानते हैं और अगर जानते भी हैं तो पड़ोस के बच्चे कुछ भी ग़लत कर डालते थे तो लोग कंधा उचकाकर कहते हैं—“हमसे क्या मतलब, मेरा बच्चा थोड़ी ना है, हम क्यों बीच में बोलें।”
हमारी ममेरी बहन अनु दीदी भी उन दिनों हमारे साथ ही रहा करती थीं, जो पढ़ती तो थीं अपने गाँव में, लेकिन मम्मी को उनसे बहुत लगाव था। अनु दीदी को भी हमारे परिवार से भी बहुत लगाव था इसलिये मम्मी अक्सर उनको अपने पास बुला लिया करती थीं। वो दसवीं में पढ़ रही थीं।
पढ़ाई-लिखाई में उनकी रुचि परीक्षा तक ही थी, इसलिये भी मम्मी उनको अपने पास ही रखती थीं। मम्मी को उनसे इतना लगाव था कि उन्होंने अनु दीदी को बचपन से उन्हीं स्कूलों में पढ़वाया जहाँ वो रहती थीं, शहर तो शहर, गाँव तो गाँव।
लेकिन अनु दीदी दसवीं तक आते-आते एक स्वस्थ युवती बन चुकी थीं और शहर के कॉलेजों के रोज़-रोज़ जाने के झंझटों से आजिज़ आकर उन्होंने अपने गाँव से प्राइवेट फ़ॉर्म भर दिया था और वो हमारे साथ ही रहती थीं। मम्मी के घर पर ना रहने से वो चार बरस बड़ी बहन के बजाय मम्मी की तरह रोब ग़ालिब किया करती थीं और उन दिनों अनु दीदी हमारे साथ शहर वाले घर पर ही थीं।
मेरे दादा (बड़े भाई) जो उम्र में मुझसे तीन बरस बड़े थे। वो मुझे अनुशासन में रखना पसंद करते थे ताकि मैं बिगड़ ना जाऊँ, लेकिन इसके उलट मैं उनकी सख़्ती से बहुत चिढ़ता था और हम दोनों भाइयों में इस बात को लेकर तनातनी हो जाया करती थी।
उन्हें अनुशासन ज़रूरी लगता था और मुझे अनुशासन बंधन।
उसी वर्ष गाँव से मिडिल पास करके हमारे चचेरे भाई बिन्नू बलरामपुर शहर में पढ़ने आये थे और हमारे साथ ही रहते थे। बिन्नू उम्र में मुझसे दो वर्ष बड़े थे लेकिन शायद हममें बड़े-छोटे भाई का भेद ना था, अलबत्ता गहरी मित्रता थी। उसके दो कारण थे—एक तो बिन्नू मेरे बड़े भाई तो थे मगर मेरे भैया की तरह अनुशासन की घुट्टी मुझे नहीं पिलाते थे, बल्कि बहुत मित्रवत रहते थे, इसलिये उनको मैं भैया भी नहीं कहता था। दूसरे उनकी सतरंगी दुनिया और उसकी अतरंगी बातें।
वो गाँव से कुछ महीने पहले ही शहर आये थे उनके पास गाँव की उस आज़ाद ज़िन्दगी के तमाम दिल-फ़रेब क़िस्से थे जिसे मैंने सिर्फ़ कहानियों में पढ़ा था या फ़िल्मों में देखा था जिनमें खेती, बाड़ी, पोखरा-तालाब, मेला-ठेला और उनके गाँव से एक मील दूर मिडिल स्कूल में पढ़ने की ढेरों रोमांचक कहानियाँ थीं। अब वो शहर के बॉयज़ इंटर कॉलेज में पढ़ते थे—जहाँ फ़िल्म, लड़ाई-झगड़ा और दादागिरी के तमाम आख्यान वो रोज़ रात को मुझे सुनाते थे, मेरे लिये ये बेहद रोमांचित करने वाली बात थी कि वो एक पीरियड एक कमरे में पढ़ते थे और दूसरा दूसरे कमरे में और एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाते हुए वो पीरियड मिस भी कर देते थे।
