टू इन वन

दिलीप कुमार (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

खिड़की से कई सारे क़दमों की आमद-रफ़्त और नारों की आवाज़ें सुनकर मैं घर से बाहर आ गया। गेट खोलकर देखा तो खारे हज़रात अपने कुछ चेले-चपाटों के साथ तख़्तियाँ उठाये नारे लगा रहे थे— 

“हम लेकर रहेंगे आज़ादी।” 

मुझे सामने कर्मशिशिर खारे महोदय ने हाथ ऊँचा करके तख़्ती लहराते हुए अट्टहास किया “आज़ादी।” 

कर्मशिशिर खारे साहब फ़िलहाल किसी स्थायी रोज़गार में नहीं थे मगर बहुधंधी आदमी थे। हज़रात ने प्रूफ़ रीडिंग, सम्पादन, टाइपिंग, रिपोर्टिंग, विज्ञापन एजेंट, सहायक सम्पादक, अख़बार पत्रिका का रजिस्ट्रेशन करवा कर उसे निकालने, साहित्यिक समारोह आयोजित करने से लेकर वह सारे ही काम कर डाले थे जो भी साहित्य के कमाऊ पक्ष से जुड़े थे। उन्होंने म्युनिसिपलटी में अपने सम्बन्धों औऱ साठ-गाँठ के ज़रिये महल्ले के पार्क के पास एक कमरा भी एलाट करा लिया था। जिस पर उन्होंने “जन चेतना एवं जनाधिकार संघर्ष समिति” का बोर्ड लगा रखा है। ये आइडिया उन्हें एक बार अपने लखनऊ प्रवास से मिला था। जब वह एक सरकारी साहित्यिक आयोजन में भाग लेने लखनऊ गए थे। तब वहीं उन्हें पता लगा कि म्युनिसिपल ऑफ़िस से मज़दूरों के नाम पर क्रांति, संघर्ष आदि के लिये किसी बढ़िया कमर्शियल जगह पर दुकान या ज़मीन एलाट करवाया जा सकता है। शर्त ये है कि आपके प्रार्थना पत्र में मज़दूरों के नाम की क्रांति और संघर्ष की नेक नियती का उल्लेख हो। एक बार जगह या दुकान एलाट हो जाये तो फिर उस जगह पर जो चाहे बेचो, पटरा-बल्ली से लेकर किताब और कोल्डड्रिंक भी। बस शर्त ये है कि दो-चार पोस्टर उस जगह पर लेनिन, माओ, चेग्वारा, फिदेल कास्त्रो के लगे हों। इन सबके साथ में कुछ क्रांति के नारे लिखे हों और कुछ क्रांतिकारी साहित्य भी हो। लखनऊ की रोशनाई परमदर्शी नामक कवयित्री ने ऐसी आवंटित दुकान पर तो कमाल ही कर रखा था। शहर के प्रमुख नुक्कड़ पर जो दुकान उन्हें आवंटित हुई थी। उस दुकान-सह-क्रांति कार्यालय में उन्होंन पूँजीवाद के विरोध वाले पोस्टरों के सामने बहुराष्ट्रीय कम्पनी का फ़्रिज रखकर अमेरिका का पेप्सी और कोका कोला बेचना शुरू कर दिया था। ऑफ़ द रिकार्ड कवयित्री महोदया बताती हैं कि क्रांति की बातों से दिमाग़ को ख़ुराक मिल जाया करती है और पेप्सी कोला की बिक्री से पेट भर जाया करता है। लखनऊ में तो कवयित्री के इस विचारों के घालमेल के कारण उन्हें “टू इन वन” भी कहा जाता है। कर्मशिशिर खारे भी लखनऊ में वक़्त निकालकर रोशनाई परमदर्शी से मिले। वह उनसे बहुत प्रभावित हुए। 

खारे महोदय ने लखनऊ में उनके “टू इन वन” मॉडल की बारीक़ियाँ सीखीं और अपने शहर में लौटते ही उस योजना को सफल करने के लिये दिन रात दौड़ने लगे। लखनऊ जितनी तो सफलता तो उन्हें नहीं मिली पर क्रांति, सुधार, मज़दूर एवं नारी उत्थान के लिये उन्होंने एक कमरा आख़िर अपने एनजीओ के नाम से नगरपालिका से आवंटित करा ही लिया। उन्होंने उस पर एक बेहद ज़ोरदार बोर्ड उस पर लगाया जिसका नाम रखा “जन चेतना एवं जनाधिकार समिति”। पेंटर ने जब बोर्ड बनवाने के बाद उनसे पैसे माँगे तो खारे महोदय ने पैसे देने से इंकार करते हुए पेंटर को समझाया, “ये कोई मेरा निजी काम थोड़े न है। ये तो क्रांति के वास्ते है मज़दूरों कामगारों की भलाई की ख़ातिर है। इस जमात में तो तुम जैसे लोग शामिल हैं तो तुम भी इस क्रांति को आगे बढ़ाने में सहयोग करो। ये तुम्हारा भी तो काम है और अपने काम का कोई पैसा माँगता है क्या?” 

उनकी बातें सुनकर पेंटर ने माथा पीट लिया और अपने को कोसते हुए कहा, “मुझे पहले ही लोगों ने कहा था कि आप की बातें तो बड़ी-बड़ी हैं मगर मज़दूरी नहीं देते किसी की पूरी।” 

खारे महोदय ने उसे घूरा और दुकान के अंदर चले गये। 

पेंटर ज़ुबान से क्रांति फ़िल्म का गाना “तुम तुम तरम-तरम” गाता हुआ मगर मन ही मन कर्म शिशिर खारे को गालियाँ देता हुआ चला गया था। उसके बाद कर्म शिशिर खारे ने भी वह कमरा किराए पर एक टेंट वाले को दे दिया जिसमें टेंट वाले ने अपना गोदाम बना दिया। क्रांति के बैनर-पोस्टर और साहित्य की की जगह अब उस कमरे में करछा, भगोना और डोंगा भरा रहता है। उस कमरे पर दिन भर ताला लटका रहता है और कमरे की बाहरी दीवारों पर क्रांति के पोस्टर और बैनर लटकते रहते हैं। बिल्कुल लखनऊ मॉडल की तरह टू इन वन सर्विस। खारे साहब दिन भर संघर्ष शुल्क के नाम पर रसीदें कटवाते रहते हैं ये और बात है कि शहर में अब सब उन्हें और उनके संघर्षों को भी जान गए थे। उस पेंटर औऱ उसके जैसे उन तमाम लोगों के मारफ़त जिनसे या तो उन्होंने काम करवाया या था या उनसे कोई सामान लिया था औऱ पैसे नहीं दिए थे। शहर में तो माली इमदाद और लेन-देन शायद ही कोई उनसे करता हो। फ़ेसबुक पर भी उनके जन चेतना एवं जनाधिकार संघर्ष समिति का पेज निरन्तर अपडेट होता रहता है। जिसमें मज़दूरों और कामगारों के जीवन को बदलने के लिये क्रांति की महती आवश्यकता पर बल देते हुए आर्थिक सहयोग की अपील की जाती रहती है। उनकी ऑफ़लाइन अपीलें तो सब जान चुके थे। सो अनुदान तो शायद उन्हें कोई धेला भर भी न देता था मगर ऑनलाइन अपीलों में कुछ भूले-भटके लोग आ जाते थे और फ़ेसबुक पेज पर दिए गए उनके नारों से प्रभावित होकर उनके एनजीओ के खाते में कुछ रक़म भेज दिया करते थे। 

मैंने उन्हें अभिवादन किया तो उन्होंने मुझे ललकारा, “आइए आइए आप भी हमारा साथ दीजिये। इस संघर्ष में आज़ादी की जंग में हमें आपकी ज़रूरत है। आज हम सरकार की दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट करने जा रहे हैं। 

“हक़ है हमारा आज़ादी
हम लेकर रहेंगे आज़ादी” 

उनके नारे समाप्त हुए तो मैंने उनसे तनिक सकुचाते हुए पूछ ही लिया, “कैसी आज़ादी महोदय। देश को आज़ादी मिले हुए सात दशक से ज़्यादा बीत चुके हैं। अब आज़ाद देश में आप किससे आज़ादी माँग रहे हैं?"

कविवर ने तमकते हुए कहा, “तुम्हे ख़तरे नहीं दिखते क्या? अरे ब्राह्मणवाद से, मनुवाद से, फ़ासीवाद से आज़ादी। साम्प्रदायिकता से आज़ादी। पूँजीवाद से आज़ादी। हर क़िस्म की मिले आज़ादी। अरे हक़ है हमारा आज़ादी।” 

मुझे उनको टोकना पड़ा, “बस करिए कविवर। एक साथ इतनी ज़्यादा आज़ादी की क़िल्लत क्यों आन पड़ी। देश में कोई पद क्या किसी की जाति-धर्म देखकर दिया जा रहा है क्या? देश संविधान से नहीं चल रहा है क्या? आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?" 