कोई नहीं पूछने वाला; जितना मर्ज़ी हो पढ़ो या बिल्कुल मत पढ़ो। जबकि इसके उलट हमारा स्कूल प्रार्थना के बाद मेन गेट बंद हो जाता था तो हमें अपने सारे पीरियड एक ही बेंच पर बिताने पड़ते थे। कमरे से बाहर हम पीटी क्लास या इंटरवल में ही निकल पाते थे और विशेष अनुमति लेकर शौचालय जा सकते थे। कोल्हू के बैल की तरह नीरस, उबाऊ ज़िन्दगी थी।
दिसम्बर के किसी दोपहर में स्कूल-कॉलेज से लौटकर हमने साथ खाना खाया। फिर खटमल निकालने के लिये महल्ले की सड़क पर, घर के बाहर डाली गयी चारपाई पर हम लूडो खेलने लगे। लूडो की चालों के खेल के दौरान ही मेरा और बिन्नू का किसी बात पर झगड़ा हो गया। दादा ट्यूशन पढ़ने गए थे। बिन्नू से मेरा झगड़ा इतना बढ़ गया कि घर की बाहर की सड़क पर मारपीट शुरू हो गयी।
मारपीट, कुश्ती में बदल गयी और फिर पटकम-पटकाई भी होने लगी।
बिन्नू मुझसे बड़े भी थे और बलशाली भी। जल्द ही उन्होंने मुझ पर क़ाबू कर लिया और मेरे सीने पर चढ़कर बैठ गए। मैं ज़मीन पर पड़ा हूँ, बीच सड़क पर वो मेरे सीने पर चढ़े बैठे हैं। महल्ले के लोग तमाशा देखने लगे। पहले कुछ लोगों ने हमें छुड़ाने का यत्न किया लेकिन पकड़ ढीली होते ही मैं बिन्नू पर हमलावर हो जाता। जब लोग छुड़ाने में असफल हो गए तो घर के अंदर अनु दीदी को ख़बर दी गयी जो हम लोगों को खाना-पानी देने के बाद सो गयीं थीं।
हल्ला-गोहार बढ़ा तो फिर अनु दीदी बाहर निकल कर आईं। वो जब आयीं तब बिन्नू मेरे सीने पर चढ़े बैठे थे। अनु दीदी ने आते ही उन्हें खींचा और ज़ोर से डपटा, “हटो बिन्नू, सड़क पर तमाशा लगा रखा है, महल्ले के सामने बेइज़्ज़ती करवा रहे हो, शर्म नहीं आती। इत्ते बड़े हो गए हो लेकिन अक़्ल धेला भर की भी नहीं है।” ये कहकर उन्होंने बिन्नू को खींचकर मुझसे अलग किया और खड़ा किया।
पता नहीं अनु दीदी इतनी बलशाली थीं या बिन्नू ने उनकी आज्ञा मानी लेकिन बिन्नू के अलग होते ही मैंने उनको एक खड़ी लात मारी। महल्ले वालों के सामने अपने से कमज़ोर और उम्र में छोटे लड़के से खड़ी लात पड़ने से बिन्नू ने ख़ुद को अपमानित महसूस किया, वैसे भी महल्ले में उनकी छवि दादा टाइप के लड़के की थी और लोग उन्हें बिन्नू दादा भी बुलाते थे भले ही उपहास में ही सही।
लात पड़ने से बौखलाए बिन्नू फिर मुझ पर झपटे लेकिन इस बार मैं सतर्क था। हालाँकि बिन्नू जब तक मुझ तक पहुँचते तब तक अनु दीदी ने झपट कर उन्हें पकड़ लिया। बहुत प्रयास के बावजूद बिन्नू मुझ पर वार करने में सफल नहीं हुए।
बिन्नू को हमलावर होने के लिये कसमसाते देखकर अनु दीदी ने उनके हाथों को जकड़ लिया। बिन्नू के हाथ जकड़े जाते ही मुझे सुअवसर मिल गया और और मैंने क्रोध और वेग से बिन्नू के मुँह पर मुक्कों की बरसात कर दी। लगातार सात-आठ मुक्कों से बिन्नू को बहुत चोटें आईं, अनु दीदी की मज़बूत पकड़ से छूट ना पाने का मलाल और मेरे घातक मुक्कों के प्रहार से बिन्नू चीत्कार कर उठे और रोने लगे। उन्हें रोता देखकर मेरे कलेजे को ठंडक पड़ी और मैंने अपनी चोटों को भुलाकर ठट्ठा मारते हुए कहा, “अब पता चला बेटा, शेर से भिड़ने का नतीजा क्या होता है?”