“देखो माना कि तुम लिखते-पढ़ते हो। मगर तुम अभी बच्चे हो, अक़्ल और अनुभव से कच्चे हो। तुमको दिखता नहीं क्या कि यह देश पूँजीपतियों के हाथ में जा रहा है। इसलिए हम प्रोटेस्ट कर रहें हैं। आप भी आइए देश मेंं फैल रही तानाशाही का हमारे साथ विरोध कीजिये,” उन्होंने उँगलियाँ नचाते हुए कहा।  

फिर उन्होंने मेरी तरफ़ उँगली तानते हुए कहा, “जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।” 

उनके इस सीधे वार से मुझे ग़ुस्सा आ गया पर उनके सीनियर होने का लिहाज़ करते हुए मैंने उन्हें उनका लेखकीय धर्म याद दिलाया, “पर विरोध का दामन तो आपने लखनऊ से लौटने के बाद ही थामा है कुछ बरस पहले ही। आप तो विरोध की कविताएँ हाल ही में लिखना शुरू किए हैं। जीवन भर तो आप मीरा और कबीर पर लिखते रहे। जब देश काफ़ी कठिनाई में था तब आप लोगों को भक्ति सिखा रहे थे। अब देश में भक्ति की बयार बह रही है तो आप प्रोटेस्ट का झंडा बुलंद किये बैठे हैं। ऐसा बदलाव क्यों कविवर?” 

“मीरा और कबीर की भक्ति अलग थी। हम तो उसी टाइप का भक्त लोगों को बनाना चाहते हैं। पर आजकल तो लोग अंधभक्त बन रहे हैं। फ़ासिस्ट लोग भगवान का नाम ले रहे हैं। उनको भक्ति का असली मर्म पता ही नहीं,” उन्होंने मुझे समझाया। 

“मीरा भी कृष्ण की भक्ति में लीन होकर दीन दुनिया भुलाकर हमेशा, ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई’ कहा करती थीं। वैसे ही आज के लोग अपने गिरधर गोपाल को खोज रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है?” कविवर से मैंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की। 

“तो गिरधर गोपाल को मन में रखो ना। भक्ति तो मन से ही होती है फिर उनके लिये तुम लोग इतना बवाल, मुकदमेबाज़ी क्यों करते हो? इस बार भी कृष्णजी का मुक़द्दमा दायर कर दिया। पहले इतने दिन राम जी का मुक़द्दमा दायर कर रखा था। कितना नुक़्सान होता है देश का इससे मालूम है तुमको? रिलीजन अफ़ीम होता है तुमको मालूम है कि नहीं?” उन्होंने आँखें तरेरते हुए मुझसे कहा। 

उनकी बात सुनकर थोड़ा हँसी आई मुझे । 

“तो डेमोक्रेसी में धरना-प्रदर्शन और माँग के बाद भी अगर किसी की बात नहीं सुनी जा रही है तो अदालत का ही रास्ता बचता है ना। अब अदालत न्याय कर ही देगी तो उसे सबको मानना ही पड़ेगा चाहे पक्ष में हो या न हो। पसन्द हो या न हो। डेमोक्रेसी में मसले ऐसे ही सुलझाए जाते हैं कविवर। और सुनिए हुज़ूर-ए-आला जो हज़रात ये फ़रमा गए थे कि रिलीजन अफ़ीम होता है वह भी एक रिलीजन को फ़ॉलो करते थे। ये तो वही मिसाल हो गई कि जात-पाँत न मानने वालों की भी एक जात होती है,” उनसे विनम्र स्वर में मैंने कहा। 

उन्होंने मुझे हिक़ारत से देखा और झल्लाते हुए कहा, “तुम पढ़ा लिखा होकर भी गोबर जैसा बुद्धि रखता है। तुम ही नहीं आजकल के काफ़ी सारे नए लोग भी पढ़-लिखकर अंधभक्त हो गए हैं। क्या फ़ालतू का लेखक है तुम लोग? अरे लेखक का मतलब है सत्ता का विरोध में होना, प्रोटेस्ट करना और हर बात का विरोध करना। पर तुम तो सरकार का तलवे चाटता है। लेखक मतलब विरोध में होना होता है,” यह कहते हुए वह तमतमा उठे। 

“तो आपका मतलब लेखक का मतलब विरोधी होना होता है बात चाहे सही हो ग़लत,” मैंने भी अपनी जिज्ञासा फिर उनके सामने रख दी।

“चुप तुम अंधभक्त हो चुका है। फ़ासिस्ट हो गया तुम भी। ग़रीब मज़दूर किसान का विरोधी हो गया है तुम भी। हम जाता है हमको ग़रीबों के हक़ में और पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ मोर्चा निकालना है।” 

यह कहक़र वह गुनगुनाते लगे—

“इंक़िलाब लाना है साथी 
इंक़िलाब लाना है 
पूँजीपतियों और फ़ासिस्टों 
को अब मार भगाना है।” 

यह गाते हुए उनका क़ाफ़िला बढ़ रहा था। मैं उन्हें मज़दूरों और क्रांति के नारों से लिखी तख़्तियाँ लेकर एक हाथ से उठाये हुए जाते देख रहा था, दूसरे हाथ में उनका मोबाइल फोन चमक रहा था। 

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