अनु दीदी बिन्नू को रोते और मुझे ठहाके ठट्ठा लगाते देख बहुत असहज हो गयीं। उन्होंने मुझे 4-5 चाँटे जड़ते हुए कहा, “नालायक, साँड़ की तरह लड़ रहे हो तुम दोनों। और तू ख़ुद को बड़ा शेर समझता था तो ज़मीन पर क्यों पड़ा था? वो तो मैंने बिन्नू के हाथ पकड़ लिए थे तो तूने उसे इतना मारा। बेचारे का हाथ ना पकड़ा होता मैंने तो वो तेरी चटनी बना देता। अंदर चलो तुम दोनों।”
अनु दीदी के चाँटों से मेरा दिमाग़ भन्ना गया, पहले बिन्नू ने पटक दिया सड़क पर और फिर अनु दीदी ने चाँटे जड़ दिए। ये दोनों काम महल्ले वालों के सामने हुए। लोग मुझे देखकर मुस्कुरा भी रहे थे। मुझे दोहरा अपमान महसूस हुआ। मुझे अपने अपमान से उबरने का कोई ज़रिया नहीं मिला तो मैंने अनु दीदी पर हाथ चला दिया। मैंने हमला तो कर दिया लेकिन इस बार वो सतर्क थीं ऐसे किसी अप्रत्याशित हरकत के लिये।
उन्होंने मेरा हाथ वार सफल होने के पहले ही पकड़ लिया और अपने मेरे दोनों हाथों को मोड़कर मेरी ही पीठ पीछे ले जाकर कसकर पकड़ लिया और मुझे ना सिर्फ़ क़ाबू में कर लिया बल्कि बेबस भी कर लिया।
मैं बहुत छटपटाया लेकिन अनु दीदी की मज़बूत पकड़ से छूट नहीं पाया। पहले बिन्नू ने पटका और फिर अनु दीदी ने पीटा वो भी पूरे महल्ले के सामने। बड़ी थीं तो क्या अनु दीदी थीं लड़की ही। एक लड़की द्वारा बीच सड़क पर महल्ले वालों के समक्ष पिटने से मैं आत्मग्लानि से भर उठा। एक मामा की बेटी दूसरे चाचा का लड़का, कुछ भी हो थे तो दोनों मेहमान ही। मैं अपने ही घर पर मेहमानों द्वारा पीटा जाऊँ, वो भी बाहरी लोगों से।
जकड़े रहने के दौरान ही मैंने तय किया कि इन दोनों को मैं घर में रहने नहीं दूँगा, मम्मी-पापा से कहकर उन दोनों को इस घर से निकलवा दूँगा।
मम्मी-पापा से अपनी बात मनवाने के लिये मैंने गाँव जाने का निश्चय किया। थोड़ी देर मौन रहने के बाद अनु दीदी ने मुझे छोड़ दिया। उनकी गिरफ़्त से मैं छूटा तो अनु दीदी और बिन्नू चौकन्ने हो गए कि मैं शायद फिर हमला करूँ।
मुझे हमला तो करना था मगर समस्या पर नहीं बल्कि उसकी जड़ पर, सो उनसे थोड़ी दूर जाने के बाद मैंने कहा, “अब मैं इस घर में वापस लौटकर तभी आऊँगा जब तुम दोनों को निकलवा दूँगा।”
ये कहकर मैंने उनकी प्रतिक्रिया तक लेना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने भी मेरी बात को तवज्जोह नहीं दी होगी क्योंकि अगर कुछ प्रतिक्रिया करते तो मुझे सुनायी ज़रूर देता।
महल्ले से निकलकर पॉवर हाउस होते हुए मैं अपने स्कूल के पीछे दूर देहात तक चला गया, वहाँ कुछ बच्चे मछली मार रहे थे। स्कूल ख़त्म होने के बाद मैं अक्सर मछली का शिकार देखने जाया करता था और आज तो काफ़ी फ़ुर्सत थी।
मैं वहाँ मछली का शिकार काफ़ी देर तक देखने के मूड में था। आमतौर पर वो लोग शाम ढलने तक मछली का शिकार किया करते थे। लेकिन उन लड़कों ने अपना शिकार आधे घण्टे में ही समाप्त कर लिया और अपना जाल-काँटे लेकर चल पड़े। दरयाफ़्त करने पर पता चला कि उनके महल्ले में वीडियो लगने वाला है जिसमें मिथुन की फ़िल्मों के दो कैसेट चलेंगे।
वीडियो और मिथुन की फ़िल्मों का नाम सुनकर मेरा भी मन हुलस उठा। अव्वल तो मल्लाहों की बस्ती में वीडियो देखने जाना मेरी शान के ख़िलाफ़ के ख़िलाफ़ था दूसरे उन लड़कों ने मुझे वीडियो देखने के लिये निमंत्रित भी तो नहीं किया था। साथ चलने को कहता तो कहीं इंकार करते हुए झिड़क देते तो?
मछली का आकर्षण समाप्त होते ही मैंने घर जाने का सोचा। मेरा ग़ुस्सा अब शांत हो चुका था, लेकिन फिर सोचा कि किस मुँह से घर वापस जाऊँगा, इतनी डींगें हाँक कर निकला था और तुरन्त वापस।
कुछ देर घर वालों को परेशान होने दो, खोजेंगे मुझको, नहीं मिलूँगा, तब मेरी बात की वैल्यू पता लगेगी। इसलिये मैंने तय किया कि अँधेरा होने के बाद ही घर जाऊँगा।
टाइम पास करने के लिये मैं नदी के तटबन्ध पकड़कर चलने लगा और अनायास चलता ही गया। पाँव में थकान महसूस होने और तटबन्ध की समाप्ति पर मैंने पाया कि मैं बहराइच जाने वाली मुख्य सड़क पर आ गया हूँ। और वहाँ सड़क पर लगे बोर्ड को देखा तो बलरामपुर वहाँ से पाँच किलोमीटर की दूरी दिखा रहा था यानी कि मैं शहर से काफ़ी दूर निकल आया था और गाँव पहुँचने की आधी दूरी तय कर चुका था।
मेरा ग़ुस्सा तो अब शांत हो चुका था लेकिन बिना कुछ धौंस जमवाये शहर वापस लौट आना अपनी शान के ख़िलाफ़ होता।
सो मैंने गाँव की राह ली, उन दिनों सड़कों पर वाहन बहुत कम चलते थे। कभी-कभार कोई बस या सवारी वाली कमांडर जीप चला करती थी, जिसमें बाहर भी तीन-चार सवारियाँ लटकी रहती थीं। सो पैदल मैंने गाँव का रास्ता नापना शुरू किया। बमुश्किल एक किलोमीटर चला होऊँगा कि पैर दुखने लगे। मैंने हाथ दिया तो दो दूधवाले एक साथ रुके।
मैंने आत्मविश्वास से मगर नरम स्वर में पूछा, “कहाँ तक जाओगे ग्वाल? मुझे भी छोड़ दो थोड़ी दूर बगाही गाँव तक।”
“जीप पकड़कर चले जाओ,” किसी एक ने उत्तर दिया।
मैं चुप रहा।
वो सब समझ गए कि पैसे होते तो जीप ना पकड़ता?
एक चौड़ी मूँछों वाले ग्वाल ने मुझे साइकिल पर आगे बिठाया और साइकिल हाँक दी। घोपियापुर तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने मेरी रामकथा और घर से भागने का कारण जान लिया।
घोपियापुर में उन्होंने मुझे साइकिल से उतारा और कहा, “यहाँ से कोस भर उत्तर मेरा गाँव है, मुझे यहीं से कटना है। तुम ठाकुर के अच्छे घर के लड़के हो, भागना-बिगड़ना ठीक नहीं, घर लौट जाओ बलरामपुर। किराया ना हो तो मैं दे दूँ और जीप पर बैठा दूँ।”
“नहीं मैं नहीं जाऊँगा बलरामपुर, किराया-भाड़ा की बात नहीं,” मैंने कड़े स्वर में कहा।
उसने मुझे देखा, मेरी अकड़ पर चकित हुआ और फिर अपने साथियों के साथ चला गया।
मैं फिर पैदल हो गया। लेकिन थकान से राहत थी सो फिर चल पड़ा।
थोड़ी दूर चला तो फिर पैर दुखने लगे। रुक गया, एक दो जाती हुई मोटरसाइकिलों को हाथ दिया, मगर किसी ने नहीं रोका।
शाम ढल रही थी और मेरी चिंता भी बढ़ रही थी। सहसा मुझे कुछ ख़्याल आया। मैंने जेब टटोली तो अठन्नी निकल आयी। मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैंने इस पैसे से कुछ करने का सोचा।
मैं कुछ सोच ही रहा था कि सहसा एक कमांडर जीप आकर रुकी उसमें से लटकी हुई तीन सवारियाँ उतरीं। सवारियों और जीप के कण्डक्टर-कम-क्लीनर के बीच थोड़ी देर किराए को लेकर चख-चख हुई और उसके बाद दोनों पक्षों ने एक दूसरे को देख लेने की धमकी दी।
सवारियों से जूझते कंडक्टर को देख मैं थोड़ा सहम गया लेकिन कंडक्टर से जी कड़ा करके मैंने पूछा, “गिधरैया तहसील तक जाना है कितना रुपया लोगे?”
“एक रुपये।”
उसने तल्ख़ स्वर में जवाब दिया।
“पचास पैसे में कहाँ तक ले जाओगे?” मैंने जी कड़ा करके पूछा।
“कहीं नहीं,” उसने कहा और अपनी बीड़ी जलाने लगा। बीड़ी सुलगाकर वो जीप पर लटक गया। उसने तेज़ स्वर में ड्राइवर कहा “चलो, हाँको।”
और मुझे देखकर बोला, “आओ लटक लो, चकवा उतर जाना।”
उसके कहते ही मैं गति पकड़ रही जीप पर चढ़कर पीछे लटक लिया। रास्ते भर वो बाक़ी सवारियों से बकझक करता रहा लेकिन हर बार उसने बीड़ी का धुआँ मेरे कान और मुँह पर उगला क्योंकि मैं ही उसके सबसे पास लटका हुआ था।
उसकी इस बेजा हरकत पर मैं मारे क्रोध के अंगारों पर लोटता रहा मगर क्या करता उसे बरदाश्त करना ही था क्योंकि किराए में अठन्नी कम थी।
चकवा पहुँच कर उसने सारी सवारियों को उतारा लेकिन मुझे उतरने को नहीं कहा। मैं इस बात की प्रतीक्षा ही कर रहा था कि वो कब मुझसे उतरने को कहे। उसने बाक़ी उतर रही सवारियों से तू-तू-मैं-मैं की। एक दो को ये कहकर उतार दिया कि यहीं तक का किराया दिया है, आगे एक क़दम नहीं ले जाऊँगा।
लेकिन उसने मुझसे उतरने को नहीं कहा तो मैं लटका ही रहा। सवारियों से लड़-भिड़कर फिर वो चीखा, “चलो-हाँको।”
जीप चल पड़ी, थोड़ी दूर बाद ही गिधरैया तहसील आ गयी।
“रोको,” कंडक्टर पीछे से चीखा और फिर मुझे देखकर तल्ख़ स्वर में बोला, “उतरो, अठन्नी में इकौना जाओगे क्या? चकवा ही उतरना था ना तुम्हें, यहाँ तक आ गए।”
मैं अपनी मंज़िल तक पहुँच चुका था, सो चुप रहना बेहतर समझा। उसे निकालकर अठन्नी दे दी।
उसने बड़बड़ाते हुए कहा, “सूट-बूट इतना जेब में इकन्नी नहीं। दुबारा मिलना तो अठन्नी दे देना। यहाँ तक का बैठकर आने का डेढ़ और लटककर आने का एक रुपया होता है समझे बाबूजी।”
ये कहते हुए फिर वो कर्कश स्वर में चीखा, “चलो-हाँको!”
और उसके ऐसा कहते ही जीप चली गयी।
पंद्रह मिनट में मैं घर पहुँच गया।
शाम ढल गयी थी, कौंरा (अलाव) और चूल्हे के धुएँ से पूरा घर भरा हुआ था।
मुझे देखते ही सब स्तब्ध। मैंने पूरा हाल कहा, कुछ नमक-मिर्च लगाकर कहा।
लेकिन कोई भी मेरे इस तरह बिना बताए घर से भाग आने की हरकत से सहमत नहीं हुआ अलबत्ता सब फ़िक्रमंद हुए कि मेरे बिना बताए घर से भाग आने के कारण बलरामपुर में सब परेशान हुए होंगे।
मम्मी, पापा, दादा, बड़े चाचा आपस में बड़ी देर तक मेरे सही-ग़लत पर बहस करते रहे और जिसका नतीजा ये हुआ कि अंत में मेरी ही ग़लती मानी गयी और पिटाई भी हुई। पैर तो दुख ही रहे थे, गाल-पीठ भी घूँसों औऱ चाँटों से दुखने लगे।
पापा और चाचा मेरी लम्बी पिटाई करने के मूड में थे लेकिन मम्मी ने बचा लिया। जब उनको मेरे सफ़र के बारे में पता लगा; वो सब चिंतित थे कि बलरामपुर में बच्चे परेशान होंगे और मुझे ढूँढ़ रहे होंगे कि मैं कहाँ चला गया?
मुझे भी अपनी थोड़ी सी ग़लती का एहसास हुआ लेकिन अब होने से भी क्या?
इन्हीं सब बातों में अँधेरा हो गया इसी बीच मुझे चाय-पानी भी दी गयी। सब डरे हुए थे कि मेरे बलरामपुर में ग़ायब हो जाने के अपराध बोध या डर के मारे वहाँ रह रहे बाक़ी बच्चे कोई ग़लत क़दम ना उठा लें। वो भी घर से भाग जाएँ या और कोई अप्रिय क़दम उठा लें तो?
निर्णय हुआ कि मुझे लेकर तुरन्त बलरामपुर जाया जाये। सवारी तो मिलने से रही इतनी रात को, गन्ने का ट्रक या ट्रॉला मिल सकता है।
तत्काल मुझे लेकर बड़े चाचा गिधरैया चल पड़े। सर्दी की रात में जूते से लेकर, मफ़लर में लिपटे हम चाचा-भतीजा बहराइच से बलरामपुर जाने वाले ट्रकों को हाथ देते लेकिन कोई ना रोकता था। रात के क़रीब साढ़े नौ बज गए, तब तक बलरामपुर की तरफ़ से आ रहा एक गन्ने का ट्रक रुका। ट्रक रुका लेकिन हमें उसमें दिलचस्पी ना हुई क्योंकि ये ट्रक बलरामपुर से आ रहा था और हमें बलरामपुर जाना था। लेकिन सर्दी और कोहरे की ठिठुरती रात में ट्रक से कोई दरवाज़ा खोलकर उतरा तो हमने भी अनायास उधर देखा। चाचा ने कहा, “राजन।”
“हाँ,” उन्होंने पुष्टि की।
ये मेरे (दादा) बड़े थे। जो बलरामपुर से इस जाड़े-पाले में मुझे तलाशते पहुँच गए थे।
मेरी उम्मीद की विपरीत दादा ने मुझे तो ना तो डाँटा-फटकारा और ना ही झापड़ मारा।
चाचा और दादा के बीच थोड़ी देर मन्त्रणा हुई। उन दोनों ने इतनी रात को बलरामपुर जाने का विचार त्याग दिया और हम सब बगाही गाँव लौट गए।
रात को हम सब खा-पीकर लेटे तो मैं सोच रहा था कि अबकी अगर किसी ने मुझे बलरामपुर में मारा तो मैं भागकर दिल्ली जाऊँगा तब पता लगेगा इन लोगों को। ये सब भागने के मंसूबे बनाते-बनाते ना जाने कब मेरी आँख लग गयी थी।
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